राजनीति

इतिहास की भूल सुधारने पर कैसी आपत्ति?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के तहत आने वाले ‘भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद’् (आइसीआरआइ) की एक समिति द्वारा परिषद् को सौंपी अपनी रिपोर्ट में स्वाधीनता आन्दोलन के सेनानियों की सूची में मालाबार से शामिल किये गए जिन 387 लोगों के नाम बाहर करने की उससे जो संस्तुति की है, वह सर्वथा उचित और विधि सम्मत है। देश की स्वतंत्रता के ‘अमृत महोत्सव’ के अवसर पर ऐतिहासिक भूल और चूक को सही करने के इस कदम को सराहा जाना चाहिए। वैसे भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ही नहीं, देश के पूरे इतिहास से इस तरह की त्रुटियों को यथा शीघ्र सुधारे जाने की महती आवश्यकता है, ताकि अपने पूर्वजों के कृत्यों, देश के लोगों के साथ छल,कपट,द्रोह करने वालों करने वालों और देश पर घटी घटनाओं की सही जानकारी प्राप्त कर सकें। लेकिन वामपंथी इतिहासकार और कथित सेक्युलर सियासी पार्टियाँ हमेशा की तरह इस हकीकत को झुठलाने और केन्द्र सरकार पर इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप लगाने से बाज नहीं आ रही हैं।
अब मम्माड के पोते इब्राहिम ने ‘अल जजीरा’ के संवाददाता से कहा,‘‘ यह निर्णय राष्ट्रद्रोह है। मेरे दादा जी और उनके साथियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राण त्यागे थे।’’ इनके बाबा ‘वडक्कीवीटल मम्माड’ के नेतृत्व में 26 अगस्त,सन् 1921 को खिलाफत आन्दोलन मंे हजारों की संख्या में मुस्लिमों ने संघर्ष किया था और पराजित हुए थे। मम्माड के पुत्र को स्वाधीन भारत में केरल सरकार की अनुशंसा पर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में समस्त लाभ दिये गए। ‘मालाबार विद्रोह‘ या ‘मोपला नरसंहार’ के सही तथ्यों से वामपन्थी इतिहासकारों की छेड़छाड़ ने यह विवाद पैदा किया है। इस कारण सन् 1971में केरल की तत्कालीन सरकार ने मोपला नरसंहार के दोषियों/आरोपियों को स्वतंत्रता सेनानी मान लिया। विडम्बना यह है कि केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री ईएमएस नम्बदूरीपाद का परिवार स्वयं उक्त नरसंहार के कारण पलायन को विवश हुआ था। केरल के इतिहास पुनर्लेखन के प्रारम्भ में उन्होंने भी ‘मोपला नरसंहार’ को मजहबी दंगा बताया था, पर बाद में वह सियासती नफा-नुकसान देखते हुए अपने कहे-लिखे से पलट गए। सन् 1973 में केन्द्र सरकार ने भी संसद में ‘मालाबार विद्रोह’ को एक साम्प्रदायिक दंगा माना और उसे स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन का हिस्सा मानने इन्कार किया था। फिर भी वामपंथी इतिहासकार, काँग्रेसी ,वामपंथी राजनीतिक दल इतिहास की इस सच्चाई को झूठलाते आए हैं।
वस्तुतः मालाबार के इस मामले की सच्चाई को समझने के लिए ‘खिलाफत आन्दोलन’ को समझना जरूरी है, जिसकी शुरुआत अपने देश में मुस्लिमों ने सन् 1918 में प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के हारने के बाद ब्रिटेन और उसके मित्रों देशों द्वारा वहाँ के सुल्तान अब्दुल हामिद को सत्ता से बेदखल करने और खलीफा का दर्जा/पद खत्म करने से हुई थी, जो इस्लामिक दुनिया के लोगों के लिए सबसे बड़ा मजहबी रहनुमा समझा जाता था। इतना ही नहीं, तुर्की के साम्राज्य को भंग कर सुल्तान को कुस्तुन्तनिया में नजरबन्द कर दिया। यह तब जब कि 5जनवरी, सन् 1918 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज ने भारतीय मुसलमानों को भरोसा दिया था कि तुर्की साम्राज्य का विघटन नहीं किया जाएगा और खलीफा के औहदे की इज्जत में किसी तरह की कमी नहीं की जाएगी। इस फैसले से भारत समेत दुनियाभर के मुसलमान ब्रिटिश सरकार से नाराज हो गए और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लामबन्द होने लगे। उनके इस ब्रिटिश सरकार विरोधी आन्दोलन को ‘खिलाफत आन्दोलन’ कहा गया। इसका मूल/मुख्य उद्देश्य का भारत को स्वतंत्रता कराना न होकर तुर्की के सुल्तान को फिर से सत्ता और उसे खलीफा का दर्जा दिलाना था। मोहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खान, डॉ.मुख्तार अहमद अंसारी, मौलाना अल हसन, अब्दुल वारी, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी आदि खिलाफत आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। इधर काँग्रेस के नेता महात्मा गाँधी ने विचार किया कि इस मौके का फायदा उठाते हुए मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वतंतत्रा आन्दोलन से जोड़ने में किया जाए। इसलिए उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया। नतीजा, 24 नवम्बर, सन् 1919 को दिल्ली में ‘अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन हुआ, जिसका महात्मा गाँधी को अध्यक्ष बनाया गया। तब गाँधी जी ने सलाह दी कि अँग्रेज तुर्की की समस्या/मसला का उचित न हल निकाले, तो असहयोग और बहिष्कार की नीति अपनायी जाए। अतः 20 मई,सन् 1920 को खिलाफत कमेटी ने गाँधी जी के असहयोग कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया। डॉ.पट्टाभि सीतारमैया के शब्दों में खिलाफत, पंजाब की भूलों और अपर्याप्त सुधारों की त्रिवेणी से असन्तोष का पानी किनारे के ऊपर बह चला और उसके संगम ने राष्ट्रीय असन्तोष की धारा को एक नवीन रूप से व्यापक एवं गतिशील बना दिया। उसी दौरान 28 अप्रैल,सन् 1920 को भारत के वर्तमान केरल में मालाबार जिला सम्मेलन में अली बन्धुओं-शौकत अली, मोहम्मद अली जौहर और अब्दुल कलाम आजाद के नेतृत्व में ‘खिलाफत आन्दोलन’ का समर्थन करने वाला एक प्रस्ताव पारित किया गया। तत्पश्चात् एक तिरुरंगदी मस्जिद के इमाम अली मुस्लीर ने अगुवाई अपने हाथ में ले ली और इस्लामी कानून को देश का कानून बनाने की कोशिश की। ‘इस्लामिक स्टेट’ के गठन के अन्तिम लक्ष्य को तेज करने के इरादे से एक अफवाह फैलाई गई कि अफगानिस्तान के अमीर ने दिल्ली पर हमला कर दिया है और मुसलमानों के लिए इस इलाके पर दावा करने का वक्त आ गया है।
एक दूसरे मुस्लिम नेता जैसे वरियनकुनाथ कुन्हम्मद हाजी ने तब तक न केवल खुद को इस्लामिक स्टेट का गर्वनर घोषित कर दिया, बल्कि लोगों को भड़काना शुरू कर दिया। इलाके के गैर मुसलमान पर जजिया/धार्मिक कर भी लगाया गया। इस प्रकार देखा जाए तो वर्ष 1921 में जो हुआ वह वस्तुतः मालाबार में सालों से चल रही मजहबी नफरत का नतीजा था। इस भारी खूनखराबे से पहले मालाबार में कोई 50 खूनी वरदातें हुईं, क्योंकि मुसलमान मस्जिद बनाने हेतु मन्दिर के आसपास की जमीनों पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर जिन इलाकों में मुस्लिम ज्यादा तादाद में थे। उन्होंने हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाने की मुहिम छेड़ दी। वैसे वर्तमान केरल के इस इलाके में मोपला मलयाली भाषी मुसलमान कई सदी से रहते आए हैं, जो अरब मूल के हैं। ये लोग समुद्री जहाजों से सामान उतारने-चढ़ाने और मछली पकड़ने का काम करते थे। मालाबार क्षेत्र में साम्प्रदायिकता फैलाने की शुरुआत सन् 1766 से हुई, जब मैसूर के शासक हैदर अली और टीपू सुल्तान द्वारा क्षेत्र के हिन्दुओं तथा ईसाइयों के खिलाफ खूनी मुहिम चलायी। इस वजह लाखों लोगों को अपना सबकुछ छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा। वैसे तो खूनी खराबे का यह सिलसिला 180 साल से चला आ रहा था, पर खिलाफत आन्दोलन ने मौजूदा मजहबी की खाई को और ज्यादा गहरा तथा चौड़ा कर दिया। खिलाफत आन्दोलन की आड़ में कट्टरपन्थी मुसलमानों द्वारा सन्1922 मेें हिन्दुओं के इस नरसंहार को छुपाने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने इसे ‘किसान विद्रोह‘ का नाम दिया गया। अँग्रेजों के भूमि कानून के खिलाफ मालाबार इलाके में खेतिहार मजदूरों ने 20 अगस्त, 1921 को आन्दोलन शुरू कर दिया।वह कानून भू-स्वामियों के भूस्वामित्व की रक्षा करता था। भू-स्वामियों और ब्रिटिश राज के खिलाफ की रक्षा चला। वह आन्दोलन सन् 1922 तक जारी रहा। उसे ‘मालाबार विद्रोह’ अथवा ‘मोपला विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है।उनके अनुसार 2,339 विद्रोहियों समेत दस हजार से अधिक लोग मारे गए थे। इस घटना को लेकर दूसरे आख्यान में ‘मोपला नरसंहार’ आन्दोलनकारी खेतिहार मजदूर मुसलमान थे और भू-स्वामी हिन्दू। इनसे नाराज आन्दोलनकारियों ने मन्दिर तोड़े और उन्हें इस्लाम कुबूल करने को मजबूर किया।
सन् 1971में केरल सरकार द्वारा मालाबार के स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में सन् 1921 के खिलाफत आन्दोलन में अगुआ वी.के.हाजी का भी नाम भी दर्ज है। संघ के अनुषांगिक संगठन ‘प्रज्ञा प्रवाह’ के अखिल भारतीय संयोजक जे.नन्दकुमार ने कहना है कि इन लोगांे के नाम स्वाधीनता आन्दोलन के सेनानियों की सूची बाहर किया जाने चाहिए, क्यों कि स्वाधीनता की लड़ाई में ‘खिलाफत आन्दोलन’ का कुछ लेना-देना नहीं था, बल्कि इसके चलते देश में जगह-जगह धार्मिक उन्माद बढ़ा। उसमें से एक मालाबार का नरसंहार भी है, जिसमें इस्लाम कुबूल करने को हजारों लोगांे का मारा गया। खिलाफत आन्दोलन ब्रिटिश सरकार द्वारा कुचल जाने पर केरल में हुए मोपला दंगे में 15 हजार हिन्दू नर-नारियों का कत्ल-ए-आम हुआ और उपरोक्त 387 नाम मोपला दंगों और खिलाफत आन्दोलन से जुड़े हैं, जो भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन से नहीं, तुर्की की स्वाधीनता से जुड़े हैं। ऐसे मंे आप से प्रश्न है क्या ये लोग तुर्की के स्वतंत्रता सेनानी थे या भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी? इस स्थिति में इतिहास की भूल को सुधारने का विरोध क्यों होना चाहिए?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.न. 9411684054

 

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