राजनीति

‘अजान’ के फैसले पर फिर खामोशी ?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

साभार सोशल मीडिया

गत दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर से ‘अजान’ देने पर रोक लगाने और इस फैसले को लागू कराने को लेकर जो निर्णय दिया है, वह इस मुल्क के आईन (संविधान) के बुनियादी हकों (मूलभूत अधिकारों) और सेक्यूलर उसूलों (पंथनिरपेक्ष सिद्धान्तों) के हिसाब से निहायत उम्दा फैसला है, जो इंसानी सेहत के लिहाज से भी सौ फीसद बेहतरी से जुड़ा है। उच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय से गाजीपुर के जिलाधिकारी के कोरोना संकट के दौरान मस्जिद से लाउडस्पीकर से अजान न देने के उस निर्देश को सही ठहरा दिया है, जिसे कुछ लोगों अपने मजहब के खिलाफ मानते हुए इस न्यायालय में याचिका दायर की थी। वैसे इस फैसले में इस्लाम मजहब के खिलाफ कुछ भी नहीं है और सभी नागरिकों के बुनियादी हकों की हिफाजत तथा इन्सानी सेहत का ख्याल रखकर दिया है। यह देखते हुए अदालत के इस फैसले की जितनी तारीफ जाए, वह कम ही होगी, पर अब इसके उलट हो रहा है। इस फैसले से कुछ को छोड़कर इस्लाम के मानने वाले ज्यादातर लोग इससे बेहद नाराज है।
वैसे भी अपने मुल्क में किसी मजहबी मुद्दों पर इनसे आसानी से रजामन्द होने की उम्मीद करना ही बेमानी है, जो अपनी सहूलियत के हिसाब से कभी मजहब को अव्वल, तो कभी आईन को अव्वल कहते/बताते आए हैं। अब इस फैसले को लेकर ज्यादातर मजहबी रहनुमा, मुल्ला, मौलवी, इमाम अपनी-अपनी तरह नाराजगी जताते हुए इसे मजहब के काम में गैरजरूरी दखल मान रहे हैं। इनमें से कुछ इस फैसले के खिलाफ देश के सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। इस मुद्दे पर हमेशा की तरह देश की कथित सेक्यूलर सियासी पार्टियों के नेता और देश के संविधान और कानून के शासन का राग अलापने वाले खामोश बने हुए हैं। इस मामले में अपवाद स्वरूप खुद को प्रगतिशील, सेक्यूलर बताने-जताने के बाद भी कट्टर मजहबी ख्यालत रखने वाले मशहूर शायर, फिल्मी संवाद लेखक, गीतकार जावेद अख्तर ने मस्जिद से लाउडस्पीकर से अजान देने की मुखालफत जरूर की है, इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

साभार सोशल मीडिया

मस्जिदों से लाउडस्पीकर से अजान दिये जाने को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय को समझने के लिए पूरी घटना को समझना जरूरी है। इस्लाम मजहब में मस्जिद से अजान देने की रवायत/परम्परा सदियों पुरानी है, जिसके जरिए मस्जिद का मोहज्जिन तेज आवाज में ‘अजान’ लगाते आए हैं, ताकि उसे सुनकर इस्लाम को मानने वाले नमाज कर सकें। लेकिन कुछ सालों से अब हर छोटी-बड़ी मस्जिदों से लाउउस्पीकर से अजान लगायी जाने लगी है, चाहे वह कोई भी जगह हो, यहाँ तक कि वहाँ इस मजहब के चन्द लोग ही रहते हों। भले ही मस्जिद न्यायालय या अस्पताल परिसर में ही क्यों न हो, लेकिन इससे बेपरवाह मोइज्जिन अपने हिसाब से अजान लगाते आए हैं। यह देखते हुए पहले भी कुछ लोगों द्वारा लाउडस्पीकर से अजान लगाने पर विरोध जताया जाता रहा है, पर किसी ने उस पर ध्यान देने की आवश्यकता अनुभव नहीं की, क्योंकि इससे सियासी पार्टियों को इस समुदाय के एकमुश्त वोट खोने का डर सताता रहा है। गत वर्ष न्यायालय भी इस मुद्दे पर अपना निर्णय भी दे चुका हैं, पर शासन-प्रशासन ने अल्पसंख्यक समुदाय की नाराजगी को देखते हुए उस फैसले को लागू करने की कभी जहमत नहीं उठायी।
अब कोरोना संकट के समय जब सरकार ने सभी धार्मिक स्थलों को बन्द कर दिया, तब उत्तर प्रदेश गाजीपुर जिले के जिलाधिकारी ने मस्जिद के मोइज्जिन से लाउडस्पीकर से अजान न देने का मौखिक निर्देश दिया था। इसके खिलाफ गाजीपुर के सांसद अफजल अंसारी और फरुर्खाबाद के सैयद मोहम्मद फैसल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उस पर उच्च न्यायालय ने अपने इस अहम फैसले में कहा है कि लाउडस्पीकार से ‘अजान’देना इस्लाम का धार्मिक हिस्सा नहीं है। हालाँकि ‘अजान’ देना अभिन्न हिस्सा है। मस्जिद से मोइज्जिन बगैर लाउडस्पीकर के अजान दे सकते हैं। अपने इस फैसले के मुख्य आधार को स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कहा कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है। किसी को अपने मूल अधिकार के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने अधिकार नहीं है। ऐसा कहकर न्यायालय ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पूजा-अर्चना/नमाज/प्रार्थना को अपना मूलभूत अधिकार समझ कर लाउडस्पीकार का इस्तेमाल करने अथवा कोई ऐसा कार्य करता है, जिसके कारण दूसरे व्यक्ति/समुदाय के मूलभूत अधिकारों पर विपरीत प्रभाव/उसके मूल अधिकारों का उल्लंघन/हनन होता है, तब उस हालत में उसे संविधान से प्राप्त मूलभूत अधिकारों के कोई माने नहीं रह जाते हैं। अब अधिक तेज आवाज में बिना अनुमति के लाउडस्पीकर बजाने की छूट किसी को नहीं है। अब इस आदेश को सभी जनपदों के जिलाधिकारियों के जरिए लागू किया जाएगा।
अब इस फैसले के आने के बाद बरेली के दरगाह आला हजरत से जुड़ी प्रमुख शख्सियत की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। इसी शहर के एक अन्य उलमा ने अपनी असहमति जरूर जतायी है। वह इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की बात भी कह रहे हैं। बरेली की खानकाह नियाजिया के प्रबन्धक शब्बू मियाँ नियाजी ने कहा कि वह सज्जादानशीन से बात कर अपनी राय रखेंगे। आगरा में भी मस्जिद, मदरसों से जुड़े लोग इस फैसले के खिलाफ हैं। इनमें से एक का कहना है कि अल्लाह के रसूल ने फरमाया था कि अजान की आवाज जितनी दूर तक जाएगी, उतनी दूर तक शैतान नहीं ठहर पाएगा, तो दूसरे का कहना है कि जिस चीज से इस्लाम या मुसलमानों को सहूलियत हो, इन्सानों की भलाई होती हो,वह काम गलत कैसे हो सकता है? पर यहाँ उनसे सवाल यह है कि फिर उन्हें तत्काल तीन तलाक, हलाला और दूसरी कुरीतियाँ इन्सानियत के खिलाफ क्यों नजर नहीं आतीं?
धार्मिक स्थलों और धार्मिक आयोजनों में बहुत तेज आवाज में लाउडस्पीकरों पर भजन – कीर्तन / जागरण/ रामायण / भगवात या फिर मस्जिदों में ‘अजान’ देने से सोने / पढ़ने / हृदय या किसी गम्भीर रोग से पीड़ित लोगों पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे शोर के कारण अच्छी तरह सो या फिर पढ़ नहीं पाते। शोर/ तेज आवाज से गम्भीर रोगों से ग्रस्त लोगों की बेचैनी बढ़ जाती है। कभी – कभी ऐसी स्थिति में उनकी जान भी चली जाती है। इस कठोर सच्चाई को जानते हुए भी लोग अपने – अपने निहित स्वार्थों के कारण तेज आवाज/शोर मचाने से से बाज नहीं आते। अब जहाँ तक इस्लाम मानने वालों का सवाल है तो वे अक्सर अपनी मजहबी ग्रन्थों की नजीर पेश करते हैं। उसमें किसी तरह के बदलाव को वे शरीयत के खिलाफ मानते थे। तत्काल तीन तलाक और कई दूसरे मुद्दों पर इनका सहारा लेकर वे देश के कानून से ऊपर इस्लामिक कानून या शरीयत को बताते आए हैं। लेकिन जब ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम – 2019 का मसला आया, तो ये लोग ही न केवल संविधान के समानता के अधिकार की दुहाई देने लगे, बल्कि ये साबित करने में भी जुट गए कि वे इस मुल्क के संविधान के सबसे बड़े रक्षक और उसके हर कानून को मानने वाले हैं। फिर संविधान की आड़ में पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे, आगजनी, सम्पत्ति को बर्बाद किया।
दरअसल, अपने मुल्क में समुदाय विशेष की तुष्टिकरण की राजनीति की वजह से यह वर्ग स्वयं को विशेषाधिकारी समझने लगा। इनमें से कुछ लोग खुद को हिन्दुस्तानी पुरखों की औलाद न मानते हुए विदेशी हमलावरों – गौरी, तुगलक, खिलजी, लोदी, मुगलों का वारिस समझ कर इस मुल्क पर फिर से हुकूमत का ख्वाब देखने और उसे हकीकत में तब्दील करने में जुटे हैं। इनमें से कुछ वतनफरोशों और दहशतगर्दों की हिमायत करने तक की हिमाकत करते आए हैं, लेकिन सत्ता लोभियों ने उनके गैरकानूनी और मुल्क के खिलाफ किये जा रहे उनके कामों की तरफ अपनी आँखें मूँद लीं। इस कारण देश के सारे कानून केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं तक सिमट कर रह गए हैं। ऐसे लोगों के हौसले इतने बुलन्द हैं कि अपने मुल्क के खिलाफ काम करने के बाद वे कानून को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आते। ये लोग मजहबी कट्टरता की बुनियाद पर बने पाकिस्तान के हालात से भी कोई सबक सीखना नहीं चाहते। इन लोगों को यह भी दिखायी नहीं देता कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, यमन, लीबिया, सीरिया आदि इस्लामिक मुल्कों की क्या हालत है? क्या वाकई इस्लामिक मुल्कों की तुलना में भारतीय मुसलमानों की स्थिति खराब है ? उम्मीद करनी चाहिए कि इस देश के मुसलमान अपने संविधान, दूसरे कानून को मानेंगे और अदालतों के फैसलों की भी दिल से इज्जत करेंगे और बाकी बाशिन्दों से खुद को हर तरह से बेहतर साबित करके भी दिखायेंगे।
सम्पर्क-डॉ.बचनसिंह सिकरवार,63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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