देश-दुनिया

नेपाल में राजशाही और हिन्दू राष्ट्र आहट

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

हाल में पड़ोसी देश में नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में राजशाही का झण्डा और पूर्व महाराज ज्ञानेन्द्र शाह की तस्वीरें लिए बड़ी संख्या में लोगों द्वारा फिर से राजशाही और हिन्दू राष्ट्र की माँग करते हुए, न सिर्फ ‘राजा आओ देश बचाओ’, ’भ्रष्ट सरकार मुर्दाबाद’, ‘हमें राजशाही वापस चाहिए’ आदि नारे लगाये गए, बल्कि वे वाहनों में तोड़़फोड़ और उन्हें आग के हवाले करने, घरों को जलाने, कांतिपुर टेलीविजन और अन्नपूर्णा पोस्ट अखबार के कार्यालयों में तोड़फोड़, पत्थरबाजी, सुपर मार्केट में लूटपाट, हिंसा पर उतर आए, जिन्हें रोकने को पुलिस को आँसू गैस के गोले चलाने, हवाई फायर , पानी की बौछारों के साथ बल का प्रयोग भी करना पड़ा। यह प्रदर्शन उस समय हिंसक हो गया,जब आन्दोलन के संयोजक दुर्गा प्रसाद सुरक्षा बैरिकेड तोड़ कर संसद भवन की ओर बढ़ गए। इन हिंसक झड़पों में एक फोटो पत्रकार समेत दो लोग मारे गए और 53पुलिस कर्मी, 22सशस्त्र पुलिस बल और 35 प्रदर्शनकारी भी घायल हुए हैं। बानेश्वर स्थित सीपीएन-यूनिफाइड सोशलिस्ट्स के कार्यालय पर हमला किया । पुलिस से हथियार और उस पर हमला किया गया। हालात पर काबू पाने को यहाँ के कुछ इलाकों में सेना को उतारने के साथ कर्फ्यू भी लागू करने को मजबूर होना पड़ा। ये लोग वर्तमान प्रधानमंत्री केपी ओली सरकार के विरुद्ध नारे भी लगा रहे थे। वैसे नेपाल में लोगों द्वारा राजशाही की पुनः माँग करने पर भारत समेत दुनिया के दूसरे लोग भले ही आश्चर्य कर रहे हों, लेकिन इसके लिए लोकतंत्र समर्थक ही जिम्मेदार हैं। इनका बड़े पैमाने पर उग्र प्रदर्शन के साथ राजशाही, हिन्दू राष्ट्र की माँग अकारण नहीं है, बल्कि इसके पीछे यहाँ के उन लोकतंत्र समर्थक नेताओं के प्रति आक्रोश और असन्तोश है,जिन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिए उनके जीवन को बदलने के सपने दिखा कर उनके साथ छल/धोखा देना रहा है। आन्तरिक और बाहरी सुरक्षा को लेकर इनकी लापरवाही से देश में न केवल मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है,बल्कि इस्लामिक दहशतगर्दो ने अपने अड्डे बना लिए है। इससे हिन्दू स्वयं असुरक्षित अनुभव कर रहा है। देश के विभिन्न निर्णयों में चीन का प्रभाव दिखायी देता है। देश में सत्तारह साल की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने उन्हें देश में अशान्ति,राजनीतिक अस्थिरता, अराजकता,अवरूद्ध विकास, आर्थिक बर्बादी, सिवाय कुछ नही दिया। इस बीच लोगों ने अपने नेताओं की नीति- सिद्धान्तहीनता ही नहीं, सत्तालोलुपता, अवसरवादिता का खुला खेल भी देख लिया। यहाँ तक कि कुर्सी के लिए उन्हें राष्ट्रीय हितों के विपरीत भारत से अनावश्यक दूरी तथा शत्रुता और चीन से जरूरत से ज्यादा घनिश्ठ रिश्ते और यहाँ तक कि उसके भू-भाग को सौदा करते हुए भी देख लिया है। वैसे अब यह अलग बात है कि काठमाण्डू में ही उसी दौरान एक राजशाही विरोधी जुलूस निकाला जा रहा था, पर वह शान्तिपूर्ण ढंग से।
वैसे तो नेपाल के लोग राजनीतिक उठापटक से बेहद क्षुब्ध और परेशान थे,पर उन्हें वर्तमान राजनीतिक अराजकता से मुक्ति को कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था, लेकिन गत 19 फरवरी को नेपाल के अन्तिम राजा 77वर्षीय ज्ञानेन्द्र शाह को लोकतंत्र दिवस पर अपनी वीडियो सन्देश में समर्थन की अपील ने फिर से उन्हें व्यवस्था परिवर्तन का मार्ग सुझा दिया। अपदस्थ होने के बाद से राजा ज्ञानेन्द्र शाह काठमाण्डू में एक निजी घर में आम नागरिक की तरह रह रहे हैं। उनकी उस अपील के बाद राजशाही की बहाली की माँग के साथ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया,तभी से नेपाल में राजशाही की वापसी की आहट सुनायी देने लगी है। 28 मार्च के प्रदर्शन में चालीस से अधिक संगठन शामिल हुए थे। अब तक 105लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के महासचिव धवल शमशेर राणा और पार्टी के केन्द्रीय सचिव रवीन्द्र मिश्रा भी सम्मिलित हैं। महीनों के देश भ्रमण के बाद गत दिनों जब नरेश ज्ञानेन्द्र शाह त्रिभुवन एयरपोर्ट पर पहुँचे तो वहाँ बड़ी संख्या में नेपालवासियों ने उनका स्वागत किया और राजशाही की वापसी के नारे लगाए। इससे माहौल गम्भीर एवं रोमांचित हो उठा। लगभग तीन किलोमीटर लम्बे जुलूस के साथ ज्ञानेन्द्र शाह अपने निजी आवास ‘निर्मल निवास’ पहुँचे। उस समय प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के विरुद्ध उनके समर्थक जमकर नारेबाजी कर रहे थे। कुछ दिन पूर्व ही ओली ने ज्ञानेन्द्र को सीधे चुनाव लड़ने को चुनौती दी थी। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आदमकद चित्र लिए युवाओं का नारा लगाना। इसके चलते वहाँ के राजनीतिक दलों में घमासन मच गया है।तब वे अपने देश की राजनीति मे बाहरी देश के हस्तक्षेप का आरोप तक लगा रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम जानने से पहले नेपाल के बारे में भी जान लेते हैं।
नेपाल हिमालय पर्वत के दक्षिण ढलान पर भारत और चीन के मध्य स्थित है इसके उत्तर में तिब्बत है और पूर्व में भारत का प्रान्त सिक्किम और पश्चिम बंगाल,दक्षिण-पश्चिम में बिहार तथा उत्तर प्रदेश है। नेपाल का क्षेत्रफल 1,47,181वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 2,85,84,975 से अधिक है । यहाँ के लोग नेपाली,भोजपुरी, मैथिली भाशाएँ बोलते और हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम को मानते हैं।नेपाल की मुद्रा नेपाली रुपया है।नेपाल का नामकरण ‘ने’ऋशि या नेवार समुदाय के नाम पर हुआ है।सन्1768में गोरखा राजा पृथ्वीनारायण शाह ने इसका एकीकरण कर आधुनिक नेपाल की नींव रखी। यहाँ पर 1846 से 1951 तक राणा परिवार का शासन था। यही परिवार प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता था। नवम्बर, में राणा प्रधानमंत्री ने त्यागपत्र दिया 10 अप्रैल,1961में 15 ताल्लुकेदारों ने अपना इलाका देश में मिलाया।वैसे सन् 1955 मे महाराजा त्रिभुवन की मृत्यु के बाद राजा महेन्द्र का राजतिलक हुआ। सन् 1959 में संविधान लागू किया गया और आम चुनाव हुए। इसमें नेपाली काँग्रेस का बहुमत मिला, लेकिन राजवंश को लोकतांत्रिक व्यवस्था पसन्द नहीं थी। इसलिए राजा महेन्द्र ने सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगा दिये। संसद और संविधान भंग कर दिये और दलविहीन पंचायत प्रणाली शुरू की गई। 16 अप्रैल, 1990में लगातार लोकतांत्रिक आन्दोलनों के कारण महाराजा शाह ने सरकार को बर्खास्त कर दिया और निर्वाचित पंचायत प्रणाली को भंग कर दिया। 9 नवम्बर, 1990 का महाराजा ने नये संविधान की घोशणा की। नये संविधान में महाराजा के अधिकारों को सीमित कर दिया। इस संविधान के अनुसार बहुदलीय प्रणाली वाला राजतंत्र बन गया। संसद के दो सदन बने और 205 सदस्यों की प्रतिनिधि सभा बनी जिसमें 19सदस्यों का नामांकन महाराज के द्वारा होता है।
1जून,2001की राजा वीरेन्द्र,महारानी ऐश्वर्या और राजघराने के छह सदस्यों की हत्या हो गई। ऐसा माना जाता है कि युवराज दीपेन्द्र ने अपनी पसन्द की शादी के विरोध में तर्क-वितर्क के बाद होशोहवास खोकर अन्धाधुन्ध गोली चला कर मार डाला और फिर स्वय को भी गोली मार ली। महाराज वीरेन्द्र के भाई ज्ञानेन्द्र को नया महाराज बनाया गया। अप्रैल, 2006 में विपक्षी दलों के संगठन ने बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया। अन्त में राजा का झुकना पड़ा और उन्होंने संसद बहाल कर जीपी कोइराला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। माओवादियों ने तीन महीने का युद्ध विरोम घोशित किया। मई में संसद में नरेश की शक्तियाँ कम करने का विधेयक रखा गया विद्रोही नेता प्रचण्ड और कोइराला ने बैठक हुई जनवरी, 2007में माओवादी नेता अन्तरिम संविधान के अन्तर्गत संसद में शामिल हुए । अप्रैल में माओवादी नेता सरकार में शामिल हुए जिससे एक आन्दोलन राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल हो गया।इस तरह नेपाल में एक लम्बे दौर तक चली राजनीतिक उठापटके बाद आखिर सन् 2008 में 240 पुरानी पुरानी राणाशाही का अन्त हुआ और नेपाली काँग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी।कालान्तर में नेपाली काँग्रेस से आगे बढ़कर माओवादी संगठन सक्रिय होकर अग्रणीय भूमिका में आ गए। नेपाली काँग्रेस कई गुटों में बिखर गई। 2008 के आम चुनाव के बाद माओवादी नेता पुश्प कमल दहल प्रचण्ड में नेपाल के पहले प्रधानमंत्री बने। प्रचण्ड ने प्रधानमंत्री बनते ही अनेक अनुचित/ गलत निर्णयों लिए । उन्होंने पहली गलती वीपी कोइराला को राष्ट्रपति न बनाकर की,जो साझा सरकार में यह सबसे अनुभवी राजनेता थे। तत्पश्चात उन्होंने सेना प्रमुख को पहले ही दिन हटा दिया। उनके इन अनुचित निर्णयों का सिविल सोसायटी द्वारा विरोध किया गया। नेपाल में सत्ता परिवर्तन के बाद राष्ट्र प्रमुख की प्रथम यात्रा भारत की होती रही है,पर प्रचण्ड ने इस परम्परा के विपरीत चीन के शंघाई शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेना अधिक उचित समझा। फिर माओवादियो समेत कई संगठन भारत-नेपाल संधि पर ही प्रश्न उठाकर भारत विरोधी अभियान का हिस्सा बनने लगे। इसकी नेपाल में गठबन्धन सरकार के दलों में तीखी प्रतिक्रिया होने लगी। प्रधानमंत्री प्रचण्ड को अपने कार्यकाल के मध्य मे ही त्यागपत्र का विवश होना देना पड़ा। उनके उत्तराधिकारी बाबूराम भट्टराई भी अधिक समय तक पदासीन नहीं रह पाए। नेपाल में राजनीतिक अवसरवादिता और वैचारिक भटकाव कोई अन्त नहीं है।
पिछले 17वर्षो में वहाँ 13 प्रधानमंत्री बने हैं। हर बार अलग और भिन्न दलों के साथ नए नेता के नेतृत्व में सरकारों के गठन ने लोकतंत्र समर्थक पार्टियों को बेनकाब कर दिया है। नेपाल की राजनीतिक में सादगी, पारदर्शिता, शुचिता को भूला दिया गया है। अब लोग की कुण्ठा और हताशा- निराशा स्पश्ट दिखायी देने लगी है।नेपाल में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना को लेकर लोगो को जो सुनहरे सपने दिखाए गए थे, वे उन्हें पूरा करना तो दूर एक तरह से भूला दिया गया है। इतना ही नहीं, अब राजशाही के व्यवहार/रंग-ढंग को ही आदर्श/सही/बेहतर मानते हुए एक नवधनाढ्य संस्कृति को बढ़वा दिया जा रहा है। यही कारण है कि नेपाल में 17वर्ष बाद ही राजतंत्र की पुनर्स्थापना को लेकर जगह-जगह लोग समूह में एकत्र होकर उसके पक्ष में तर्क-वितर्क करने लगे हैं। राजनीतिक अस्थिरता,अनिचतता से अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा। कारोबार में निरन्तर कमी आयी है। विश्व बैंक के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसों में 14 प्रतिशत की गिरावट आयी है।सनृ 2015 के विनाशकारी भूकम्प ने भी नेपाल में आम लोगों को आर्थिक रूप से बर्बाद कर दिया। इसने देश के आन्तरिक संरचना/इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी बहुत क्षति पहुँचायी थी। नेपाल की चीन पर आर्थिक निर्भरता बढ़ी है और उसके कर्ज के जाल में फँसता जा रहा है। चीन उसके भूभाग हड़पने के लिए अपनी गिद्ध दृश्टि लगाये हुए है। नेपाल की अर्थव्यवस्था को गम्भीर संकट बना हुआ है,पर इससे बेफिक्र नेपाल के नेता सत्ता संघर्ष में व्यस्त हैं। नेपाल के भारत से उसके सदियों से धार्मिक, सांस्कृतिक,सहोदर सरीखे और रोटी-बेटी के सम्बन्ध रहे हैं, फिर भी वह चीन के फेर में उससे बराबर दूर होता जा रहा है।इस्लामिक जिहादियों पर भी रोक नहीं लगा पा रहा,जो भारत के लिए खतरा बने हुए हैं। ऐसे में लोग वर्तमान कथित लोकतंत्र समर्थकों का साथ दें,तो क्यो? इन हालात भविश्य में वहाँ लोकशाही और राजशाही समर्थकों के मध्य यह संघर्ष तीव्र होने की आशंका बनी रहेगी। इसमें किस पक्ष को सफलता मिलेगी,अभी कहना सहज नहीं है।

डॉ.बचन सिंह सिकरवार वरिश्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मोबाइल नम्बर-9411684054

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