डाॅ.बचन सिंह सिकरवार
अभिनय के बादशाह, ‘टेजेडी किंग’ आदि की उपाधियों से नवाजे गए अन्तिम स्तम्भ ‘दिलीप कुमार’ का निधन से उस युग का अवसान हो गया, जिसे कभी ‘राजकपूर, दिलीप कुमार, देवानन्द का युग’ कहा जाता था। लेकिन उनके रहते हुए वह युग बना हुआ था। उस युग के अभिनेताओं की न सिर्फ अभिनय की अपनी-अपनी शैली थी ,वरन् उनकी चाल-ढाल से लेकर संवाद बोलने का ढंग और रहने-सहने का अन्दाज भी जुदा-जुदा था। दिलीप कुमार काफी समय से अस्वस्थ थे। उनकी स्मृति क्षीण भी हो चुकी थी। वह वृद्धावस्था के कई रोगों से भी ग्रस्त थे,जिनका मुम्बई के हिन्दुजा अस्पताल में गत 7जुलाई,सुबह लगभग 7.30बजे निधन हो गया। दिलीप कुमार ने जीवन्त अभिनय की विशिष्ट शैली साथ-साथ संवाद अदायगी भी लाजवाब थी।वे भाषा-बोली और शब्दों के उच्चारण पर विशेष ध्यान रखते थे,इससे फिल्म अपने चरित्र का वास्तविक बना देते थे। वे जितनी अच्छी उर्दू,फारसी बोलते थे,वैसी किसी आंचलिक बोली को खूबसूरती से बोलते थे। उन्होंने सबसे पहले भारतीय सिनेमा को पारसी थियेटर की ऊँची/तेज आवाज में संवाद बोलने की जगह चरित्र और स्थिति के अनुरूप संवाद को बोलने की शुरुआत की। उनमंे चेहरे की भावभंगिमा से बहुत कहने और व्यक्त करने की विलक्षण प्रतिभा थी। वह चरित्र में स्वयं को पूरी तरह ढाल कर उसे जीवन्त बना देते थे। उनका अभिनय का अभिनय नहीं, यथार्थ दिखायी देता था। इसके लिए वह कठोर परिश्रम करते थे।उनका निरन्तर सीखने और विभिन्न विषय की पुस्तकें पढ़ने का बेहद शौक था। व्यक्तिगत जीवन में भी दिलीप कुमार व्यवहार अत्यन्त शालीन था। वह गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले थे और दूसरों के मददगार भी थे। अपने फिल्मी सफर में दिलीप कुमार ने विविध भूमिकाओं को जीवन्त करके दिखाया। इनमें प्रेमी नाकाम/विफल प्रेमी(देवदास), मजदूर नेता(पैगाम), मुगल शाहजदा सलीम(मुगल-ए-आजम),, तांगे वाला(नया दौर), श्रमिक नेता(सगीना महतो),खिलदड़ युवा(राम और श्याम),, पुलिस अधिकारी(शक्ति), क्रान्तिकारी नेता(क्रान्ति), न्यायाधीश दिलीप कुमार का का जन्म 11दिसम्बर,सन् 1922 पेशवार (वर्तमान में पाकिस्तान )में हुआ था। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार बम्बई(मुम्बई), आ गया और उनके पिता फलों का व्यवसाय करते थे। लेकिन कुछ कारणों से नासिक के देवालाली में रहने लगा। फिर यहाँ से बम्बई में बस गए। यहीं से उनकी शिक्षा अंजुम-ए-इस्लाम हाईस्कूल, विल्सन और खालसा काॅलेज में हुई। यही कार्य दिलीप कुमार भी करने लगे। दिलीप कुमार के परिवार ने पाकिस्तान न जाने की वजह स्वयं दिलीप ने यह बतायी कि वह पाकिस्तान जाते तो उनकी बहनों को बुर्कों में कैद होकर रहना पड़ता और भाइयों को बागों तक सीमित रह जाते, वह ऐसा नहीं चाहते थे। उन्हें भारत ही पसन्द था और है। दिलीप कुमार छह बहन और चार भाई थे, इनमें से दो भाई और चार बहनों का जन्म भारत में ही हुआ । दिलीप कुमार फिल्मी दुनिया में भी संयोगवश आए। एक बार दिलीप कुमार काम के सिलसिले में नैनीताल गए थे, वहाँ डाॅ.मथानी से नौकरी लगवाने को अनुरोध किया, तब उन्होंने फिलहाल तो उनके पास कोई नौकरी नहीं है। उस समय वह बाम्बे टाॅकीज की मालकिन और प्रख्यात अभिनेत्री देविका रानी से मिलने जा रहे हैं। तब दिलीप कुमार भी उनके साथ चले गए, जहाँ देविका रानी को उनका लुक बहुत पसन्द आया।उन्होंने दिलीप कुमार को फिल्मों में काम करने और उन्हें 1250 रुपए प्रति माह देने वेतन देने का प्रस्ताव दिया,जो उस वक्त बड़ी रकम थी। लेकिन उन्हें उनका असली नाम ‘मोहम्मद युसूफ सरवर खान’ था। खुद उन्हें भी अपना यह नाम अच्छा नहीं लगता था। फिर वह अपने पिता से फिल्मों में काम करने की बात जाहिर होने देना भी नहीं चाहते थे। उसी दौरान देविकारानी ने उन्हें ‘वासुदेव’ ,‘दिलीप कुमार’ आदि नाम सुझाए। इनमें मो. यूसुफ सरवर खान को ‘दिलीप कुमार’ नाम पसन्द आया। सन् 1944 में उनकी पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा’ आयी,लेकिन दिलीप कुमार की पहली हिट फिल्म सन् 1947 में प्रदर्शित ‘जुगनू’ं थी। उसके बाद सन् 1948में ‘मेला’ और ‘शहीद’ आयीं। तत्पश्चात सन् 1949में उनकी फिल्म ‘अन्दाज’प्रदर्शित हुई। इसमें उनके साथ राजकपूर थे। यह फिल्म भी खूब चली। सन् 1954 में ‘दाग‘, सन् 1955 फिल्म ‘देवदास’, सन् 1956 फिल्म ‘आजाद’ प्रदर्शित हुई, इसमें मीना कुमार, प्राण,ओमप्रकाश आदि थे। दिलीप कुमार की ‘तराना’ की शूटिंग के दौरान अभिनेत्री मधुबाला से प्रेम हो गया, लेकिन मधुबाला के पिता विवाह के लिए राजी नहीं थे। यहाँ तक कि उन्होंने ‘नया दौर’ फिल्म की शूटिंग के लिए मधुबाला को भोपाल भी नहीं जाने दिया। इस पर बी.आर.चोपड़ा ने मधुबाला के स्थान पर बैजयन्तीमाला को ले लिया। इसके बाद उनके द्वारा मुकदमा दायर किये जाने पर दिलीप कुमार ने मधुबाला से बेइन्तहा मुहब्बत करने के बाद भी बी.आर.चोपड़ा के पक्ष में गवाही दी। इससे दोनों के मध्य दरार पैदा हो गई। 1958 में ‘मधुमती’ , ‘यहूदी’ ‘नया दौर’ प्रदर्शित हुईं। फिर सन् 1959में ‘पैगाम’ आयी। उसके बाद सन् 1960 में के.आसिफ की फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ आयी, जिसके निर्माण में 10वर्ष लगे थे ,जो भारतीय सिनेमा जगत् की बड़ी फिल्मों में से एक है। सन् 1961में दिलीप कुमार की फिल्म‘गंगा-जमुना’आयी,जिसमें उनके साथ बैजयन्तीमाला हिरोइन थीं। इसका निर्माण और उसकी कहानी भी स्वयं दिलीप कुमार ने लिखी थी। इस फिल्म में दिलीप कुमार का अभिनय, संवाद,गीत,संगीत,नृत्य बहुत अधिक लोकप्रिय हुए। सन् 1964 में उनकी फिल्म ‘लीडर‘ आयी, जिसकी कहानी भी दिलीप कुमार ने लिखी। इस फिल्म का मुकाबला राजकपूर की फिल्म ‘संगम‘से था। इन दिनों फिल्मों की हिरोइन बैजयन्ती माला थीं। बाद में 1966 में मधुबाला बीमार थीं,दिलीप कुमार उनसे मिलने गए,लेकिन इससे पहले उन्हें दफनाया जा चुका था। इसके बाद सन् 1966 में दिलीप कुमार का ‘सगीना महतो’ की शूटिंग के दौरान सायरा बानो से इश्क हो गया। उसी साल अपने से आधी उम्र यानी 22वर्षीय सायराबानो से निकाह कर लिया। हालाँकि सायराबानो ने एक साक्षात्कार में बताया कि वह शुरु से ही उनसे से शादी करना चाहती थीं। उन्होंने अपनी पत्नी सायरा बानो के साथ भी बी.आर.चोपड़ा की फिल्म ‘आदमी और इन्सान‘ ,गोपी, ‘सगीना महतो’ आदि फिल्मों में अभिनय किया था। सन् 1980में आसमां नामक महिला से निकाह किया,जिन्हें दो साल बाद तलाक दे दिया। सन् 1966 में ‘दिल दिया दर्द लिया’ और 1967 में ‘राम और श्याम’आयी,इसमें उनका दोहरी भूमिका थी। सन् 1968 में ’आदमी’ ,1970 में ‘गोपी’, 1972 में ‘दास्तान’ और सन् 1981 में ‘क्रान्ति’ आयी।फिर सन् 1986 में ‘कर्मा’ सन् 1991में सुभाष घई के निर्देशन में बनी फिल्म‘सौदागर’में दिलीप कुमार ने राजकुमार के साथ अपने अभिनय के जौहर दिखाये। उनकी अन्तिम फिल्म ‘किला’थी,जिसमें उन्होंने दोहरी भूमिका निभायी थी। साथ पास ल अचानक एक दिन बाॅम्बे टाॅकीज की मालकिन देविकारानी की नजर उन पर पड़ी और उन्हें फिल्मों में काम करने का न्योता दिया। वह 25वर्षीय उम्र फिल्मों के नायक बन गए। ज्वारभाटा, अन्दाज, देवदास, दाग, कोहिनूर दीदार, मधुमती, पैगाम, नया दौर, गंगा जमना, लीडर, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम में दोहरी भूमिका यानी डबल रोल,,आदमी और इन्सान, आदमी, गोपी, सगीना महतो, संघर्ष, वैराग्य , शक्ति, मशाल, सौदागर, क्रान्ति,। वैसे तो दिलीप कुमार सायराबानो के परिवार से पहले से जुड़े थे,क्यों कि उनकी माँ नसीम बानो दिलीप कुमार की हिरोइन रह चुकी थी,लेकिन प्रेम प्रसंग सन् 1966 में फिल्म ‘सगीना महतो’ की शूटिंग के दौरान परवान चढ़ा।उन्होंने कुल 60फिल्मों में अभिनय किया।इनमें दो में अतिथि कलाकार के रूप में कार्य किया था। उड़नखटोला, नदिया के पार,आन, फुटपाथ, विधाता,मशाल। दिलीप कुमार ने ‘कर्मा’ और ‘मुसाफिर’ में गीत भी गाए। जहाँ तक दिलीप कुमार को मिलने वाले पुरस्कार का प्रश्न है,तो सन् 1991 में पदमभूषण प्रदान किया गया। सन् 1994 में फिल्म जगत् सबसे बड़ा सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’से सम्मानित किया गया। सन् 1998में पाकिस्तान ने अपने मुल्क के सबसे बड़े सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से नवाजा। 2014में किशोर कुमार सम्मान पुरस्कार, सन् 2015में पदमविभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए 8बार ’फिल्म फेयर अवार्ड’ से मिला था। सन् 1998में निर्मित फिल्म ‘किला’उनकी अन्तिम फिल्म थी। फिल्मों में कार्य करने रोटरी क्लब, लायन्स,जायण्ट्स क्लब विधवों, वृ़द्धों,दिव्यागों की बेहतरी के लिए काम करते रहे। वह अपने देश से बहुत प्रेम करते थे।इसलिए उनकी फिल्मों में अक्सर देशभक्ति का गीत होता था।कारगिल युद्ध के समय उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शरीफ नवाज से गहरी नाराजगी जतायी थी। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी कलाकार का दुनिया से जाना फिल्म उद्योग और देश के लिए अपूरणीय क्षति है। सम्पर्क-डाॅ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
श्रद्धांजलि- अभिनय के एक बादशाह दिलीप कुमार

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