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प्रकृति का अनुपम उपहार है ककोड़ा

साभार सोशल मीडिया

डॉ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार

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वर्षा ़ऋतु के आगमन पर धरती पर बूँदें पड़ने के साथ ही चम्बल नदी के बीहड़ों और आसपास की रेतीली भूमि में शरद और ग्रीष्म काल में निष्क्रिय पड़ी ककोड़ा की जड़ें सक्रिय हो जाती हैं।इनके साथ ही ककोड़ा के पके फलों से निकले बीज भी अंकुरित होने लगते हैं। फिर देखते-देखते ककोड़े की लता/बेल समीप में खड़ी कंरील या अन्य किसी पौधे पर चढ़कर फैलते हुए बढ़ने लगती है।यह गर्म और नम जलवायु की लता है। कुछ जगहों पर ककोड़ा की खेती भी की जाती है। यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन इसके लिए पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थों से युक्त रेतीली और अच्छी जल निकासी भूमि अच्छी होती है। वहाँ पर इसकी लताएँ सबसे बेहतर उगती हैं।
कुछ दिनों बाद ककोड़े की लताओं पर हरे रंग के काँटेदार/रोयेंदार छोटे-छोटे फल लगने लगते हैं। इन्हें ककोड़ा, ककोरा, किंकोड़ा, खेख्सा आदि कहते हैं। यह कुकरबिटेसी परिवार की लता है। इसका वानस्पतिक नाम‘ मोमोर्डिका डिओइका’ है।यह करेला की प्रजाति की ही लता है। भिण्ड,मुरैना,ग्वालियर,बाह,पिनाहट में इस ककोड़ा या ककोरा कहा जाता है। इसमें एस्कोर्बिक एसिड, कैरेटिन, थियामिन, राइबोपलेविन, नियासिन जैसे विटामिन के अलावा कार्बोहाइडेªट ,फाइबर और अन्य पोषक खनिज पाए जाते हैं।
ककोड़ा की लताएँ चम्बल के बीहड़ों और दूसरी जगहों की रेतीली मिट्टी में स्वतः उगती हैं। सब्जी के लिए ककोड़ा की सबसे अधिक माँग दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान के लोगों द्वारा की जाती है।इन्हें थोक व्यापारी खरीद ले जाते हैं। बिना किसी परिश्रम या फिर बहुत कम मेहनत से अधिक लाभ देने वाला ककोड़ा प्रकृति की अनुपम देन है। इसके लिए इसकी सब्जी के खाने के शौकीन 50रुपए से लेकर 150 रुपए प्रति किलो ग्राम तक देने को तत्पर रहते हैं,जिन्हें बस कँटली झाड़ियों से तोड़ने का श्रम करना पड़ता है।
बगैर लागत पैदा होने के बावजूद अच्छे दाम मिल जाने से क्षेत्र के वंचित ग्रामीण परिवारों को इससे राहते मिली है।
पिनाहट से बाह तक करीब 50वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में बीहड़ है। बरसात में यहाँ एक बेल उगती है।यह करील की झाड़ियों,छोटे पेड़ सहित बीहड़ के बड़े हिस्से में फैल जाती है। इस बेल में लगने वाले फल हैं ककोड़ा। इसकी उपज बरसात के दिनों में होती है। इन दिनों यह बीहड़ के लोगों के लिए कमाई का आसान साधन बन गया है। उन्हें केवल बीहड़ से इसे तोड़कर लाना होता है और हाथोंहाथ बिक जाता है। 100रुपए किलो तक बिक रहा है। इस ककोरा, किंकोड़ा और खेख्सा भी कहा जाता है। चम्बल में ककोड़ा हो कहते हैं। वैज्ञानिक नाम ‘मोमोर्डिका डिओइका है। हरे रंग के छोटे फल के ऊपर छोटे-छोटे काँटेदार रेशे होते हैं। एण्टीऑक्सीडेण्ट्स,लौह(आयरन) और तन्तुयुक्त( फाइबरयुक्त) इस फल की सब्जी बनायी जाती है।
यह गर्म और नम जलवायु की फसल है।ककोड़ा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। किन्तु रेतीली भूमि, जिसमें पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ हो और जल निकास को उचित व्यवस्था हो, वहाँ यह सबसे बेहतर होता है। इसमें एस्कोर्बिक एसिड, कैरेटिन, थियामिन, राइबोपलेविन, नियासिन जैसे विटामिन के अलावा कार्बोहाइडेªट ,फाइबर और अन्य पोषक खनिज पाए जाते हैं। यह गर्म और नम जलवायु की फसल है।ककोड़ा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। किन्तु रेतीली भूमि, जिसमें पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ हो और जल निकास को उचित व्यवस्था हो, वहाँ यह सबसे बेहतर होता है।
यही कारण है कि यह चम्बल के बीहड़ को रेतीली मिट्टी में स्वतः उपजता है और गुणवत्ता से परिपूर्ण भी होता है। यहाँ से ककोड़ा की माँग दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। थोक व्यापारी खरीद ले जाते हैं। बगैर लागत पैदा होने के बावजूद अच्छे दाम मिल जाने से क्षेत्र के वंचित ग्रामीण परिवारों को इससे राहत मिली है।

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