डाॅ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार
अपने देश के सभी प्रदेशों में अप्रैल,मई के महीनों में वनों, उद्यानों, पौधशालाओं, पार्कों, सड़कों, घरों के अन्दर-बाहर लगे अमलतास अपने झूमर की तरह लटके पीले फूलों के गुच्छों कारण दूर से पहचान में आ जाता है। उसके पास आकर ऐसा प्रतीत होता है कि घोड़े पर सवार दूल्हा दुल्हन के द्वार पर अपना चेहरा पीले फूलों के सहरे से छिपाये हुए आया हुआ है। अमलतास का वानस्पतिक नाम‘ कैसिया फिस्चुला’( बंेेपं पिेजनसं ) है। इसका कुल-‘फेबेसी’( ंिइंबमंम )तथा उपकुल ‘सिजपिनोएडी’( बंमेंसचपदवपकमंम ) है। लैटिन में ‘कैसिया फिस्चुला’ तथा अँग्रेजी नाम ‘गोल्डन शाॅवर ट्री चनतहपदह बंेेपं ए प्दकपंद संइनतदनउए चनककपदह चपचम जतमम हैं। संस्कृत में इसका नाम- व्याधिघात,नृप्रदु्रम, आरग्वध,कर्णिकार आदि,बाँगला में ‘सोनालू’, मराठी में- ‘बहावा’,‘कर्णिकार’, गुजराती में ‘गरमाष्ठों’ है। शब्द सागर के अनुसार हिन्दी शब्द ‘अमलताश’ की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘अम्ल’यानी खट्टे से हुई है। अमलताश बहुवर्षीय वृक्ष है, जो बहुत ऊँचे नहीं होते हंै। यह कहा/माना जाता है कि अमलताश पर फूल खिलने के पश्चात् 45दिन में वर्षा हो जाती है। इसी कारण अमलताश को ‘गोल्डन शाॅवर ट्री’ और ‘रेन इण्डिकेटर ट्री’ कहा जाता है। यद्यपि अमलतास को इसके अत्यन्त सुन्दर फूलों के कारण अधिकतर लोग अपने घरों और बागों में लगाते हैं, तथापि इसमें अनेक औषधीय गुण भी हैं। अपने देश के चिकित्सक सदियों पहले से ‘अमलतास’ के औषधीय गुणों से परिचित रहे हैं। हमारे पड़ोसी देश म्यांमार तथा श्रीलंका में भी अमलतास को पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली में प्रयोग में लाया जाता है। अमलताश के फूलों के झड़ने के बाद शीत काल में हाथ सवा हाथ लम्बी, बेलनाकार पहले हरे रंग ,तदोपरान्त गहरे कत्थई,काले रंग की फलियाँ लगती हैं, जिनमें काला, लासदार पदार्थ भरा होता है। आयुर्वेद में अमलतास ज्वर, पाचन सम्बन्धी समस्याओं व्याधियों/समस्याओं तथा त्वचा के रोग के उपचार में उपयोग किया जाता है। आयुर्वेद में इस वृक्ष के सभी भाग औषधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसके पत्ते मल को ढीला और कफ को दूर करते हैं। फूल कफ तथा पित्त को नष्ठ करते हैं। इसके वृक्ष की छाल और फली में एण्टी आॅक्सीडेण्ट गुण होने से ये शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में बहुत सहायक है। अमलतास की छाल और फली के काढ़े के सेवन से प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। इसके पत्तों और फूलों में ग्लाइकोसाइड, तने तथा जड़ की छाल में रंग(टैनिन) के अलावा ऐन्थ्राक्विीन, फ्लेविन और फल के गूदे में शर्करा , ग्लूटीन जैसे रसायन पाए जाते हैं। पेट के दर्द में इसके तने की छाल को कच्चा चबाने से आराम मिलता है। इस वृक्ष की शाखाओं के छीलने से उनमें लाल रंग का रस निकलता है, जो जमकर गोंद के समान हो जाता है।फलियों में मधुर, गन्धयुक्त, पीले-काले रंग का उड़नशील तेल प्राप्त होता है। फली और उसका गूदा पित्त निवारक, कफनाशक ,विरेचक तथा वातनाशक है। फली के गूदे का आमाशय के ऊपर मृदु प्रभाव होता है। इसलिए दुर्बल मनुष्यों और गर्भवती महिलाओं में विरेचक औषधि के रूप में इसका सेवन कराया जाता है।
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