डाॅ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार
भारतीय आयुर्वेद में ‘त्रिफला’ को स्वास्थ्य के लिए ‘रामबाण औषधि’ कहा और माना जाता है, जो तीन औषधीय फलों यथा हर्र, बहेड़ा, आंवला के फलों के एक निश्चित अनुपात में मिलाने से निर्मित स्वास्थ्यवर्द्धक चूर्ण रूप में औषधि है। यह पेट के रोगों के लिए ‘रामबाण औषधि’ समझी जाती है। वैसे तो ये तीनों ही वृक्ष औषधीय गुणों से परिपूर्ण हैं और सभी की अपने-अपने औषधीय गुणों की विशेषताएँ हंै। इनमें बहेड़ा स्वयं में चमत्कारी औषधि वृक्ष है, जो आदिकाल से मानव को स्वस्थ बनाये रखने में अपनी अहम भूमिका निभाता आया है। संस्कृत में ‘बहेड़ा’ को करशफल, कलीदरूमा व विभीताकी नाम से जाना जाता है, जो वनों और दूसरे स्थानों पर प्राकृतिक रूप से लोगों द्वारा औषधीय उपयोग हेतु उद्यानों मंे लगाया जाता है। यह मानव शरीर को रोग प्रतिरोधक,नेत्रों की ज्योति बढ़ाने वाला, कब्ज से छुटकारा दिलाने में सहायक है। यही कारण है कि इससे बने ‘त्रिफला’ का सोते से जल या दूध के साथ सेवन करने से पेट साफ होता है। यह पाचन तंत्र के महत्त्वपूर्ण अंग:आमाशय को सृदृढ़ बनाता है और मास्तिष्क को भी स्वस्थ रखता है। बहेड़ा के चूर्ण का लेप बनाकर सिर के बालों की जड़ों पर लगाने से समय से पहले यानी असयम सफेद होना रुक जाता है। बहेड़े के पत्ते और चीनी का काढ़ा बनाकर पीने से कफ से छुटकारा मिलता है। छाल का टुकड़ा मुँह में रख कर चूसने से भी खाँसी और बलगम से छुटकारा मिलता है। बहेड़ा का छिलका और मिश्री युक्त पेय पीने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है। बहेड़ा के आधे पके हुए फल को पीसकर पानी के साथ सेवन करने से कब्ज से छुटकारा मिलता है। बहेड़े को थोड़े से घी मे पका कर खाने से गले के रोग दूर होते हैं। इसकी अन्य विशेषता भूख बढ़ाना,पित्त दोष व सिरदर्द को दूर करना है। आँखों और मस्तिष्क को स्वस्थ रखता है। आयुर्वेदिक औषधियों में इसका प्रयोग होता है। बहेड़ा के बीच का चूर्ण लगाने से घाव का रक्त स्राव रुक जाता है। पैर की जलन में बहेड़े के बीज को पानी के साथ पीसकर लगाने से लाभ मिलता है।
सामान्यतः यह उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में आसानी से मिलता है। इसे कम आर्द्रता वाले स्थान पर लगाया जाता है। यह पतझड़ वाला वृक्ष है और इसकी औसतन ऊँचाई 30मीटर होती है। इसके पत्ते अण्डाकार और 10-12सेण्टीमीटर लम्बे होते हैं। इसके बीच स्वाद में मीठे होते हैं। बहेड़ा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सभी प्रकार की मिट्टी में इसकी पैदावार की जा सकती है। हालाँकि सबसे अच्छी पैदावार नम, रेतीली और चिकनी बलुई मिट्टी में होती है। मानसून आने से पहले गड्ढे खोदकर इस पौधे को तीन मीटर के फासले पर लगा सकते हैं। नर्सरी में इसकी पौध जून-जुलाई में तैयार की जाती है।
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