डाॅ.बचन सिंह सिकरवार
गत दिनों केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा ‘हिन्दी दिवस’ पर यह कहना कि देश को एकता की डोर में बाँधने का काम अगर कोई भाषा कर सकती है तो सर्वाधिक बोली जाने वाली हिन्दी है। देश की विभिन्न भाषाएँ और बोलियाँ हमारे देश की ताकत तो हैं , लेकिन मौजूदा वक्त में देश को एक भाषा की जरूरत है, ताकि विदेशी भाषाओं को जगह न मिल सके। हर किसी को अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने सभी भारतीय भाषाओं को तरजीह देते हुए कहा कि हिन्दी भारत की पहचान बन सकती है। सभी को उसका सम्मान करना चाहिए’। शाह का उक्त कथन सर्वथा उचित, अपरिहार्य और सामयिक है। इसमें कहीं भी अन्य भारतीय भाषाओं पर हिन्दी को थोपने और क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा और अवमानना की बात नहीं कही गई है। फिर भी काँग्रेस, वामपन्थी, द्रमुक दलोें समेत दूसरे राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनके इस वक्तव्य का जिस तरह से घोर विरोध किया गया है, उसे देखते हुए उनकी समझ पर हैरानी होती है। खास कर काँग्रेस द्वारा, जो स्वतंत्रता आन्दोलन का अग्रणी दल रहा है। उसने और दूसरे देशभक्तों, साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, पत्रकारों ने आजादी की लड़ाई सबसे अधिक हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से ही लड़ी थी। इनका सभी का हिन्दी विरोध अप्रत्यक्ष रूप से परायी भाषा अँग्रेजी का समर्थन किया है, जो सर्वथा अनुचित तथा राष्ट्रहित के विरुद्ध है, क्योंकि किसी देश की भाषा ही उसकी स्वतंत्रता की पहचान तथा उसकी सभ्यता और संस्कृति संवाहक होती है जिसमें उसके लोग स्वतंत्रतापूर्वक अपने को अभिव्यक्त करते हैं।
अब हिन्दी विरोध की आड़ में जहाँ एमडीएमके प्रमुख वाइको हिन्दी के विरोध में देश तोड़ने की धमकी पर उतर आए हैं। उन्होंने कहा कि अगर भारत को सिर्फ हिन्दी भाषी का ही देश बनना है, तो सिर्फ हिन्दी भाषी राज्य ही इसका हिस्सा होंगे। तमिलनाडु और पूर्वोत्तर जैसे अन्य राज्य उसका हिस्सा नहीं होंगे। ऐसा कहकर उन्होंने सीधे देश की एकता और अखण्डता को चुनौती दे डाली, वहीं एआइएमआइएम के असदुद्दीन ओवैसी ने हमेशा की तरह न केवल इस मामले को भी हिन्दुत्व से जोड़कर साम्प्रदायिक रंग देने की भरपूर कोशिश की है, बल्कि हिन्दी को सम्पर्क भाषा न बनने देने के लिए यह एक नया तर्क दिया कि हिन्दी हर भारतीय की मातृभाषा नहीं है। भारत हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व से बड़ा है। लेकिन ओवैसी से सवाल यह है कि अगर ऐसा है तो उनके ख्वाबों के मुल्क पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू क्यों है ? जो वहाँ के हर नागरिक की मातृभाषा तो दूर किसी सूबे की भी भाषा नहीं है। चीन की राष्ट्रभाषा मण्डारिन यानी चीनी भाषा क्यों ? श्रीलंका की राष्ट्रभाषा सिंहली भी वहाँ के हर नागरिक की मातृभाषा नहीं है। कमोबेश यही स्थिति दुनिया के अनेक देशों की है। भारत के जम्मू-कश्मीर में उर्दू उसके किसी हिस्से के लोगों की मातृभाषा नहीं है, फिर भी वह इस सूबे की राजभाषा क्यों हैं ? यही हालत देश के दूसरे राज्यों की भी है, जहाँ एक से अधिक भाषा-बोलियाँ हैं। फिर अपने देश में अँग्रेजी कितने लोगों की मातृभाषा है जिसकी वजह से आजादी के बाद कई दशक से वह राजभाषा सरीखी अहमियत पाए हुए हैं। वैसे हिन्दी का दुर्भाग्य यह है कि सही माने को उसका अपना/सगा/ पैरोकार नहीं है, वह भी नहीं, जो उससे अपनी जीविका कमाते हैं। जहाँ एक ओर अपनी गुलामी की मानसिकता के कारण हिन्दी पट्टी (हिन्दी भाषी राज्यों) के शिक्षित ही नहीं, अपढ़/कुपढ़ भी अँग्रेजी में हस्ताक्षर करने, शादी के निमंत्रण पत्र छपवाने, अपने व्यावसायिक/शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की सफलता के लिए उनका नाम हिन्दी में न रखकर अँग्रेजी में रखते हैं, वहीं हिन्दी फिल्मों, टी.वी.धारावाहिकों की ज्यादातर नामावली अँग्रेजी में होती है। यहाँ तक कि इनके कलाकार भी हिन्दी नहीं, अँग्रेजी बोलते हैं। यही स्थिति क्रिकेट समेत दूसरी खेलों के खिलाड़ियों की है। हिन्दी में छपने वाले दैनिक, साप्ताहिक, पााक्षिक, मासिक समाचार-पत्रिकाओं के नाम ही नहीं, उनमें हिन्दी के बहुप्रचलित सरल, सुगम, सहज शब्दों के स्थान पर गैर जरूरी रूप से अँग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यहाँ तक इनकी सारी स्टेशनरी और प्रचार सामग्री भी परायी भाषा में अँग्रेजी में होती है। हिन्दी के शिक्षकों अपने को हिन्दी शिक्षक बताने में संकोच होता है। वे भी औरों की तरह अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं। कमोबेश यही स्थिति हिन्दी के साहित्यकार, पत्रकार और दूसरी विधाओं से सम्बन्धित लोगों की है। हिन्दी दिवस पर आमंत्रित विशिष्ट अतिथियों और वक्ताओं के नाम भी डाॅ.ए.के.पाण्डेय, डाॅ.बी.जी. मिश्र, आदि होते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के जो नेता चुनावों में वोट माँगते समय हिन्दी ही नहीं, प्रादेशिक भाषाओं, बोलियों में भी बोलते हैं, वे ही संसद, विधानसभा के साथ-साथ विशेष अवसरों, पत्रकार वार्ताओं में अँग्रेजी में बोलने में अपनी शान समझते हैं। अपने देश में बिरले ही लोग हैं जिन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी को पढ़ने-लिखने पर गर्व है, जो 53 करोड़ लोगों की भाषा है। 150 देशों में हिन्दी भाषी लोग रहते हैं, जो 2050 तक हिन्दी विश्व की शक्तिशाली भाषाओं में एक होगी। यह विश्व की चैथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसकी देवनागरी लिपि भी पूर्णतः वैज्ञानिक है जिसमें जैसा लिखा जाता है,उसी रूप में पढ़ा भी जाता है। इसमें देशी- विदेशी भाषाओं और बोलियों के शब्दों को आत्मसात् करने की अद्भुत क्षमता और सामथ्र्य है जिसके कारण उसका शब्द भण्डार बढ़ता ही जा रहा है। इसे वर्तमान में 150 से अधिक देशो के विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान पढ़ाने में कोई असुविधा नहीं होती। त्रिनिडाड, गुयाना, सूरीनाम, फिजी, माॅरीशस, दक्षिण अफ्रीका, सिंगापुर में हिन्दी बोलचाल की भाषा है। हिन्दी कभी किसी सरकार के सहारे से नहीं, बल्कि अपनी तमाम खूबियों और उपयोगिता की बदौलत आगे बढ़ी है और भविष्य में भी बढ़ती जाएगी।
वैसे अपने देश के अधिकांश अँग्रेजी के पक्षधरों को यह भ्रम है कि अँग्रेजी न केवल विकास की सीढ़ी है, वरन् विश्वभाषा भी है। पता नहीं क्यों ? वर्तमान में विश्व के विकसित देशों में जापान, जर्मनी, रूस, फ्रान्स, चीन, इजरायल आदि प्रमुख हंै,जहाँ के लोग अपनी-अपनी मातृभाषा जापानी, जर्मनी, रसियन, फ्रेंच, हिब्रू में पढ़ते-लिखते हैं इनके माध्यम से ही वे ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), तकनीक आदि सीखते-सिखाते हैं। बड़ी संख्या में दुनिया के देशों में अँग्रेजी न बोली जाती है और न ही समझी जाती है। जहाँ तक हिन्दी को थोपे जाने का आरोप है, वह आधारहीन है। आज देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को किसी से खतरा है, तो हिन्दी से नहीं, अँग्रेजी से है। इन भाषाओं के शब्दों का अँग्रेजी के शब्दों से निरन्तर विस्थापन हो रहा है। अब किसी को ‘देर’ या ‘विलम्ब’ नहीं, अँग्रेजी में ‘लेट’ हो रहा है।
अँग्रेजी को विकास का जरिया मानने के कारण ही हिन्दी हिंग्लिश, तमिल तमिलिश, बांग्ला बांग्लिश, तेलुगू तेलुगूलिश, मलयालम मलयालमिश बन गई हैं। अँग्रेजी अभिजात्य/धनी वर्ग की भाषा है। इसकी वजह से जनसाधारण के बच्चे उच्च, प्राविधिक, चिकित्सा, इंजीनियरिंग ही नहीं, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय राजस्व सेवा, भारतीय विदेश सेवा, न्यायिक जैसी महत्त्वपूर्ण सेवाओं में आने से वंचित रहते हैं। यहाँ तक कि अँग्रेजी के वर्चस्व के चलते वे अच्छी सेवा में आने और विफल रहने पर कुंठित और निराश होकर आत्महत्या तक करते आए हैं। अँग्रेजी के कारण हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं के अस्तित्व को ही खतरा नहीं, सभ्यता, संस्कृति पर भी अँग्रेजियत हावी हो रही है।
संविधान सभा द्वारा हिन्दी 14 सितम्बर, सन् 1949 को हिन्दी राजभाषा बनाये जाने के बाद भी सात दशक बाद भी उसे अपना वांछित स्थान नहीं मिला है। उसे शासन-प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, उच्च, सर्वोच्च न्यायालय में अब तक नहीं अपनाया गया है। इन सभी जगहों पर अँग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है जिसे अकेले देश के बामुश्किल 4 प्रतिशत लोग बोलते-समझते हैं। अपने देश के वामपंथी दल शुरू से ही न केवल दूसरे मुल्क में बैठे अपने आकाओं के इशारे पर चलते आए है, बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन से लेकर अब तक उन्हें देश हित से सदा बैर रहा है। तभी तो ये सन् 1942 में अँग्रेजो भारत छोड़ा आन्दोलन में अँग्रेजों, सन् 1962 के चीनी हमलावार, अब कश्मीर में अलगाववादियों के साथ तथा अनुच्छेद 370, 35ए के पक्षधर और भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वालों के साथ हैं। इनके कार्यकलापों से लगता है कि ये भारत की उन्नति ही नहीं, उसकी स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता के भी खिलाफ हैं। अब ये लोग हिन्दी के विरोधी और अँग्रेजी के घोर समर्थक बने हुए है,जबकि आमजन/गरीब-गुरबों, मजदूर,किसानों के पैरोकार बनते फिरते हैं, क्या उनकी भाषा अँग्रेजी है ? यही कारण है कि जहाँ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेता सीताराम येचुरी को साम्राज्यवादियों की भाषा अँग्रेजी से मुहब्बत और हिन्दी से बैर है। तभी तो उनका कहना कि हिन्दी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेण्डा है। संघ की एक राष्ट्र, एक भाषा और एक संस्कृति की विचारधारा स्वीकार्य नहीं है। क्या वे हिन्दी की जगह चीनी या रूसी भाषा चाहते हैं, जिनके टुकड़ों पर पलते आए हैं, वहीं तिरुवन्तपुरम में केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पी.विजयन का विचार है कि देश के सामने मौजूदा समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए नियोजित तरीके से हिन्दी भाषा को लेकर विवाद पैदा करने की कोशिश की गई है। हिन्दी को देश की भाषा बनाने की पैरवी को गैर हिन्दी भाषा लोगों के खिलाफ ‘युद्ध घोष’ बताया। इन नेताओं ने साम्राज्यवादियों की भाषा अँग्रेजी के खिलाफ कभी जंग नहीं छेड़ने की बात नहीं कही, जिसकी वजह से गरीबों के बच्चे उच्च शिक्षा और बेहतर सरकारी नौकरी पाने से वांचित रहते आए हैं। द्रमुक पार्टियाँ भी अपना क्षेत्रीय प्रभुत्व बनाने के लिए कभी ब्राह्मणवाद, तो कभी हिन्दुत्व, हिन्दी का विरोध करते आए हैं। अपनी सियासी फायदे के लिए उन्होंने तमिल भाषियों को अँग्रेजी के कारण उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी पाने में होने वाली समस्या का समझने का कभी प्रयास नहीं किया है । जहाँ तक दक्षिण भाषी प्रदेश तमिलनाडु, आन्ध्र, तेलंगाना, कर्नाटक,केरल का प्रश्न है जहाँ उनकी भाषाएँ क्रमशः तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम है जिनमेे बड़ी संख्या में संस्कृत के शब्द है जो हिन्दी की जननी है। ऐसे में इन भाषाओं से हिन्दी का बैर कैसा ?
सम्पर्क-डाॅ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003
वैसे भी हिन्दी का कोई सगा नही

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