रामकृपाल सिंह

महात्मा गाँधी का कथन है,‘‘भारत गाँव का देश है’’,यह कोविड-19 ने सत्य साबित कर दिया। कोविड-19 से फैली महामारी के बाद यदि अन्य किसी की चर्चा हो रही है तो भारत के गाँव की हो रही है। शहरों में फँसा रोते-बिलखते प्रवासी मजदूरों ने सिर्फ एक ही रट लगा रखी है,‘‘ हमें हमारे गाँव पहुँचा दो।’’ भारत में जेठ मास में गर्मी का प्रकोप वैसे ही जानलेवा हो जाता है, जहाँ लोग निर्जलीकरण(डिहाइड्रेशन) और ‘लू’ लगने से मरते हैं। उस माह में हजारों किलोमीटर की पैदल और साइकिल यात्रा पर अनगिनत रोते चेहरे जानलेवा यात्रा पर निकल चुके हैं। आज हम इन मजदूरों की यात्रा की तुलना धर्मराज युधिष्ठिर की अन्तिम जीवन यात्रा से तुलना करें, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वह दिव्य पुरुष थे और यह साधारण मानव दोनों ही अपने वास्तविक मूल स्थान पर पहुँचना चाहते हैं।
गत दिनों मजदूरों का एक समूह पटरी के सहारे चलते चलते थक कर कभी ना खुलने वाली नींद के आगोश में समा गया, तो दूसरी घटना में एक परिवार जिसमें माँ-बाप और उनके दो बच्चे भारी वाहन की चपेट में आ गए। इसमें दोनों पति-पत्नी की मौके पर ही मौत हो गई और उनके बच्चे जिन्दा बच गए। क्या नियति इतनी निर्मम हो सकती है? क्या परमात्मा इतना कठोर हो सकता है ? अब दोनों बच्चे किसके सहारे जिंदा रहेंगे? उनका भविष्य क्या होगा?कोई नहीं जानता? एक नवयुवक अपने गाँव के सफर को पूरा करने से पहले हृदय गति रुकने से उसकी जीवन यात्रा हमेशा हमेशा के लिए थम गई।
जो लोग कल शहर की दम घोटू हवा, टैंकरों की लाइन में लगकर पानी भरने और सीलन भरी कोठारी में रहने के लिए गाँव की आजादी को ठुकरा गए। आज वह गाँव के लिए तड़प रहे हैं। बच्चों की तरह जिद कर रहे हैं कि कैसे भी हमें बस हमारे गाँव पहुँचा दो, तो आखिर क्यों ? गाँव में इसका जवाब है भूख से ना मरने की गारण्टी। आज अचानक से गाँव इतना सुरक्षित कैसे हो गए? इतिहास उठाकर देख लीजिए गाँव हमेशा से सुरक्षित था। यदि गाँव हमेशा सुरक्षित था, तो लोग शहरों को पलायन क्यों कर रहे हैं? इसका उत्तर है सरकारी तंत्र और प्राइवेट कम्पनियों का गठजोड़ किसान को मजदूर बनने पर विवश कर कर रहा है।
यह जो प्रवासी मजदूर है, कल का किसान था। गन्ना पैदा करेगा किसान, खरीदेगी कम्पनी। उस गन्ने की चीनी बनेगी, शीरा बनेगा, एथेनॉल बनेगा,पर उसका मूल्य तय करेगी सरकार, पर गन्ने का भुगतान कौन करेगा? कब करेगा कैसे करेगा? यह कोई नहीं जानता? यदि हम धान की बात करें, तो भारत के बासमती चावल का विश्व में कोई मुकाबला नहीं है। मध्य एशिया और यूरोप भारत के बासमती के प्रमुख खरीदार हैं, परन्तु भारत का किसान उस बासमती चावल के उत्पादन में विश्व बाजार में प्रतिबन्धित दवाओं का उपयोग करता है। इस कारण मानव स्वास्थ्य का ध्यान रखकर अब इन देशों ने भारत से बासमती के आर्डर लगाना कम कर दिया है। अब जब बासमती चावल बाहर नहीं जाएगा, तो किसान को सीधा सीधा घाटा होगा। भारत आलू के उत्पादन में भी विश्व में अग्रणी भूमिका रखता है। आलू उत्पादन होने से लेकर छटाई बिनाई, कोल्ड स्टोर ले जाने और फिर वहाँ से मण्डी जाने में लगभग 20प्रतिशत आलू खराब हो जाता है। आलू का निर्यात भारत मात्र 2 प्रतिशत करता है और वह भी खरीदार आपके पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका है। इसका कारण है कि भारत के किसान आलू उत्पादन में भी वैश्विक बाजार में प्रतिबन्धित दवाओं का अत्यधिक उपयोग करता है, तो आखिर मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दवाएँ भारत के बाजार में कैसे बिक रही हैं?तो इसका एक ही उत्तर है दवा कम्पनियों और सरकारी तंत्र का गठजोड़ किसानों के हित पर हावी है। हम भारत को तिलहन के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की बात करते हैं, किन्तु कम्पनियों के सामने नतमस्तक सरकारी तंत्र देश के बाहर से इतना पाम ऑयल आयात करता है, तिलहन के किसानों को उनका लागत मूल्य मिलना भी मुश्किल हो जाता है। जब किसी को लागत मूल्य नहीं मिलेगा, तो वह घाटे की खेती क्यों करेगा?
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पशुपालन भी अपनी महŸवपूर्ण भूमिका अदा करता आया है। गंगा, यमुना ,चम्बल और न जाने कितनी उनकी सहायक नदियाँ वाले मैदानी क्षेत्र वाले उत्तर प्रदेश दुग्ध उत्पादन में देश के अग्रणी राज्यों में है, परन्तु उत्तर प्रदेश को दूध गुजरात पिलाता है। अमूल दूध पीता है इण्डिया। उत्तर प्रदेश की पराग डेयरी आखिर क्या कर रही है?
भेड़, बकरी एवं अन्य पशुओं का माँस उत्पादन के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के लिए ट्रान्सपोर्ट होता है, तो तथाकथित संस्थाएँ इन पशु व्यापारियों को को परेशान करती हैं। इसका असर भी सीधा- सीधा पशुपालन व्यवसाय पर पड़ता है
गेहूँ ,बाजरा, धान, आलू पैदा होगा उत्तर प्रदेश में और इन पर आधारित उद्योग लगेंगे अन्य राज्यों में, इस प्रकार से कृषि कार्य को घाटे का सौदा बनाकर किसान को जबरन प्रवासी मजदूर बनाया जा रहा है। एक बार कम्पनी और सरकारी तंत्र का गठजोड़ टूट गया, तो यकीन मानिए, भारत के गाँव सुरक्षित और खुशहाल होंगे। फिर मजदूर तो होंगे,क पर प्रवासी मजदूर नहीं होंगे
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