कहानी

जुलूस

फणीश्वरनाथ रेणु

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ एक नाम, जो आंचलिक साहित्य का पर्याय बन चुका है। ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ उनकी ऐसी सशक्त एवं अनुपम कृतियाँ हैं जो आंचलिक साहित्य का मानक मानी जाती हैं। उन्हीं की साधना का सुफल है यह उपन्यास ‘जुलूस’। ‘रेणु’ का यह उपन्यास एक वृत्त-चित्र की भाँति वर्तमान जीवन, उसकी विसंगतियों और उसके सतहीपन को परत-दर-परत उघाड़ता चलता है। उल्लेखनीय है कि ‘जुलूस’ प्रान्तीय भेदभाव के सामने लगाया गया एक ऐसा अमिट प्रश्न-चिन्ह है जो पाठक को विचलित कर राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए और अधिक प्रेरित करता है।

भूमि….

पिछले कुछ वर्षों से मैं एक अद्भुत भ्रम में पड़ा हुआ हूँ। दिन-रात-सोते-बैठते, खाते-पीते-मुझे लगता है कि एक विशाल जुलूस के साथ चल रहा हूँ अविराम।
यह जुलूस कहाँ जा रहा है, ये लोग कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं, क्या चाहते हैं-मैं कुछ नहीं जानता। इस महाकोलाहल में अपने मुँह से निकाला हुआ नारा-मुझे नहीं सुनाई पड़ता। चारों ओर एक बवण्डर मँडरा रहा है, धूल का।…
इस भीड़ से निकलकर, राजपथ के किनारे सुसज्जित ‘बालकॅनी’ में खड़ा होकर जुलूस को देखने की चेष्टा की है। किन्तु इस भीड़ से अलग होने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। इस जुलूस में चलनेवाले नर-नारियों से-अपने आस-पास के लोगों से मेरा परिचय नहीं। लेकिन उनकी माया….ममता…मैं छिटककर अलग नहीं हो सकता !
मेरे इस उपन्यास ‘जुलूस’ पर मेरे इस अद्भुत मानसिक विकार का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा !

फणीश्वर नाथ ‘रेणु’

1

आज वह ‘हल्दी चिरैया’ फिर आयी है ?
बरसात-भर यह रोज इसी तरह समय-असमय आयेगी और किसी पेड़ की डाली पर भीगती हुई या पंख सुखाती हुई सुरीले स्वर में एक लम्बी पंक्ति दुहरायेगी। संस्कृत श्लोक की कड़ी-‘का कस्य परिवेदना !’ स्पष्ट ! हू-ब-हू।…पता नहीं क्या बोलती है ! पवित्रा को अचरज होता है, यहाँ के लोग इस ‘पाखी’ का नाम नहीं जानते। पूछने पर मुँह बिदकाकर कहेंगे-पता नहीं क्या नाम है ! हल्दी-चिरैया नाम पवित्रा ने ही गढ़ लिया है।

यही एक पखेरु है जो उसके देश में नहीं होता। या होता भी हो तो पवित्रा ने कभी नहीं देखा। सचमुच, इस ‘देश’ में कुछ भी ऐसा नहीं जो पवित्रा के ‘देश’ में नहीं था। पेड़, फल, फूल, फसल, जानवर, पंछी…सिर्फ इस ‘हल्देपाखी’ को छोड़कर। ‘माछराँगा’ को यहाँ के लोग ‘मछलोकनी’ कहते हैं। पवित्रा के गाँव का-अर्थात् ‘पूर्वबंग’ का-पेंचा’ ही यहाँ का उल्लू है, यह उसने यहाँ आकर जाना। उल्लू को ‘भल्लुक’ के जैसा कोई जानवर समझती थी। लोगों के नामों में ‘लाल’, ‘प्रसाद और ‘झा’ तथा ‘नारायण’ लगा देने से क्या होता है, चेहरे तो नहीं बदलते ? लेकिन इस (नबीनगर गाँव) के सैकड़े निन्नानबे लोग ऐसे हैं जो पवित्रा की राय से सहमत नहीं। वे कहेंगे-की मुश्किल दीदी ठाकरुन।….परछाद अपने गाँव के किसी आदमी के नाम में लगा दो, देखोगी फिट ही नहीं करेगा।

-नाम के माफिक चेहरा भी होना होगा।
-‘आपना’ देश फिर ‘आपना’ देश !…पर-भूमि कैसी भी हो, आखिर पर-भूमि ही है।
गाँव बसने के बाद पवित्रा एक दिन गाँव के लोगों को समझा रही थी-हम लोगों का भाग्य अच्छा है कि इस जिले में हमें बसाया गया। यहाँ धान और पाट की खेती होती है, हम भी अपने देश में धान और पाट की खेती करते थे। यहाँ के लोग भी मछली-भात खाते हैं। गाँव-घर, बाग-बगीचे, पोखरे और नदी-सब कुछ अपने देश-जैसा…।
सूखी देहवाले हरलाल साहा ने तीखी आवाज में विरोध किया था-सी हुति पारे ना (ऐसा होना असम्भव है !)…कहाँ अपना देश और अपने देश की मिट्टी और अपने देश का चावल, और कहाँ इस अद्भुत देश का ‘आजगुबी व्यापार’।…पता नहीं तुमने क्या देखा है पोत्रादी ! यहाँ की मछली में क्या वही स्वाद है जो ‘पद्दा के इलिच’ में…?
हरलाल साहा की बात पर सभी इस तरह मुसकराये मानो वह सबके दिल की बात कह रहा हो। पवित्रा बोली थी-पूछती हूँ अपने गाँव में ‘पद्दा का इलिछ’-माछ रोज खाते थे क्या ?

-एक दिन खाये कोई या तीस दिन’। (स्वाद) तो ‘शाद’ ही है ! अपने देश की चीजों का…।
उस दिन गाँव में ट्यूबवेल गाड़ने के लिए सरकारी आदमी अपने मजदूरों को लेकर आया था। बंगाल से आये हुए शरणार्थियों के लिए कई गाँव बसा चुका था, टयूबवेल लगवा चुका था वह सरकारी कर्मचारी। इसलिए ‘पूर्वी बंगाल’ की बोली ‘कुछ-कुछ’ समझने का दावा करता था। उसे देखते ही हरलाल साहा ने आँखें टीपकर अपनी बात बन्द कर दी। सभी चुप हो गये।
किन्तु सरकारी कर्मचारी चुप नहीं रहा। उसने मुसकाकर सीधे पवित्रा से पूछा था-यह आप लोग ‘अपना देश-अपना देश’ क्या बोलते हैं ? देश का क्या मतलब ? क्या माने ?
-देश का माने आर केया होगा-देश का माने देश ! हरिधन मोड़ल को इस ट्यूबवेल गड़वाने वाले ‘खुदे मनिब’ (क्षुद्र-अधिकारी) से न जाने क्यों चिढ़ है…‘माइयाँ छापला’ देखते ही बात करने के लिए ‘खुदे मनिबों’ की जीभ सुड़सुड़ाती रहती है मानो।
-देश का माने देश तो क्या हिन्दुस्तान अपना देश नहीं है ? आप लोगों का देश नहीं है ?
-हिन्दुस्तान कैसे आपना देश होगा ?

कालाचाँद घोष चतुर नौजवान है। उसने अपनी भारी और मोटी हँसी से बात को हलका करने की चेष्टा की-हें-हें-हें-हें ! आरे बाबू ! आप देश का जो माने बूझता है आसल में लोगों का देश का माने वो नेंही है। देश का माने जैसे बाँगला देश, बिहार देश, उड़ीसा देश वैसा माफिक। हें-हें-हें-हें !
-तो प्रदेश बोलिए। प्रान्त कहिए।
छिदामदास सरकारी कर्मचारियों से बातें करने का अवसर ढूँढ़ता रहता है। उसने दाँत निपोरकर कहा-ओवर्सियेर बाबू, देश बोलिए प्रदेश बोलिए कि प्रान्त कहिए-अब तो जो है सो यही नोबीन नगर ग्राम !

सरकारी कर्मचारी भी न जाने क्यों ठठाकर हँस पड़ा था। छिदामदास की बुद्धिमानी देखकर पवित्रा मुसकरायी थी और ट्यूबवेल-फिटर की नजर शुरू से अन्त तक उसी पर गड़ी हुई थी।…जेब से बीड़ी निकालकर सभी को बाँटने के बाद सभी के मुँह के सामने ‘खच्च-खच्च’ लाइटर जलाकर बीड़ी सुलगा दिया फिटर साहब ने।
वह अपने काम पर चला गया। छिदामदास ने कहा-देखा ? फिटर साहेब को ओवर्सियर बाबू कह देने से कितना खुश हुआ ? स्साला..
सभी एक साथ अपने देश की हँसी हँसे थे जी खोलकर। पवित्रा भी हँसी थी। किन्तु बोली थी-जो भी कहो, वह आदमी ठीक ही कहता है। देश माने हिन्दुस्तान !
-दीदी ठाकरुन-देश माने हिन्दुस्तान की करे हम बुझाइया दिन ?…कैसे देश माने हिन्दुस्तान हो ? हम लोगों के गाँव का नाम है नोबीननगर और यहाँ के लोग कहते हैं पाकिस्तानी-टोला ?…आमराकी मोछलमान ?…तो हम पाकिस्तानी कैसे हुए ?
-कालाचाँद घोष की माँ वाजिब बात कहती है।

गोपाल पाइन बहुत कम बोलनेवाला आदमी है। पढ़ा-लिखा आदमी है और गाँव में स्थापित होनेवाली ‘प्रस्तावित-पाठशाला’ का उम्मीदवार मास्टर है। उसने टोका था-काला की माँ, साइनबोर्ड लगाने दो गाँव के बाहर। स्कूल चालू होने दो, तब देखना फिर कैसे लोग पाकिस्तानी टोला कहते हैं हमारे इस नोबीननगर को !

पवित्रा ने कहा था-साइनबोर्ड लगे या स्कूल खुले। गाँव का नाम पाकिस्तानी टोला ही कहेंगे-यहाँ के लोग।
-कैसे कहेंगे ? डाकघर में चिट्टी आयेगी नोबीननगर के नाम से, सरकारी रुपये आवेंगे नोबीननगर के नाम से और बोलेंगे पाकिस्तानी टोला ?
-हाँ, बोलेंगे पाकिस्तानी टोला।–पवित्रा ने कहा था।–चाहे जो कुछ भी करो, नाम पाकिस्तानी टोला ही कहेंगे।
-क्यों ?
-क्योंकि हम लोगों का देश पाकिस्तान में पड़ गया। हम लोग पाकिस्तान से आये हैं…
-इसीलिए हम लोग मोछलमान हो गये ? हम लोगों का देश ही पाकिस्तान में गया। हम लोग तो हिन्दुस्तान में आ गये।
पावित्रा बोली-नाम को लेकर आखिर होगा क्या ?
-दीदी ठाकरुन, तुम ‘पढ़वा-पण्डित’ हो। तुम्हीं ऐसी बात कहती हो ? देश को लेकर आखिर होगा क्या ? नाम को लेकर आखिर होगा क्या ? तब क्या लेकर क्या होगा ?…बोलून ?
पवित्रा कोई जवाब दे इसके पहले ही छिदामदास अपने पेट पर से गंजी हटाकर सटे हुए पेट पर हाथ फेरते हुए बोला था-‘आसल’ चीज है यह बेटा पेट !..ई साला पेट का वास्ते जो कुछ बोलना पड़े-करना पड़े।

हल्दी चिरैया फिर बोली-का कस्य परिवेदना।
सामूहिक देवस्थान (ठाकुरतला) में योगेशदास की कुमारी कन्या सन्ध्या ने शंख फूँक-‘साँझ-बाती’ की घोषणा की। सभी ने ठाकुरतला की ओर मुड़कर भक्ति-भाव से प्रणाम किया। हर मगंलवार को ठाकुरतला में कीर्तन होता है-दस बजे रात तक। …आज तो शनिवार है।

2

नोबीननगर नहीं-नबीननगर !
न नोबीनगर न नबीननगर, इस गाँव का सही नाम है नबीनगर।
राज्य के पुनर्वास उपमन्त्री मुहम्मद इस्माइल नबी ने इस गाँव के शिलान्यास समारोह के अवसर पर बोलते हुए कहा था-यह सब-कुछ उस बापू की महिमा है कि मेरे-जैसा अदना खिदमतगार, कि जनता के इस छोटे सेवक के नाम पर आज नगर बसाये जा रहे हैं।…

इसके बाद डिप्टी मिनिस्टर नबी साहब ने वीराने को बसाने और बसे को उजाड़नेवाली बात पर एक शेर पढ़ा था। जिसपर तालियाँ बजी थीं। गाँव के अधिकांश लोगों ने उस शेर का कोई अर्थ नहीं समझा। लेकिन मंच पर बैठे हुए लोगों ने तालियाँ बजायीं। यहाँ तक की कलक्टर और एस.पी.साहब ने भी। इसलिए गाँववालों ने जरा देर से ताली बजायीं। ताली बजाने का दूसरा मौका भी आया। तब गाँववालों ने जी खोलकर सबसे पहले तालियाँ बजायीं। अपने भाषण में नबी साहब ने कहा-और दोस्तों ! यह भी बाप के नाम से मशहूर हमारे उन्हीं महात्माजी की महिमा है कि जहाँ जिना साहब के चेले गाँव उजाड़ते हैं, हिन्दुओं को बे-घरबार कर रहे हैं पाकिस्तान में-वहीं हिन्दुस्तान में दूसरा मुसलमान मगर गान्धी का अदना चेला उजड़े हुए हिन्दुओं के लिए नगर बसा रहा है….!
गाँव के बाहर सड़क पर गाँव के नाम की एक तख्ती गाड़ दी गयी-नबीनगर। लेकिन वह तख्ती एक सप्ताह भी नहीं टिक सकी। पास के गाँव के अमीर किसानों के चरवाहों ने किसी रात उसे उखाड़ फेंका।…तख्ती टाँगनेवाले लोहे के हुक-भैंस की डोरी में बाँधकर वे रोज इसी राह से गुजरते हैं। किन्तु गाँव के किसी व्यक्ति में इतना साहस नहीं कि उनसे कुछ पूछे।

गोपाल पाइन का विश्वास है कि गाँव के नाम से चिढ़कर यहाँ के अमीर किसानों ने ही नोबीननगर गाँव की तख्ती उखड़वा दी है। एक ‘पोख्ता साइनबोर्ड’ लगवाने की प्रार्थना करते हुए उसने दो आवेदनपत्र भेजे। फिर उसके बाद से रिमाइण्डर पर रिमाइण्डर भेजता जा रहा है। न कोई जवाब आता है और न कोई उस तख्ती और पोख्ता साइनबोर्ड की चिन्ता ही करता है इस गाँव में। गाँव के नाम के बारे में कोई सोचता भी नहीं कुछ कि यदि एक बार बिगड़ गया तो सदा के लिए उस बिगड़े हुए नामवाले गाँव में ही रहना पड़ेगा।

गोपाल पाइन अपने पेट की बात किसी से नहीं कहेगा। वह पेट काटकर खुद साइनबोर्ड बनवायेगा। सिमेण्ट और कंक्रीट के बोर्ड पर वह नाम खुदवाकर रहेगा। एक बार स्कूल तो खुल जाये !
मंगलवार की साँझ में ठाकुरतला नामक झोंपड़े में सभी स्त्री-पुरुष जमा होते हैं और कीर्तन गाते हैं। कीर्तन के बाद गाँव की समस्याओं पर, व्यक्ति की समस्याओं पर बातें होती हैं। तब औरतें उठकर अपने-अपने घरों में चली जाती हैं। सिर्फ पवित्रा रहती है। रहती है, कहना ठीक नहीं हुआ। पवित्रा ही उस बैठकी का संचालन करती है। जिस दिन पवित्रा नहीं रहती है उस दिन बैठकी में ये लोग, यहाँ के निवासी-यहाँ की मरी हुई मिट्टी और कहाँ के सूरज-चाँद-तारों तक की निन्दा करते हैं अघाकर।….ए देशेर सब किसू आजगूषी !

पवित्रा को बस इसी एक बात का बहुत गहरा दुख है-गाँव के लोगों का यहाँ की मिट्टी से मोह क्यों नहीं हो रहा ! वह कौन-सा दरवाजा है इनके दिल का जिसे खोलने के लिए पवित्रा कुण्डी खटकावे ? किस दरवाजे की…?
राखाल विश्वास का लड़का अन्दू इस तरह मुँह लटकाये क्यों आ रहा है ? पवित्रा ने हाथ की सिलाई से निगाह उठाकर देखा, गोपाल पाइन और छिदामदास भी आ रहे हैं।…कुछ हुआ कहीं !
अन्दू आकर चुपचाप खड़ा हो गया।
-की ?
गोपाल पाइन बोला-आमि जा बोल्सिलाय !….कहो न, मुँह क्या देखता है, अन्दू ! चौधरी बाबू के बेटा ने तुमसे जो कुछ भी कहा है, साफ-साफ कह दे दीदी ठाकरुन को। डरना मत।
छिदामदास ने कहा-उसके मुँह से सुनने की जरूरत नहीं। ऐसी बातें तो यहाँ के लोग दिन-रात करते हैं।

गोपाल पाइन ने कहा-बंगाली-कंगाली कहे, हम सह लेंगे। जब कंगाल हो गये हैं तो लोग कंगाल ही कहेंगे। पाकिस्तानी बोलते हैं-यह भी सहा जा सकता है। लेकिन यह सरासर गोमांस खाने की बात कहना-इसको कैसे सहा जा सकता है ? आप ही लोग विचार कीजिए।…दीदी ठाकरुन, आप तो जानती हैं कि मैं छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया करता।

गोपाल पाइन जरा कम सुनता है। इसलिए रसिकता करते हुए अपनी बधिरता को इसी बात से गौरव प्रदान करता है-मैं छोटी बातें नहीं सुनता, काम में लेता ही नहीं।
-किसने क्या कहा ?
-चौधरी बाबू के बेटा ने।
-क्या कहा ?

-कहा कि तुम लोग गोमांस खाते हो। मुर्गी खाते हो !
-तुम चौधरी बाबू के बेटा के पास किस लिए गये थे ?
-गाँव में बिस्कुट बेचने गया तो तौधरी बाबू के लड़के ने सभी से कहा कि इसके हाथ का बिस्कुट खाओगे ? ये लोग गोमांस खाते हैं। तिसपर मैंने टोका तो बोले-हाँ-हाँ, हम लोगों को सब पता है। सभी को भागते समय गोमांस खिलाया गया है पाकिस्तान में। और एक बार जो चख लिया है तो वह खाये बगैर रहेगा ?
पवित्रा कुछ सोचने लगी। फिर बोली-चौधरी का बेटा दुकान-उकान तो नहीं करता है ?
गोपाल पाइन ने कहा-इससे दुकान का क्या सम्बन्ध ?
अन्दू ने कहा-दुकान करता है तभी तो ऐसा कहता है, दीदी ठाकरुन। उसकी दुकान का सड़ा हुआ बिस्कुट कोई छूता नहीं। इसी से तो…।
पवित्रा ने मुसकराकर गोपाल पाइन की ओर देखा। फिर अन्दू से बोली-जब तू सब कुछ समझता ही है तो रोने क्यों आया ?
-सोचा जो दीदी ठाकरुन को रिपोर्ट कर दूँ।
गोपाल पाइन की दृष्टि डाक-पियन पर पड़ी और वह आगे बढ़कर अगुवानी करने के लिए पहुँचा। सारे गाँव की चिट्ठी उसके हाथ में देने में डाक-पियन ने शुरू-शुरू में आनाकानी की थी। किन्तु पवित्रा ने कहा था कि सारे गाँव की चिट्ठी गोपाल पाइन ही पढ़ता-लिखता है। उसके जिम्मे यही काम है। इसलिए उसके हाथ गाँव-भर की चिट्ठी डाकिया जहाँ कहीं भी दे देता है-हाट में, घाट में, बाट में।

किन्तु आज बीच गाँव में डाकिये से गोपाल पाइन लड़ पड़ा। बाँग्ला और अँगरेजी में पता लिखे हुए पत्रों पर अपनी सुविधा के लिए कैथी लिपि में पेन्सिल से ‘पाकिस्तानी टोला’ लिख दिया करता है डाकिया। गोपाल पाइन हिन्दी नहीं जानता तो क्या हुआ, कैथी लिपि में लिखे हुए इस शब्द को पढ़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। उसने डाकिया से कहा-पियोन साहेब, यह क्या बात है। ‘इंग्रेजी’ और बाँग्ला’ में साफ-साफ लिखा हुआ है नोबीननगर और आप उसके ऊपर से ‘अपाना-फरमान’ लिखा है-पाकिस्तानी टोला ? आप ही लोग माने सरकारी ‘कम्मोचारी’ होकर ऐसा कीजिएगा तो यह राज कैसे चलेगा ? एँ ! बोलिए ? यहाँ मिनिस्टर साहब आये थे-आपको मालूम है ? गाँव का क्या नाम हुआ यह भी मालूम है ? तख्ती लटका था, यह भी मालूम है…?
डाक-पियन ने झल्लाकर कहा-चलिए-चलिए, सब कुछ मालूम है। हम ‘दू अच्छर’ कैथी में पाकिस्तानी-
टोला लिख दिया तो आप लड़ाई करते हैं और उधर दुनिया-भर के लोग पाकिस्तानिया-टोला कहते हैं। आप किससे-किससे लड़ते चलिएगा ?…लीजिए मनीआर्डर तामील कीजिए।
-किसका मनीआर्डर है ?
-श्रीमती पवित्रा। पचास रुपये।

गोपाल पाइन ने भेजनेवाले का नाम और पता पढ़ा-हरिप्रसाद जादव, विलेज ऐण्ड पोस्ट : सुक्की बेहाली।…देखें कूपन में क्या लिखा है ? अरे बाबा, यह तो वही ‘कैथी ना क्या’ है ?
पवित्रा के कहने पर डाकिया ने पढ़कर सुनाया-आगे आपको मालूम हो कि उस दिन हम आपके गाँव में गये। आपको देखकर और आपके गाँव की बेअवस्था को देखते हुए हम अपनी ओर से आपको यह मो. पचास रुपये जिसका निस्फ पचीस रुपया होता है, भेजा। इसको आप चाहे जिस काम में खरच करें। आपका शुभचिन्तक-एच.पी. जादव।
-कौन है यह हरिप्रसाद जादब ? पवित्रा ने सभी के चेहरे की ओर बारी-बारी से देखकर पूछा।
गाँव-भर के बैठे-ठाले लोग जमा हो गये।
कालाचाँद ने कहा-दीदी ठाकरुन, कोई भी हो यह हरिप्रसाद जादब, आपको इससे क्या ? गाँव की ‘बेअवस्था’ देखकर किसी ने पचास ‘टाका’ भेज दिया है। आप ‘साइन करके ले लीजिए।
पवित्रा ने मुँह बिदकाकर कहा-वाह, जानूँ नहीं, पहचानूँ नहीं-साइन करके रुपया ले लूँ ?….‘बेअवस्था’ माने क्या ?
-बेअवस्था माने खराब अवस्था। है न पियोन साहेब ?

डाक-पियन ने खैनी थूकते हुए कहा-बेअवस्था माने खराब अवस्था ? यह कौन सिखाइस है आपको ? अरे बेअवस्था माने खूब बढ़िया ‘इन्तजाम-बाद’।
पवित्रा ने डाक-पियन की ओर असहाय दृष्टि से देखकर पूछा-ये ‘इन्तजाम-बाद’ क्या !…ओ ! व्यवस्था तो नहीं ?
डाक पियन का खिसियाया हुआ मन जरा पसीज गया। बोला-देखिए। रुपया छुड़ाने में कोई हर्ज नहीं है। हरिप्रसाद जादब को सभी जानते हैं। कीर्तन के पीछे पागल रहता है। थोड़ी बदनामी भी है तो इसको लेकर आप क्या कीजिएगा। चाल चलन उसका ठीक नहीं है तो क्या हुआ-कीर्तन का पक्का भगत है। पैर में घुँघरू बाँधकर नाचता है। नाचते-नाचते बेहोश हो जाता है।

कालाचाँद घोष कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहता है-कीर्तन करता है ? नाचता है ? तब हम समझ गये कि कौन है यह हरिप्रसाद जादब। एक दिन हम लोगों के कीर्तन में भी वह आया था। दीदी ठाकरुन, वह जो घोड़ा पर चढ़कर आया था, पान बहुत खाता है-वही।…उसने जरूर ही कीर्तन पार्टी के लिए रुपया भेजा होगा।
पवित्रा कुछ सोचकर बोली-ना बाबा, मैं मनीआर्डर नहीं छुड़ाऊँगी।…आप लौटा दीजिए, पोस्टमैन साहब।
पाइन ने कहा- हो सकता है, स्कूल के लिए चन्दा भेजा हो भले आदमी ने। मनीआर्डर लौटाना ठीक नहीं जँचता।
पवित्रा ने किसी की राय पर ध्यान नहीं दिया।
पवित्रा ने याद करने की चेष्टा की-घोड़ा पर चढ़कर कौन आया था, कब ? पान बहुत खाता था ? होगा कोई। लेकिन उसने मेरे नाम से ही रुपये क्यों भेजे ?

मनीआर्डर के तामील करने और वापस करने के झमले में गोपाल पाइन आज की डाक से आये हुए पत्रों की बात भूल गया था। उसने एक-एक चिट्ठी का पता-ठिकाना पढ़ना शुरू किया। एक सरकारी लिफाफे पर अपना नाम देखकर उसका कलेजा धड़क उठा था। अचानक वह चीख पड़ा-दीदी ठाकरुन !!स्कू…ल!!…हो गया…स्कूल हो गया। मेरा काम भी हो गया।…लेकिन..बाँग्ला मास्टर काहे ? हम ‘इंग्रेजी’ भी जानते हैं। हमको खाली बाँग्ला टीचर काहे…। हो गया, स्कूल मंजूर हो गया-सभी भाई-बहन सुन लीजिए !

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Rekha Singh

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  • Books ‘Yug Ke Devta’ and ‘Amar Senani Tumhe Pranaam’, audio tape and CD ‘Azaadi ke deevane’, historical Rashtra Vandna Bhawan at sikandrarau in district Hathras (UP) India and Rashtra Vandna Chowk at Bagpat city and Rashtra Vandna Dwars developed at important places are telling the stories of love for nation and great Indian culture of coexistence and great sacrifices made by Indian patriots. Mr Ashfaq Ullah Khan, S. Zorawar Singh, S. Kiranjeet Singh, Thakur Jagdish Singh, the ancestors of Shaheed Sardar Bhagat Singh, Shaheed Ashfaq Ullah Khan and Thakur Roshan Singh and many more from different corners of this great nation have joined hands in this service to nation.

  • After this, the Chief Guest, Honourable Justice Vijay Munshiji, also gave his views on world peace in a short sweet speech explaining the importance and need of world peace. He rightly pointed out that usually people know their rights, but forget their duties. Justice Munshiji was glad that people like Swami Vishveshwaranandaji and Rajyoginiji Vandana Bahan are doing a very good work towards achieving world peace. After the speeches the floral tributes were given. Justice Munshi gave the prestigious Rashtra Shakti Award to Swami Vishveshwaranandaji and presented a shawl of honour to him. Then Mrs. Justice Munshi presented the Rashtra Shakti Award to Kumari Somashekhariji.

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