देश-दुनिया

फिर जागी तिब्बत की स्वतंत्रता की आस

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में अमेरिका के विदेशी मामलों के अध्यक्ष माइकल मैकोल के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक पार्टी और विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के सात प्रमुख सांसदों द्वारा चीन के मुखर विरोध के रहते उनका हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बत के बौद्धों के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा से मिलकर अमेरिकी संसद में पारित ‘रिजोल्व तिब्बत एक्ट’ की प्रति भेंट करना, जिसमें स्वतंत्र तिब्बत की बात कही गई है। यह अमेरिका की चीन के प्रति नीति में बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। सच में अमेरिका का एक अत्यन्त साहसिक और बड़ा कदम है। इसकी विश्व के स्वतंत्रता, लोकतंत्र, मानवाधिकार समर्थक और विस्तारवाद विरोधी देशों द्वारा हर हाल में सराहा जाना चाहिए। इस घटना में भारत की भूमिका भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं, जिसने अमेरिका की चीन को चुनौती में पूरा साथ दिया है। वैसे इस मुद्दे पर भारत द्वारा किसी तरह की टिप्पणी नहीं की गई है,लेकिन विदेश मंत्री एस.शंकर की द्विपक्षीय सम्बन्धों और तिब्बती शरणार्थियों को लेकर उनके साथ वार्ता अवश्य हुई। वैसे यह भी सच है कि इस नए अमेरिका कानून के कुछ प्रावधानों से भारत, नेपाल, भूटान और उसके दूसरे पड़ोसी एशियाई देशों को चीन के विस्तारवादी नीति से छुटकारा मिल सकता है । यद्यपि अमेरिका और भारत विश्व के दूसरे देशों की तरह आधिकारिक रूप से ‘एक चीन की नीति’ को मानते है, जिसे चीन दूसरे मुल्कों से मनने का अनुरोध करता आया है, तथापि यह भी सच है कि वह तिब्बत में जो कुछ अनुचित-अवैध करता आया है या कर चुका है,उसकी कोई हकीकत बयां करे या उसे आईना दिखाये,यह उसे कतई मंजूर नहीं है। इस बार भी चीन ने जब तिब्बत पर अपने झूठे कब्जे की बात दोहराई और अमेरिका के सांसदों को भारत आने से मना किया। इस पर सांसद मैकोल का कहना है कि अमेरिका चीन की धमकी की परवाह नहीं करता, तभी तो उसके मना करने पर हम लोग यहाँ आए हैं। हम सब जानते है कि तिब्बत कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा है। इस विधेयक पर शीघ्र राष्ट्रपति जो बाइडन के हस्ताक्षर करेंगे,उसके बाद चीन का तिब्बत को लेकर दुष्प्रचार खत्म किया जा सकेगा।
चीन अब तक तिब्बत को अपना अविभाज्य हिस्सा बताता आया है और इसे लेकर कैसा भी प्रश्न करने पर वह आन्तरिक मामला बताकर उŸार देने बचता रहा है, पर अमेरिका द्वारा तिब्बत को लेकर बनाये नए कानून में तिब्बत को लेकर चीन के सभी दावों को अमान्य ठहराया गया है। इसमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि तिब्बत एक स्वतंत्र देश था,जो इतिहास में कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा। इस पर चीन ने अवैध कब्जा किया हुआ है,जो सत्य है। मई, 1951 में कम्युनिस्ट चीन ने इस पर अधिकार कर लिया,जो चीनी साम्राज्य के दक्षिण में है। चीन ने वहाँ पर 1953 में थियोक्रेटिक बुद्ध शासन को हटाकर साम्यवादी सरकार की स्थापना की। सन् 1959 में यहाँ असन्तोष फैला, जिसे चीनी सरकार ने कुचल दिया है।तब दलाई लामा और एक लाख तिब्बती भारत में शरण लेने को मजबूर हुए थे। तिब्बत की दक्षिणी सीमा पर भारत, नेपाल और भूटान हैं। चीन तिब्बत की निर्वासित सरकार के साथ वार्ता में तिब्बत की परिभाषा को सिर्फ तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तक सीमित मानती है, पर नए अमेरिकी कानून में तिब्बत की परिधि में उसके खम और आम्दो प्रान्तों को सम्मिलित किया है, जिन्हें तिब्बत पर आधिपत्य करने के बाद उन्हें तिब्बत से अलग कर उनका यून्नान, सिचुआन, चिंघाई तथा गांसू जैसे सीमावर्ती चीनी प्रदेशों में विलय कर दिया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में तिब्बत के समर्थन में 1959, 1961, 1065 के मध्य प्रस्ताव पारित कराने में अमेरिका ने प्रारम्भि प्रयास किये थे,पर बाद में वह चीन से मैत्री बढ़ाने के फेउ में तिब्बत शान्त होकर बैठ गया।
अमेरिका के नए कानून में धर्मशाला( तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय ) और बीजिंग(चीन की राजधानी) की प्रस्तावित शान्ति वार्ताओं में तिब्बत की तरफ से न सिर्फ दलाई लामा और उनके प्रतिनिधियों को हिस्सा लेने का अधिकारी माना गया है, वरन् अब धर्मशाला में तिब्बतियों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी इसमें सम्मिलित करके केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन की ‘तिब्बती सरकार जैसी परीक्षा को भी मान्यता प्रदान की गई है।दलाई लामा के आगामी अवतार को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का क्षेत्राधिकार घोषित करने पर अड़े चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग को चिड़ाते हुए उक्त कानून में स्पष्ट कहा गया है कि दलाई लामा या अन्य अवतारी लामाओं की खोज करने और उसकी नियुक्ति के साथ-साथ उसकी शिक्षा-दीक्षा का एकमात्र अधिकारी दलाई लामा तथा तिब्बती समुदाय का है। अगर इस मामले में चीन का कोई दखलदांजी करता है तो उस दशा में अमेरिका के राष्ट्रपति एवं सम्बन्धित अमेरिकी एजेन्सियों का यह विधिक दायित्व होगा कि वे ऐसे सभी चीनी अधिकारियों पर आवश्यक प्रतिबन्ध लगाएँ। यह प्रावधान इसलिए महŸवपूर्ण है,क्यों कि चीन चाहता है कि भावी लामा चीन का हो या उनके नियंत्रण को मानने वाला हो, ताकि तिब्बत के बारे में वह उसके अनुकूल बोले और उसके इशारे पर चले। फिलहाल, नया अमेरिकी कानून न केवल तिब्बत की स्वतंत्रता की दिशा में अत्यन्त महŸवपूर्ण है, बल्कि भारत की अपनी सुरक्षा व्यवस्था के विशेष महŸव का है। भारत की उŸारी सीमा तिब्बत के कारण ही अभेद्य थी,पर जब से चीन ने उस पर अवैध कब्जा जमाया हुआ है ,तब से आज तक असुरक्षित है। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन ने भारत के लद्दाख में कोई 38 हजार वर्ग किलोमीटर में विस्तृत अक्सई चिन पर अवैध कब्जा जमाया हुआ है। उसने वहाँ पर काराकोरम राजमार्ग भी बनाया हुआ।इसके उपरान्त 15-16 जून,2020को लद्दाख की गलवन घाटी में भारत-चीन के सैनिकों के मध्य झड़प हुई थी, जिसमें 20 भारतीय और चीनी के कोई 45से अधिक सैनिक मारे गए। अब भी इस क्षेत्र में कई जगहों पर दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने डटे हुए हैं। दरअसल, चीन अरुणाचल को भी दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बताते उसे अपना क्षेत्र बताता आ रहा है। इतना ही नहीं, वह हिमाचल, उत्तराखण्ड, सिक्किम के सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ करता आया है। उसने पूरे तिब्बत को अपनी छावनी बनाया हुआ। वह तिब्बत को हथेली और लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम, अरुणाचल को पाँच उंगलियाँ मानते हुए इन्हे हड़पने की फिराक में है। ऐसे में तिब्बत की स्वतंत्रता भारत के लिए किसी भी माने में स्वयं की आजादी से कम नहीं है। अतः भारत को भी अमेरिका के तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए जाने वाले इस प्रयास में हर तरह से सहयोग करना चाहिए।इससे चीन की विस्तारवादी नीति पर रोक लगेगी,जिससे उसके सभी पड़ोसी ही नहीं, दक्षिण-प्रशान्त महासागर के देश भी त्रस्त हैं।
सम्पर्क – डॉ बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मोबाइल नम्बर-9411684054

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