देश-दुनिया

मुल्क नहीं,सिर्फ कुर्सी

साभार गूगल

डाॅ.बचन सिंह सिकरवार

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गत दिनों देशभर की भारतीय जनता पार्टी विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं, कथित बुद्धिजीवियों, फिल्मी कलाकारों, कुछ पत्रकारों और जनसंचार माध्यमों द्वारा दिल्ली के बाहरी इलाकों में कोई तीन महीने से नए कृषि कानून के विरोध में धरने पर बैठे किसानों के समर्थन में स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग, अमेरिकी पाॅप गायिका रिहाना, पोर्न स्टार मिया खलीफा आदि के ट्वीटों पर जिस तरह अति उत्साहित होकर उन्हें सही ठहराने, उससे पहले 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर दिल्ली और लाल किले पर कथित किसान आन्दोलनकारियों के उत्पात मचाने, हिंसा तथा तिरंगे के अपमान करने, एक धर्म विशेष का ध्वज फहराते हुए देश विरोधी नारे लगाने, अमेरिका में खालिस्तानियों द्वारा महात्मा गाँधी की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किये जाने, ब्रिटेन, कनाड़ा, अमेरिका समेत कई देशों खालिस्तान समर्थकों द्वारा भारतीय दूतावासों को घेर कर भारत के खिलाफ नारेबाजी करने पर उनकी खामोशी या तरफदारी से आम भारतीय हैरान और परेशान ही नहीं, उनके इस रवैये से बेहद नाराज और आक्रोशित है। इससे इन सभी लोगों की नीयत और उनके असल इरादे भी आसानी से उनकी समझ में आ गए हैं। ये लोग सत्ता पाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करते -करते राष्ट्र के विरोध पर उतर आए हैं। कुर्सी के लिए इन्हें न देश के अपमान होने से कोई मतलब है और न ही दुश्मन देश से हाथ मिलाने से ही है। अपनी बात से पलटने और सही को गलत ठहराने में तो इन्हें महारत हासिल है। अगर ऐसा नहीं है, तो ये लोग इतने भी ना समझ नहीं हैं, जो इन विदेशी पर्यावरण कार्यकर्ता ,पाॅप गायिका, पोर्न स्टार, अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी और वकील मीना हैरिस, अभिनेत्री अमाण्डा शेरनी आदि के ट्वीट के पीछे की असलियत न समझते हों, जो किसी ओर के इशारे पर भारत को विश्व भर में बदनाम करने की मुहिम में जुटे हैं। अब इनमें से कुछ के ट्वीट कराने में खालिस्तानियों का हाथ होने के सुबूत भी मिल गए हैं। ग्रेटा थनबर्ग ने अपने ट्वीट के जरिए जो गूगल टूल किट शेयर की थी, उसे भी तैयार करने का सन्देह कनाडा के खालिस्तानियों पर है। इस तरह इस टूल किट ने भारत को बदनाम करने की साजिश

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को बेनकाब कर दिया है। फिर जब इन विदेशी ट्वीटकर्ताओं के विरोध में प्रख्यात गायिका लता मंगेशकर, क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर, विराट कोहली, फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार, अजय देवगन, अभिनेत्री कंगना रनौत, फिल्म निर्माता करण जौहर आदि ने इण्डिया टुगेदर और इण्डिया अगेंस्ट प्रोपेगेण्डा हैशटैग के माध्यम से जवाब देकर देश की एकता,अखण्डता,एकजुटता प्रदर्शित की , तो यह राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी (एन.सी.पी.)के अध्यक्ष शरद पवार को बहुत बुरा लगा और इन्हें सीख देने पर उतर आए। मैं सचिन(तेन्दुलकर)को सलाह दूँगा कि इन्हें दूसरे क्षेत्रों के मुद्दों पर बोलते समय सर्तक रहना चाहिए। कुछ ऐसा ही हाल ‘नव निर्माण सेना’ के प्रमुख राज ठाकरे का कहना था कि सरकार को विदेशियों के ट्वीटों के खिलाफ अपने अभियान में सचिन तेन्दुलकर और लता मंगेशकर जैसी हस्तियों को इण्टरनेट मीडिया पर सामने नहीं लाना चाहिए। लेकिन इन विदेशियों के ट्वीट्स के समर्थक काँग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला, फिल्म अभिनेत्री तापसी पन्नू, अभिनेता अर्जुन माथुर, फिल्मकार ओनिल आदि हिमायतियों के बारे में एक शब्द नहीं बोला गया। इस बीच शिवसेना के अध्यक्ष तथा महाराष्ट्र की गठबन्धन वाली महा विकास अघाड़ी सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने तो बेशर्मी के सारी हदें लांघते हुए लता मंगेशकर और सचिन तेन्दुलकर आदि के विरुद्ध ट्वीट करने पर उनकी खुफिया विभाग से जाँच कराने का आदेश दे दिया है कि कहीं इन्होंने भाजपा के दबाव में या फिर लालच में आकर तो यह कदम नहीं उठाया ? अब प्रश्न यह है कि क्या ये लोग अपने विवेक से कोई निर्णय नहीं ले सकते? क्या देश हित में बोलना अपराध है? इनके विपरीत इनमें से किसी को भी स्वीडन ग्रेटा थनबर्ग, रिहाना, मिया खलीफा आदि के ट्वीटस के पीछे साजिश नजर नहीं है? आखिर सात समन्दर पार की इन महिलाओं को भारतीय किसानों से अचानक ऐसी हमदर्दी क्यों उमड़ आयी, जो इनमें से कुछ दाम लिए बगैर कुछ नहीं करतीं? क्या सत्ता के लोभ में उद्धव ठाकरे ने राष्ट्रवाद की भावना का भी परित्याग कर दिया? सामान्य बातों पर जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापते आए हैं,वे आज लता मंगेशकर, सचिन तेन्दुलकर, अक्षय कुमार के ट्वीट पर खुफिया जाँच किये जाने पर खामोश क्यों हैं?
सरकार द्वारा हरियाणा के कुछ जिलों तथा दिल्ली के आसपास किसान आन्दोलन के सम्बन्ध में अफवाहें फैलने से रोकने के लिए इण्टरनेट सेवा बन्द किये जाने पर विपक्षी नेताओं को मानवाधिकारों का हनन दिखाई दिया, पर इनमें से किसी ने भी कथित किसान आन्दोलनकारियों द्वारा पंजाब में जियो के डेढ़ हजार टाॅवर तोड़ने पर ऐतराज नहीं जताया और न ही 26 जनवरी को दिल्ली में किसान दंगाइयों की हिंसा में 395 पुलिसकर्मियों के घायल होने पर सहानुभूति में ही कुछ बोला। इन्हें सिर्फ किसान आन्दोलनकारियों का दुःख-दर्द नजर आता है, लेकिन पुलिसकर्मियों का नहीं। इनकी झूठ बोलने की इन्तहा यह है कि जो विपक्षी दल और किसान नेता 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस पर दिल्ली और लाल किले पर उपद्रव के लिए भाजपा के कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा रहे थे, लेकिन अब काँग्रेस के वरिष्ठ नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह द्वारा इनके मुकदमों की पैरवी के लिए 71 वकीलों पैनल बनाया गया है। उन्हें भाजपा के दंगाइयों से क्या रिश्ता है? क्या देश की जनता यह नहीं जानती है कि दिल्ली और लाल किले पर जो कुछ हुआ, उसे किसने कराया और क्यों ? ऐसे ही 26जनवरी,गणतंत्र दिवस की शर्मनाक घटना के बाद कथित किसान नेताओं ने पहले उस हिंसक घटना में अपनी भूमिका से इन्कार करते हुए उसकी निन्दा की। फिर इनमें से कुछ पुलिस की कार्रवाई के डर से या फिर प्रायश्चित स्वरूप अपना डेरा-तम्बू उखाड़ संगी-साथियों के साथ घर वापस चले गए। लेकिन इनमें से कुंछ ने अचानक अपने बयान बदलते हुए केन्द्र सरकार और दिल्ली पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़े करने मंे लग गए। इनके स्वर में सभी विपक्षी दल आ जुटे। फिर दिल्ली पुलिस ने 26 जनवरी जैसी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जब सड़कों पर अवरोध खड़े करने के साथ कीले ठोंक दीं, तो उस पर भी यह कहते हुए हाय तौबा मचाने लगे, कि ये आन्दोलनकारी किसानों के विरोध व्यक्त करने के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। आखिर ये कथित किसान नेता और विपक्षी नेता चाहते क्या हैं? यह देश की जनता की समझ में अच्छी तरह आ रहा है। ़
क्या स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को नए कृषि कानून के बारे में जानकारी है? क्या उन्हें यह भी पता है कि वह जिन किसानों का समर्थन कर रही हैं ,वे किस तरह पर्यावरण के खिलाफ काम करते आ रहे हैं। ये किसान धान की पराली जलाने पर सरकार द्वारा लगा गए प्रतिबन्ध का विरोध कर रहे हैं, जिससे वायुमण्डल प्रदूषित हो रहा है। साथ ही लगातार गेहूँ और धान की खेती कर रहे हैं, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बहुत ज्यादा घट चुकी है जिसकी भरपाई के ये अंधाधुंध रासायनिक उर्वरक प्रयोग करते हैं, इससे उपज भी विषाक्त हो रही है। इन दोनों फसलों के लिए सिंचाई हेतु बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है। इस वजह से इस सूबे में भूमिगत जल बहुत नीचे चला गया है और भविष्य में जल संकट के हालात पैदा हो सकते हैं। अब बारी है कि पाॅप गायिका रिहाना की ,जो बगैर कीमत वसूल किये कुछ नहीं करती,तो सवाल यह है कि उसे ट्वीट करने के लिए करोड़ डाॅलर की उसकी कीमत किसने चुकायी थी? ऐसे ही पाॅर्न स्टार मिया खलीफा से किसानों की हमदर्दी का राज भी समझ से परे है?
अपने को किसानों का हिमायती बताने वाले काँग्रेस समेत 16विपक्षी सियासी पार्टियाँ जो लोकसभा में राष्ट्रपति के भाषण तथा कृषि कानून पर चर्चा का बहिष्कार करती हैं,वहीं राज्यसभा में शान्तिपूर्ण तरीके उस चर्चा में भाग लेती हैं?ये विरोध का कौन-सा तरीका है? फिर जो कृषि कानून केन्द्र सरकार ने अब बनाये हैं,ये ही तो संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री रहते शरद पवार भी बनाना चाहते थे। यहाँ तक कि काँग्रेस के चुनावी घोषणपत्र में ये बातें शामिल थी। अब वही काँग्रेस और शरद पवार किसानों की आवाज में आवाज मिलाते हुए इन्हें काला कानून बताकर विरोध जता रहे हैं, पर इनमें से कौन-सा प्रावधान किसानों के हित में नहीं है,यह अब तक न काँग्रेस बता पा रही है और न ही किसान नेता। ये आम किसानों को एमएसपी और मण्डी व्यवस्था खत्म होने और उनकी जमीन अडानी,अम्बानी छीन लंेगे,कह कर उन्हें डराने में लगें।
इन विपक्षी राजनीतिक दलों को इससे अवगत होना चाहिए कि अफवाहों और झूठ के पैर नहीं होते। उनका यह दुष्प्रचार अधिक समय तक टिकने वाला नहीं है कि सरकार किसान नेताओं की कोई बात सुनने को तैयार नहीं। सच्चाई यह है कि केन्द्र सरकार उनसे 11 दौर की वार्ताओं में बराबर नरमी दिखायी है। सरकार केवल कृषि कानूनों की कथित खामियों को दूर करने और उन्हें डेढ़ साल तक स्थगित पर भी सहमत हैं। वह किसान नेताओं की माँग पर बिजली संशोधन वापस लेने तथा पराली जलाने पर दण्डात्मक कार्रवाई वाला प्रावधान हटाने की माँग को भी तैयार है। इसके अलावा वह न्यूनतम समर्थन मूल्य( एमएसपी) पर लिखित गारण्टी देने के भी प्रस्ताव रख चुकी है। फिर भी किसान संगठनों का यह कहना पूरी तरह झूठ है कि सरकार उनकी सुन नहीं रही है। सच तो यह है कि स्वयं किसान नेता अड़ियल रवैया अपनाये हुए हैं। वे जिस प्रकार तनिक भी पीछे हटने को तैयार नहीं, इससे यही लगता है कि उनक इरादा पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत किसानों की आड़ में अपने तुच्छ स्वार्थ पूरा करना है। उनके इसी रवैये के कारण देश का सामान्य किसान कृषि कानून विरोधी आन्दोलन का साथ नहीं मिल पा रहा है। इसका सुबूत चक्का जाम आन्दोलन फिर 12फरवरी को राजस्थान में टोल प्लाजा पर कब्जा करने के आन्दोलन नाकाम रहना है। किसान नेता कुछ भी दावा करें, आम किसान यह जान चुका हैं कि नए कृषि कानून उन पर कोई विपरीत प्रभाव डालने के स्थान पर उन्हे बिचैलियों के जाल से छुटकारा दिलाने और बड़़े बाजार से जुडने का मौका देने वाले हैं। दुःख और क्षोभ की बात यह है कि किसान नेता आम किसानों के हितों की भी बराबर अनदेखी कर रहे हैं। यह सब देखते हुए यही लगता है कि चाहे विपक्षी राजनीतिक दल हों या कथित किसान नेता उन्हें देश या आम किसान की नहीं, सिर्फ अपनी सियासत और उससे जुड़े फायदों की पड़ी है। उनके लिए देश से बढ़कर कुर्सी है, जिसके लिए उन्हें दुश्मन मुल्क से हाथ मिलाने से भी गुरेज नहीं हैं। धिक्कार है ऐसी सियासत और कुर्सी पाने की भूख को।
सम्पर्क-डाॅ.बचन सिंह सिकरवार 63ब, गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

 

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