डॉ.बचनसिंह सिकरवार

गत उन्तीस अप्रैल को आम भारतीय दर्शकों को प्यारा-दुल्हारा फिल्म अभिनेता इरफान अचानक दुनिया से चले जाने से बड़ा झटका लगा है, क्योंकि उनके जहन में ‘अँग्रेजी मीडियम’ में उनकी हलवाई पिता की जीवन्त भूमिका को अभी बनी हुई है, जो अपनी बेटी को विदेश में अँग्रेजी माध्यम से पढ़ाने के क्या-क्या नहीं करता है और अपने इरादे को पूरा करके ही रहता है। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान अपनी भूमिका को इरफान ने आसाध्य रोग कैंसर के उपचार से शारीरिक कमजोरी के रहते हुए बखूबी निभाने की भरसक कोशिश की थी। वैसे तो उन्होंने जितने धारावाहिक और फिल्मों में जितनी भी तरह के चरित्र निभाए, वे सभी अविस्मरणीय हैं। वे उनके जरिए अमर हो गए हैं। भारतीय फिल्मों में जिस तरह के चेहरे-मोहर की दरकार होती है, वह उस कसौटी पर भले ही खरे न उतरते हों, लेकिन अपने सशक्त अभिनय और चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखों से बहुत कुछ कहने की क्षमता के बल पर मुख्य भूमिका यानी उसके हीरो में बनने में भी कामयाब हुए। इरफान खान एक बेहतरीन अभिनेता/कलाकार ही नहीं, वे एक ऐसे बेजोड़ इंसान भी थे, जिसने कभी इन्सानियत को नहीं भुलाया है। वह विचारशील और अपने नाम के अनुरूप विवेकशील भी थे। वह जैसे सोचते थे, उसे बोलने-करने का हौसला भी रखते थे। यही कारण है एक बार उन्होंने बकरी ईद पर बकरों की कुर्बानी देने/काटने जाने का यह कहकर विरोध किया, कि कुर्बानी के माने अपनी सबसे प्रिय वस्तु का दान/कुर्बानी है। इसका उनके मजहबी रहनुमाओं ने सख्त मुखालफत की, पर उससे डरे नहीं और अपने कहे पर डटे रहे। इरफान को अपनी धरती , अपने लोगों से बेइन्तहा मुहब्बत थी। यही वजह है कि इरफान खान जिस मुहल्ले, शहर, प्रदेश से आए और जहाँ-जहाँ रहे, उन्हें कभी भुलाया नहीं। वह हर मंकर संक्रन्ति पर जयपुर आकर अपने यार-दोस्तों के साथ पतंग उड़ाया करते थे।
देश-विदेश के फिल्म जगत् में उन्होंने जो अपना उच्च स्थान बनाया, वह उन्हें विरासत / खैरात में नहीं मिला था, बल्कि अपने अथक परिश्रम और मजबूत इरादों से हासिल किया था। 7 जनवरी, सन् 1967 में जयपुर के मुस्लिम पठान परिवार में जन्मे इरफान खान बचपन में क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते थे, पर वह सफल कलाकार बन गए। उनका पूरा नाम साहेबजादा इरफान अली खान था। उनके पिता का टायर का व्यापार था, जिसमें उनकी कतई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने स्नातक की पढ़ाई करने के बाद ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ (एन.एस.डी.) दिल्ली में नाट्यकला के गुरु सीखे और कई नाटकों में अभिनय किया। इसके पश्चात् मुम्बई का रुख किया, जहाँ उन्होंने टी.वी.के कई धारावाहिकों में हर तरह की भूमिकाएँ निभायीं। इनमें ‘भारत एक खोज’, ‘चाणक्य’ बहुत प्रसिद्ध हैं।उनकी पहली फिल्म ‘हासिल’थी,जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति पर आधारित थी। इरफान खान ने ‘स्लम डॉग मिलिनेयर’ में भी एक छोटी-सी भूमिका निभायी थी,इस फिल्म को ऑस्कर अवार्ड मिले थे। ‘मकबूल’फिल्म में अभिनय के लिए इरफान की बहुत तारीफ मिली। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी से सैनिक फिर परिस्थितिवश डाकू बने ‘पानसिंह तोमर’ के जीवन पर इसी नाम से बनी फिल्म जीवन्त अभिनय किया। उनकी अन्य विशिष्ट फिल्म ‘लांच बक्स’ थी,जिसे देश-विदेश में बहुत सराहा गया। इसके अलावा ‘मदारी’,‘पीकू’ ‘करीब-करीब सिंगल’, ‘हिन्दी मीडियम’आदि उनकी चर्चित फिल्में रही हैं। इनमें पीकू में उनके साथ अमिताभ बच्चन थे। उन्हें श्रेष्ठ अभिनय के लिए एक राष्ट्रीय अवार्ड और तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। इरफान खान लम्बे समय सन् 2018 से एक दुर्लभ किस्म के कैंसर न्यूरोएण्डोक्राइन ट्यूमर’से पीड़ित थे, जिसका उपचार उन्होंने ब्रिटेन में रहकर कराया था।उसमें उनकी पत्नी और बच्चों ने उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब इरफान कैंसर से लड़ रहे थे,तब उन्होंने लिखा था,‘‘ मैंने कैंसर के आगे सरेण्डर कर चुका हूँ।’’हालाँकि उन्होंने से ऐसा किया नहीं और आखिर दम तक वह जीवन के लिए उससे लड़ते रहे,क्योंकि वह अपनी पत्नी और बच्चों के दोबारा जीना चाहते थे।
53 वर्षीय इरफान खान की मृत्यु से चार दिन पहले ही उनकी 95 वर्षीय माँ सईदा बेगम का जयपुर में इन्तकाल हो गया, पर लॉकडाउन की वजह से वह उनके जनाजे में शामिल न हो सके,जिन्हें वह बेपनाह मुहब्बत करते थे। इरफान खान अपनी पत्नी सुतापा तथा बाबिल और अयान को छोड़ गए है।ं अल्लाह उन्हें जन्नत दे और उनकी पत्नी तथा दो बेटों को इस गम को बर्दाश्त करने का हौसला अता करे। आमीन
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