वानस्पतिक औषधियाँ

हृदय को मजबूत बनाता है अर्जुन

डाॅ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार
अपने देश में प्राकृतिक रूप से वनों, नदी के किनारे, सड़कों और उद्यानों में पाए जाने वाला ‘अर्जुन’ एक बहुवर्षीय औषधीय सदाहरित वृक्ष है। यह विशेषकर हिमालय की तराई, शुष्क पहाड़ी क्षेत्रों में नालों के तट , बिहार, मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में दिखायी देता है। अर्जुन को ककुभ, घवल और नदी, नालों के किनारे होने के कारण कुछ जगहों पर ‘नदी सर्ज ’भी कहा जाता है। आमतौर पर लोग ‘अर्जुन’ को ‘कहुआ’ और ‘सादड़ी‘ नाम से पुकारते हैं। अपने देश में अर्जुन की कम से कम पन्द्रह प्रजाति या प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं। यही कारण है कि किस प्रजाति के ‘अर्जुन’ से बनी औषधि औषधि हृदय रक्त संस्थान पर कार्य करती है, इसकी पहचान होना अत्यन्त आवश्यक है। अर्जुन के बारे में डाॅ.घोष ने अपनी पुस्तक ‘ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान‘ में लिखा है कि आधुनिक वैज्ञानिक अर्जुन से रक्तवाही संस्थान पर प्रभावी उपचार की औषधि बना सकने में असमर्थता का कारण इसके वृक्ष के सदृश सजातियों की मिलावट बहुत अधिक होना है। इनमें से अधिकतर प्रजातियों की छाल एक-जैसी दिखायी देती है, पर उनके रासायनिक गुण और भैषजीय प्रभाव सर्वथा भिन्न पाये जाते हंै। औषधि निर्माण के लिए उपयुक्त अर्जुन की छाल दूसरे वृक्षों की अपेक्षा में कहीं अधिक मोटी तथा मुलायम/नरम होती है। शाखा रहित यह छाल अन्दर से रक्त-सा रंग की होती है। वृक्ष से छाल चिकनी चादर के रूप में उतर आती है, क्योंकि वृक्ष का तना बहुत चैड़ा होता है। अर्जुन की छाल को सुखाकर फिर उसे सूखे शीतल स्थान में चूर्ण रूप में सुरक्षित रखा जाता है।
अर्जुन के वृक्ष की ऊँचाई 60से 80से फीट तक होती है। इसके पत्ते अमरुद के पत्तों जैसे दिखायी देते हैं, जो 7 से 20 सेण्टीमीटर लम्बे और आयताकार होते हैं। अर्जुन की कुछ प्रजातियों के कहीं-कहीं नुकीले पत्ते भी पाये जाते हैं। इन पत्तों के किनारे सरल और कहीं-कहीं ये पत्ते सूक्ष्म दाँतों वाले होते हैं। अर्जुन के नए पत्ते वसन्त ऋतु में आते हैं, जो छोटी-छोटी शाखाओं/ टहनियों पर लगते हैं। इनका ऊपरी भाग चिकना तथा निचला रुक्ष एवं शिरायुक्त होता है। अर्जुन पर फूल वसन्त ़ऋतु में ही आते हैं, जो सफेद अथवा पीले मंजरियों में लगते हैं। इन फूलों में हल्की-सी भीनी-भीनी सुगन्ध भी होती है। अर्जुन के फल लम्बे अण्डाकार 5 या 7 धारियों वाले जेठ से श्रावण मास के दौरान लगते हैं,जो शीतकाल में पकते हैं। 2 से 5 सेण्टी मीटर लम्बे ये फल कच्ची अवस्था में हरे-पीले तथा पकने के पश्चात् भूरे-लाल रंग के हो जाते हैं। इन फलों की गन्ध अरुचिकर और स्वाद कसैला होता है। फल ही अर्जुन का बीज है। अर्जुन के वृक्ष पर स्वच्छ सुनहरा, भूरा, पारदर्शक गोंद पाया जाता है।
इसकी छाल वृक्ष से उतार लेने पर पुनः निकल आती है। औषधि के रूप में छाल का ही उपयोग होता है। अतः अर्जुन के पौधे को वृक्ष बनने में कम से कम दो वर्षा ऋतुएँ चाहिए। एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती हैं। छाल बाहर से सफेद, अन्दर से चिकनी, मोटी तथा हल्के गुलाबी रंग की होती है। करीब 4 मिलीमीटर मोटी यह छाल वर्ष में एक बार अपने आप निकलकर नीचे गिर पड़ती है। छाल का स्वाद कसैला, तीखा होता है। अर्जुन के वृक्ष को गोदने पर एक प्रकार का दूध भी निकलता है।
अर्जुन की छाल में मिलने वाले बीटा साइटोस्टेरॉल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रीडेलीन मुख्य घटक हैं । अर्जुनिक अम्ल ग्लूकोज के साथ एक ग्लूकोसाइड बनाता है, जिसे ‘अर्जुनेटिक’ कहा जाता है। इसके अलावा अर्जुन की छाल में पाए जाने वाले दूसरे घटक निम्न हैं-
(1) टैनिन्स – अर्जुन की छाल का 20 से 25 प्रतिशत भाग टैनिन्स से ही होताहै। पायरोगेलाल और केटेकॉल दोनों ही तरह के टैनिन मिलते हैं।
(2) लवण-कैल्शियम कार्बोनेट लगभग 34 प्रतिशत इसकी राख में होती है। दूसरे क्षारों में सोडियम, मैग्नीशियम व अल्युमीनियम मुख्य है। इस कैल्शियम सोडियम पक्ष की प्रचुरता के कारण ही यह हृदय की माँस पेशियों में सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर पाता है।
(3) विभिन्न पदार्थ हैं-शकर, रंजक पदार्थ, विभिन्न अज्ञात कार्बनिक अम्ल और उनके ईस्टर्स।
अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों के प्रायोगिक जीवों पर जो प्रभाव देखे गए हैं, उससे इसके वर्णित गुणों की पुष्टि ही होती है। विभिन्न प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि अर्जुन से हृदय की पेशियों को बल मिलता है। इसके सेवन से हृदय का स्पन्दन ठीक और सबल होता है। उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है। स्ट्रोक वाल्यूम तथा कार्डियक आउटपुट बढ़ती है। हृदय सशक्त तथा उत्तजित होता है। इनमें रक्त स्तम्भक और प्रतिरक्त स्तम्भक दोनों ही गुण हैं। अधिक रक्तस्राव होने की स्थिति से या कोशिकाओं की रुक्षता के कारण टूटने का खतरा होने पर यह स्तम्भक की भूमिका निभाता है, लेकिन हृदय की रक्तवाही नलिकाओं (कोरोनरी धमनियों) में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जाने वाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है। इस प्रभाव के कारण यह शरीर व्यापी तथा वायु कोशों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है। खनिज लवणों के सूक्ष्म रूप में उपस्थित होने के कारण यह एक तीव्र हृदयपेशी उत्तेजक भी है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में ‘अर्जुन’ से ‘अर्जुनारिष्ट’ औषधि बनायी जाती है,जो हृदय विषयक रोगों के उपचार में प्रयुक्त की जाती है।
होम्योपैथी में अर्जुन एक प्रचलित ख्याति प्राप्त औषधि है। हृदयरोग सम्बन्धी सभी लक्षणों में विशेषकर क्रिया विकार जन्य तथा यांत्रिक गड़बड़ी के कारण उत्पन्न हुए विकारों में इसके तीन एक्स तथा तीसवीं पोटेन्सी में प्रयोग को होम्योपैथी के विद्वानों ने बड़ा सफल बताया है। अर्जुन सम्बन्धी मतों में प्राचीन और आधुनिक विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद हंै। फिर भी धीरे-धीरे शोथ कार्य द्वारा शास्रोक्त प्रतिपादन अब सिद्ध होते चले जा रहे हैं।

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