डॉ.बचनसिंह सिकरवार

पिछले कई माह से जहाँ अपना देश ‘कोरोना विषाणु’ से फैली वैश्विक महामारी से लोगों को बचाने को लेकर रात-दिन जंग सरीखी लड़ रहा है, उसमें हर तबके से सरकार को सहयोग-सहायता भी मिल रही है, वहीं ‘तब्लीगी जमात’ के रहनुमा और उनके जमातियों की हरकतें उनसे एकदम जुदा नजर आती हैं, जो इस महामारी के भारी खतरों को जानते-बूझते हुए भी उससे बचाव में मददगार बनना तो दूर , उसे फैलाते ज्यादा दिखायी दे रहे हैं। इनकी वजह से पूरे मुल्क में कोरोना विषाणु से संक्रमितों की तादाद में भी भारी इजाफा हुआ है,इसके रहनुमा अपनी गलती मानना तो दूर , जहाँ कहीं उन्हें क्वारण्टाइन को रखा गया है, वहाँ स्वास्थ्यकर्मी से गाली-गलौज,नर्सों से अश्लीलता,उन पर थूकना,गन्दगी फैलाना, शौच करना और मारपीट, करने के साथ-वहाँ से भाग कर छिपने की कोशिश करते हैं। जहाँ कहीं पुलिसकर्मी उनकी तलाश को गए, वहाँ उनके साथ इन्होंने मारपीट ही नहीं, उन पर गोलियाँ तक चलायी गई हैं। ऐसा ही नहीं कि जमात से सिर्फ कम शिक्षित लोग ही जुड़े हों, इसमें डॉक्टर और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी हैं, जो सरकार के बार-बार कहने के बाद भी खुद निकल कर उपचार को सामने आने के बजाय खुद और दूसरे जमातियों को मस्जिदों और दूसरी जगह में छिपाने में मददगार बने हुए हैं। इसके बाद भी ये जमात और उनके हिमायती सरकार और मीडिया पर उन्हें और मुस्लिम समुदाय को बेवजह बदनाम करने का इल्जाम लगा रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है, तब्लीगी जमात के नजरिए में, जो इनसे ऐसी बेजां हरकतें करा रहा है;यह सवाल आज मौजूं है।
‘तब्लीग जमात’ -यह अरबी जुबान/भाषा के दो लफ्जों(शब्दों) ‘तब्लीग’ और ‘जमात’ से मिलकर बना है। ‘तब्लीग’ का मतलब/माने मजहब के प्रचारक, मजहब को फैलाने/प्रचार-प्रसार में लगने वाले,जिनका दुनियादारी से कोई वास्ता नहीं रह जाता है। इस तरह ‘तब्लीगी’से मतलब मजहब का प्रचार करने वाली जमात यानी समूह से जुड़ा आदमी। ऐसे ही ‘जमात‘ लफ्ज के माने/मतलब/शाब्दिक अर्थ- कक्षा, श्रेणी, समुदाय, वर्ग है, पर यहाँ इससे मतलब किसी खास मकसद के लिए जमा होना है। इसमें तलबगार/’इच्छुक लोग कुछ वक्त के लिए खुद को पूरी तरह तब्लीग के सुपुर्द हो जाते हैं। हाल में इनके ‘निजामुद्दीन स्थित तब्लीगी ‘मरकज’का नाम आया। ‘मरकज’ लफ्ज भी अरबी जुबान का है,जिसका मतलब ‘केन्द्र’/मुख्यालय है।
इस तब्लीगी जमात के उसूल(सिद्धान्त) हैं- जैसे 1. ‘ईमान‘ यानी अल्लाह पर पूरा भरोसा/यकीन। 2. नमाज पढ़ना। 3.इकराम-ए-मुस्लिम यानी एक-दूसरे की इज्जत (सम्मान) करना। 4. नीयत का साफ होना। 5. रोजाना के कामों से दूर रखना। 6.इल्म का जिक्र। इनमें कोई खोट नजर नहीं आता, पर इसका असल मकसद इतनाभर नहीं है, खतरा इनके ‘जेहाद’ के जरिए ‘दुनिया को ‘दारुल इस्लाम‘ या ‘खलीफा का शासन’ बनाने के असल मकसद से है।

यह जमात सौ साल से ज्यादा पुरानी है, लेकिन कभी किसी ने इसके खतरनाक इरादों पर गौर फरमाने की जरूरत महसूस नहीं की। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी भी इसके मकसद से बेखबर थे और अनजाने में इसे मुसलमानों में भरोसेमन्द जमात की पहचान दिलाने में मददगार भी बन गए। इस जमात का असल मकसद एकदम साफ है। वह इस मुल्क के मुसलमानों को ‘पक्का मुसलमान’ बनाने की गरज उनके दिमाग की धुलाई कर (ब्रेनवॉश) उन्हें उनके हिन्दू पुराखों और उनके हर तरह के आचार-विचार से जुदा करना है। एक तरह से उनकी हिन्दुस्तानी जड़ों को उखाड़ कर उन्हें उनसे दूर करना ही नहीं, हमेशा-हमेशा के लिए उनका खात्मा करना है। यह जमात भारतीय मुसलमानों को नई पहचान देकर कथित ‘नया इन्सान’ (कट्टरपंथी मजहबी)या ‘शरीयत पाबन्द बनाना चाहता है। नयी पहचान देने के लिए उनका लिवास/पोशाक,पहनावा, उनका खान-पान ही नहीं, जुबान/भाषा, उनका नजरिया/सोच-विचार, मान्यताएँॅ/आस्थाएँ आदि सबकुछ बदल देना है। दरअसल, कुछ कट्टरपन्थियों को मुसलमानों का हिन्दुओं से बहुत ज्यादा मेलजोल गंवारा/पसन्द नहीं था, वे इसके सख्त खिलाफ थे। इसे वे हमेशा अपने मजहब के लिए खतरे के तौर पर देखते थे। उन्हें अपनी कौम/मजहब के लिए सबसे बड़ा खतरा उनको हममजहबियों का अपने पुरखों के मजहब और उनके तमाम रीति-रिवाजों से लगाव-जुड़ाव बने रहना था। इनमें से कुछ का गोमांस ना खाना, नजदीकी रिश्तों- चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनों से निकाह न करना, कड़ा, कुण्डल, मुसलमान खातूनों/औरतों के लिवास भी हिन्दू स्त्रियों जैसे पहनावे साथ-साथ निकाह और दूसरे मौकों पर ज्यादातर हिन्दू रीति-रिवाज को अपनाना था। खासतौर पर ऐसा दिल्ली के निकटवर्ती इलाकों, मेवात के अलवर, नूहँ आदि में होता था। यहाँ तक कि इनमें कुछ चूटिया और हिन्दुओं जैसे नाम भी रखते थे। ये हिन्दुओं के त्योहार मनाते थे या फिर हिन्दुओं के साथ उनमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे। उनकी भाषा-बोली, खान-पान, लिवास हिन्दुओं से बहुत ज्यादा अल्हदा नहीं थे। ग्रामीण इलाकों में तो कुछ मुसलमान ‘कलमा’ तक पढ़ना तक नहीं जानते थे। मौलाना मोहम्मद इलियासी इन सारी बातों को ‘गैर इस्लामिक’ मानते थे और उन्हें इस ‘बुरा असर से अलग करना’ चाहते थे। इन वजहों कट्टरपन्थी मुसलमान रहनुमाओं को कहीं न कहीं उनकी मजहब वापसी का खतरा नजर आना था। एक वक्त इस खतरे को आर्य समाज के शुद्धिकरण अभियान ने और बढ़ा दिया, जिसके अन्तर्गत आर्य समाज मुसलमानों को पुनः हिन्दू बनाने की कोशिश कर रही थी। देश में कुछ जगहों पर ऐसा हो भी गया। यह सब देखकर मौलाना इलियास कान्धलवी को बहुत तकलीफ और रंज होता था। उन्हें इसमें हिन्दुस्तान में इस्लाम के खत्म होने के आसार नजर आ रहे थे। यह देखते हुए मौलाना मोहम्मद इलियास मुसलमानों को बाकी हिन्दुओं से एकदम अलग करना चाहता था, ताकि मुसलमान किस भी तरह से हिन्दुओं के प्रभाव में न आएँ। उन्हें दूर से देखकर ही पहचाना जाना सके या उनमें फर्क नजर आए। अब किसी जमाती को देखकर यह फर्क उसके खास तरह के ऊँचे पजामे, कुर्ते, टोपी, दाढ़ी,ूमंदे, गमछे से किया जा सकता है।
इसी मकसद को लेकर मौलाना इलियास से पहले अट्ठाहरवीं सदी यानी सन् 1838 में मौलाना मुजफ्फर हुसैन ने अपने कान्धला स्थित घर से ही जमात का आगाज किया और उसे ही जमात का मरकज भी बनाया। जब मुगल सल्तनत के खत्म होने पर इस्लाम का असर कम होने लगा,तब हिन्दू से मुसलमान बने लोगों के फिर से हिन्दू बनने का खतरा बढ़ रहा था। मौलाना मुजफ्फर हुसैन ने जमात को 42 साल तक कान्धला से ही चलाया। जब सन् 1880 में उनका इन्तकाल हो गया, तब उनके बेटे मौलाना इस्माइल ने जमात का संचालन किया। उसने देश में जगह-जगह मस्जिदें और मदरसे तामीर किये, जहाँ दीनी/शरीयत की तालीम दी जाती थी। जब तुर्की का ओटोमन साम्राज्य खत्म हो गया, जो तब इस्लामिक दुनिया का केन्द्र समझा जाता था। यहाँ की सत्ता जब आधुनिक विचारधारा के कमाल पाशा ने सम्हाल ली, तब दुनिया के कट्टरपन्थी मुसलमानों को गहरा धक्का लगा, क्योंकि इससे इस्लामिक दुनिया का कोई ‘खलीफा’ नहीं रहा। इससे विचलित होकर इसके खिलाफ भारत में कुछ कट्टरपन्थियों ने ‘खिलाफत’आन्दोलन शुरू किया। ऐसे में महात्मा गाँधी ने मुसलमानों की राष्ट्रीय आन्दोलन में भागीदारी बढ़ाने की उद्देश्य से उनसे समझौता कर ‘खिलाफत’आन्दोलन में सहयोग देने की घोषणा की। इससे खिलाफत आन्दोलन खासतौर से जमातियों और उसके इस्लामिक कट्टरपन्थियों रहनुमाओं का असर तो बढ़ा, पर इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को कोई खास फायदा नहीं हुआ। उसी दौर में आम मुसलमानों को अपने मजहब के प्रति कट्टर बनाने के लिए जमात-ए- उलामा ने सन् 1926 में बैठक कर अलग से ‘तब्लीग’ चलाने का फैसला किया। इसके बाद सन् 1927 में मौलाना इलियास ने जमात को बाकायदा अमलीजामा पहनाते हुए पूरे मुल्क में इसे फैलाया। उनकी सरपरस्ती में बड़ी तादाद में लोग खुदगर्जी से दूर होकर तब्लीग जमात की खिदमत से जुड़ गए। सन् 1927 में आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या होने पर ‘तब्लीग जमात‘ पर उनके कत्ल का आरोप लगा,जो ‘शुद्धि आन्दोलन’ से जुड़े थे।

मौलाना इलियास के इन्तकाल के बाद इस पर खानदान(परिवारवाद) तारी हो गया। मौलाना के खानदानियों ने उनके बेटे मौलाना युसुफ को जमात का ‘अमीर’(प्रमुख)बना दिया। मौलाना युसुफ ने जमात के काम को फैलाने के लिए अपने देश और दूसरे मुल्कों की यात्राएँ कीं। नतीजा अरब और दूसरे मुल्कों के मुसलमान तब्लीग जमात से जुड़ गए। मौलाना युसुफ ने अपने इन्तकाल से तीन साल पहले सन् 1965 में रावलपिण्डी में कहा था,‘‘ उम्मत की स्थापना अपने खानदान, दल, मुल्क, जुबान आदि की अहम कुर्बानियाँ देकर ही हुई थी।याद रखो, ‘मेरा मुल्क’, ‘मेरा इलाका‘, ‘मेरे लोग’ आदि एकता तोड़ने की तरफ जाती है। इन सबको अल्लाह सबसे ज्यादा नामंजूर करता है। मुल्क और दूसरे समूहों के ऊपर इस्लाम की सामूहिकता सर्वोच्च रहनी चाहिए।’’ मौलाना युसुफ के इन्तकाल के बाद उनके ससुर और फजाइले आमाल के लेखक शेखउल हदीस मौलाना मोहम्मद जिकारिया ने अपने दूसरे दामाद इमानुल हसन को जमात का ‘अमीर’ बना दिया। मौलाना इमानुल हसन ने जमात में जम्हूरियत सिस्टम(लोकतांत्रिक व्यवस्था) कायम करने के लिए मकसद से 13सदस्यीय शूर समिति का गठित की,ताकि किसी तरह का नाइंसाफी न हो सके। मौलाना इमानुल हसन के इन्तकाल के बाद अमीर बनने को लेकर खानदान में विवाद शुरू हो गया, किन्तु इसके लिए बीच का रास्ता निकाला गया। इसके तहत इनामुल हसन के भाई मौलाना इजहार उल हसन ,बेटे मौलाना जुबैर मौलाना मोहम्मद साद और मेवात निवासी नियाजी मेहराब जमात का काम मिल-जुलकर देखने लगे। मौलाना इजहार उल हसन ,मौलाना जुबैर और मेहराब के इन्तकाल के बाद जमात में अमीर बनने को लेकर फिर से विवाद शुरू हो गया। मौलाना साद की नीयत में फर्क आ गया। बाद में पाकिस्तान के रायविण्ड शहरी में तब्लीगी जलसे में मौलाना साद हठधर्मिता दिखाते हुए खुद को जमात का अमीर होने का ऐलान कर दिया।
अपने देश में एक खास समुदाय के एकमुश्त वोटों की खातिर कभी ‘तब्लीगी जमात‘ के असल मकसद और उनके कार्यकलापों पर गौर फरमाने की किसी भी सियासी पार्टी की सरकार ने जहमत नहीं उठायी। ज्यादातर लोग तब्लीगी जमात और तब्लीगी मरकज(मुख्यालय)को इस्लामिक तालीम/दीनी शिक्षा देने का केन्द्र समझते हैं। प्रो.बारबरा मेटकाफ के मुताबिक ‘जमात का मॉडल/प्रादर्श शुरुआती इस्लाम है।उसके मुखिया को ‘अमीर’ को ओहदा दिया गया। इसका इशारा है, जो सैनिक -सियासी कमाण्ड/ रहनुमा होता था। उसकी टोलियों की यात्रा कोई शिक्षक दल नहीं, बल्कि गश्ती दस्ते जैसी होती हैं, ताकि किसी इलाके की निगरानी कर उसके हिसाब से रणनीति बनायी जा सके।
अगर अपने देश में भी दंगे-फसादों की असल जड़ का तलाशा जाए,तो सम्भव है,उसके पीछे यही हो। श्रीरामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद ढाँचा ढहाए जाने के बाद सन् 1992-93 में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में कई मन्दिरों पर हमलों में तब्लीगी जमात का हाथ रहा। आज दुनियाभर में आतंकवाद के पीछे तब्लीगी जमात सरीखी जेहादी मानसिकता ही काम कर रही है। अपने देश मंे ज्यादातर सियासी पार्टियाँ ऐसे कट्टरपन्थियों को न केवल बचाव/संरक्षण देते है,बल्कि उन्हें मुल्क का वफादार/वतनपरस्त होने को सार्टिफिकेट भी देते आए है। ऐसा करके अबतक ये सियासी नेता अपने लिए वोटों की जुगाड़ करती आए हैं। इसलिए तब्लीगी जमात और दूसरी मजहबी कट्टरपन्थी संगठनों की असलियत खुलकर सामने नहीं आ पाती। अब समय आ गया है,जब हमें देशहित को सबसे ऊपर मानते हुए ऐसे सभी धर्मो/सम्प्रदायों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने को आगे आना होगा, जो इस देश के लोगों को मजहब, सम्प्रदाय, भाषा, जात-पांत के आधार पर बाँटकर आपस में लड़ाने की कोशिशों में लगे हैं। उनकी सियासत से देश का कितना अहित होगा, इसकी उसे कितनी कीमत चुकानी पड़ती है, तब्लीगी जमात उसका नमूनाभर है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार,63 ब,गाँधी नगर,आगरा-282003,मो.नम्बर-9411684054
Add Comment