लेख साहित्य

स्वतंत्रता ही सर्वोपरि थी महाराणा प्रताप के लिए

9मई जन्म दिवस पर विशेष-

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

भारत और  विश्व के इतिहास में  महाराणा प्रताप की गणना उन बिरले परमवीर योद्धा में होती है, जिन्होंने जीवन पर्यन्त देश की स्वतंत्रता के लिए समस्त राजसी सुख-सुविधाओं का परित्याग कर, तमाम अभावों, कष्ट-कठिनाइयाँ झेलते परिवार और सेना समेत वन-वन भटकते हुए सैन्य बल और दूसरे संसांधनों  अपने से कई गुने अधिक सशक्त शत्रु मुगल सम्राट अकबर से  निरन्तर संघर्श किया। वह अदम्य साहसी, देशप्रेमी, शौर्य, पराक्रम, वीरता, धीरता, स्वाभिमान, उत्सर्ग के पर्याय थे। महाराणा प्रताप महान  स्वातन्न्य योद्धा  थे,जिनके लिए स्वतंत्रता सर्वापरि थी।  देश में उन्होंने अपने से अधिक शक्तिशाली दुश्मन को हराने-थकाने के लिए सर्वथा उपयुक्त  नई गुरिल्ला युद्ध(छापा मार युद्ध प्रणाली) की आविश्कार किया और उसमें सफलता  भी प्राप्त की। कालान्तर में छत्रपति शिवाजी ने अपने शत्रु मुगल सम्राट औरंगजेब के विरुद्ध इसी युद्धकला को अपनाया और उसे नाकोचने चुबा दिये। वे केवल परमवीर योद्धा ही नहीं,बल्कि कुशल प्रशासक और प्रजा वात्सल्य तथा न्यायप्रिय शासक, कला, संस्कृति, सहित्य के पोषक एवं संरक्षक भी थे। उन्होंने विकट प्रतिकूल परिस्थितियों और विशेश सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ऐसी स्थापत्यकला पर बल दिया,जो साज-सज्जा, सौन्दर्य के स्थान पर सुदृढ़ता और समता का विशेश महत्त्व दिया गया। महाराणा प्रताप के इन्हीं गुणों को दृश्टिगत रखते हुए जहाँ  इतिहासकारो ने  उनके राश्ट्रप्रेम, वीरता और दूसरे गुणों का गुणगान इतिहास के पन्ने रंग दिये हैं,वहीं कवियों और साहित्यकारों ने जितनी काव्य-महाकाव्य और तमाम साहित्यिक रचनाएँ की हैं, उतनी शायद ही अपने देश में किसी और राष्टश्ट्रनायक को लेकर की हो।सच्चाई यह सही माने में महाराणा प्रताप भारत के राश्ट्रपुरुश थे। उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतिव्य ने कोटि-कोटि देश भक्तों को स्वतंत्रता संघर्ष की प्रेरणा का संचार किया और आगे भी करते रहेंगे।

महाराणा प्रताप का जन्म 9मई,1540(ज्येष्ठ शुक्ल तीज, रविवार, विक्रम सम्वत्1597) को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ। उनके पिता नाम राणा उदयसिंह द्वितीय और माता का नाम जयवन्ता बाई था। इनके तीन छोटे भाई और दो सौतेली बहनें थीं। उनके पिता राणा उदय सिंह के स्वर्गवास के बाद रानी ढेसाई चाहती थीं कि उदय सिंह के सबसे बड़े पुत्र राजा बने, लेकिन वरिष्ठ दरबारियों को लगा कि तत्कालीन स्थितियो/हालात को सम्हालने के लिए प्रताप एक श्रेष्ठ विकल्प हो सकते हैं। इस तरह महाराणा प्रताप राजा बने। उनका राज्यारोहण गोगुन्दा गाँव में  28 फरवरी,1572 ( फाल्गुप 9 1493) को हुआ । महाराणा उदय सिंह भी युद्धरत रहे थे,इस कारण मेवाड़ के पास राजकोश समेत सैन्य शक्ति  भी अधिक नहीं थी। फिर राजमहल में अन्तर्कलह भी विद्यमान थी। ऐसी विषम परिस्थिति और राज्य को आसन्न संकट देखते हुए  महाराणा प्रताप अपनी व्यवहार  कुशलता और संगठन क्षमता से धन और सैन्य शक्ति को बढ़ाने,सीमाएँ सुरक्षित करने में जुट गए। उन्होंने राज्य की प्रजा विशेष रूप से वनवासी भील जाति की युद्ध क्षमता के महत्त्व का समझा। उन्होंने सेना मे विशिश्ट स्थान भी प्रदान किया। लेकिन राजपूताने के दूसरे राजपूतों की भाँति  मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इसलिए वे उसकी आँखों में शूल की तरह चुभ रहे थे। वह हर हाल मे उनकी स्वतंत्रता का हरण करने को उतावला बना हुआ था।

महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना  युद्ध किये प्रताप का अपने अधीन करना चाहता था।इसलिए उसने दण्ड यानी युद्ध/जंग के स्थान पर महाराणा प्रताप के साथ साम, दाम, भेद नीति को अपनाना श्रेयस्कर समझा।  इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए अपने चार राजदूत नियुक्त किये, जिनमें सर्वप्रथम जलाल खाँ को सितम्बर, 1572 को प्रताप के शिविर में भेजा,पर वह उनसे सन्धि प्रस्ताव मंजूर कराने मे नाकाम रहा। इसी क्रम में सहधर्मी और सजातीय आमेर के राजा मान सिंह 1573 में मुगल सम्राट अकबर का सन्धि प्रस्ताव लेकर राणा प्रताप के पास पहुँचे,किन्तु वह भी विफल रहे। फिर सितम्बर, 1573 में भगवानदास सन्धि प्रस्ताव लेकर महाराणा प्रताप के पास गए,किन्तु ये भी सफल नहीं हुए। तत्पश्चात् दिसम्बर, 1573 को व्यवहार कुशल राजा टोडरमल अकबर के दूत के रूप में महाराणा प्रताप के पास अकबर का सुलह का सन्देश लेकर गए थे। लेकिन राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता अस्वीकार करते हुए इन चारों राजदूतों के सन्धि प्रस्ताव को ठुकरा दिया। परिणामतः ऐतिहासिक युद्ध हल्दी घाटी हुआ, जो 18 जून, 1576 ईस्वी के मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ इस युद्ध में मेवाड़ की सेना नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार पानरवा के ठाकुर राणा पूजा सोलंकी थे इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र  मुस्लिम सरदार थे हकीम खाँ सूर। लड़ाई का स्थल राजस्थान गोगुन्द के पास गोगुन्दा के पास हल्दी घाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों  और 400 भील धनुर्धारियों के बल से मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मानसिंह ने किया था, जिसमें 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान सम्हाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप खुद जख्मी पाया,जबकि उनके कुछ लोगों ने किया उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ाई के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुशों की थी। मुगल सेना ने 3,500 -7,800 लोगों के खो दिया था, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए इस युद्ध में मेवाड़ के महाराणा प्रताप विजय हुए थे,जैसे ही साम्राज्य  का ध्यान कहीं और स्थानान्तरित हुआ।

प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई। अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह ओर आसफ खाँ  ने लिया। इस युद्ध का वर्णन अब्दुल कादिर बदायूँनी ने किया इस युद्ध में आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी, इस युद्ध में बीदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की,वहीं ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर भी अपने तीन पुत्रों कुँवर शीलवाहन, कुँवर भवानी सिंह ,कुँवर प्रताप सिंह और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकड़ों तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिन्द्रा में सो गए। जहाँ तक हल्दी घाटी युद्ध में  किसी जीत और किसकी हार हुई,तो इस मुद्दे पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछ इतिहासकार हल्दी घाटी युद्ध में मुगल सम्राट अकबर की जीत ,तो दूसरे कुछ अन्य कसौटियों पर इस जंग को कसते हुए महाराणा प्रताप की विजयी मानते हैं।

कुछ समय बाद मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी। भाभाशाह ने 20लाख अशर्फियाँ और 35लाख रुपए महाराणा को भेंट में प्रदान किये। महाराणा इस प्रचुर धन से पुनः सैन्य संगठन में लग गए। इस अनुपम सहायता से प्रोत्साहित होकर महाराणा ने अपने सैन्य बल का पुनर्गठन किया और  उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ। महाराणा ने पुनः कुम्भलगढ़ पर अपना आधिपत्य स्थापित करते हुए शाही फौजों द्वारा स्थापित थानों और ठिकानों पर अपना आक्रमण जारी रखा।

हल्दी घाटी समेत दूसरे युद्धों से सबक लेते हुए महाराणा प्रताप ने मुगल सेना को पराजित करने के लिए विशेष रणनीति और युद्धकला को अपनाया। उन्होंने सुरक्षा कारणों से राजधानी चित्तौड़ का परित्याग कर चावण्ड़ को नई राजधानी बनाया। इसकी स्थापना में ऐसी स्थापत्य कला का प्रयोग किया, जिसमें  विलासता के स्थान पर सुदृढ़ता पर विशेश ध्यान दिया गया। इसमें महाराणा, प्रशासकों, सेनापतियों आदि के आवासों के क्षेत्रफल और अन्य सुविधाओं में विशेष अन्तर नहीं था। चावण्ड़ के आसपास के क्षेत्रो को उजाड़ बना दिया, ताकि शत्रु सेना को भोजन और जल को अभाव हो जाए। वह अधिक दिनों तक उनका राज्य को घेरा डाल न पाए। जो थोड़ा शान्तिकाल मिला,उसका उपयोग महाराणा प्रताप ने अपने राज्य दरबार में विभिन्न कला-कौशल में निपुण विद्वजनों को प्रश्रय देकर किया। उन्होंने नई चावण्ड़ चित्र कला,स्थापत्य कला के विकास में योग दिया। वह कला, साहित्य, काव्य, शिक्षा का पोशण तथा संरक्षण किया।

वैसे महाराणा प्रताप जीवन भर युद्धरत रहे।लेकिन उनके जीवन काल कुछ दूसरे युद्ध भी उल्लेखनीय हैं,जो उन्होंने लड़े थे। ये हैं-

दिवेर की लड़ाई(1582)-हल्दी घाटी में हार के बाद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी 1582 में उन्होने  दिवेर की लड़ाई लड़ी,जो मेवाड़ के लिए एक महŸवपूर्ण जीत थी। महाराणा प्रताप ने इलाके की चप्पे-चप्पे की जानकारी के साथे अपनी गुरिल्ला रणनीति से मुगल सेना को मात दी और पुनः महत्त्वपूर्ण  क्षेत्र प्राप्त किया। इस जीत ने प्रताप को अपने लोगों का मनोबल को बढ़ाने में भी सफलता  प्राप्त की। इसी विजय ने मेवाड को कुछ हिस्सों पर अपना शासन स्थापित करने में सहायता मिली। खिमसर की लड़ाई(1584)-महाराणा प्रताप ने राजस्थान के एक क्षेत्र खिमसर में मुगलों के खिलाफ एक और महŸवपूर्ण  लड़ाई लड़ी। हालाँकि लड़ाई का कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला।लेकिन प्रताप ने अपनी दृढ़ता दिखाना जारी रखा,जिसे मुगल सेना को इस क्षेत्र में उनकी ताकत और उपस्थिति  को स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। गुरिल्ला युद्ध में उनकी बार-बार की सफलताओं ने मेवाड़ को जीतने के मुगल प्रयासों के और भी कमजोर  कर दिया। राकेम की लड़ाई(1597)- में महाराणा प्रताप ने राकेम की युद्ध लड़ा,जहाँ उन्होंने मुगलों से अपने राज्य के महत्त्वपूर्ण  क्षेत्रों पर सफलता पूर्वक नियंत्रण प्राप्त  किया। इस युद्ध ने मुगल सेना को कमजोर करने के लिए और  आश्चर्य और तेज हमलों के तत्त्व का उपयोग करके खोए हुए क्षेत्र के पुनः प्राप्त करने की प्रताप की क्षमता  को और अधिक प्रदर्शित किया। उनके राजनीतिक नेतृत्व ने सुनिश्चित किया कि मेवाड़ मुगल साम्राज्य के लिए एक दुर्जेय विरोध बने रहे।

चिŸाड़ को छोड़ कर महाराणा प्रताप ने अपने समस्त दुर्गों को शत्रु से पुनः  प्राप्त कर लिया। मुगलिया सेना के घटते प्रभाव और अपनी आत्मशक्ति के बल पर महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ और माण्डलगढ़ के अलावा सम्पूर्ण मेवाड़ पर अपना आधिपत्य पुनः स्थापित किया।

अन्तिम वर्श और मुगल के साथ शान्ति 1600 दशक -अपने जीवन के बाद के वर्शों में महाराणा प्रताप ने मुगलों के आक्रमण  से मेवाड़ की रक्षा करना जारी रखा। हालाँकि उन्होंने 1597 के बाद किसी और बड़े पैमाने की लड़ाई में भाग नहीं लिया। लेकिन उनके नेतृत्व  और दृढ़ता ने उनके राज्य को पूर्ण मुगल वर्चस्व से मुक्त रखा। महाराणा प्रताप ने मुगल सम्राट अकबर की शासन-सत्ता का सफलता पूर्वक विरोध किया। अकबर की अन्तिम इच्छा यही थी कि या तो महाराणा प्रताप के युद्ध के मैदान में पराजित हो जाएँ या लड़ाई के मैदान में मार डाला जाए,किन्तु अकबर की ये दोनों इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हुई। 19 जनवरी, सन् 1597 में महाराणा प्रताप ने राजधानी चावण्ड में नश्वर देह का परित्याग किया। दुर्भाग्य से प्रताप अप्रतिम योद्धा होते हुए भी कभी चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश नहीं करने दिया। कालान्तर में उनके वंशजों ने उनके आदर्शो ओैर नीति-सिद्धान्तों का यथासम्भव अनुसरण किया। महाराणा प्रताप का व्यक्ति और कृतित्व,उनके आदर्श, नीतियाँ-सिद्धान्त, दृढ़ता, देशप्रेम, स्वतत्रता की भावना सभी देश प्रेमियों के लिए प्रासंगिक तथा प्रेरक बने रहेंगे। हैं

सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार वरिष्ठ पत्रकार,स्तम्भकार, 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मोबाइल नम्बर‘9411684054

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