वानस्पतिक औषधियाँ

मानव स्वास्थ्य के लिए प्रकृति का अनमोल/अनुपम उपहार हैं, जंगली जड़ी-बूटियाँ

साभार सोशल मीडिया।।

डा अनुज कुमार सिंह सिकरवार

वैदिक काल से ही अपने देश में वनों में विचरण तथा आश्रम बनाकर निवास करने वाले ऋषियों-मुनियों ने औषधीय महत्त्व के वृक्षों, पौधों, लताओं,झाड़ियों,शाकीय पौधों, विभिन्न प्रकार की ग्रास(घासों) को पहचान कर उनके विभिन्न अलग-अलग हिस्सों जैसे-जड़,पत्तियाँ, फूल, पंुकेसर तो कुछ के सारे अंगों का उपयोग स्वयं को निरोगी तथा विभिन्न प्रकार की व्याधियों/रोगों के उपचार/निदान में करना शुरू कर दिया।इनमें से कुछ का इस्तेमाल पीस कर शरीर के बाहर लेपकर करके,तो कुछ को कूट कर चूर्ण बनाकर या उसे आसवित कर। वर्तमान में भी दुर्गम, दुर्लघ्य पर्वत-पहाड़ों के साथ-साथ हमारे खेतों, बगिया, बाग-बगीचे में ही नहीं, बंजर, परती,कंकरीली, पत्थरीली, मरु, असिंचित, कच्चे -पक्के मार्ग,सड़कों के आसपास बगैर किसी के उगाए हर साल अलग-अलग ़ऋतुओं में उग आती हैं। विषम-विषम स्थितियों तथा बिना किसी देखरेख के स्वयं को जीवित रखते हुंए फलती-फूलती हैं।
महर्षि चरक ने अपने ग्रन्थ ‘चरक सहिंता’ में विभिन्न औषधीय पेड़-पौधों,वृक्षों, लताओं, शाकीय पौधों,ग्रासों को उनके औषधीय गुणों समेत अन्य महत्त्वों के आधार पर संहिताबद्ध किया है। इसमें पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व का विशद् विवरण के साथ-साथ उनकी गहनता से विवेचना भी की गयी है। चरक संहिता में प्रत्येक पेड़-पौधे की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते और दूसरे भागों के औषधीय गुणों और उनके वि

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विध रोगों उपचार की विधियों का उल्लेख किया गया हैं। आयुर्वेद के प्रणेता/देवता ‘धन्वंतरि जी’ द्वारा जड़ी-बूटियों के अलौकिक संसार से जगत् को परिचित कराया गया है।

महर्षि चरक ने विभिन्न वनस्पतियों की अपनी वैज्ञानिक/औषधीय गुणवत्ता की कसौटी पर उनके रोगों के निदान में चमत्कारिक प्रभाव का परीक्षण किया।उसके पश्चात् उन्हें जनसामान्य के रोगों की चिकित्सा/ उपचार हेतु उपयोग के लिए संस्तुति की। यूँ तो अपने देश में विभिन्न आक्रान्ताओं के सुदीर्घ शासन के कारण उनके द्वारा अपनायी गई चिकित्सा पद्धतियों का चलन आमजन में भी हुआ,लेकिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का प्रचलन भी अनवरत बना रहा। जनसाधारण अपने आसपास उपलब्ध वनस्पतियों के औषधीय गुणों से परिचित होने के कारण वे स्वयं इनका अपने रोगों के निदान के लिए बराबर प्रयोग करते रहे। जब अपने देश में ईस्ट इण्डिया कम्पनी फिर से ब्रिटेन का सीधे शासन होने पर ऐलोपैथी चिकित्सा का प्रभाव बढ़ा। इसके बावजूद आजकल लोग एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाओं से परिचित हो गए। दुनियाभर के लोग भारतीय चिकित्सा पद्धति ‘आयुर्वेद’की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जो ऐलोपैथी की अपेक्षा सहज, सुलभ, सस्ती और उसकी तुलना में कम दुष्प्रभाव वाली है। परिणामतः अब वैकल्पिक चिकित्सा जड़ी-बूटी की परम्परागत औषधियों (आयुर्वेद) के प्रति रूझान बढ़ने लगा है।
यही कारण है कि आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल उत्पादों की बाजार में लगातार माँग बढ़ रही है। अपने देश में बहुत पहले से बड़ी संख्या में छोटी-बड़ी फार्मेसी आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण करती आयी हैं। इनमें गुरुकांगड़ी, डाबर फार्मेसी, वैद्यनाथ, द्यूतपपेश्वर फार्मेसी, ऊझां फार्मेसी और वर्तमान में पतंजलि फार्मेसी सबसे बड़ी आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण करने वाली फार्मेसी बन गयी है।
इनके अलावा अपने देश में कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों, लताओं तथा वृक्षों से बनी औषधियों के साथ-साथ सौन्दर्य प्रशाधन यथा-बालों के लिए केश निखार के शैम्पू, केश तेल, स्नान लिए आयुर्वेदिक साबुन, त्वचा को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, दाँतों के लिए दाँत मंजन, टूथ पेस्ट, आँखों के लिए काजल, बालों के रंगने वाले इत्यादि उत्पादों को बाजार में प्रस्तुत किया है। इस कारण भारत से औषधीय महत्त्व के पौधों का निर्यात भी लगातार तेजी बढ़ रहा है।
अपने जनसंख्या के बढ़ते दबाव, सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटाने, जलवायु में बड़े बदलाव/परिवर्तन और अनेकानेक रसायनों के अत्याधिक प्रयोग से वर्तमान में बहुत-सी उपयोगी अत्यन्त मूल्यवान/चमात्कारिक औषधीय गुणों से युक्त वनस्पतियाँ विलुप्त होने की कगार पर है। ऐसे में हमे ग्रामीणों, कृषकों, जनसाधारण को पेड़-पौधों, स्वतः उगने वाली वनस्पतियों और उनके औषधीय उपयोग को लिए जागरूक बनाया जाए। उन्हें जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने को प्रेरित किया जाए। हम अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा या आयुर्वेदिक पद्धति में उपयोग में आने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचाएँ।
अपने आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, इन्हें हम सभी अज्ञानतावश अनोपयोगी समझ कर ‘खरपतवार’ की संज्ञा देते है। यहाँ तक कि उन्हें हेयदृष्टि से देखते हुए उनका समूल रूप से विनाश करने को आतुर रहते हैं,इसके लिए ‘खरपतवार नाशक(वीडीसाइड) जैसे रासायनिक विष छिड़क उन्हें समाप्त कर देते हैं। इन्हें हम सभी अज्ञानतावश अनोपयोगी समझ कर ‘खरपतवार’ की संज्ञा देते है। यहाँ तक कि उन्हें हेयदृष्टि से देखते हुए उनका समूल रूप से विनाश करने को आतुर रहते हैं,इसके लिए ‘खरपतवार नाशक(वीडीसाइड) जैसे रासायनिक विष छिड़क उन्हें समाप्त कर देते हैं। उन्हें ऐसा करने के स्थान पर फसलों के साथ उगी इन औषधीय वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण करने के लिए श्रेयस्कर होगा।

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