पितृ-पक्ष (07 से 21 सितम्बर 2025) में विशेष
– डॉ. गोपाल चतुर्वेदी
साँझी को ब्रज की लोक देवी माना गया है। यह ब्रज संस्कृति की उपासना का प्रमुख अंग है। ब्रज के अनेक देवालयों में इसे आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक अंकित किया जाता है। इसके मध्य में भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित विभिन्न लीलाओं का भी अंकन किया जाता है। यह ब्रज की लोक चित्रांकन कला है। इसमें सूखे रंगों, फूलों व गोबर आदि के प्रयोग से अष्टकोणीय रूप में ज्यामितीय आकार की विभिन्न दृश्यावलियाँ फर्श, दीवार व कागज आदि पर बनाई जाती हैं। चूंकि साँझी का आशय संध्या से है इसलिए, इसके दर्शन सांय काल ही होते हैं। पितृ पक्ष में इनके बनाये जाने का प्रमुख कारण यह है कि एक तो इन दिनों यहां विभिन्न प्रकार के फूल सहजता से प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे इन दिनों कोई विशेष उत्सव-त्योहार व मांगलिक कार्य आदि न होने के कारण इसको बनाने वाले कलाकार फुरसत में हुआ करते हैं। अतैव यह कला ब्रज में पितृ पक्ष का विशेष उत्सव है। ब्रज के नगरीय क्षेत्रों में सूखे रंगों एवं ग्रामीण अंचलों में गोबर से इस कला का चित्रांकन बहुतायत से होता है। इसे तेल व जल के अंदर एवं तेल व जल के ऊपर भी एक विशेष तरीके से बनाया जाता है।
फूलों से साँझी बनाये जाने का इतिहास 5000 हजार वर्षों से भी अधिक पुराना है। बताया जाता है कि इसको बनाये जाने की शुरुआत राधा रानी ने की थी। वह इसे अपने परमाराध्य श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए बाग बगीचों में विभिन्न प्रकार के फूलों द्वारा अपनी सखियों के सहयोग से बनाया करती थीं। श्रीकृष्ण जब गौधूलि बेला में गौचारण कर घर आते थे तो वे इन्हें देखकर बेहद प्रसन्न होते थे। अतः साँझी अपनी शुरुआत के दिनों से ही प्रभु को रिझाने व उनकी उपासना करने की प्रमुख विधि रही है। बाद को राधा रानी की देखा-देखी अन्य लोग भी साँझी बनाने लगे। साथ ही यह ब्रज में प्रभु की आराधना का एक सशक्त माध्यम बन गई। कहा गया है-
“मनवांछित फल पाइये, जो कीजे इहि सेव।
सुनौ कुंवरि बृषभानु की, यह साँझी सांचौ देव।।”
साँझी बनाने हेतु सर्वप्रथम अष्टकमल आकर में पीली मिट्टी की वेदी बनाई जाती है। अष्टकमल अष्टसखियों का प्रतीक है। ततपश्चात ज्यामिती आकार में डिजाइन डाली जाती है। इसमें सतिया-स्वस्तिवाचक के रूप में,सात बिन्दी-सप्तऋषियों के प्रतीक के रूप में और केला रूद्र पूजा के रूप में अंकित किये जाते हैं।इसके बाद इन्स्टेंसिल लगाकर तरह-तरह के रंगों को डाली गई डिजायनों के अंदर छाना जाता है। सबसे अंत में साँझी के मध्य “होंद” बनाया जाता है, जिसमें रंगों के द्वारा भाँति-भाँति के दृश्य चित्रित कर उनके मध्य राधा-कृष्ण का युगल चित्र लगाया जाता है। चार पांच व्यक्ति दिन-भर कठोर परिश्रम से कार्य करने के बाद सांय तक एक साँझी तैयार कर पाते हैं।ततपश्चात उसका ठाकुर जी के विग्रह की भांति अत्यंत विधि-विधान से भोग लगाया जाता है और उसकी आरती होती है। इसमें बाद उसके दर्शन सभी के लिए खुलते हैं, जो कि रात्रि को मन्दिर के पट बन्द होने के तक खुले रहते हैं। प्रातः काल मन्दिर की मंगला आरती के समय इसके दर्शन पुनः कराए जाते हैं। इसके बाद वेदी व राधा-कृष्ण की युगल छवि को छोड़कर पूरी साँझी बिगाड़ दी जाती है। अगले दिन दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद विभिन्न दृश्यावलियों से सुसज्जित दूसरी साँझी बनाई जाती है। पितृ विसर्जन अमावस्या को प्रत्येक दिन की साँझी में प्रयुक्त होने वाले फूलों,रंगों आदि सामग्री को यमुना में विसर्जित कर दिया जाता है। ब्रज के ग्रामों में गोबर से भी साँझी बनाई जाती है। ततपश्चात उन्हें फूलों व कौड़ियों आदि से सजाया जाता है। इस समय अधिकांशत: सूखे रंगों के द्वारा ही साँझी बनाई जाती है। ब्रज की अधिकांशत: कुँवारी कन्याएं श्रेष्ठ वर प्राप्त करने के उद्देश्य से भी साँझी बनाती हैं और व्रत भी रखती हैं।
साँझी बनाया जाना अत्यंत कष्ट साध्य व श्रम साध्य कला है। क्योंकि इसे भक्ति भावना के साथ बनाया जाता है इसलिए इसको जमीन पर बनाने वाले कलाकार इसे लकड़ी की तख्तियों पर बैठ कर एवं घण्टों झुके रह कर जमीन पर बिना पैर रखे बनाते हैं। वृन्दावन के भट्ट जी मन्दिर, राधावल्लभ मन्दिर व राधारमण मन्दिर आदि में पितृ पक्ष के दौरान अत्यंत चित्ताकर्षक व नयनाभिराम साँझी बनाई जाती है। वृन्दावन के प्राचीन ब्रह्म कुंड पर पितृ पक्ष के पूरे 15 दिन साँझी का मेला लगता है। इसमें प्रतिदिन सांझी बनाने वाले कलाकार अपनी कला का हुनर दिखाते हैं। बाद को इन्हें पुरुस्कृत भी किया जाता है। इस समय राधारमण मन्दिर के सेवायत सुमित गोस्वामी एवं प्रियावल्लभ मन्दिर के सेवायत रसिक वल्लभ नागार्च आदि की गिनती साँझी बनाने वाले प्रमुख कलाकारों में की जाती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार राधा रानी मानिनी देवी थीं, इसलिए श्रीकृष्ण ने प्रायः अपनी सभी लीलाएं राधा रानी को मनाने के लिए की थीं। परन्तु राधा रानी ने श्रीकृष्ण को रिझाने के लिए कुछ ही लीलाएं की थीं, साँझी उन्हीं में से एक है। साँझी राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीक है। इसीलिए ब्रज में साँझी को राधा रानी का प्रतिरूप मान कर संध्या के समय उनकी उसी प्रकार पूजा-अर्चना की जाती है,जिस प्रकार ब्रज के मंदिरों में ठाकुर विग्रहों की पूजा-अर्चना होती है। साँझी कला राधा-कृष्ण के प्रेम की चरमतम अवस्था की परंपरा है, जो कि ब्रज में ही संजोयी गयी है और यहीं विकसित भी हुई है। अष्टकोण में निहित होने एवं राधा रानी की कला होने के कारण इसे “वैष्णव यन्त्र” भी कहा गया है। साँझी कला ब्रज की लोक संस्कृति में निहित है। इसीलिए इसे प्रति वर्ष एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। साँझी पर अनेक सन्तों,रसिकों व भक्तों आदि ने सैकडों पदों की रचना की है।जिनमें रसखान, सूरदास, हित हरिवंश महाप्रभु एवं भारतेंदु हरिश्चंद्र आदि प्रमुख हैं। जिनके पदों को साँझी महोत्सव के दौरान मन्दिरों में अत्यंत धूम के साथ गाया जाता है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व आध्यात्मिक पत्रकार हैं)
डॉ. गोपाल चतुर्वेदी
रमणरेती, वृन्दावन
मो. – 9412178154
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