राजनीति

जम्मू-कश्मीर मे आसान नहीं होगी उमर अब्दुल्ला की डगर

डॉ बचन सिंह सिकरवार
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला द्वारा उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को 55 विधायकों के समर्थन का पत्र सौंप दिये जाने के बाद एनसी-काँग्रेस के गठबन्धन की सरकार बनना तय है, जिसमें आप,माकपा समेत 5 निर्दलीयों का समर्थन शामिल है।इतने अधिक बहुमत के रहते इस सरकार को मुख्य विपक्षी दल भाजपा से भी कोई खतरा दिखायी नहीं देता।लेकिन केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के रहते उसके लिए अपने घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 और 35ए को निरस्त करने के वादे को पूरा करना किसी भी सूरत में सम्भव नहीं है,यह भी तय है। उनके लिए अपने सफर के लिए डगर पहले की तरह आसान न होकर मुश्किल है। वैसे हाल में जम्मू-कश्मीर के विधानसभा के चुनाव के परिणाम सभी राजनीतिक दलों के लिए अप्रत्याशित रहे हैं,भले ही इस चुनावी जंग में कामयाब रहे हों या नाकाम। इस चुनाव में ’नेशनल कॉन्फ्रेंस’(एनसी) को जितनी सीटों पर कामयाबी हासिल हुई है, उसकी उसे कतई उम्मीद नहीं थी। इसकी वजह यह है कि जिन लोगों ने इसके उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को कुछ माह पहले हुए लोकसभा के चुनाव में दो लाख वोटों से हराया था, उन्हीं ने इस चुनाव में उमर अब्दुल्ला दो जगहों से चुनाव जिताया है, जबकि वह हार के डर से दो स्थानों से चुनाव लड़े तथा अपनी टोपी उतार कर इस बार इज्जत बचाने की याचना की थी। ऐसे ही उसकी प्रतिद्वन्द्वी पार्टी ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी‘((पीडीपी) को जैसी नाकामी मिली है, वैसी उसने ख्वाब में भी देखी-सोची नहीं होगी। वैसे इसकी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने एनसी नेताओं की तरह अनुच्छेद 370 और 35ए के रद करने के केन्द्र सरकार के फैसले की जमकर मुखालफत से लेकर इस्लामिक कट्टरपंथियों की खुलकर हिमायत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके बाद भी वह भी उमर अब्दुल्ला की तरह लोकसभा में एक निर्दलीय अलगाववादी से चुनाव में हार गईं। अब खुद को सबसे बड़ी इस्लामी नेता साबित करने की खातिर गत दिनों लेबनान के दहशतगर्द संगठन ‘हिज्बुल्ला‘ के सरगना नसरुल्ला की मौत पर गम जताने के लिए एक दिन के लिए चुनाव प्रचार तक रोक दिया था।फिर भी वह कश्मीरियों का एतबार हासिल करने में नाकाम रहीं। कुछ ऐसा ही हाल भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) का है,जो अपने विकास कार्यो, पत्थरबाजी, आतंकवाद पर लगाम लगाने यानी अमन-चैन की वापसी, अनुच्छेद 370 तथा 35ए निरस्त करने के फैसले से उत्साहित होकर बहुमत पाने की आस लगाये हुई थी,उसे भी गहरी निराशा ही मिली है। अब भाजपा अपनी इस चुनावी नाकामी को छुपाने को यह कह रही है कि इस सूबे में बगैर किसी खून खराबे के जिस तरह भारी तादाद में लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, वह लोकतंत्र की जीत/सफलता है। लेकिन हकीकत इससे बिल्कुल जुदा/अल्हदा है। भाजपा और दूसरी सियासती पार्टियाँ अपने-अपने सियासती नफा-नुकसान को देखते हुए असल वजह तो बताने से रहीं,कि घाटी के लोगों/मुसलमानों में से ज्यादातर ने एक बार बता दिया कि उनके लिए वतन से सबसे बढ़कर मजहब है और उनकी असल मंशा कश्मीर को ‘दारूल इस्लाम‘ बनना है। बड़ी संख्या में एकजुट होकर और एक ही पार्टी के हक में मतदान कर ये लोग अपने उस मकसद का हासिल करना चाहते हैं,जो वे अलगाववाद, दहशतगर्दी, हिन्दुओं को घाटी से बेदखल कर भी हासिल न कर सके। इस चुनाव की एक खास खूबी यह रही कि जहाँ लोकसभा के चुनाव में लोगों ने एनसी के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला और पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती की उपेक्षा कर दो दहशतगर्दो/अलगावादियों को भारी समर्थन देकर सांसद चुना,वहीं इस बार 30दहशगतगर्द/अलगाववादियों को पूरी तरह नाकार दिया है।यहाँ तक कि संसद पर हमले की साजिश में फाँसी सजा पाने वाले अफजल गुरु के भाई को भी इस चुनाव में हरा दिया है।
दरअसल,जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने और दो केन्द्रशासित राज्य जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख में विभाजित करने के बाद यहाँ यह पहला विधानसभा चुनाव था। परिसीमन के पश्चात् जम्मू सम्भाग को 43 और कश्मीर सम्भाग को 47सीटें आवण्टित हुईं। नब्बे के दशक में कश्मीर घाटी इस्लामिक कट्टरवादियों द्वारा कई लाख हिन्दुओं को पलायन को मजबूर करने की वजह से करीब -करीब यह हिन्दूविहीन हो गई है, वहीं जम्मू सम्भाग में केवल चार जिले जम्मू, उधमपुर, कठुआ, सांभा हिन्दू बहुल तथा पीर पंजाल के पुंछ तथा डोडा मुस्लिम बहुल हैं। इनके अलावा चिनाव घाटी के तीन जिले मिश्रित आबादी वाले हैं। ऐसे में जहाँ कश्मीर सम्भाग में भाजपा के लिए कोई राजनीतिक स्थान नहीं है, वहीं जम्मू सम्भाग में काँग्रेस, एनसी, पीडीपी आदि उसकी प्रतिद्वन्द्वी सियासी पार्टियाँ हैं। वैसे भी जम्मू सम्भाग में मजहब के साथ जाति,जनजातीय,भाषायी अस्मिता भी प्रभावी है।
इस बार चुनाव में सूबे में खास कर मुस्लिम बहुल घाटी में लोगों ने एनसी को एकतरफा वोट पड़े हैं , जिसके घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली ही नहीं, उन कानूनों को खत्म करना जो विशेष दर्जे को प्रभावित करते हैं, राजनीतिक बन्दियों की रिहा करना, भू-स्वामित्व को सीमित करना, जनसुरक्षा कानून को खत्म करना, उसे स्वायत्तता की माँग समेत पाकिस्तान से बातचीत तथा व्यापार शुरू करने का वायदा किया गया। उनका पीडीपी की तुलना में एनसी को तरजीह देने की असल वजह महबूबा मुफ्ती पर एतबार/यकीन न करना है, क्योंकि यह पार्टी 2014 में भाजपा के साथ गठबन्धन सरकार बना चुकी है,जिससे वे बेहद नफरत करते हैं। सम्भवतःउन्हें सन्देह था कि कही ये एकबार फिर भाजपा से गठबन्धन न ले। इसलिए इस बार उन्होंने एनसी को अहमियत/तरजीह दी। इस सूबे में कुल 90 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए हैं,जिसे एनसी ने काँग्रेस के साथ मिलकर लड़ा। इसमें एनसी ने 51 और काँग्रेस 32सीटों पर चुनाव लड़ा। इसके अतिरिक्त 5सीटों पर इनमें मित्रवत मुकाबला था। इनमें से एनसी को 42 और काँग्रेस को 6 सीटों सफलता मिली है। इस चुनाव में काँग्रेस महिलाओं और बेरोजगारों के लिए भत्ते और बीमा योजनाओं जैसी लोकलुभावन गारण्टियों के साथ चुनावी मैदान में उतरी थी। फिर भी काँग्रेस को 11़़.97 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि 2014में उसे 12सीटों के साथ 18.01प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुए थे। इसे घाटी में 5 और 1सीट जम्मू सम्भाग में मिली है। पीडीपी को महज 3सीटें और लगभग 8.87 प्रतिशत हासिल हुए हैं,जबकि 2014 में सबसे ज्यादा 28सीटें और 22.67 फीसद वोट मिले थे। पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती के बेटी और उनकी पार्टी की भावी खेवनहार,दहशतगर्द संगठन ‘हमास‘ तथा ‘हिजबुल्ला’ के समर्थन में ‘पोस्टर गर्ल बनी इल्तिजा मुफ्ती उनकी खानदानी सीट बिजबिहेरा से चुनाव हार गई हैं। इन्हीं इल्तिजा मुफ्ती ने अपनी चुनावी नाकामी की सफाई देते हुए कहा कि उनकी पार्टी की हार भाजपा के साथ गठबन्धन करने की वजह से नहीं हुई है। इसकी कई वजह रही हैं। घाटी में एनसी और पीडीपी में से एक को जनता ने मौका दिया है। कुछ इसी तरह उनकी माँ महबूबा मुफ्ती का कहना था कि सूबे के लोगों ने एक पार्टी को बहुमत देकर मजबूत सरकार बनने का जनादेश दिया है,इसे हम मंजूर करते हैं। अब जहाँ तक भाजपा का प्रश्न है तो वह जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना, क्षेत्रीय विकास,युवाओं के भविष्य का निर्माण ,आतंकवाद, अलगाववाद, परिवारवाद तथा भ्रष्टाचार को खत्म करने पर बल दिया। वैसे सन् 1987 के बाद इसे साढ़े तीन दशक में सबसे बड़ी कामयाबी मिली है।इस बार उसे 29सीटें और क 25.63 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं,जबकि 2014में 25 सीटें तथा 22.98 फीसद वोट मिले थे। भाजपा ने इस बार 90 में से सिर्फ 60 सीटों पर चुनाव लड़ा। इसमें से भी
घाटी में महज 19 सीटों पर अपने उम्मीद उतारे। इनमें से केवल बारामुला की गुरेज सीट 1,100वोट से जरूर हारी है,जहाँ 98 फीसदी आबादी मुसलमानो की है। वैसे इसे यहाँ किसी भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली है, वहीं जम्मू सम्भाग में 41 पर चुनाव लड़ा। उसने 23सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी भी उतारे। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के तहत पहली बार अनुसूचित जनजाति(एसटी)का राजनीतिक आरक्षण देते हुए विधानसभा की 9सीटें आरक्षित कीं,किन्तु यहाँ भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। भाजपा को तमाम कोशिशों के बाद भी पोरागंल में बड़ा धक्का लगा है। राजौरी-पुंछ की आठ में से एसटी के लिए आरक्षित 5 सीटों पर भी कुछ खास नहीं कर सकी। इन दोनों जिलों की 7सीटों पर भाजपा को पराजय मिली है।उसे 4-5सीटें जीतने की आशा थी।भाजपा को यहाँ केवल बालकोट-सुन्दरवन सीट पर ही सफलता प्राप्त हुई है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र रैना चुनाव हार गए हैं।विशेष बात यह है कि पहाड़ी समुदाय को पहली बार भाजपा ने एसटी का दर्जा दिया,उसे उम्मीद थी कि यह समुदाय उसे ही अपना वोट देगा,पर ऐसा नहीं हुआ। इस चुनाव में बड़ी सियासी पार्टियों के अलावा सीपीएम, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस,आमआदमी पार्टी को एक-एक सीट मिली है,बाकी पर 7पर निर्दलीय कब्जा करने में कामयाब रहे हैं। अब इनमें से 4 ने एनसी को अपना समर्थन देने का ऐलान किया है। गुलाम नवी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, सांसद इंजीनियर रशीद की आवामी इŸोहाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की पार्टी खाली हाथ रही हैं। इस चुनाव के नतीजे आने के बाद जैसी कि उम्मीद थी,ठीक वैसा ही हुआ। अब एनसी के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री चुना गया है।उन्होंने कहा कि विधानसभा के नतीजे साबित करते हैं कि जम्मू-कश्मीर के ज्यादातर लोग पूर्ववर्ती राज्य के दर्जे के समाप्त करने के केन्द्र सरकार के फैसले के पक्ष में नहीं हैं। यह जनादेश स्पष्ट रूप से उस निर्णय के पक्ष में नहीं है। अगर ऐसा होता तो भाजपा जीत गई होती। जम्मू-कश्मीर के ज्यादातर लोग 5अगस्त, 2019 के अनुच्छेद 370और 35ए के निरस्त के पक्ष में नहीं है।यह एक सच्चाई है।इसमें हम से परामर्श नहीं किया।हम उस फैसले का हिस्सा नहीं है,लेकिन अब हम आगे बढ़ेंगे और ऐसे देखेंगे कि हम क्या कर सकते हैं? उनकी इस स्वीकारोक्ति में रंचमात्र भी असत्य नहीं है। यहाँ अब उनसे प्रश्न है? अनुच्छेद 370 और 35ए को संविधान में प्रावधान क्या इस सूबे के लोगों से पूछ कर दर्ज कराया गया था?क्या वह स्थायी था? अगर एक राज्य के खास समुदाय के लोगों की इच्छा मानकर संविधान में उनके सूबे को विशेष दर्जे/अलगाववादी प्रावधान दर्ज कराये/निरस्त किये जाते रहे,तो क्या इस देश की एकता,अखण्डता ही नहीं,सम्प्रभुता भी सुरक्षित नहीं रहेगी? वैसे उन्हें याद रखना चाहिए कि उक्त अनुच्छेद उनके बाबा शेख अब्दुल्ला ने तिकड़म से संविधान में अस्थायी रूप से जुड़वाया था,जिससे अब पूरे देश के सांसदो ने मिल कर संसद में निरस्त/हटाया है,ऐसे में एक राज्य के लोगों की राय/इच्छा के कोई माने नहीं हैं। ऐसे में उमर अब्दुल्ला के लिए उचित यही होगा कि हालात को देखते हुए राज्य और राष्ट्र हित मे निर्णय लें। मजहब और पाकिस्तान परस्ती, अलगाव को वह और राज्य के लोगों को हमेशा के लिए भूल जाने यानी तौबा करने को कहें,तभी उनके राज्य को पूर्ण राज्य के दर्जे का मार्ग प्रशस्त होगा ।
सम्पर्क-डॉ़ बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर आगरा-282003 मो0नम्बर-9411684054

 

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