कहानी

अलंकार अध्याय 3

अलंकार अध्याय 3

जब थायस ने पापनाशी के साथ भोजशाला में पदार्पण किया तो मेहमान लोग पहले ही से आ चुके थे। वह गद्देदार कुरसियों पर तकिया लगाये, एक अर्द्धचन्द्राकार मेज के सामने बैठे हुए थे। मेज पर सोनेचांदी के बरतन जगमगा रहे थे। मेज के बीच में एक चांदी का थाल था जिसके चारों पायों की जगह चार परियां बनी हुई थीं जो कराबों में से एक परकार का सिरका उंड़ेलउंड़ेलकर तली हुई मछलियों को उनमें तैरा रही थीं। थायस के अन्दर कदम रखते ही मेहमानों ने उच्चस्वर से उसकी अभ्यर्थना की।
एक ने कहा-सूक्ष्म कलाओं की देवी को नमस्कार !
दूसरा बोला-उस देवी को नमस्कार जो अपनी मुखाकृति से मन के समस्त भावों को परकट कर सकती है।
तीसरा बोला-देवता और मनुष्य की लाड़ली को सादर परणाम !
चौथे ने कहा-उसको नमस्कार जिसकी सभी आकांक्षा करते हैं !
पांचवां बोला-उसको नमस्कार जिसकी आंखों में विष है और उसका उतार भी।
छठा बोला-स्वर्ग के मोती को नमस्कार !
सातवां बोला-इस्कन्द्रिया के गुलाब को नमस्कार !
थायस मन में झुंझला रही थी कि अभिवादनों का यह परवाह कब शान्त होता है। जब लोग चुप हुए तो उसने गृहस्वामी कोटा से कहा-‘लूशियस, मैं आज तुम्हारे पास एक मरुस्थलनिवासी तपस्वी लायी हूं जो धमार्श्रम के अध्यक्ष हैं। इनका नाम पापनाशी है। यह एक सिद्धपुरुष हैं जिनके शब्द अग्नि की भांति उद्दीपक होते हैं।’
लूशियस ऑरेलियस कोटा ने, जो जलसेना का सेनापति था, खड़े होकर पापनाशी का सम्मान किया और बोला-‘ईसाई धर्म के अनुगामी संत पापनाशी का मैं हृदय से स्वागत करता हूं। मैं स्वयं उस मत का सम्मान करता हूं जो अब सामराज्यव्यापी हो गया है। श्रद्धेय महाराज कॉन्सटैनटाइन ने तुम्हारे सहधर्मियों को सामराज्य के शुभेच्छकों की परथम श्रेणी में स्थान परदान किया है। लेटिन जाति की उदारता का कर्त्तव्य है कि वह तुम्हारे परभु मसीह को अपने देवमन्दिर में परतिष्ठत करे। हमारे पुरखों का कथन था कि परत्येक देवता में कुछन-कुछ अंश ईश्वर का अवश्य होता है। लेकिन यह इन बातों का समय नहीं है। आओ, प्याले उठायें और जीवन का सुख भोगें। इसके सवा और सब मिथ्या है।’
वयोवृद्ध कोटा बड़ी गम्भीरता से बोलते थे। उन्होंने आज एक नये परकार की नौका का नमूना सोचा था और अपने ‘कार्थेज जाति का इतिहास’ का छठवां भाग समाप्त किया था। उन्हें संष्तोा था कि आज का दिन सफल हुआ, इसलिए वह बहुत परसन्न थे।
एक क्षण के उपरान्त वह पापनाशी से फिर बोले-‘सन्त पापनाशी, यहां तुम्हें कई सज्जन बैठे दिखाई दे रहे हैं जिनका सत्संग बड़े सौभाग्य से पराप्त होता है-यह सरापीज मन्दिर के अध्यक्ष हरमोडोरस हैं; यह तीनों दर्शन के ज्ञाता निसियास, डोरियन और जेनी हैं; यह कवि कलिक्रान्त हैं, यह दोनों युवक चेरिया और अरिस्टो पुराने मित्रों के पुत्र हैं और उनके निकट दोनों रमणियां फिलिना और ड्रोसिया हैं जिनकी रूपछवि पर हृदय मुग्ध हो जाता है।’
निसियास ने पापनाशी से आिंलगन किया और उसके कान में बोला-‘बन्धुवर मैंने तुम्हें पहले ही सचेत कर दिया था कि बीनस (शृंगार की देवी-यूनान के लोग शुक्र को वीनस कहते थे) बड़ी बलवती है। यह उसी की शक्ति है जो तुम्हें इच्छा न रहने पर भी यहां खींच लायी है। सुनो, तुम वीनस के आगे सिर न झुकाओगे, उसे सब देवताओं की माता न स्वीकार करोगे, तो तुम्हारा पतन निश्चित है। तुम उसकी अवहेलना करके सुखी नहीं रह सकते। तुम्हें ज्ञात नहीं है कि गणितशास्त्र के उद्भट ज्ञाता मिलानथस का कथन था मैं वीनस की सहायता के बिना त्रिभुजों की व्याख्या भी नहीं कर सकता।’
डोरियन, जो कई पल तक इस नये आगन्तुक की ओर ध्यान से देखता रहा था, सहसा तालियां बजाकर बोला-‘यह वही हैं, मित्रो, यह वही महात्मा हैं। इनका चेहरा इनकी दा़ी, इनके वस्त्र वही हैं। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं। मेरी इनसे नाट्यशाला में भेंट हुई थी जब हमारी थायस अभिनय कर रही थी। मैं शर्त बदकर कह सकता हूं कि इन्हें उस समय बड़ा क्रोध आ गया था, और उस आवेश में इनके मुंह में उद्दण्ड शब्दों का परवाहसा आ गया था। यह धमार्त्मा पुरुष हैं, पर हम सबों को आड़े हाथों लेंगे। इनकी वाणी में बड़ा तेज और विलक्षण परतिभा है। यदि मार्कस ईसाईयों का प्लेटो है तो पापनाशी निसन्देह डेमॉस्थिनीज है।’
किन्तु फिलिना और ड्रोसिया की टकटकी थायस पर लगी हुई थी, मानो वे उसका भक्षण कर लेंगी। उसने अपने केशों में बनशे के पीलेपीले फूलों का हार गूंथा था, जिसका परत्येक फूल उसकी आंखों की हल्की आभा की सूचना देता था। इस भांति के फूल तो उसकी कोमल चितवनों के सदृश थीं। इस रमणी की छवि में यही विशेषता थी। इसकी देह पर परत्येक वस्तु खिल उठती थी। सजीव हो जाती थी। उसके चांदी के तारों से सजी हुई पेशवाज के पांयचे फर्श पर लहराते थे। उसके हाथों में न कंगन थे, न गले में हार। इस आभूषणहीन छवि में ज्योत्स्ना की म्लान शोभा थी, एक मनोहर उदासी, जो कृत्रिम बनावसंवार से अधिक चित्ताकर्षक होती है ! उसके सौन्दर्य का मुख आधार उसकी दो खुली हुई नर्म, कोमल, गोरीगोरी बांहें थी। फिलिना और ड्रोसिया को भी विवश होकर थायस के जूड़े और पेशवाज की परशंसा करनी पड़ी, यद्यपि उन्होंने थायस से इस विषय में कुछ नहीं कहा।
फिलिना ने थायस से कहा-‘तुम्हारी रूपशोभा कितनी अद्भुत है ! जब तुम पहलेपहल इस्कन्द्रिया आयी थीं, उस समय भी तुम इससे अधिक सुन्दर न रही होगी। मेरी माता को तुम्हारी उस समय की सूरत याद है। यह कहती है कि उस समय समस्त नगर में तुम्हारे जोड़ की एक भी रमणी न थी। तुम्हारा सौन्दर्य अतुलनीय था।’
ड्रोसिया ने मुस्कराकर पूछा-‘तुम्हारे साथ यह कौन नया परेमी आया है ? बड़ा विचित्र, भयंकर रूप है। अगर हाथियों के चरवाहे होते हैं तो इस पुरुष की सूरत अवश्य उनसे मिलती होगी। सच बताना बहन, यह वनमानुस तुम्हें कहां मिल गया ? क्या यह उन जन्तुओं में तो नहीं है जो रसातल में रहते हैं और वहां के धूमर परकाश से काले हो जाते हैं।’
लेकिन फिलिना ने ड्रोसिया के होंठों पर उंगली रख दी और बोली-‘चुप ! परणय के रहस्य अभेद्य होते हैं और उनकी खोज करना वर्जित है। लेकिन मुझसे कोई पूछे तो मैं इस अद्भुत मनुष्य के होठों की अपेक्षा, एटना के जलते हुए, अग्निपरसारक मुख से चुम्बित होना अधिक पसन्द करुंगी। लेकिन बहन, इस विषय में तुम्हारा कोई वश नहीं। तुम देवियों की भांति रूपगुणशील और कोमल हृदय हो, और देवियों ही की भांति तुम्हें छोटेबड़े, भलेबुरे, सभी का मन रखना पड़ता है, सभी के आंसू पोंछने पड़ते हैं। हमारी तरह केवल सुन्दर सुकुमार ही की याचना स्वीकार करने से तुम्हारा यह लोकसम्मान कैसे होगा ?’
थायस ने कहा-‘तुम दोनों जरा मुंह संभाल कर बातें करो। यह सिद्ध और चमत्कारी पुरुष है। कानों में कहीं कई बातें ही नहीं, मनोगत विचारों को भी जान लेता है। कहीं उसे क्रोध आ गया तो सोते में हृदय को चीर निकालेगा और उसके स्थान पर एक स्पंज रख देगा, दूसरे दिन जब तुम पानी पियोगी तो दम घुटने से मर जाओगी।’
थायस ने देखा कि दोनों युवतियों के मुख वर्णहीन हो गये हैं जैसे उड़ा हुआ रंग। तब वह उन्हें इसी दशा में छोड़कर पापनाशी के समीप एक कुसीर पर जा बैठी सहसा कोटा की मृदु, पर गर्व से भरी हुई कण्ठध्वनि कनफुसकियों के ऊपर सुनाई दी-
‘मित्रो, आप लोग अपनेअपने स्थानों पर बैठ जायें। ओ गुलामो ! वह शराब लाओ जिसमें शहद मिली है।’
तब भरा हुआ प्याला हाथ में लेकर वह बोला-‘पहले देवतुल्य समराट और सामराज्य के कर्णधार समराट कान्सटैनटाइन की शुभेच्छा का प्याला पियो। देश का स्थान सवोर्परि है, देवताओं से भी उच्च, क्योंकि देवता भी इसी के उदर में अवतरित होते हैं।’
सब मेहमानों ने भरे हुए प्याले होंठों से लगाये; केवल पापनाशी ने न पिया, क्योंकि कान्सटैनटाइन ने ईसाई सम्परदाय पर अत्याचार किये थे, इसलि भी कि ईसाई मत मत्र्यलोक में अपने स्वदेश का अस्तित्व नहीं मानता।
डोरियन ने प्याला खाली करके कहा-‘देश का इतना सम्मान क्यों ? देश है क्या ? एक बहती हुई नदी। किनारे बदलते रहते हैं और जल में नित नयी तरंगें उठती रहती हैं।
जलसेनानायक ने उत्तर दिया-‘डोरियन, मुझे मालूम है कि तुम नागरिक विषयों की परवाह नहीं करते और तुम्हारा विचार है कि ज्ञानियों को इन वस्तुओं से अलगअलग रहना चाहिए। इसके परतिकूल मेरा विचार है कि एक सत्यवादी पुरुष के लिए सबसे महान इच्छा यही होनी चाहिए कि वह सामराज्य में किसी पद पर अधिष्ठित हो। सामराजय एक महत्वशाली वस्तु है।’
देवालय के अध्यक्ष हरमोडोरस ने उत्तर दिया-‘डोरियन महाशय ने जिज्ञासा की
है कि स्वदेश क्या है ? मेरा उत्तर है कि देवताओं की बलिवेदी और पितरों के समाधिस्तूप ही स्वदेश के पयार्प हैं। नागरिकता समृतियों और आशाओं के समावेश से उत्पन्न होती है।’
युवक एरिस्टोबोलस ने बात काटते हुए कहा-‘भाई, ईश्वर जानता है, आज मैंने एक सुन्दर घोड़ा देखा। डेमोफून का था। उन्नत मस्तक है, छोटा मुंह और सुदृ़ टांगें। ऐसा गर्दन उठाकर अलबेली चाल से चलता है जैसे मुगार्।’
लेकिन चेरियास ने सिर हिलाकर शंका की-‘ऐसा अच्छा घोड़ा तो नहीं है। एरिस्टोबोलस, जैसा तुम बतलाते हो। उसके सुम पतले हैं और गामचियां बहुत छोटी हैं। चाल का सच्चा नहीं, जल्द ही सुम लेने लगेगा, लंगड़े हो जाने का भय है।’
यह दोनों यही विवाद कर रहे थे। कि ड्रोसिया ने जोर से चीत्कार किया। उसकी आंखों में पानी भर आया, और वह जोर से खांसकर बोली-‘कुशल हुई नहीं तो यह मछली का कांटा निगल गयी थी। देखो सलाई के बराबर है और उससे भी कहीं तेज। वह तो कहो, मैंने जल्दी से उंगली डालकर निकाल दिया। देवताओं की मुझ पर दया है। वह मुझे अवश्य प्यार करते हैं।’
निसियास ने मुस्कराकर कहा-‘ड्रोसिया, तुमने क्या कहा कि देवगण तुम्हें प्यार करते हैं। तब तो वह मनुष्यों ही की भांति सुखदुख का अनुभव कर सकते होंगे। यह निर्विवाद है कि परेम से पीड़ित मनुष्य को कष्टों का सामना अवश्य करना पड़ता है, और उसके वशीभूत हो जाना मानसिक दुर्बलता का चिह्न है। ड्रोसिया के परति देवगणों को जो परेम है, इससे उनकी दोषपूर्णता सिद्ध होती है।’
ड्रोसिया यह व्याख्या सुनकर बिगड़ गयी और बोली-‘निसियास, तुम्हारा तर्क सर्वथा अनर्गल और तत्त्वहीन है। लेकिन वह तो तुम्हारा स्वभाव ही है। तुम बात तो समझते नहीं, ईश्वर ने इतनी बुद्धि ही नहीं दी, और निरर्थक शब्दों में उत्तर देने की चेष्टा करते हो।’
निसियास मुस्कराया-‘हां, हां, ड्रोसिया, बातें किये जाओ चाहे वह गालियां ही क्यों न हों। जबजब तुम्हारा मुंह खुलता है, हमारे नेत्र तृप्त हो जाते हैं। तुम्हारे दांतों की बत्तीसी कितनी सुन्दर है-जैसे मोतियों की माला !’
इतने में एक वृद्ध पुरुष, जिसकी सूरत से विचारशीलता झलकती थी और जो वेशवस्त्र से बहुत सुव्यवस्थित न जान पड़ता था, मस्तिष्क गर्व से उठाये मन्दगति से चलता हुआ कमरे में आया। कोटा ने अपने ही गद्दे पर उसे बैठने का संकेत किया और बोला- ‘यूक्राइटीज, तुम खूब आये। तुम्हें यहां देखकर चित्तबहुत परसन्न हुआ। इस मास में तुमने दर्शन पर कोई नया गरन्थ लिखा ? अगर मेरी गणना गलत नहीं है तो यह इस विषय का 92वां निबन्ध है जो तुम्हारी लेखनी से निकला है। तुम्हारी नरकट की कलम में बड़ी परतिभा है। तुमने यूनान को भी मात कर दिया।’
यूक्राइटीज ने अपनी श्वेत दा़ी पर हाथ फेरकर कहा-‘बुलबुल का जन्म गाने के लिए हुआ है। मेरा जन्म देवताओं की स्तुति के लिए, मेरे जीवन का यही उद्देश्य है।’
डोरियन-‘हम यूक्राइटीज को बड़े आदर के साथ नमस्कार करते हैं, जो विरागवादियों में जब अकेले ही बच रहे हैं। हमारे बीच में वह किसी दिव्य पुरुष की परतिभा की भांति गम्भीर, परौ़, श्वेत खड़े हैं। उनके लिए मेला भी निर्जन, शान्त स्थान है और उनके मुख से जो शब्द निकलते हैं वह किसी के कानों में नहीं पड़ते।’

यूक्राइटीज-‘डोरियन, यह तुम्हारा भरम है। सत्य विवेचन अभी संसार से लुप्त नहीं हुआ है। इस्कन्द्रिया, रोम, कुस्तुन्तुनिया आदि स्थानों में मेरे कितने ही अनुयायी हैं। गुलामों की एक बड़ी संख्या और कैसर के कई भतीजों ने अब यह अनुभव कर लिया है कि इन्द्रियों का क्योंकर दमन किया जा सकता है, स्वच्छन्द जीवन कैसे उपलब्ध हो सकता है ? वह सांसारिक विषयों से निर्लिप्त रहते हैं, और असीम आनन्द उठाते हैं। उनमें से कई मनुष्यों ने अपने सत्कर्मों द्वारा एपिक्टीटस और मार्कस ऑरेलियस का पुनः संस्कार कर दिया है। लेकिन अगर यही सत्य हो कि संसार से सत्कर्म सदैव के लिए उठ गया, तो इस क्षति से मेरे आनन्द में क्या बाधा हो सकती है, क्योंकि मुझे इसकी परवाह नहीं है कि संसार में सत्कर्म है या उठ गया। डोरियन, अपने आनन्द को अपने अधीन न रखना मूर्खों और मन्दबुद्धि वालों का काम है। मुझे ऐसी किसी वस्तु की इच्छा नहीं है जो विधाता की इच्छा के अनुकूल है। इस विधि से मैं अपने को उनसे अभिन्न बना लेता हूं और उनके निभरार्न्त सन्टोष में सहभागी हो जाता हूं। अगर सत्कर्मों का पतन हो रहा है तो हो, मैं परसन्न हूं, मुझे कोई आपत्ति नहीं। यह निरापत्ति मेरे चित्त आनन्द से भर देती है, क्योंकि यह मेरे तर्क या साहस की परमोज्ज्वल कीर्ति है। परत्येक विषय में मेरी बुद्धि देवबुद्धि का अनुसरण करती है, और नकल असल से कहीं मूल्यवान होती है। वह अविश्रान्त सच्चिन्ता और सदुद्योग का फल होती है।’

निसियास-‘आपका आशय समझ गया। आप अपने को ईश्वर इच्छा के अनुरूप बनाते हैं। लेकिन अगर उद्योग ही से सब कुछ हो सकता है, अगर लगन ही मनुष्य को ईश्वरतुल्य बना सकती, और साधनों से ही आत्मा परमात्मा में विलीन होती है, तो उस मेंक ने, जो अपने को फुलाकर बैल बना लेना चाहता था, निस्सन्देह वैराग्य का सर्वश्रेष्ठ सिद्घान्त चरितार्थ कर दिया।’
युक्राइटीज-‘निसियास, तुम मसखरापन करते हो। इसके सिवा तुम्हें और कुछ नहीं आता। लेकिन जैसा तुम कहते हो वही सही। अगर वह बैल जिसको तुमने उल्लेख किया है वास्तव में एपिस की भांति देवता है या उस पाताललोक के बैल के सदृश है जिसके मन्दिर के अध्यक्ष को हम यहां बैठे हुए देख रहे हैं। और उस मेक ने सद्पररेणा से अपने को उस बैल के समतुल्य बना लिया, तो क्या वह बैल से अधिक श्रेष्ठ नहीं है ? यह सम्भव है कि तुम उस नन्हें से पशु के साहस और परात्र्कम की परशंसा न करो।’
चार सेवकों ने एक जंगली सुअर, जिसके अभी तक बाल भी अलग नहीं किये गये थे, लाकर मेज पर रखा। चार छोटेछोटे सुअर जो मैदे के बने थे, मानो उसका दूध पीने के लिए उत्सुक हैं। इससे परकट होता था कि सुअर मादा है।
जेनाथेमीज ने पापनाशी की ओर देखकर कहा-‘मित्रो, हमारी सभा को आज एक नये मेहमान ने अपनी चरणों से पवित्र किया है। श्रद्धेय सन्त पापनाशी, जो मरुस्थल में एकान्तनिवासी और तपस्या करते हैं, आज संयोग से हमारे मेहमान हो गये हैं।’
कोटा-‘मित्र जेनाथेमीज, इतना और ब़ा दो कि उन्होंने बिना निमन्त्रित हुए यह कृपा की है, इसलिए उन्हीं को सम्मानपद की शोभा ब़ानी चाहिए।

जेनाथेमीज-इसलिए मित्रवरो, हमारा कर्तव्य है कि उनके सम्मानार्थ वही बातें करें जो उनको रुचिकर हों। यह तो स्पष्ट है कि ऐसा त्यागी पुरुष मसालों की गन्ध को इतना रुचिकर नहीं समझता जितना पवित्र विचारों की सुगन्ध को। इसमें कोइे सन्देह नहीं है कि जितना आनन्द उन्हें ईसाई धर्मसिद्घान्तों के विवेचन से पराप्त होगा, जिनके वह अनुयायी हैं, उतना और विषय से नहीं हो सकता। मैं स्वयं इस विवेचन का पक्षपाती हूं, क्योंकि इसमें कितने ही सवारंगसुन्दर और विचित्र रूपकों का समावेश है जो मुझे अत्यन्त पिरय हैं। अगर शब्दों से आशय का अनुमान किया जा सकता है, तो ईसाई सिद्घान्तों में सत्य की मात्रा परचुर है और ईसाई धर्मगरन्थ ईश्वरज्ञान से परिपूर्ण है। लेकिन सन्त पापनाशी, मैं यहूदी धर्मगरन्थों को इनके समान सम्मान के योग्य नहीं समझता। उनकी रचना ईश्वरीय ज्ञान द्वारा नहीं हुई है, वरन एक पिशाच द्वारा जो ईश्वर का महान शत्रु था। इसी पिशाच ने, जिसका नाम आइवे था उन गरन्थों को लिखवाया। वह उन दुष्टात्माओं में से था जो नरकलोक में बसते हैं और उन समस्त विडम्बनाओं के कारण हैं जिनसे मनुष्य मात्र पीड़ित हैं। लेकिन आइवे अज्ञान, कुटिलता और त्र्कूरता में उन सबों से ब़कर था। इसके विरुद्ध, सोने के परों कासा सर्प जो ज्ञानवृद्ध से लिपटा हुआ था, परेम और परकाश से बनाया था। इन दोनों शक्तियों में एक परकाश की थी और दूसरी अंधकार की थी-विरोध होना अनिवार्य था। यह घटना संसार की घटनासृष्टि के थोड़े ही दिनों पश्चात घटी। दोनों विरोधी शक्तियों से युद्ध छिड़ गया। ईश्वर अभी कठिन परिश्रम के बाद विश्राम न करने पाये थे; आदम और हौवा, आदि पुरुष, आदि स्त्री, अदन के बाग में नंगे घूमते और आनन्द से जीवन व्यतीत कर रहे थे। इतने में दुर्भाग्य से आइवे को सूझी कि इन दोनों पराणियों पर और उनकी आने वाली सन्तानों पर आधिपत्य जमाऊं। तुरन्त अपनी दुरिच्छा को पूरा करने का परयत्न वह करने लगा। वह न गणित में कुशल था, न संगीत में; न उस शास्त्र से परिचति था। जो राज्य का संचालन करता है; न उस ललितकला से जो चित्त को मुग्ध करती है। उसने इन दोनों सरल बालकों कीसी बुद्धि रखने वाले पराणियों को भयंकर पिशाचलीलाओं से, शंकोत्पादक त्र्कोध से और मेघगर्जनों से भयभीत कर दिया। आदम और हौवा अपने ऊपर उसकी छाया का अनुभव करके एकदूसरे से चिमट गये और भय ने उनके परेम को और भी घनिष्ठ कर दिया। उस समय उस विराट संसार में कोई उनकी रक्षा करने वाला न था। जिधर आंख उठाते थे, उधर सन्नाटा दिखाई देता था। सर्प को उनकी यह निस्सहाय दशा देखकर दया आ गयी और उसने उनके अन्तःकरण को बुद्धि के परकाश से आलोकित करने का निश्चय किया, जिसमें ज्ञान से सतर्क होकर वह मिथ्या, भय, और भयंकर परेतलीलाओं से चिन्तित न हों। किन्तु इस कार्य को सुचारु रूप से पूरा करने के लिए बड़ी सावधानी और बुद्धिमत्ता की आवश्यकता थी और पूर्व दम्पति की सरलहृदयता ने इसे और भी कठिन बना दिया। किन्तु दयालु सर्प से न रहा गया। उसने गुप्त रूप से इन पराणियों के उद्घार करने का निश्चय किया। आइवे डींग तो यह मारता था कि वह अन्तयार्मी है लेकिन यथार्थ में वह बहुत सूक्ष्मदर्शी न था। सर्प ने इन पराणियों के पास आकर पहले उन्हंें अपने पैरों की सुन्दरता और खाल की चमक से मुग्ध कर दिया। देह से भिन्नभिन्न आकार बनाकर उसने उनकी विचारशक्ति को जागृत कर दिया। यूनान के गणितआचार्यों ने उन आकारों के अद्भुत गुणों को स्वीकार किया है। आदम इन आकारों पर हौवा की अपेक्षा अधिक विचारता था, किन्तु जब सर्प ने उनसे ज्ञानतत्त्वों का विवेचन करना शुरू किया-उन रहस्यों का जो परत्यक्षरूप से सिद्ध नहीं किये जा सकते-तो उसे ज्ञात हुआ कि आदम लाल मिट्टी से बनाये जाने के कारण इतना स्थूल बुद्धि था कि इन सूक्ष्म विवेचनों को गरहण नहीं कर सकता था, लेकिन हौवा अधिक चैतन्य होने के कारण इन विषयों को आसानी से समझ जाती थी। इसलिए सर्प से बहुधा अकेले ही इन विषयों का निरूपण किया करती थी, जिसमें पहले खुद दीक्षित होकर तब अपने पति को दीक्षित करे….’

डोरियन-‘महाशय जेनाथेमीज, क्षमा कीजिएगा, आपकी बात काटता हूं। आपका यह कथन सुनकर मुझे शंका होती है कि सर्प उतना बुद्धिमान और विचारशील न था जितना आपने उसे बताया है। यदि वह ज्ञानी होता तो क्या वह इस ज्ञान को हौवा के छोटे से मस्तिष्क में आरोपित करता जहां काफी स्थान न था ? मेरा विचार है कि वह आइवे के समान ही मूर्ख और कुटिल था और हौवा को एकान्त में इसीलिए उपदेश देता था कि स्त्री को बहकाना बहुत कठिन न था। आदमी अधिक चतुर और अनुभवशील होने के कारण, उसकी बुरी नीयत को ताड़ लेता। यहां उसकी दाल न गलती इसलिए मैं सर्प की साधुता का कायल हूं, न कि उसकी बुद्धिमत्ता का।’

जेनाथेमीज-‘डोरियन, तुम्हारी शंका निमूर्ल है। तुम्हें यह नहीं मालूम है कि जीवन के सवोर्च्च और गू़तम रहस्य बुद्धि और अनुमान द्वारा गरहण नहीं किये जा सकते, बल्कि अन्तज्योर्ति द्वारा किये जाते हैं। यही कारण है कि स्त्रियां जो पुरुषों की भांति सहनशील नहीं होती हैं पर जिनकी चेतनाशक्ति अधिक तीवर होती है, ईश्वरविषयों को आसानी से समझ जाती है। स्त्रियों को सत्स्वप्न दिखाई देते हैं, पुरुषों को नहीं। स्त्री का पुत्र या पति दूर देश में किसी संकट में पड़ जाए तो स्त्री को तुरन्त उसकी शंका हो जाती है। देवताओं का वस्त्र स्त्रियों कासा होता है, क्या इसका कोई आशय नहीं है ? इसलिए सर्प की यह दूरदर्शिता थी कि उसने ज्ञान का परकाश डालने के लिए मन्दबुद्धि आदम को नहीं; बल्कि चैतन्यशील हौवा को पसन्द किया, जो नक्षत्रों से उज्ज्वल और दूध से स्निग्ध थी। हौवा ने सर्प के उपदेश को सहर्ष सुना और ज्ञानवृक्ष के समीप जाने पर तैयार हो गयी, जिसकी शाखाएं स्वर्ग तक सिर उठाये हुए थीं और जो ईश्वरीय दया से इस भांति आच्छादित था, मानो ओस की बूंदों में नहाया हुआ हो। इस वृक्ष की पत्तियां समस्त संसार के पराणियों की बोलियां बोलती थीं और उनके शब्दों के सम्मिश्रण से अत्यन्त मधुर संगीत की ध्वनि निकलती थी। जो पराणी इसका फल खाता था, उसे खनिज पदार्थों का, पत्थरों का, वनस्पतियों का, पराकृतिक और नैतिक नियमों का सम्पूर्ण ज्ञान पराप्त हो जाता था। लेकिन इसके फल अग्नि के समान थे और संशयात्मा भीरु पराणी भयवश उसे अपने होंठों पर रखने का साहस न कर सकते थे। पर हौवा ने तो सर्प के उपदेशों को बड़े ध्यान से सुना था इसलिए उसने इन निमूर्ल शंकाओं को तुच्छ समझा और उस फल को चखने पर उद्यत हो गयी, जिससे ईश्वर ज्ञान पराप्त हो जाता था। लेकिन आदम के परेमसूत्र में बंधे होने के कारण उसे यह कब स्वीकार हो सकता था कि उसका पति का हाथ पकड़ा और ज्ञानवृक्ष के पास आयी। तब उसने एक तपता हुआ फल उठाया, उसे थोड़ासा काटकर खाया और शेष अपने चिरसंगी को दे दिया। मुसीबत यह हुई कि आइवे उसी समय बगीचे में टहल रहा था। ज्योंही हौवा ने फल उठाया, वह अचानक उनके सिर पर आ पहुंचा और जब उसे ज्ञात हुआ कि इन पराणियों को ज्ञानचक्षु खुल गये हैं तो उसके त्र्कोध की ज्वाला दहक उठी। अपनी समगर सेना को बुलाकर उसने पृथ्वी के गर्भ में ऐसा भयंकर उत्पात मचाया कि यह दोनों शक्तिहीन पराणी थरथर कांपने लगे। फल आदम के हाथ से छूट पड़ा और हौवा ने अपने पति की गर्दन में हाथ डालकर कहा-‘मैं भी अज्ञानिनी बनी रहूंगी और अपने पति की विपत्ति में उसका साथ दूंगी।’ विजयी आइवे आदम और हौवा और उनकी भविष्य सन्तानों को भय और कापुरुषता की दशा में रखने लगा। वह बड़ा कलानिधि था। वह बड़े वृहदाकार आकाशवजरों के बनाने में सिद्धहस्त था। उसके कलानैपुण्य ने सर्प के शास्त्र को परास्त कर दिया अतएव उसने पराणियों को मूर्ख, अन्यायी, निर्दय बना दिया और संसार में कुकर्म का सिक्का चला दिया। तब से लाखों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी मनुष्य ने धर्मपथ नहीं पाया यूनान के कतिपय विद्वानों तथा महात्माओं ने अपने बुद्धिबल से उस मार्ग को खोज निकालने का परयत्न किया। पीथागोरस, प्लेटो आदि तत्त्वज्ञानियों के हम सदैव ऋणी रहेंगे, लेकिन वह अपने परयत्न में सफलीभूत नहीं हुए, यहां तक कि थोड़े दिन हुए नासरा के ईसू ने उस पथ को मनुष्यमात्र के लिए खोज निकाला।’

डोरियन-‘अगर मैं आपका आश्रय ठीक समझ रहा हूं तो आपने यह कहा है कि जिस मार्ग को खोज निकालने में यूनान के तत्त्वज्ञानियों को सफलता नहीं हुई, उसे ईसू ने किन साधनों द्वारा पा लिया ? किन साधनों के द्वारा वह मुक्तिज्ञान पराप्त कर लिया जो प्लेटो आदि आत्मदर्शी महापुरुषों को न पराप्त हो सका।’
जेनाथेमीज-‘महाशय डोरियन, क्या यह बारबार बतलाना पड़ेगा कि बुद्धि और तर्क विद्या पराप्ति के साधन हैं, किन्तु पराविद्या आत्मोल्लास द्वारा ही पराप्त हो सकती है। प्लेटो पीथागोरस अरस्तू आदि महात्माओं में अपार बुद्धिशक्ति थी, पर वह ईश्वर की उस अनन्य भक्ति से वंचित थे। जिसमें ईसू सराबोर थे। उनमें वह तन्मयता न थी। जो परभु मसीह में थी।’
हरमोडोरस-‘जेनाथेमीज, तुम्हारा यह कथन सर्वथा सत्य है कि जैसे दूब ओस पीकर जीती और फैलती है, उसी परकार जीवात्मा का पोषण परंम आनन्द द्वारा होता है। लेकिन हम इसके आगे भी जा सकते हैं और कह सकते हैं कि केवल बुद्धि ही में परम आनन्द भोगने की क्षमता है। मनुष्य में सर्वपरधान बुद्धि ही है। पंचभूतों का बना हुआ शरीर तो जड़ है, जीवात्मा अधिक सूक्ष्म है, पर वह भी भौतिक है, केवल बुद्धि ही निर्विकार और अखण्ड है। जब वह भवनरूपी शरीर से परस्थान करके-जो अकस्मात निर्जन और शून्य हो गया हो-आत्मा के रमणीक उद्यान में विचरण करती हुई ईश्वर में समाविष्ट हो जाती है तो वह पूर्व निश्चित मृत्यु या पुनर्जन्म के आनन्द उठाती है, क्योंकि जीवन और मृत्यु में कोई अन्तर नहीं। और उस अवस्था में उसे स्वगीर्य पावित्र्य में मग्न होकर परम आनन्द और संपूर्ण ज्ञान पराप्त हो जाता है। वह उसमें ऐक्य परविष्ट हो जाती है जो सर्वव्यापी है। उसे परमपद या सिद्धि पराप्त हो जाती है।’
निसियास-‘बड़ी ही सुन्दर युक्ति है, लेकिन हरमोडोरस, सच्ची बात तो यह है कि मुझे ‘अस्ति’ और ‘नास्ति’ में कोई भिन्नता नहीं दीखती। शब्दों में इस भिन्नता को व्यक्त करने की सामथ्र्य नहीं है। ‘अनन्त’ और ‘शून्य’ की समानता किसी भयावह है। दोनों में से एक भी बुद्धिगराह्य नहीं हैं मस्तिष्क इन दोनों ही की कल्पना में असमर्थ है। मेरे विचार में तो जिस परमपद या मोक्ष की आपने चचार की है वह बहुत ही महंगी वस्तु है। उसका मूल्य हमारा समस्त जीवन, नहीं, हमारा अस्तित्व है। उसे पराप्त करने के लिए हमें पहले अपने अस्तित्व को मिटा देना चाहिए। यह एक ऐसी विपत्ति है जिससे परमेश्वर भी मुक्त नहीं, क्योंकि दर्शनों के ज्ञाता और भक्त उसे सम्पूर्ण और सिद्ध परमाणित करने में एड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं। सारांश यह है कि यदि हमें ‘अस्ति’ का कुछ बोध नहीं तो, ‘नास्ति’ से भी हम उतने ही अनभिज्ञ हैं। हम कुछ जानते ही नहीं।’
कोटा-‘मुझे भी दर्शन से परेम है और अवकाश के समय उसका अध्ययन किया करता हूं। लेकिन इसकी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। हां, सिसरो के गरन्थों में अवश्य इसे खूब समझ लेता हूं। रासो, कहां मर गये, मधुमिश्रित वस्तु प्यालों में भरो।’
कलित्र्कान्त-‘यह एक विचित्र बात है, लेकिन न जाने क्यों जब मैं क्षुधातुर होता हूं तो मुझे उस नाटक रचने वाले कवियों की याद आती है जो बादशाहों की मेज पर भोजन किया करते थे और मेरे मुंह में पानी भर आता है। लेकिन जब मैं वह सुधारस पान करके तृप्त हो जाता हूं, जिसकी महाशय कोटा के यहां कोई कमी नहीं मालूम होती, और जिसके पिलाने में वह इतने उदार हैं, तो मेरी कल्पना वीररस में मग्न हो जाती है, योद्घाओं के वीरचरित्र आंखों में फिरने लगते हैं, घोड़ों की टापों और तलवार की झनकारों की ध्वनि कान में आने लगती है। मुझे लज्जा और खेद है कि मेरा जन्म ऐसी अधोगति के समय हुआ। विवश होकर मैं भावना के ही द्वार उस रस का आनन्द उठाता हूं, स्वाधीनता देवी की आराधना करता हूं और वीरों के साथ स्वयं वीरगति पराप्त कर लेता हूं।’

कोटा-‘रोम के परजासत्तात्मक राज्य के समय मेरे पुरखों ने बरूट्स के साथ अपने पराण स्वाधीनता देवी की भेंट किये थे। लेकिन यह अनुमान करने के लिए परमाणों की कमी नहीं है कि रोम निवासी जिसे स्वाधीनता कहते थे, वह केवल अपनी व्यवस्था आप करने का-अपने ऊपर आप शासन करने का अधिकार था। मैं स्वीकार करता हूं कि स्वाधीनता सवोर्त्तम वस्तु है, जिस पर किसी राष्ट्र को गौरव हो सकता है। लेकिन ज्योंज्यों मेरी आयु गुजरती जाती है और अनुभव ब़ता जाता है, मुझे विश्वास होता है कि एक सशक्त और सुव्यवस्थित शासन ही परजा को यह गौरव परदान कर सकता है। गत चालीस वर्षों से मैं भिन्नभिन्न उच्चपदों पर राज्य की सेवा कर रहा हूं और मेरे दीर्घ अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि जब शासकशक्ति निर्बल होती है, तो परजा को अन्यायों का शिकर होना पड़ता है। अतएव वह वाणी कुशल, जमीन और आसमान के कुलाबे मिलाने वाले व्याख्याता जो शासन को निर्बल और अपंग बनाने की चेष्टा करते हैं, अत्यन्त निन्दनीय कार्य करते हैं, सम्भवतः कभीकभी परजा को घोर संकट में डाल देता है, लेकिन अगर वह परजामत के अनुसार शासन करता है तो फिर उसके विष का मंत्र नहीं वह ऐसा रोग है जिसकी औषधि नहीं, रोमराज्य के शस्त्रबल द्वारा संसार में शान्ति स्थापित होने के पहले, वही राष्ट्र सुखी और समृद्ध थे, जिनका अधिकार कुशल विचारशील स्वेच्छाचारी राजाओं के हाथ में था।’

हरमोडोरस-‘महाशय कोटा, मेरा तो विचार है कि सुव्यवस्थित शासन पद्धति केवल एक कल्पित वस्तु है और हम उसे पराप्त करने में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि यूनान के लोग भी, जो सभी विषयों में इतने निपुण और दक्ष थे, निर्दोष शासनपरणाली का आविर्भाव न कर सके। अतएव इस विषय में हमें सफल होने की कोई आशा भी नहीं। हम अनतिदूर भविष्य में उसकी कल्पना नहीं कर सकते। निभरार्न्त लक्षणों से परकट हो रहा है कि संसार शीघर ही मूर्खता और बर्बरता के अन्धकार में मग्न हुआ चाहता है। कोटा, हमें अपने जीवन में इन्हीं आंखों से बड़ीबड़ी भयंकर दुर्घटनाएं देखनी पड़ी हैं। विद्या, बुद्धि और सदाचरण से जितनी मानसिक सान्त्वनाएं उपलब्ध हो सकती हैं, उनमें अब जो शेष रह गया वह यही है कि अधःपतन का शोक दृश्य देखें।’
कोटा-‘मित्रवर, यह सत्य है कि जनता की स्वार्थपरता और असभ्य म्लेच्छों की दद्दण्डता, नितान्त भयंकर सम्भावनाएं हैं, लेकिन यदि हमारे पास सुदृ़ सेना, सुसंगठित नाविकशक्ति और परचुर धनबल हो तो….’

हरमोडोरस-‘वत्स, क्यों अपने को भरम में डालते हो ? यह मरणासन्न सामराज्य म्लेच्छों के पशुबल का सामना नहीं कर सकता। इनका पतन अब दूर नहीं है। आह ! वह नगर जिन्हें यूनान की विलक्षण बुद्धि या रोमनवासियों के अनुपम धैर्य ने निर्मित किया था; शीघर ही मदोन्मत्त नरपशुओं के पैरों तले रौंदे जायेंगे, लुटेंगे और ाहे जायेंगे। पृथ्वी पर न कलाकौशल का चिह्न रह जायेगा, न दर्शन का, न विज्ञान का। देवताओं की मनोहर परतिमाएं देवालयों में तहसनहस कर दी जायेंगी। मानवहृदय में भी उनकी स्मृति न रहेगी। बुद्धि पर अन्धकार छा जायेगा और यह भूमण्डल उसी अन्धकार में विलीन हो जायेगा। क्या हमें यह आशा हो सकती है कि म्लेच्छ जातियां संसार में सुबुद्धि और सुनीति का परसार करेंगी ? क्या जर्मन जाति संगीत और विज्ञान की उपासना करेगी ? क्या अरब के पशु अमर देवताओं का सम्मान करेंगे ? कदापि नहीं। हम विनाश की ओर भयंकर गति से फिसलते चले जा रहे हैं। हमारा प्यारा मित्र जो किसी समय संसार का जीवनदाता था, जो भूमण्डल में परकाश फैलाता था, उसका समाधिस्तूप बन जायेगा। वह स्वयं अंधकार में लुप्त हो जायेगा। मृत्युदेव रासेपीज मानवभक्ति की अंतिम भेंट पायेगा और मैं अंतिम देवता का अन्तिम पुजारी सिद्ध हूंगा।’

इतने में एक विचित्र मूर्ति ने परदा उठाया और मेहमानों के सम्मुख एक कुबड़ा, नाटा मनुष्य उपस्थित हुआ जिसकी चांद पर एक बाल भी न था। वह एशिया निवासियों की भांति एक लाल चोगा और असभ्य जातियों की भांति लाल पाजामा पहने हुए था जिस पर सुनहरे बूटे बने हुए थे। पापनाशी उसे देखते ही पहचान गया और ऐसा भयभीत हुआ मानो आकाश से वजर गिर पड़ेगा। उसने तुरन्त सिर पर हाथ रख लिये और थरथर कांपने लगा यह पराणी मार्कस एरियन था जिसने ईसाई धर्म में नवीन विचार का परचार किया था। वह ईसू के अनादित्व पर विश्वास नहीं करता था। उसका कथन था कि जिसने जन्म लिया, वह कदापि अनादि नहीं हो सकता। पुराने विचार के ईसाई, जिनका मुखपात्र नीसा था, कहते हैं कि यद्यपि मसीह ने देह धारण की किन्तु वह अनन्तकाल से विद्यमान है। अतएव नीसा के भक्त एरियन को विधमीर कहते थे। और एरियन के अनुयायी नीसा को मूर्ख, मंदबुद्धि, पागल आदि उपाधियां देते थे। पापनाशी नीसा का भक्त था। उसकी दृष्टि में ऐसे विधमीर को देखना भी पाप था। इस सभा को वह पिशाचों की सभा समझता था। लेकिन इस पिशाचसभा से परकृतिवादियों के उपवाद और विज्ञानियों का दुष्कल्पनाओं से भी वह इतना सशंक और चंचल न हुआ था। लेकिन इस विधमीर की उपस्थिति मात्र ने उसके पराण हर लिये। वह भागने वाला ही था कि सहसा उसकी निगाह थायस पर जा पड़ी और उसकी हिम्मत बंध गयी। उसने उसके लम्बे, लहराते हुए, लंहगे का किनारा पकड़ लिया और मन में परभू मसीह की वन्दना करने लगा।

उपस्थित जनों ने उस परतिभाशली विद्वान पुरुष का बड़े सम्मान से स्वागत किया, जिसे लोग ईसाई धर्म का प्लेटो कहते थे। हरमोडोरस सबसे पहले बोला-

‘परम आदरणीय मार्कस, हम आपको इस सभा में पदार्पण करने के लिए हृदय से धन्यवाद देते हैं। आपका शुभागमन बड़े ही शुभ अवसर पर हुआ है। हमें ईसाई धर्म का उससे अधिक ज्ञान नहीं है, जितना परकट रूप से पाठशालाओं के पाठ्यत्र्कम में रखा हुआ है। आप ज्ञानी पुरुष हैं, आपकी विचार शैली साधारण जनता की विचार शैली से अवश्य भिन्न होगी। हम आपके मुख से उस धर्म के रहस्यों की मीमांसा सुनने के लिए उत्सुक हैं जिनके आप अनुयायी हैं। आप जानते हैं कि हमारे मित्र जेनाथेमीज को नित्य रूपकों और दृष्टान्तों की धुन सवार रहती है, और उन्होंने अभी पापनाशी महोदय से यहूदी गरन्थों के विषय में कुछ जिज्ञासा की थी। लेकिन उक्त महोदय ने कोई उत्तर नहीं दिया और हमें इसका कोई आश्चर्य न होना चाहिए क्योंकि उन्होंने मौन वरत धारण किया है। लेकिन आपने ईसाई धर्मसभाओं में व्याख्यान दिये हैं। बादशाह कांन्सटैनटाइन की सभा को भी आपने अपनी अमृतवाणी से कृतार्थ किया है। आप चाहें तो ईसाई धर्म का तात्त्विक विवेचन और उन गुप्त आशयों का स्पष्टीकरण करके, जो ईसाई दन्तकथाओं में निहित हैं, हमें सन्तुष्ट कर सकते हैं। क्या ईसाइयों का मुख सिद्घान्त तौहीन (अद्वैतवाद) नहीं है, जिस पर मेरा विश्वास होगा ?’

मार्कस-‘हां, सुविज्ञ मित्रो, मैं अद्वैतवादी हूं ! मैं उस ईश्वर को मानता हूं जो न जन्म लेता है, न मरता है, जो अनन्त है, अनादि है, सृष्टि का कर्ता है।’
निसियास-‘महाशय मार्कस, आप एक ईश्वर को मानते हैं, यह सुनकर हर्ष हुआ। उसी ने सृष्टि की रचना की, यह विकट समस्या है। यह उसके जीवन में बड़ा त्र्कान्तिकारी समय होगा। सृष्टि रचना के पहले भी वह अनन्तकाल से विद्यमान था। बहुत सोचविचार के बाद उसने सृष्टि को रचने का निश्चय किया। अवश्य ही उस समय उसकी अवस्था अत्यन्त शोचनीय रही होगी। अगर सृष्टि की उत्पत्ति करता है तो उसकी अखण्डता, सम्पूर्णता में बाधा पड़ती है। अकर्मण्य बना बैठा रहता है तो उसे अपने अस्तित्व ही पर भरम होने लगता है, किसी को उसकी खबर ही नहीं होती, कोई उसकी चचार ही नहीं करता। आप कहते हैं, उसने अन्त में संसार की रचना को ही आवश्यक समझा। मैं आपकी बात मान लेता हूं, यद्यपि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए इतना कीर्तिलोलुप होना शोभा नहीं देता। लेकिन यह तो बताइए उसने क्योंकर सृष्टि की रचना की।’
मार्कस-‘जो लोग ईसाई न होने पर भी, हरमोडोरस और जेनाथेमीज की भांति ज्ञान के सिद्घान्तों से परिचित हैं, वह जानते हैं कि ईश्वर ने अकेले, बिना सहायता के सृष्टि नहीं की। उसने एक पुत्र को जन्म दिया और उसी के हाथों सृष्टि का बीजारोपण हुआ।’
हरमोडोरस-‘मार्कस, यह सर्वथा सत्य है। यह पुत्र भिन्नभिन्न नामों से परसिद्ध है, जैसे हेरमीज, अपोलो और ईसू।’
मार्कस-‘यह मेरे लिए कलंक की बात होगी अगर मैं त्र्काइस्ट, ईसू और उद्घारक के सिवाय और किसी नाम से याद करुं। वही ईश्वर का सच्चा बेटा है। लेकिन वह अनादि नहीं है, क्योंकि उसने जन्म धारण किया। यह तर्क करना कि जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व था, मिथ्यावादी नीसाई गधों का काम है।
यह कथन सुनकर पापनाशी अन्तवेर्दना से विकल हो उठा। उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गयीं। उसने सलीब का आकार बनाकर अपने चित्त को शान्त किया, किन्तु मुख से एक शब्द भी न निकाला।
मार्कस ने कहा-‘यह निर्विवाद सिद्ध है कि बुद्धिहीन नीसाइयों ने सर्वशक्तिमान ईश्वर को अपने करावलम्ब का इच्छुक बनाकर ईसाई धर्म को कलंकित और अपमानित किया है। वह एक है, अखंड है। पुत्र के सहयोग का आर्श्रित बन जाने से उसके यह गुण कहां रह जाते हैं ? निसियास, ईसाइयों के सच्चे ईश्वर का परिहास न करो। वह सागर के सप्तदलों के सदृश केवल अपने विकास की मनोहरता परदर्शित करता है, कुदाल नहीं चलाता, सूत नहीं कातता। सृष्टि रचना का श्रम उसने नहीं उठाया। यह उसके पुत्र ईसू का कृत्य था। उसी ने इस विस्तृत भूमण्डल को उत्पन्न किया और तब अपने श्रमफल का पुनसरंस्कार करने के निमित्त फिर संसार में अवतरित हुआ, क्योंकि सृष्टि निर्दोष नहीं थी, पुण्य के साथ पाप भी मिला हुआ था, धर्म के साथ अधर्म भी, भलाई के साथ बुराई भी।’
निसियास-‘भलाई और बुराई में क्या अन्तर है ?’
एक क्षण के लिए सभी विचार में मग्न हो गये। सहसा हरमोडोरस ने मेज पर अपना एक हाथ फैलाकर एक गधे का चित्र दिखाया जिस पर दो टोकरे लदे हुए थे। एक में श्वेत जैतून के फूल थे; दूसरे में श्याम जैतूर के।
उन टोकरों की ओर संकेत करके उसने कहा-‘देखो, रंगों की विभिन्नता आंखों को कितनी पिरय लगती है। हमें यही पसन्द है कि एक श्वेत हो, दूसरा श्याम। दोनों एक ही रंग के होते तो उनका मेल इतना सुन्दर न मालूम होता। लेकिन यदि इन फूलों में विचार और ज्ञान होता तो श्वेत पुष्प कहते-जैतून के लिए श्वेत होना ही सवोर्त्तम है। इसी तरह काले फूल सफेद फूलों से घृणा करते। हम उनके गुणअवगुण की परख निरपेक्ष भाव से कर सकते हैं, क्योंकि हम उनसे उतने ही ऊंचे हैं जिसने देवतागण हमसे। मनुष्य के लिए, जो वस्तुओं का एक ही भाग देख सकता है, बुराई बुराई है। ईश्वर की आंखों में, जो सर्वज्ञ है; बुराई भलाई है। निस्सन्देह ही करूपता कुरूप होती है, सुन्दर नहीं होती, किन्तु यदि सभी वस्तुएं सुन्दर हो जाएं तो सुन्दरता का लोप हो जायेगा। इसलिए परमावश्यक है कि बुराई का नाश न हो; नहीं तो संसार रहने के योग्य न रह जायेगा।’
यूत्र्काइटीज-‘इस विषय पर धार्मिक भाव से विचार करना चाहिए। बुराई बुराई है लेकिन संसार के लिए नहीं, क्योंकि इसका माधुर्य अनश्वर और स्थायी है, बल्कि उस पराणी के लिए जो करता है और बिना किये रह नहीं सकता।’
कोटा-‘जूपिटर साक्षी है, यह बड़ी सुन्दर युक्ति है !’
यूत्र्काइटीज-‘एक मर्मज्ञ कवि ने कहा है कि संसार एक रंगभूमि है। इसके निमार्ता ईश्वर ने हममें से परत्येक के लिए कोईन-कोई अभिनय भाग दे रखा है। यदि उसकी इच्छा है कि तुम भिक्षुक, राजा या अपंग हो तो व्यर्थ रोरोकर दिन मत काटो, वरन तुम्हें जो काम सौंपा गया है, उसे यथासाध्य उत्तम रीति से पूरा करो।’
निसियास-‘तब कोई झंझट ही नहीं रहा। लंगड़े को चाहिए कि लंगड़ाये, पागल को चाहिए कि खूब द्वन्द्ध मचाये; जितना उत्पात कर सके, करे। कुलटा को चाहिए जितने घर घालते बने घाले; जितने घाटों का पानी पी सके, पिये; जितने हृदयों का सर्वनाश कर सके, करे। देशद्रोही को चाहिए कि देश में आग लगा दे, अपने भाइयों का गला कटवा दे, झूठे को झूठ का ओ़नाबिछौना बनवाना चाहिए, हत्यारे को चाहिए कि रक्त को नदी बहा दे, और अभिनय समाप्त हो जाने पर सभी खिलाड़ी, राजा हो या रंग, न्यायी हो या अन्यायी, खूनी जालिम, सती, कामनियां; कुलकलंकिनी स्त्रियां, सज्जन, दुर्जन, चोर, साहू सबके-सब उन कवि महोदय के परशंसापात्र बन जायें, सभी समान रूप से सराहे जायें। क्या कहना !’
यूत्र्काइटीज-‘निसियास, तुमने मेरे विचार को बिल्कुल विकृत कर दिया, एक तरुण युवती सुन्दरी को भयंकर पिशाचिनी बना दिया। यदि तुम देवताओं की परकृति, न्याय और सर्वव्यापी नियमों से इतने अपरिचित हो तो तुम्हारी दशा पर जितना खेद किया जाय, उतना कम है।’

जेनाथेमीज-‘मित्रो, मेरा तो भलाई और बुराई, सुकर्म और कुकर्म दोनों ही का सत्ता पर अटल विश्वास है। लेकिन मुझे यह विश्वास है कि मनुष्य का एक भी ऐसा काम नहीं है-चाहे वह जूदा का पकटव्यवहार ही क्यों न हो-जिसमें मुक्ति का साधन बीज रूप में परस्तुत न हो। अधर्म मानव जाति के उद्घार का कारण हो सकता है, और इस हेतु से, वह धर्म का एक अंश है और धर्म के फल का भागी है। ईसाई धर्मगरन्थों में इस विषय की बड़ी सुन्दर व्याख्या की गयी है। ईसू के एक शिष्य ही ने उनका शान्ति चुम्बन करके उन्हें पकड़ा दिया। किन्तु ईसू के पकड़े जाने का फल क्या हुआ? वह सलीब पर खींचे गये और पराणिमात्र के उद्घार की व्यावस्था निश्चित कर दी, अपने रक्त से मनुष्यमात्र के पापों का परायश्चित कर दिया। अतएव मेरी निगाह में वह तिरस्कार और घृणा सर्वथा अन्यायपूर्ण और निन्दनीय है जो सेन्ट पॉल के शिष्य के परति लोग परकट करते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि स्वयं मसीह ने इस चुम्बन के विषय में भविष्यवाणी की थी जो उन्हीं के सिद्घान्तों के अनुसार मानवजाति के उद्घार के लिए आवश्यक था और यदि जूदा तीस मुद्राएं न लिया होता तो ईश्वरीय व्यवस्था में बाधा पड़ती, पूर्वनिश्चित घटनाओं की शृंखला टूट जाती; दैवी विधानों में व्यतित्र्कम उपस्थित हो जाता और संसार में अविद्या, अज्ञान और अधर्म की तूती बोलने लगती।’

मार्कस-‘परमात्मा को विदित था कि जूदा, बिना किसी के दबाव के कपट कर जायेगा, अतएवं उसने जूदा के पाप को मुक्ति के विशाल भवन का एक मुख्य स्तम्भ बना लिया।’
जेनाथेमीज-‘मार्कस महोदय, मैंने अभी जो कथन किया है, वह इस भाव से किया है मानो मसीह के सलीब पर च़ने से मानव जाति का उद्घार पूर्ण हो गया। इसका कारण है कि मैं ईसाइयों ही के गरन्थों और सिद्घान्तों से उन लोगों को भरांति सिद्ध करना चाहता था, जो जूदा को धिक्कारने से बाज नहीं आते ! लेकिन वास्तव में ईसा मेरी निगाह में तीन मुक्तिदाताओं में से केवल एक था। मुक्ति के रहस्य के विषय में यदि आप लोग जानने के लिए उत्सुक हो तो मैं बताऊ कि संसार में उस समस्या की पूर्ति क्यों कर हुई ?’
उपस्थित जनों ने चारों ओर से ‘हां, हां’ की। इतने में बारह युवती बालिकाएं, अनार, अंगूर, सेब आदि से भरे हुए टोकरे सिर पर रखे हुए, एक अंतर्हित वीणा के तालों पर पैर रखती हुई, मन्दगति से सभा में आयी और टोकरों को मेज पर रखकर उलटे पांव लौट गयीं। वीणा बन्द हो गयी और जेनाथेमीज ने यह कथा कहनी शुरू की-‘जब ईश्वर की विचारशक्ति ने जिसका नाम योनिया है, संसार की रचना समाप्त कर ली तो उसने उसका शासनाधिकार स्वर्गदूतों को दे दिया। लेकिन इन शासकों में यह विवेक न था जो स्वामियों में होना चाहिए। जब उन्होंने मनुष्यों की रूपवती कन्याएं देखीं तो कामातुर हो गये, संध्या समय कुएं पर अचानक आकर उन्हें घेर लिया, और अपनी कामवासना पूरी की। इस संयोग से एक अपरड जाति उत्पन्न हुई जिसने संसार में अन्याय और त्र्कूरता से हाहाकार मचा दिया, पृथ्वी निरपराधियों के रक्त से तर हो गयी, बेगुनाहों की लाशों से सड़कें पट गयीं और अपनी सृष्टि की यह दुर्दशा देखकर योनियां उत्यन्त शोकातुर हुईं।
‘उसने वैराग्य से भरे हुए नेत्रों से संसार पर दृष्टिपात किया और लम्बी सांस लेकर कहा-यह सब मेरी करनी है, मेरे पुत्र विपत्तिसागर में डूबे हुए हैं और मेरे ही अविचार से उन्हें मेरे पापों का फल भोगना पड़ रहा है और मैं इसका परायश्चित करुंगी। स्वयं ईश्वर, जो मेरे ही द्वारा विचार करता है, उनमें आदिम सत्यानिष्ठा का संचार नहीं कर सकता। जो कुछ हो गया, हो गया, यह सृष्टि अनन्तकाल तक दूषित रहेगी। लेकिन कमसे-कम मैं अपने बालकों को इस दशा में न छोडूं़गी। उनकी रक्षा करना मेरा कर्त्तव्य है। यदि मैं उन्हें अपने समान सुखी नहीं बना सकती तो अपने को उनके समान दुःखी तो बना सकती हूं। मैंने ही देहधारी बनाया है, जिससे उनका अपकार होता है; अतएव मैं स्वयं उन्हीं कीसी देह धारण करुंगी और उन्हीं के साथ जाकर रहूंगी।’
‘यह निश्चय करके योनिया आकाश से उतरी और यूनान की एक स्त्री के गर्भ में परविष्ट हुई। जन्म के समय वह नन्हींसी दुर्बल पराणहीन शिशु थी। उसका नाम हेलेन रखा गया। उसकी बाल्यावस्था बड़ॣ तकलीफ से कटी, लेकिन युवती होकर वह अतीव सुन्दरी रमणी हुई, जिसकी रूपशोभा अनुपम थी। यही उसकी इच्छा थी, क्योंकि वह चाहती थी कि उसका नश्वर शरीर घोरतम लिप्साओं की परीक्षाग्नि में जले। कामलोलुप और उद्दण्ड मनुष्यों से अपहरित होकर उसने समस्त संसार के व्यभिचार, बलात्कार और दुष्टता के दण्डस्वरूप, सभी परकार की अमानुषीय यातनाएं सही; और अपने सौन्दर्य द्वारा राष्ट्रों का संहारा कर दिया, जिसमें ईश्वर भूमण्डल के कुकर्मों को क्षमा कर दे। और वह ईश्वरीय विचारशक्ति, वह योनिया, कभी इतनी स्वगीर्य शोभा को पराप्त न हुई थी, अब वह नारी रूप धारण करके योद्घाओं और ग्वालों को यथावसर अपनी शय्या पर स्थान देती थी। कविजनों ने उससे दैवी महत्व का अनुभव करके ही उसके चरित्र का इतना शान्त, इतना सुन्दर, इतना घातक चित्रण किया है और इन शब्दों में उसका सम्बोधन किया है-तेरी आत्मा निश्चल सागर की भांति शान्त है !
‘इस परकार पश्चात्ताप और दया ने योनिया से नीचसे-नीच कर्म कराये और दारुण दुःख झेलवाया। अन्त में उसकी मृत्यु हो गयी और उसकी जन्मभूमि में अभी तक उसकी कबर मौजूद है। उसका मरना आवश्यक था, जिसमें वह भोगविलास के पश्चात मृत्यु की पीड़ा का अनुभव करे और लगाये हुए वृक्ष के कडुए फल चखे। लेकिन हेलेन के शरीर को त्याग करने के बाद उसने फिर स्त्री का जन्म लिया और फिर नाना परकार के अपमान और कलंक सहे। इसी भांति जन्मजन्मान्तरों से वह पृथ्वी का पापभार अपने ऊपर लेती चली आती है। और उसका यह अनन्त आत्मसमर्पण निष्फल न होगा ! हमारे परेमसूत्र में बंधी हुई वह हमारी दशा पर रोती है, हमारे कष्टों से पीड़ित होती है, और अन्त में अपना और अपने साथ हमारा उद्घार करेगी और हमें अपने उज्ज्वल, उदार, दयामय हृदय से लगाये हुए स्वर्ग के शान्तिभवन में पहुंचा देगी।’
हरमोडोरस-‘यह कथा मुझे मालूम थी। मैंने कहीं पॄा या सुना है कि अपने एक जन्म में यह सीमन जादूगर के साथ रही। मैंने विचार किया था कि ईश्वर ने उसे यह दण्ड दिया होगा।’
जेनाथेमीज-‘यह सत्य है हरमोडोरस, कि जो लोग इन रहस्यों का मंथन नहीं करते, उनको भरम होता है कि योनिया ने स्वेच्छा से यह यंत्रणा नहीं झेली, वरन अपने कर्मों का दण्ड भोगा। परन्तु यथार्थ में ऐसा नहीं है।’
कलित्र्कान्त-‘महाराज जेनाथेमीज, कोई बतला सकता है कि वह बारबार जन्म लेने वाली हेलेन इस समय किस देश में, किस वेश में, किस नाम से रहती है ?’
जेनाथेमीज-‘इस भेद को खोलने के लिए असाधारण बुद्धि चाहिए और नाराज न होना कलित्र्कान्त, कवियों के हिस्से में बुद्धि नहीं आती। उन्हें बुद्धि लेकर करना ही क्या है ? वह तो रूप के संसार में रहते हैं और बालकों की भांति शब्दों और खिलौनों से अपना मनोरंजन करते हैं।’
कलित्र्कान्त-‘जेनाथेमीज, जरा जबान संभालकर बातें करो। जानते हो देवगण कवियों से कितना परेम करते हैं ? उनके भक्तों की निन्दा करोगे तो वह रुष्ट होकर तुम्हारी दुर्गति कर डालेंगे। अमर देवताओं ने स्वयं आदिम नीति पदों ही में घोषित की और उनकी आकाशवाणियां पदों ही में अवतरित होती हैं। भजन उनके कानों को कितने पिरय हैं। कौन नहीं जानता कि कविजन ही आत्मज्ञानी होते हैं, उनसे कोई बात छिपी नहीं रहती ? कौन नवी, कौन पैगम्बर, कौन अवतार था जो कवि न रहा हो ? मैं स्वयं कवि हूं और कविदेव अपोलो का भक्त हूं। इसलिए मैं योनिया के वर्तमान रूप का रहस्य बतला सकता हूं। हेलेन हमारे समीप ही बैठी हुई है। हम सब उसे देख रहे हैं। तुम लोग उसी रमणी को देख रहे हो जो अपनी कुरसी पर तकिया लगाये बैठी हुई है-आंखों में आंसू की बूंदें मोतियों की तरह झलक रही हैं और अधरों पर अतृप्त पेरम की इच्छा ज्योत्सना की भांति छाई हुई है। यह वही स्त्री है। वही अनुपम सौन्दर्य वाली योनिया, वही विशालरूपधारिणी हेलेन, इस जन्म में मनमोहिनी थायस है !’
फिलिना-‘कैसी बातें करते हो कलित्र्कान्त ? थायस ट्रोजन की लड़ाई में ? क्यों थायस, तुमने एशिलीज आजक्स, पेरिस आदि शूरवीरों को देखा था? उस समय के घोड़े बड़े होते थे ?’
एरिस्टाबोलस-‘घोड़ों की बातचीत कौन करता है ? मुझसे करो। मैं इस विद्या का अद्वितीय ज्ञाता हूं।’
चेरियास ने कहा-‘मैं बहुत पी गया।’ और वह मेज के नीचे गिर पड़ा।
कलित्र्कान्त ने प्याला भरकर कहा-‘जो पीकर गिर पड़े उन पर देवताओं का कोप हो ?’
वृद्ध कोटा निद्रा में मग्न थे।
डोरियन थोड़ी देर से बहुत व्यगर हो रहे थे। आंखें च़ गयी थीं और नथुने फूल गये थे। वह लड़खड़ाते हुए थायस की कुरसी के पास आकर बोले-
‘थायस, मैं तुमसे परेम करता हूं, यद्यपि परेमासक्त होना बड़ी निन्दा की बात है।’
थायस-‘तुमने पहले क्यों मुझ पर परेम नहीं किया ?’
डोरियन-‘तब तो पिया ही न था।’
थायस-‘मैंने तो अब तक नहीं पिया, फिर तुमसे परेम कैसे करुं ?’
डोरियन उसके पास से ड्रोसिया के पास पहुंचा, जिसने उसे इशारे से अपने पास बुलाया था। उसके पास जाते ही उसके स्थान पर जेनाथेमीज आ पहुंचा और थायस के कपोलों पर अपना परेम अंकित कर दिया। थायस ने त्र्कुद्ध होकर कहा-‘मैं तुम्हें इससे अधिक धमार्त्मा समझती थी !’
जेनाथेमीज-‘लेकिन तुम्हें यह भय नहीं है कि स्त्री के आिंलगन से तुम्हारी आत्मा अपवित्र हो जायेगी।’
जेनाथेमीज-‘देह के भरष्ट होने से आत्मा भरष्ट नहीं होती। आत्मा को पृथक रखकर विषयभोग का सुख उठाया जा सकता है।’
थायस-‘तो आप यहां से खिसक जाइए। मैं चाहती हूं कि जो मुझे प्यार करे वह तनमन से प्यार करे। फिलॉसफर सभी बुड्ढे बकरे होते हैं।’ एकएक करके सभी दीपक बुझ गये। उषा की पीली किरणें जो परदों की दरारां से भीतर आ रही थीं, मेहमानों की च़ाई हुई आंखों और सौंलाए हुए चेहरों पर पड़ रही थीं। एरिस्टोबोलस चेरियास की बगल में पड़ा खर्राटे ले रहा था। जेनाथेमीज महोदय, जो धर्म और अधर्म की सत्ता के कायल थे, फिलिना को हृदय से लगाये पड़े हुए थे। संसार से विरक्त डोरियन महाशय ड्रोसिया के आवरणहीन वक्ष पर शराब की बूंदें टपकाते थे जो गोरी छाती पर लालों की भांति नाच रही थी और वह विरागी पुरुष उन बूंदों को अपने होंठ से पकड़ने की चेष्टा कर रहा था। ड्रोसिया खिलखिला रही थी और बूंदें गुदगुदे वक्ष पर, आया कि भांति डोरियन के होंठों के सामने से भागती थीं।
सहसा यूत्र्काइटीज उठा और निसियास के कन्धे पर हाथ रखकर उसे दूसरे कमरे के दूसरे सिरे पर ले गया।
उसने मुस्कराते हुए कहा-‘मित्र, इस समय किस विचार में हो, अगर तुममें अब भी विचार करने की सामथ्र्य है।’
निसियास ने कहा-‘मैं सोच रहा हूं कि स्त्रियों का परेम अडॉनिस की वाटिका के समान है।’
‘उससे तुम्हारा क्या आशय है ?’
निसियास-‘क्यों, तुम्हें मालूम नहीं कि स्त्रियां अपने आंगन में वीनस के परेमी के स्मृतिस्वरूप, मिट्टी के गमलों में छोटेछोटे पौधे लगाती हैं ? यह पौधे कुछ दिन हरे रहते हैं, फिर मुरझा जाते हैं।’
‘इसका क्या मतलब है निसियास ? यही कि मुरझाने वाली नश्वर वस्तुओं पर परेम करना मूर्खता है।’
निसियास के गम्भीर स्वर में उत्तर दिया-‘मित्र यदि सौंदर्य केवल छाया मात्र है, तो वासना भी दामिनी की दमक से स्थिर नहीं। इसलिए सौन्दर्य की इच्छा करना पागलपन नहीं तो क्या है ? यह बुद्धिसंगत नहीं है। जो स्वयं स्थायी नहीं है उसका भी उसी के साथ अन्त हो जाना अस्थिर है। दामिनी खिसकती हुई छांह को निगल जाय, यही अच्छा है।’
यूत्र्काइटीज ने ठण्डी सांस खींचकर कहा-‘निसियास, तुम मुझे उस बालक के समान जान पड़ते हो जो घुटनों के बल चल रहा हो। मेरी बात मानो-स्वाधीन हो जाओ। स्वाधीन होकर तुम मनुष्य बन जाते हो।’
‘यह क्योंकर हो सकता है यूत्र्काइटीज, कि शरीर के रहते हुए मनुष्य मुक्त हो जाये?’
‘पिरय पुत्र, तुम्हें यह शीघर ही ज्ञात हो जायेगा। एक क्षण में तुम कहोगे यूत्र्काइटीज मुक्त हो गया।’
वृद्ध पुरुष एक संगमरमर के स्तम्भ से पीठ लगाये यह बातें कर रहा था और सूयोर्दय की परथम ज्योतिरेखाएं उसके मुख को आलोकित कर रही थीं। हरमोडोरस और मार्कस भी उसके समीप आकर निसियास की बगल में खड़े थे और चारों पराणी, मदिरासेवियों के हंसीठट्ठे की परवाह न करके ज्ञानचचार में मग्न हो रहे थे। यूत्र्काइटीज का कथन इतना विचारपूर्ण और मधुर था कि मार्कस ने कहा-‘तुम सच्चे परमात्मा को जानने के योग्य हो।’
यूत्र्काइटीज ने कहा-‘सच्चा परमात्मा सच्चे मनुष्य के हृदय में रहता है।’
तब वह लोग मृत्यु की चचार करने लगे।
यूत्र्काइटीज ने कहा-‘मैं चाहता हूं कि जब वह आये तो मुझे अपने दोषों को सुधारने और कर्त्तव्यों का पालन करने में लगा हुआ देखे। उसके सम्मुख मैं अपने निर्मल हाथों को आकाश की ओर उठाऊंगा और देवताओं से कहूंगा-पूज्य देवों, मैंने तुम्हारी परतिमाओं का लेशमात्र भी अपमान नहीं किया जो तुमने मेरी आत्मा के मन्दिर में परतिष्ठित कर दी हैं। मैंने वहीं अपने विचारों को, पुष्पमालाओं को, दीपकों को, सुगंध को तुम्हारी भेंट किया है। मैंने तुम्हारे ही उपदेशों के अनुसार जीवन व्यतीत किया है, और अब जीवन से उकता गया हूं।’
यह कहर उसने अपने हाथों को ऊपर की तरफ उठाया और एक पल विचार में मग्न रहा। तब वह आनन्द से उल्लसित होकर बोला-‘यूत्र्काइटीज, अपने को जीवन से पृथक कर ले, उस पके फल की भांति जो वृक्ष से अलग होकर जमीन पर गिर पड़ता है, उस वृक्ष को धन्यवाद दे जिसने तुझे पैदा किया और उस भूमि को धन्यवाद दे जिसने तेरा पालन किया !’
यह कहने के साथ ही उसने अपने वस्त्रों के नीचे से नंगी कटार निकाली और अपनी छाती में चुभा ली।
जो लोग उसके सम्मुख खड़े थे, तुरन्त उसका हाथ पकड़ने दौड़े, लेकिन फौलादी नोक पहले ही हृदय के पार हो चुकी थी। यूत्र्काइटीज निवार्णपद पराप्त कर चुका था ! हरमोडोरस और निसियास ने रक्त मेंसनी हुई देह को एक पलंग पर लिटा दिया। स्त्रियां चीखने लगीं, नींद से चौंके हुए मेहमान गुर्राने लगे ! वयोवृद्ध कोटा; जो पुराने सिपाहियों की भांति कुकुरनींद सोता था, जागे पड़ा, शव के समीप आया, घाव को देखा और बोला-‘मेरे वैद्य को बुलाओ।’
निसियास ने निराश से सिर हिलाकर कहा-‘यूत्र्काइटीज का पराणान्त हो गया। और लोगों को जीवन से जितना परेम होता है, उतना ही परेम इन्हें मृत्यु से था। हम सबों की भांति इन्होंने भी अपनी परम इच्छा के आगे सिर झुका दिया, और अब वह देवताओं के तुल्य हैं जिन्हें कोई इच्छा नहीं होती।’
कोटा ने सिर पीट लिया और बोला-‘मरने की इतनी जल्दी ! अभी तो वह बहुत दिनों तक सामराज्य की सेवा कर सकते थे। कैसी विडम्बना है !’
पापनाशी और थायस पासपास स्तम्भित और अवाक्य बैठे रहे। उनके अन्तःकरण घृणा, भय और आशा से आच्छादित हो रहे थे।
सहसा पापनाशी ने थायस का हाथ पकड़ लिया और शराबियों को फांदते हुए, जो विषयभोगियों के पास ही पड़े हुए थे, और उस मदिरा और रक्त को पैरों से कुचलते हुए जो फर्श पर बहा हुआ था, वह उसे ‘परियों के कुंज’ की ओर ले चला।

अलंकार अध्याय 4

नगर में सूर्य का परकाश फैल चुका था। गलियां अभी खाली पड़ी हुई थीं। गली के दोनों तरफ सिकन्दर की कबर तक भवनों के ऊंचेऊंचे सतून दिखाई देते थे। गली के संगीन फर्श पर जहांतहां टूटे हुए हार और बुझी मशालों के टुकड़े पड़े हुए थे। समुद्र की तरफ से हवा के ताजे झोंके आ रहे थे। पापनाशी ने घृणा से अपने भड़कीले वस्त्र उतार फेंके और उसके टुकड़ेटुकड़े करके पैरों तले कुचल दिया।

तब उसने थायस से कहा-‘प्यारी थायस, तूने इन कुमानुषों की बातें सुनीं ? ऐसे कौन से दुर्वचन और अपशब्द हैं जो उनके मुंह से न निकले हों, जैसे मोरी से मैला पानी निकलता है। इन लोगों ने जगत के कर्त्ता परमेश्वर को नरक की सीयिों पर घसीटा, धर्म और अधर्म की सत्ता पर शंका की, परभु मसीह का अपमान किया, और जूदा का यश गया। और वह अन्धकार का गीदड़ वह दुर्गन्धमय राक्षस, जो इन सभी दुरात्माओं का गुरूघंटाल था, वह पापी मार्कस एरियन खुदी हुई कबर की भांति मुंह खोल रहा था। पिरय, तूने इन विष्ठामय गोबरैलों को अपनी ओर रेंगकर आते और अपने को उनके गन्दे स्पर्श से अपवित्र करते देखा है। तूने औरों को पशुओं की भांति अपने गुलामों के पैरों के पास सोते देखा है। तूने उन्हें पशुओं की भांति उसी फर्श पर संभोग करते देखा है जिस पर वह मदिरा से उन्मत्त होकर कै कर चुके थे ! तूने एक मन्दबुद्धि, सठियाये हुए बुड्ढे को अपना रक्त बहाते देखा है जो उस शराब से भी गन्दा था जो इन भरष्टाचारियों ने बहाई थी। ईश्वर को धन्य है ! तूने कुवासनाओं का दृश्य देखा और तुझे विदित हो गया कि यह कितनी घृणोत्पादक वस्तु है ? थायस, थामस, इन कुमागीर दार्शनिकों की भरष्टाताओं को याद कर और तब सोच कि तू भी उन्हीं के साथ अपने को भरष्ट करेगी ? उन दोनों कुलटाओं के कटाक्षों को, हावभाव को, घृणित संकेतों को याद कर, वह कितनी निर्लज्जता से हंसती थीं, कितनी बेहयाई से लोगों को अपने पास बुलाती थीं और तब निर्णय कर कि तू भी उन्हीं के सदृश अपने जीवन का सर्वनाश करती रहेगी ? ये दार्शनिक पुरुष थे जो अपने को सभ्य कहते हैं, जो अपने विचारों पर गर्व करते हैं पर इन वेश्याओं पर ऐसे गिरे पड़ते थे जैसे कुत्ते हिड्डयों पर गिरें !’

थायस ने रात को जो कुछ देखा और सुना था उससे उसका हृदय ग्लानित और लज्जित हो रहा था। ऐसे दृश्य देखने का उसे यह पहला ही अवसर न था, पर आज कासा असर उसके मन पर कभी न हुआ था। पापनाशी की सतुत्तेजनाओं ने उसके सद्भाव को जगा दिया था। कैसे हृदयशून्य लोग हैं जो स्त्री को अपनी वासनाओं का खिलौना मात्र समझते हैं ! कैसी स्त्रियां हैं जो अपने देहसमर्पण का मूल्य एक प्याले शराब से अधिक नहीं समझतीं। मैं यह सब जानते और देखते हुए भी इसी अन्धकार में पड़ी हुई हूं। मेरे जीवन को धिक्कार है।
उसने पापनाशी को जवाब दिया-‘पिरय पिता, मुझमें अब जरा भी दम नहीं है। मैं ऐसी अशक्त हो रही हूं मानो दम निकल रहा है। कहां विश्राम मिलेगा, कहां एक घड़ी शान्ति से लेटूं ? मेरा चेहरा जल रहा है, आंखों से आंचसी निकल रही है, सिर में चक्कर आ रहा है, और मेरे हाथ इतने थक गये हैं कि यदि आनन्द और शान्ति मेरे हाथों की पहुंच में भी आ जाय तो मुझमें उसके लेने की शक्ति न होगी।’
पापनाशी ने उस स्नेहमय करुणा से देखकर कहा-‘पिरय भगिनी ! धैर्य और साहस ही से तेरा उद्घार होगा। तेरी सुखशान्ति का उज्ज्वल और निर्मल परकाश इस भांति निकल रहा है जैसे सागर और वन से भाप निकलती है।’
यह बातें करते हुए दोनों घर के समीप आ पहुंचे। सरो और सनोवर के वृक्ष जो ‘परियों के कुंज’ को घेरे हुए थे, दीवार के ऊपर सिर उठाये परभातसमीर से कांप रहे थे। उनके सामने एक मैदान था। इस समय सन्नाटा छाया हुआ था। मैदान के चारों तरफ योद्घाओं की मूर्तियां बनी हुई थीं और चारों सिरों पर अर्धचन्द्राकार संगमरमर की चौकियां बनी हुई थीं, जो दैत्यों की मूर्तियों पर स्थित थीं। थायस एक चौकी पर गिर पड़ी। एक क्षण विश्राम लेने के बाद उसने सचिन्त नेत्रों से पापनाशी की ओर देखा पूछा-‘अब मैं कहां जाऊ ?’

पापनाशी ने उत्तर दिया-‘तुझे उसके साथ जाना चाहिए जो तेरी खोज में कितनी ही मंजिलें मारकर आया है। वह तुझे इस भरष्ट जीवन से पृथक कर देगा जैसे अंगूर बटोरने वाला माली उन गुच्छों को तोड़ लेता है जो पेड़ में लगेलगे सड़ जाते हैं और उन्हें कोल्हू में ले जाकर सुगंधपूर्ण शराब के रूप में परिणत कर देता है। सुन, इस्कन्द्रिया से केवल बारह घण्टे की राह पर, समुद्रतट के समीप वैरागियों का एक आश्रम है जिसके नियम इतने सुन्दर, बुद्धिमत्ता से इतने परिपूर्ण हैं कि उनको पद्य का रूप देकर सितार और तम्बूरे पर गाना चाहिए। यह कहना लेशमात्र भी अत्युक्ति नहीं है कि जो स्त्रियां यहां पर रहकर उन नियमों का पालन करती हैं उनके पैर धरती पर रहते हैं और सिर आकाश पर। वह धन से घृणा करती हैं जिसमें परभु मसीह उन पर परेम करें; लज्जाशील रहती हैं कि वह उन पर कृपादृष्टिपात करें, सती रहती हैं कि वह उन्हें परेयसी बनायें। परभु मसीह माली का वेश धारण करके, नंगे पांव, अपने विशाल बाहु को फैलाये, नित्य दर्शन देते हैं। उसी तरह उन्होंने माता मरियम को कबर के द्वार पर दर्शन दिये थे। मैं आज तुझे उस आश्रम में ले जाऊंगा, और थोड़े ही दिन पीछे, तुझे इन पवित्र देवियों के सहवास में उनकी अमृतवाणी सुनने का आनन्द पराप्त होगा। वह बहनों की भांति तेरा स्वागत करने को उत्सुक हैं। आश्रम के द्वार पर उसकी अध्यक्षिणी माता अलबीना तेरा मुख चूमेंगी और तुझसे सपरेम स्वर से कहेंगी, बेटी, आ तुझे गोद में ले लूं, मैं तेरे लिए बहुत विकल थी।’

थायस चकित होकर बोली-‘अरे अलबीना ! कैसर की बेटी, समराट केरस की भतीजी ! वह भोगविलास छोड़कर आश्रम में तप कर रही है ?’
पापनाशी ने कहा-‘हां, हां, वही ! अलबीना, जो महल में पैदा हुई और सुनहरे वस्त्र धारण करती रही, जो संसार के सबसे बड़े नरेश की पुत्री है, उसे मसीह की दासी का उच्चपद पराप्त हुआ है। वह अब झोंपड़े में रहती है, मोटे वस्त्र पहनती है और कई दिन तक उपवास करती है। वह अब तेरी माता होगी, और तुझे अपनी गोद में आश्रय देगी।’
थायस चौकी पर से उठ बैठी और बोली-‘मुझे इसी क्षण अलबीना के आश्रम में ले चलो।’
पापनाशी ने अपनी सफलता पर मुगध होकर कहा-‘तुझे वहां अवश्य ले चलूंगा और वहां तुझे एक कुटी में रख दूंगा जहां तू अपने पापों का रोरोकर परायश्चित करेगी, क्योंकि जब तक तेरे पाप आंसुओं से धुल न जायें, तू अलबीना की अन्य पुत्रियों से मिलजुल नहीं सकती और न मिलना उचित ही है। मैं द्वार पर ताला डाल दूंगा, और तू वहां आंसुओं से आद्र होकर परभु मसीह की परतीक्षा करेगी, यहां तक कि वह तेरे पापों को क्षमा करने के लिए स्वयं आयेंगे और द्वार पर ताला खोलेंगे। और थायस, इसमें अणुमात्र भी संदेह न कर कि वह आयेंगे। आह ! जब वह अपनी कोमल, परकाशमय उंगलियां तेरी आंखों पर रखकर तेरे आंसू पोंछेगे, उस समय तेरी आत्मा आनन्द से कैसी पुलकित होगी ! उनके स्पर्शमात्र से तुझे ऐसा अनुभव होगा कि कोई परेम के हिंडोले में झुला रहा है।’
थायस ने फिर कहा-‘पिरय पिता, मुझे अलबीना के घर ले चलो।’
पापनाशी का हृदय आनन्द से उत्फुल्ल हो गया। उसने चारों तरफ गर्व से देखा मानो कोई गंगाल कुबेर का खजाना पा गया हो। निस्संक होकर सृष्टि की अनुपम सुषमा का उसने आस्वादन किया। उसकी आंखें ईश्वर के दिये हुए परकाश को परसन्न होकर पी रही थीं। उसके गालों पर हवा के झोंके न जाने किधर से आकर लगते थे। सहसा मैदान के एक कौने पर थायस के मकान का छोटासा द्वार देखकर और यह याद करके कि जिन पत्तियों की शोभा का वह आनन्द उठा रहा था वह थायस के बाग के पेड़ों की हैं। उसे उन सब अपावन वस्तुओं की याद आ गयी जो वहां की वायु को, जो आज इतनी निर्मल और पवित्र थी, दूषित कर रही थी, और उसकी आत्मा को इतनी वेदना हुई कि उसकी आंखों में आंसू बहने लगे।
उसने कहा-‘थायस, हमें यहां से बिना पीछे मुड़कर देखे हुए भागना चाहिए। लेकिन हमें अपने पीछे तेरे संस्कार के साधनों, साक्षियों और सहयोगियों को भी न छोड़ना चाहिए। वह भारीपरदे, वह सुन्दर पलंग, वह कालीनें, वह मनोहर चित्र और मूर्तियां, वह धूप आदि जलाने के स्वर्णकुण्ड, यह सब चिल्लाचिल्लाकर तेरे पापाचरण की घोषणा करेंगे। क्या तेरी इच्छा है कि ये घृणित सामगिरयां, जिनमें परेतों का निवास है, जिनमें पापात्माएं त्र्कीड़ा करती हैं मरुभूमि में भी तेरा पीछा करें, यही संस्कार वहां तेरी भी आत्मा को चंचल करते रहें ? यह निरी कल्पना नहीं है कि मेजें पराणाघातक होती हैं, कुरसियां और गद्दे परेतों के यन्त्र बनकर बोलते हैं, चलतेफिरते हैं, हवा में उड़ते हैं, गाते हैं। उन समगर वस्तुओं को, जो तेरी विलसलोलुपता के साथी हैं; मिआ दे, सर्वनाश कर दे। थायस, एक क्षण भी विलम्ब न कर अभी सारा नगर सो रहा है, कोई हलचल न मचेगी, अपने गुलामों को हुक्म दे कि वह स्थान के मध्य में एक चिता बनाये, जिस पर हम तेरे भवन की सारी सम्पदा की आहुति कर दें। उसी अग्निराशि में तेरे कुसंस्कार जलकर भस्मीभूत हो जायें !’

थायस ने सहमत होकर कहा-‘पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो, वह कीजिये। मैं भी जानती हूं कि बहुधा परेतगण निजीर्व वस्तुओं में रहते हैं। रात सजावट की कोईकोई वस्तु बातें करने लगती हैं, किन्तु शब्दों में नहीं या तो थोड़ीथोड़ी देर में खटखट की आवाज से या परकाश की रेखाएं परस्फुटित करके। और एक विचित्र बात सुनिए। पूज्य पिता, आपने परियों के कुंज के द्वार पर, दाहिनी ओर एक नग्न स्त्री की मूर्ति को ध्यान से देखा है ? एक दिन मैंने आंखों से देखा कि उस मूर्ति ने जीवित पराणी के समान अपना सिर फेर लिया और फिर एक पल में अपनी पूर्व दशा में आ गयी, मैं भयभीत हो गयी। जब मैंने निसियास से यह अद्भुत लीला बयान की तो वह मेरी हंसी उड़ाने लगा। लेकिन उस मूर्ति में कोई जादू अवश्य है; क्योंकि उसने एक विदेशी मनुष्य को, जिस पर मेरे सौन्दर्य का जादू कुछ असर न कर सका था, अत्यन्त परबल इच्छाओं से परिपूरित कर दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि घर की सभी वस्तुओं में परेतों का बसेरा है और मेरे लिए यहां रहना जानजोखिम था, क्योंकि कई आदमी एक पीतल की मूर्ति से आलिंगन करते हुए पराण खो बैठे हैं। तो भी उन वस्तुओं को नष्ट करना जो अद्वितीय कलानै पुण्य परदर्शित कर रही हैं और मेरी कालीनों और परदों को जलाना घोर अन्याय होगा। यह अद्भुत वस्तुएं सदैव के लिए संसार से लुप्त हो जाएंगी। उमें से कई इतने सुन्दर रंगों से सुशोभित हैं कि उनकी शोभा अवर्णनीय है, और लोगों ने उन्हें मुझे उपहार देने के लिए अतुल धन व्यय किया था। मेरे पास अमूल्य प्याले, मूर्तियां और चित्र हैं। मेरे विचार में उनको जलाना भी अनुचित होगा। लेकिन मैं इस विषय में कोई आगरह नहीं करती। पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो कीजिए।’

यह कहकर वह पापनाशी के पीछेपीछे अपने गृहद्वार पर पहुंची जिस पर अगणित मनुष्यों के हाथों से हारों और पुष्पमालाओं की भेंट पा चुकी थी, और जब द्वार खुला तो उसने द्वारपाल से कहा कि घर के समस्त सेवकों को बुलाओ। पहले चार भारतवासी आये जो रसोई का काम करते थे। वह सब सांवले रंग के और काने थे। थायस को एक ही जाति के चार गुलाम, और चारों काने, बड़ी मुश्किल से मिले, पर यह उसकी एक दिल्लगी थी और जब तक चारों मिल न गये थे, उसे चैन न आता था। जब वह मेज पर भोज्यपदार्थ चुनते थे तो मेहमानों को उन्हें देखकर बड़ा कुतूहल होता था। थायस परत्येक का वृत्तान्त उसके मुख से कहलाकर मेहमानों का मनोरंजन करती थी। इस चारों के उनके सहायक आये। तब बारीबारी से साईस, शिकारी, पालकी उठाने वाले, हरकारे जिनकी मासपेशियां अत्यन्त सुदृ़ थीं, दो कुशल माली, छः भयंकर रूप के हब्शी और तीन यूनानी गुलाम, जिनमें एक वैयाकरण था, दूसरा कवि और तीसरा गायक सब आकर एक लम्बी कतार मंें खड़े हो गये। उनके पीछे हब्शिनें आयीं जिनकी बड़ीबड़ी गोल आंखों में शंका, उत्सुकता और उद्विग्नता झलक रही थी, और जिनके मुख कानों तक फटे हुए थे। सबके पीछे छः तरुणी रूपवती दासियां, अपनी नकाबों को संभालती और धीरेधीरे बेड़ियों से जकड़े हुए पांव उठाती आकर उदासीन भाव से खड़ी हुईं।

जब सबके-सब जमा हो गये तो थायस ने पापनाशी की ओर उंगली उठाकर कहा-‘देखो, तुम्हें यह महात्मा जो आज्ञा दें उसका पालन करो। यह ईश्वर के भक्त हैं। जो इनकी अवज्ञा करेगा वह खड़ेखड़े मर जायेगा।’
उसने सुना था और इस पर विश्वास करती थी कि धमार्श्रम के संत जिस अभागे पुरुष पर कोप करके छड़ी से मारते थे, उसे निगलने के लिए पृथ्वी अपना मुंह खोल देती थी।
पापनाशी ने यूनानी दासों और दासियों को सामने से हटा दिया। वह अपने ऊपर उनका साया भी न पड़ने देना चाहता था और शेष सेवकों से कहा-‘यहां बहुतसी लकड़ी जमा करो, उसमें आग लगा दो और जब अग्नि की ज्वाला उठने लगे तो इस घर के सब साजसामान मिट्टी के बर्तन से लेकर सोने के थालों तक, टाट के टुकड़े से लेकर, बहुमूल्य कालीनों तक, सभी मूर्तियां, चित्र, गमले, गड्डमड्ड करके इसी चिता में डाल दो, कोई चीज बाकी न बचे।’
यह विचित्र आज्ञा सुनकर सबके-सब विस्मित हो गये, और अपनी स्वामिनी की ओर कातर नेत्रों से ताकते हुए मूर्तिवत खड़े रह गये। वह अभी इसी अकर्मण्य दशा में अवाक और निश्चल खड़े थे, और एकदूसरे को कुहनियां गड़ाते थे, मानो वह इस हुक्म को दिल्लगी समझ रहे हैं कि पापनाशी ने रौद्ररूप धारण करके कहा-‘क्यों बिलम्ब हो रहा है ?’
इसी समय थायस नंगे पैर, छिटके हुए केश कन्धों पर लहराती घर में से निकली। वह भद्दे मोटे वस्त्र धारण किये हुए थी, जो उसके देहस्पर्श मात्र से स्वगीर्य, कामोत्तेजक सुगन्धि से परिपूरित जान पड़ते थे। उसके पीछे एक माली एक छोटीसी हाथीदांत की मूर्ति छाती से लगाये लिये आता था।

पापनाशी के पास आकर थायस ने मूर्ति उसे दिखाई और कहा-‘पूज्य पिता, क्या इसे भी आग में डाल दूं ? पराचीन समय की अद्भुत कारीगरी का नमूना है और इसका मूल्य शतगुण स्वर्ण से कम नहीं। इस क्षति की पूर्ति किसी भांति न हो सकेगी, क्योंकि संसार में एक भी ऐसा निपुर्ण मूर्तिकार नहीं है जो इतनी सुन्दर एरास (परेम का देवता) की मूर्ति बना सके। पिता, यह भी स्मरण रखिए कि यह परेम का देवता है; इसके साथ निर्दयता करना उचित नहीं। पिता, मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि परेम का अधर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, और अगर मैं विषयभोग में लिप्त हुई तो परेम की परेरणा से नहीं, बल्कि उसकी अवहेलना करके, उसकी इच्छा के विरुद्ध व्यवहार करके। मुझे उन बातों के लिए कभी पश्चात्ताप न होगा जो मैंने उसके आदेश का उल्लंघन करके की हैं। उसकी कदापि यह इच्छा नहीं है कि स्त्रियां उन पुरुषों का स्वागत करें जो उसके नाम पर नहीं आते। इस कारण इस देवता की परतिष्ठा करनी चाहिए। देखिए पिताजी, यह छोटासा एरास कितना मनोहर है। एक दिन निसियास ने, जो उन दिनों मुझ पर परेम करता था इसे मेरे पास लाकर कहा-आज तो यह देवता यहीं रहेगा और तुम्हें मेरी याद दिलायेगा। पर इस नटखट बालक ने मुझे निसियास की याद तो कभी नहीं दिलाई; हां, एक युवक की याद नित्य दिलाता रहा जो एन्टिओक में रहता था और जिसके साथ मैंने जीवन का वास्तविक आनन्द उठाया। फिर वैसा पुरुष नहीं मिला यद्यपि मैं सदैव उसकी खोज में तत्पर रही। अब इस अग्नि को शान्त होने दीजिए, पिताजी ! अतुल धन इसकी भेंट हो चुका। इस बालमूर्ति को आश्रय दीजिए और इसे स्वरक्षित किसी धर्मशाला में स्थान दिला दीजिए। इसे देखकर लोगों के चित्त ईश्वर की ओर परवृत्त होंगे, क्योंकि परेम स्वभावतः मन में उत्कृष्ट और पवित्र विचारों को जागृत करता है।’

थायस मन में सोच रही थी कि उसकी वकालत का अवश्य असर होगा और कमसे-कम यह मूर्ति तो बच जायेगी। लेकिन पापनाशी बाज की भांति झपटा, माली के हाथ से मूर्ति छीन ली, तुरन्त उसे चिता में डाल दिया और निर्दय स्वर में बोला-‘जब यह निसियास की चीज है और उसने इसे स्पर्श किया है तो मुझसे इसकी सिफारिश करना व्यर्थ है। उस पापी का स्पर्शमात्र समस्त विकारों से परिपूरित कर देने के लिए काफी है।’
तब उसने चमकते हुए वस्त्र, भांतिभांति के आभूषण, सोने की पादुकाएं, रत्नजटित कंघियां, बहुमूल्य आईने, भांतिभांति के गानेबजाने की वस्तुएं सरोद, सितार, वीण, नाना परकार के फानूस, अंकवारों में उठाउठाकर झोंकना शुरू किया। इस परकार कितना धन नष्ट हुआ, इसका अनुमान करना है। इधर तो ज्वाला उठ रही थी, चिनगारियां उड़ रही थीं, चटाकपटाक की निरन्तर ध्वनि सुनाई देती थी, उधर हब्शी गुलाम इस विनाशक दृश्य से उन्मत्त होकर तालियां बजाबजाकर और भीषण नाद से चिल्लाचिल्लाकर नाच रहे थे। विचित्र दृश्य था, धमोर्त्साह का कितना भयंकर रूप !

इन गुलामों में से कई ईसाई थे। उन्होंने शीघर ही इस परकार का आश्य समझ लिया और घर में ईंधन और आग लाने गये। औरों ने भी उनका अनुकरण किया, क्योंकि यह सब दरिद्र थे और धन से घृणा करते थे और धन से बदला लेने की उनमें स्वाभाविक परवृत्ति थी-जो धन हमारे काम नहीं आता, उसे नष्ट ही क्यों न कर डालें ! जो वस्त्र हमें पहनने को नहीं मिल सकते, उन्हें जला ही क्यों न डालें ! उन्हें इस परवृत्ति की शांत करने का यह अच्छा अवसर मिला। जिन वस्तुओं ने हमें इतने दिनों तक जलाया है, उन्हें आज जला देंगे। चिता तैयार हो रही थी और घर की वस्तुएं बाहर लाई जा रही थीं कि पापनाशी ने थायस से कहा-पहले मेरे मन में यह विचार हुआ कि इस्कन्द्रिया के किसी चर्च के कोषाध्यक्ष को लाऊं (यदि अभी कोई ऐसा स्थान है जिसे चर्च कहा जा सके, और जिसे एरियन के भरष्टाचरण से भरष्ट न कर दिया।) और उसे तेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति दे दूं कि वह उन्हें अनाथ विधवाओं और बालकों को परदान कर दे और इस भांति पापोपार्जित धन का पुनीत उपयोग हो जाये। लेकिन एक क्षण में यह विचार जाता रहा; क्योंकि ईश्वर ने इसकी परेरणा न की थी। मैं समझ गया कि ईश्वर को कभी मंजूर न होगा कि तेरे पाप की कमाई ईसू के पिरय भक्तों को दी जाये। इससे उनकी आत्मा को घोर दुःख होगा। जो स्वयं दरिद्र रहना चाहते हैं, स्वयं कष्ट भोगना चाहते हैं, इसलिए कि इससे उनकी आत्मा शुद्ध होगी, उन्हें यह कलुषित धन देकर उनकी आत्मशुद्धि के परत्यन को विफल करना उनके साथ बड़ा अन्याय होगा। इसलिए मैं निश्चय कर चुका हूं कि तेरा सर्वस्व अग्नि का भोजन बन जाये, एक धागा भी बाकी न रहे ! ईश्वर को कोटि धन्यवाद देता हूं कि तेरी नाकबें और चोलियां और कुर्तियां जिन्होंने समुद्र की लहरों से भी अगण्य चुम्बनों का आस्वादन किया है, आज ज्वाला के मुख और जिह्वा का अनुभव करेंगी। गुलामो, दौड़ो और लकड़ी लाओ, और आग लाओ, तेल के कुप्पे लाकर लु़का दो, अगर और कपूर और लोहबान छिड़क दो जिसमें ज्वाला और भी परचण्ड हो जाये ! और थायस, तू घर में जा, अपने घृणित वस्त्रों को उतार दे, आभूषणों को पैरों तले कुचल दे, और अपने सबसे दीन गुलाम से परार्थना कर कि वह तुझे अपना मोटा कुरता दे दे; यद्यपि तू इस दान को पाने योग्य नहीं है, जिसे पहनकर वह तेरे फर्श पर झाड़ लगाता है।

थायस ने कहा-‘मैंने इस आज्ञा को शिरोधार्य किया।’

जब तक चारों भारतीय काने बैठकर आग झोंक रहे थे, हब्शी गुलामों ने चिता में बड़ेबड़े हाथीदांत, आबनूस और सागौन के सन्दूक डाल दिये जो धमाके से टूट गये और उनमें से बहुमूल्य रत्नजटित आभूषण निकल पड़े। अलाव में से धुएं के कालेकाले बादल उठ रहे थे। तब अग्नि जो अभी तक सुलग रही थी, इतना भीषण शब्द करके धंधक उठी, मानो कोई भयंकर वनपशु गरज उठा, और ज्वालाजिह्वा जो सूर्य के परकाश में बहुत धुंधली दिखाई देती थी, किसी राक्षस की भांति अपने शिकार को निगलने लगी। ज्वाला ने उत्तेजित होकर गुलामों को भी उत्तेजित किया। वे दौड़दौड़कर भीतर से चीजें बाहर लाने लगे। कोई मोटीमोटी कालीनें घसीटे चला आता था, कोई वस्त्र के गट्ठर लिये दौड़ा आता था। जिन नकाबों पर सुनहरा काम किया हुआ था, जिन परदों पर सुन्दर बेलबूटे बने हुए थे, सभी आग में झोंक दिये गये। अग्नि मुंह पर नकाब नहीं डालना चाहती और न उसे परदों से परेम है। वह भीषण और नग्न रहना चाहती है। तब लकड़ी के सामानों की बारी आयी। भारी मेज, कुर्सियां, मोटेमोटे गद्दे, सोने की परियों से सुशोभित पलंग गुलामों से उठते ही न थे। तीन बलिष्ठ हब्शी परियों की मूर्तियां छाती से लगाये हुए लाये। इन मूर्तियों में एक इतनी सुन्दर थी कि लोग उससे स्त्री कासा परेम करते थे। ऐसा जान पड़ता था कि तीन जंगली बन्दर तीन स्त्रियों को उठाये भागे जाते हैं ! और जब यह तीनों सुन्दर नग्न मूर्तियां, इन दैत्यों के हाथ से छूटकर गिरीं और टुकड़ेटुकड़े हो गयीं, तो गहरी शोकध्वनि कानों में आयी।

यह शोर सुनकर पड़ोसी एकएक करके जागने लगे और आंखें मलमलकर खिड़कियों से देखने लगे कि यह धुआं कहां से आ रहा है। तब उसकी अर्धनग्न दशा में बाहर निकल पड़े और अलाव के चारों ओर जमा हो गये।
यह माजरा क्या है ? यही परश्न एक दूसरे से करता था।
इन लोगों में वह व्यापारी थे जिनसे थायस इत्र, तेल, कपड़े आदि लिया करती थी, और वह सचिन्त भाव से मुंह लटकाये ताक रहे थे। उनकी समझ में कुछ न आता था कि यह क्या हो रहा है। कई विषयभोगी पुरुष जो रात भर के विलास के बाद सिर पर हार लपेटे, कुरते पहने गुलामों के पीछे जाते हुए उधर से निकले तो यह दृश्य देखकर ठिठक गये और जोरजोर से तालियां बजाकर चिल्लाने लगे। धीरेधीरे कुतूहलवश और लोग आ गये और बड़ी भीड़ जमा हो गयी। तब लोगों को ज्ञात हुआ कि थायस धमार्श्रम के तपस्वी पापनाशी के आदेश से अपनी समस्त सम्पत्ति जलाकर किसी आश्रम में परविष्ट होने आ रही है।
दुकानदानों ने विचार किया-थायस यह नगर छोड़कर चली जा रही है। अब हम किसके हाथ अपनी चीजें बेचेंगे ? कौन हमें मुंहमांगे दाम देगा। यह बड़ा घोर अनर्थ है। थायस पागल हो गयी है क्या ? इस योगी ने अवश्य उस पर कोई मन्त्र डाल दिया है, नहीं तो इतना सुखविलास छोड़कर तपस्विनी बन जाना सहज नहीं है। उसके बिना हमारा निवार्ह क्योंकर होगा! वह हमारा सर्वनाश किये डालती है। योगी को क्यों ऐसा करने दिया जाये? आखिर कानून किसलिए है ? क्या इस्कन्द्रिया में कोई नगर का शासक नहीं ? थायस को हमारे बालबच्चों की जरा भी चिन्ता नहीं है उसे शहर में रहने के लिए मजबूर करना चाहिए। धनी लोग इसी भांति नगर छोड़कर चले जायेंगे तो हम रह चुके। हम राज्यकर कहां से देंगे ?
युवकगण को दूसरे परकार की चिन्ता थी-अगर थायस इस भांति निर्दयता से नगर से जायेगी तो नाट्यशालाओं को जीवित कौन रखेगा ? शीघर ही उनमें सन्नाटा छा जायेगा, हमारे मनोरंजन की मुख्य सामगरी गायब हो जायेगी, हमारा जीवन शुष्क और नीरस हो जायेगा। वह रंगभूमि का दीपक, आनन्द, सम्मान, परतिभा और पराण थी। जिन्होंने उसके परेम का आनन्द नहीं उठाया था, वह उसके दर्शन मात्र ही से कृतार्थ हो जाते थे। अन्य स्त्रियों से परेम करते हुए भी वह हमारे नेत्रों के सामने उपस्थित रहती थी। हम विलासियों की तो जीवनधारा थी। केवल यह विचार कि वह इस नगर में उपस्थित है, हमारी वासनाओं को उद्दीप्त किया करता था। जैसे जल की देवी वृष्टि करती है, अग्नि की देवी जलाती है, उसी भांति यह आनन्द की देवी हृदय में आनन्द का संचार करती थी।
समस्त नगर में हलचल मची हुई थी। कोई पापनाशी को गालियां देता था, कोई ईसाई धर्म को और कोई स्वयं परभु मसीह को सलवातें सुनाता था। और थायस के त्याग की भी बड़ी तीवर आलोचना हो रही थी। ऐसा कोई समाज न था जहां कुहराम न मचा हो।
‘यों मुंह छिपाकर जाना लज्जास्पद है !’
‘यह कोई भलमनसाहत नहीं है !’
‘अजी, यह तो हमारे पेट की रोटियां छीने लेती है !’
‘वह आने वाली सन्तान को अरसिक बनाये देती है। अब उन्हें रसिकता का उपदेश कौन देगा ?’
‘अजी, उसने तो अभी हमारे हारों के दाम भी नहीं दिये।’
‘मेरे भी पचास जोड़ों के दाम आते हैं।’
‘सभी का कुछन-कुछ उस पर आता है।’
‘जब वह चली जायेगी तो नायिकाओें का पार्ट कौन खेलेगा ?’
‘इस क्षति की पूर्ति नहीं हो सकती।’
‘उसका स्थान सदैव रिक्त रहेगा।’
‘उसके द्वार बन्द हो जायेंगे तो जीवन का आनन्द ही जाता रहेगा।’
‘वह इस्कन्द्रिया के गगन का सूर्य थी।’
इतनी देर में नगर भर के भिक्षुक, अपंग, लूले, लंगड़े, को़ढ़ी, अन्धे सब उस स्थान पर जमा हो गये और जली हुई वस्तुओं को टटोलते हुए बोले-अब हमारा पालन कौन करेगा ? उसकी मेज का जूठन खाकर दो सौ अभागों के पेट भर जाते थे ? उसके परेमीगण चलते समय हमें मुट्ठियां भर रुपयेपैसे दान कर देते थे।
चोरचकारों की भी बन आयी। वह भी आकर इस भीड़ में मिल गये और शोर मचामचाकर अपने पास के आदमियों को केलने लगे कि दंगा हो जाये और उस गोलमाल में हम भी किसी वस्तु पर हाथ साफ करें। यद्यपि बहुत कुछ जल चुका था, फिर भी इतना शेष था कि नगर के सारे चोरचंडाल अयाची हो जाते !
इस हलचल में केवल एक वृद्ध मनुष्य स्थिरचित्त दिखाई देता था। वह थायस के हाथों दूर देशों से बहुमूल्य वस्तु लालाकर बेचता था और थायस पर उसके बहुत रुपये आते थे। वह सबकी बातें सुनता था, देखता था कि लोग क्या करते हैं। रहरहकर दा़ी पर हाथ फेरता था और मन में कुछ सोच रहा था। एकाएक उसने एक युवक को सुन्दर वस्त्र पहने पास खड़े देखा। उसने युवक से पूछा-‘तुम थायस के परेमियों में नहीं हो !’
युवक-‘हां, हूं तो बहुत दिनों से।’
वृद्ध-तो जाकर उसे रोकते क्यों नहीं ?’
युवक-‘और क्या तुम समझते हो कि उसे जाने दूंगा ? मन में यही निश्चय करके आया हूं। शेखी तो नहीं मारता लेकिन इतना तो मुझे विश्वास है कि मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो जाऊंगा तो वह इस बंदरमुंहे पादरी की अपेक्षा मेरी बातों पर अधिक ध्यान देगी।’
वृद्ध-‘तो जल्दी जाओ। ऐसा न हो कि तुम्हारे पहुंचतेपहुंचते वह सवार हो जाये।’
युवक-‘इस भीड़ को हटाओ।’
वृद्ध व्यापारी ने ‘हटो, जगह दो’ का गुल मचाना शुरू किया और युवक घूसों और ठोकरों से आदमियों को हटाता, वृद्धों को गिराता, बालकों को कुचलता, अन्दर पहुंच गया और थायस का हाथ पकड़कर धीरेसे बोला-‘पिरय, मेरी ओर देखो। इतनी निष्ठुरता ! याद करो, तुमने मुझसे कैसीकैसी बातें की थीं, क्याक्या वादे किये थे, क्या अपने वादों को भूल जाओगी ? क्या परेम का बन्धन इतना ीला हो सकता है ?’
थायस अभी कुछ जवाब न दे पायी थी कि पापनाशी पलककर उसके और थामस के बीच में खड़ा हो गया और डांटकर बोला-‘दूर हट, पापी कहीं का ! खबरदार जो उसकी देह को स्पर्श किया। वह अब ईश्वर की है, मनुष्य उसे नहीं छू सकता।’
युवक ने कड़ककर कहा-‘हट यहां से, वनमानुष ! क्या तेरे कारण अपनी पिरयतमा से न बोलूं ? हट जाओ, नहीं तो यह दा़ी पकड़कर तुम्हारी गन्दी लाश को आग के पास खींच ले जाऊंगा और कबाब की तरह भून डालूंगा। इस भरम में मत रह कि तू मेरे पराणाधार को यों चुपके से उठा ले जायेगा। उसके पहले मैं तुझे संसार से उठा दूंगा !’
यह कहकर उसने थायस के कन्धे पर हाथ रखा। लेकिन पापनाशी ने इतनी जोर से धक्का दिया कि वह कई कदम पीछे लड़खड़ाता हुआ चला गया और बिखरी हुई राख के समीप चारों खाने चित्त गिर पड़ा।
लेकिन वृद्ध सौदागर शान्त न बैठा। वह परत्येक मनुष्य के पास जाजाकर गुलामों के कान खींचता, और स्वामियों के हाथों को चूमता और सभी को पापनाशी के विरुद्ध उत्तेजित कर रहा था कि थोड़ी देर में उसने एक छोटासा जत्था बना लिया जो इस बात पर कटिबद्ध था कि पापनाशी को कदापि अपने कार्य में सफल न होने देगा। मजाल है कि यह पादरी हमारे नगर की शोभा को भगा ले जाये ! गर्दन तोड़ देंगे। पूछो, धमार्श्रम में ऐसी रमणियों की क्या जरूरत ? क्या संसार में विपत्ति की मारी बुयिों की कमी है ? क्या उनके आंसुओं से इन पादरियों को सन्टोष नहीं होता कि युवतियों को भी रोने के लिए मजबूर किया जाये!
युवक का नाम सिरोन था। वह धक्का खाकर गिरा, किन्तु तुरन्त गर्द झाड़कर उठ खड़ा हुआ। उसका मुंह राख से काला हो गया था, बाल झुलस गये थे, त्र्कोध और धुएं से दम घुट रहा था। वह देवताओं को गालियां देता हुआ उपद्रवियों को भड़काने लगा। पीछे भिखारियों का दल उत्पात मचाने पर उद्यत था। एक क्षण में पापनाशी तने हुए घूंसों, उठी हुई लाठियों और अपमानसूचक अपशब्दों के बीच में घिर गया।
एक ने कहा-‘मारकर कौवों को खिला दो !’
‘नहीं जला दो, जीता आग में डाल दो, जलाकर भस्म कर दो !’
लेकिन पापनाशी जरा भी भयभीत न हुआ। उसने थायस को पकड़कर खींच लिया और मेघ की भांति गरजकर बोला-‘ईश्वरद्रोहियों, इस कपोत को ईश्वरीय बीज के चंगुल से छुड़ाने की चेष्टा मत करो, तुम आज जिस आग में जल रहे हो, उसमें जलने के लिए उसे विवश मत करो बल्कि उसकी रीस करो और उसी की भांति अपने खोटे को भी खरा कंचन बना दो। उसका अनुकरण करो, उसके दिखाये हुए मार्ग पर अगरसर हो, और उस ममता को त्याग दो जो तुम्हें बांधे हुए है और जिसे तुम समझते हो कि हमारी है। विलंब न करो, हिसादा का दिन निकट है और ईश्वर की ओर से वजराघात होने वाला ही है। अपने पापों पर पछताओ, उनका परायश्चित करो, तौबा करो, रोओ और ईश्वर से क्षमापरार्थना करो। थायस के पदचिह्नों पर चलो। अपनी कुवासनाओं से घृणा करो जो उससे किसी भांति कम नहीं हैं। तुममें से कौन इस योग्य है, चाहे वह धनी हो या कंगाल, दास हो या स्वामी, सिपाही हो या व्यापारी, जो ईश्वर के सम्मुख खड़ा होकर दावे के साथ कह सके कि मैं किसी वेश्या से अच्छा हूं ? तुम सबके-सब सजीव दुर्गन्ध के सिवा और कुछ नहीं हो और यह ईश्वर की महान दया है कि वह तुम्हें एक क्षण में कीचड़ की मोरियां नहीं बना डालता।’
जब तक वह बोलता रहा, उसकी आंखों से ज्वालासी निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसके मुख से आग के अंगारे बरस रहे हैं। जो लोग वहां खड़े थे, इच्छा न रहने पर भी मन्त्र मुग्ध से खड़े उसकी बातें सुन रहे थे।
किन्तु वह वृद्ध व्यापारी ऊधम मचाने में अत्यन्त परवीण था। वह अब भी शांत न हुआ। उसने जमीन से पत्थर के टुकड़े और घोंघे चुन लिये और अपने कुरते के दामन में छिपा लिये, किन्तु स्वयं उन्हें फेंकने का साहस न करके उसने वह सब चीजें भिक्षुकों के हाथों में दे दीं। फिर क्या था ? पत्थरों की वर्षा होने लगी और एक घोंघा पापनाशी के चेहरे पर ऐसा आकर बैठा कि घाव हो गया। रक्त की धारा पापनाशी के चेहरे पर बहबहकर त्यागिनी थायस के सिर पर टपकने लगी, मानो उसे रक्त के बपतिस्मा से पुनः संस्कृत किया जा रहा था। थायस को योगी ने इतनी जोर से भींच लिया था कि उसका दम घुट रहा था और योगी के खुरखुरे वस्त्र से उसका कोमल शरीर छिला जाता था। इस असमंजस में पड़े हुए, घृणा और त्र्कोध से उसका मुख लाल हो रहा था।
इतने में एक मनुष्य भड़कीले वस्त्र पहने, जंगली फूलों की एक माला सिर पर लपेटे भीड़ को हटाता हुआ आया और चिल्लाकर बोला-‘ठहरो, ठहरो, यह उत्पात क्यों मचा रहे हो ? यह योगी मेरा भाई है।’
यह निसियास था, जो वृद्ध यूत्र्कसइटीज कसे कबर में सुलाकर इस मैदान में होता हुआ घर लौटा जा रहा था। देखा तो अलाव जल रहा है, उसमें भांतिभांति की बहुमूल्य वस्तुएं पड़ी सुलग रही हैं, थायस एक मोटी चादर ओ़े खड़ी है और पापनाशी पर चारों ओर से पत्थरों की बौछार हो रही है। वह यह दृश्य देखकर विस्मित तो नहीं हुआ, वह आवेशों से वशीभूत न होता था। हां, ठिठक गया और पापनाशी को इस आत्र्कमण से बचाने की चेष्टा करने लगा।
उसने फिर कहा-‘मैं मना कर रहा हूं, ठहरो, पत्थर न फेंको। यह योगी मेरा पिरय सहपाठी है। मेरे पिरय मित्र पापनाशी पर अत्याचार मत करो।’

किन्तु उसकी ललकार का कुछ असर न हुआ। जो पुरुष नैयायिकों के साथ बैठा हुआ बाल की खाल निकालने ही में कुशल हो, उसमें वह नेतृत्वशक्ति कहां जिसके सामने जनता के सिर झुक जाते हैं। पत्थरों और घोघों की दूसरी बौछार पड़ी, किन्तु पापनाशी थायस को अपनी देह से रक्षित किये हुए पत्थरों की चोटें खाता था और ईश्वर को धन्यवाद देता था जिसकी दयादृष्टि उनके घावों पर मरहम रखती हुई जान पड़ती थी। निसियास ने जब देखा कि यहां मेरी कोई नहीं सुनता और मन में यह समझकर कि मैं अपने मित्र की रक्षा न तो बल से कर सकता हूं न वाक्चातुरी से, उसने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया। (यद्यपि ईश्वर पर उसे अणुमात्र भी विश्वास न था।) सहसा उसे एक उपाय सूझा। इन पराणियों को वह इतना नीच समझता था कि उसे अपने उपाय की सफलता पर जरा भी सन्देह न रहा। उसने तुरन्त अपनी थैली निकाल ली, जिसमें रुपये और अशर्फियां भरी हुई थीं। वह बड़ा उदार, विलासपरेमी पुरुष था, और उन मनुष्यों के समीप जाकर जो पत्थर फेंक रहे थे, उनके कानों के पास मुद्राओं को उसने खनखनाया। पहले तो वे उससे इतने झल्लाये हुए थे, लेकिन शीघर ही सोने की झंकार ने उन्हें लुब्ध कर दिया, उनके हाथ नीचे को लटक गये। निसियास ने जब देखा कि उपद्रवकारी उसकी ओर आकर्षित हो गए तो उसने कुछ रुपये और मोहरें उनकी ओर फेंक दीं। उनमें से जो ज्यादा लोभी परकृति के थे, वह झुकझुककर उन्हें चुनने लगे। निसियास अपनी सफलता पर परसन्न होकर मुट्ठियां भरभर रुपये आदि इधरउधर फेंकने लगा। पक्की जमीन पर अशर्फियों के खनकने की आवाज सुनकर पापनाशी के शत्रुओं का दल भूमि पर सिजदे करने लगा। भिक्षु गुलाम छोटेमोटे दुकानदार, सबके-सब रुपये लूटने के लिए आपस में धींगामुश्ती करने लगे और सिरोन तथा अन्य भद्रसमाज के पराणी देर से यह तमाशा देखते थे और हंसतेहंसते लोट जाते थे। स्वयं सिरोन का त्र्कोध शान्त हो गया। उसके मित्रों ने लूटने वाले परतिद्वन्द्वियां को भड़काना शुरू किया मानो पशुओं को लड़ा रहे हों। कोई कहता था, अब की यह बाजी मारेगा, इस पर शर्त बदता हूं, कोई किसी दूसरे योद्घा का पक्ष लेता था, और दोनों परतिपक्षियों में सैकड़ों की हारजीत हो जाती थी। एक बिना टांगों वाले पंगुल ने जब एक मोहर पायी तो उसके साहस पर तालियां बजने लगीं। यहां तक कि सबने उस पर फूल बरसाये। रुपये लुटाने का तमाशा देखतेदेखते यह युवक वृन्द इतने खुश हुए कि स्वयं लुटाने लगे और एक क्षण में समस्त मैदान में सिवाय पीठों के उठने और गिरने के और कुछ दिखाई ही न देता था, मानो समुद्र की तरंगें चांदीसोने के सिक्कों के तूफान से आन्दोलित हो रही हों। पापनाशी को किसी की सुध ही न रही।

तब निसियास उसके पास लपककर गया, उसने अपने लबादे में छिपा लिया और थायस को उसके साथ एक पास की गली में खींच ले गया जहां विद्रोहियों से उनका गला छूटा। कुछ देर तक तो वह चुपचाप दौड़े, लेकिन जब उन्हें मालूम हो गया कि हम काफी दूर निकल आये और इधर कोई हमारा पीछा करने न आयेगा तो उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया। निसियास ने परिहासपूर्ण स्वर में कहा-‘लीला समाप्त हो गयी। अभिनय का अंत हो गया। थायस अब नहीं रुक सकती। वह अपने उद्घारकर्ता के साथ अवश्य जायेगी, चाहे वह उसे जहां ले जाये।’
थायस ने उत्तर दिया-‘हां, निसियास, तुम्हारा कथन सर्वथा निमूर्ल नहीं है। मैं तुम जैसे मनुष्यों के साथ रहतेरहते तंग आ गयी हूं, जो सुगन्ध से बसे, विलास में डूबे हुए, सहृदय आत्मसेवी पराणी हैं। जो कुछ मैंने अनुभव किया है, उससे मुझे इतनी घृणा हो गई है कि अब मैं अज्ञात आनन्द की खोज में जा रही हूं। मैंने उस सुख को देखा है जो वास्तव में सुख नहीं था, और मुझे एक गुरु मिला है जो बतलाता है कि दुःख और शोक ही में सच्चा आनन्द है। मेरा उस पर विश्वास है क्योंकि उसे सत्य का ज्ञान है।’
निसियास ने मुस्कराते हुए कहा-‘और पिरये, मुझे तो सम्पूर्ण सत्यों का ज्ञान पराप्त है। वह केवल एक ही सत्य का ज्ञाता है, मैं सभी सत्यों का ज्ञाता हूं। इस दृष्टि से तो मेरा पद उसके पद से कहीं ऊंचा है, लेकिन सच पूछो तो इससे न कुछ गौरव पराप्त होता है, न कुछ आनन्द।’

तब यह देखकर कि पापनाशी मेरी ओर तापमय नेत्रों से ताक रहा है, उसने सम्बोधित करके कहा-‘पिरय मित्र पापनाशी, यह मत सोचो कि मैं तुम्हें निरा बुद्घू, पाखण्डी या अन्धविश्वासी समझता हूं। यदि मैं अपने जीवन की तुम्हारे जीवन से तुलना करुं, तो मैं स्वयं निश्चय न कर सकूंगा कि कौन श्रेष्ठ है। मैं अभी यहां से जाकर स्नान करुंगा, दासों ने पानी तैयार कर रखा होगा, तब उत्तम वस्त्र पहनकर एक तीतर के डैनों का नाश्ता करुंगा, और आनन्द से पलंग पर लेटकर कोई कहानी पू़ंगा या किसी दार्शनिक के विचारों का आस्वादन करुंगा। यद्यपि ऐसी कहानियां बहुत पॄ चुका हूं और दार्शनिकों के विचारों में भी कोई मौलिकता या नवीनता नहीं रही। तुम अपनी कुटी में लौटकर जाओगे और वहां किसी सिधाये हुए ऊंट की भांति झुंककर कुछ जुगालीसी करोगे, कदाचित कोई एक हजार बार के चबाये हुए शब्दाडम्बर को फिर से चबाओगे, और सन्ध्या समय बिना बघारी हुई भाजी खाकर जमीन पर लेटे रहोगे। किन्तु बन्धुवर, यद्यपि हमारे और तुम्हारे मार्ग पृथक है, यद्यपि हमारे ओर तुम्हारे कार्यत्र्कम में बड़ा अन्तर दिखाई पड़ता है, लेकिन वास्तव में हम दोनों एक ही मनोभाव के अधीर कार्य कर रहे हैं-वही जो समस्त मानव कृत्यों का एकमात्र कारण है। हम सभी सुख के इच्छुक हैं, सभी एक ही लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं। सभी का अभीष्ट एक ही है-आनन्द, अपराप्त आनन्द, असम्भव आनन्द। यही मेरी मूर्खता होगी अगर में कहूं कि तुम गलती पर हो यद्यपि मेरा विचार है कि मैं सत्य पर हूं।

‘और पिरये थायस, तुमसे भी मैं यही कहूंगा कि जाओ और अपनी जिन्दगी के मजे उठाओ, और यदि यह बात असम्भव न हो, तो त्याग और तपस्या में उससे अधिक आनन्दलाभ करो जितना तुमने भोग और विलास में किया है। सभी बातों का विचार करके मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे ऊपर लोगों को हसद होता था क्योंकि यदि पापनाशी ने और मैंने अपने समस्त जीवन में एक ही एक परकार के आनन्दों का आस्वादन किया है जो बिरले ही किसी मनुष्य को पराप्त हो सकते हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि एक घण्टे के लिए मैं बन्धु पापनाशी की तरह सन्त हो जाता। लेकिन यह सम्भव नहीं। इसलिए तुमको भी विदा करता हूं, जाओ जहां परकृति की गुप्त शक्तियां और तुम्हारा भाग्य तुम्हें ले जाय ! जाओ जहां तुम्हारी इच्छा हो, निसियास की शुभेच्छाएं तुम्हारे साथ रहेंगी। मैं जानता हूं कि इस समय अनर्गल बातें कर रहा हूं, इस पर असार शुभकामनाओं और निर्मूल पछतावे के सिवाय, मैं उस सुखमय भरांति का क्या मूल्य दे सकता हूं जो तुम्हारे परेम के दिनों में मुझ पर छायी रहती थीं और जिसकी स्मृति छाया की भांति मेरे मन में रह गयी है ? जाओ मेरी देवी, जाओ, तुम परोपकार की मूर्ति हो जिसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं, तुम लीलामयी सुषमा हो। नमस्कार है उस सर्वश्रेष्ठ, सवोर्त्कृष्ट मायामूर्ति को जो परकृति ने किसी अज्ञात कारण से इस असार, मायावी संसार को परदान की है।’

पापनाशी के हृदय पर इस कथन का एकएक शब्द वजर के समान पड़ रहा था। अन्त में वह इन अपशब्दों से परतिध्वनित हुआ-हा ! दुर्जन, दुष्ट, पापी ! मैं तुझसे घृणा करता हूं और तुझे तुच्छ समझता हूं ! दूर हो यहां से, नरक के दूत, उन दुर्बल, दुःखी म्लेच्छों से भी हजार गुना निकृष्ट, जो अभी मुझे पत्थरों और दुर्वचनों का निशाना बना रहे थे ! वह अज्ञानी थे, मूर्ख थे; उन्हें कुछ ज्ञान न था कि हम क्या कर रहे हैं और सम्भव है कि कभी उन पर ईश्वर की दयादृष्टि फिरे और मेरी परार्थनाओं के अनुसार उनके अन्तःकरण शुद्ध हो जायें लेकिन निसियास, अस्पृश्य पतित निसियास, तेरे लिए कोई आशा नहीं है, तू घातक विष है। तेरे मुख से नैराश्य और नाश के शब्द ही निकलते हैं। तेरे एक हास्य से उससे कहीं अधिक नास्तिकता परवाहित होती है जितनी शैतान के मुख से सौ वर्षों में भी न निकलती होगी।
निसियास ने उसकी ओर विनोदपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-‘बन्धुवर, परणाम ! मेरी यही इच्छा है कि अन्त तक तुम विश्वास, घृणा और परेम के पथ पर आऱु रहो। इसी भांति तुम नित्य अपने शत्रुओं को कोसते और अपने अनुयायियों से परेम करते रहो। थायस, चिरंजीवी रहो। तुम मुझे भूल जाओगी, किन्तु मैं तुम्हें न भूलूंगा। तुम यावज्जीवन मेरे हृदय में मूर्तिमान रहोगी।’

उनसे बिदा होकर निसियास इस्कन्द्रिया की कबिरस्तान के निकट पेचदार गलियों में विचारपूर्ण गति से चला। इस मार्ग में अधिकतर कुम्हार रहते थे, जो मुर्दों के साथ दफन करने के लिए खिलौने, बर्तन आदि बनाते थे। उनकी दुकानें मिट्टी की सुन्दर रंगों से चमकती हुई देवियों, स्त्रियों उड़ने वाले दूतों और ऐसी ही अन्य वस्तुओं की मूर्तियों से भरी हुई थीं। उसे विचार हुआ, कदाचित इन मूर्तियों में कुछ ऐसी भी हों जो महानिद्रा में मेरा साथ दें और उसे ऐसा परतीत हुआ मानो एक छोटी परेम की मूर्ति मेरा उपहास कर रही है। मृत्यु की कल्पना ही से उसे दुःख हुआ। इस विवाद को दूर करने के लिए उसने मन में तर्क किया-इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि काल या समय कोई चीज नहीं। वह हमारी बुद्धि की भरांतिमात्र है, धोखा है। तो जब इसकी सत्ता ही नहीं तो वह मेरी मृत्यु को कैसे ला सकता है। क्या इसका यह आशय है कि अनन्तकाल तक मैं जीवित रहूंगा ? क्या मैं भी देवताओं की भांति अमर हूं ? नहीं, कदापि नहीं। लेकिन इससे यह अवश्य सिद्धि होता है कि वह इस समय है, सदैव से है, और सदैव रहेगा। यद्यपि मैं अभी इसका अनुभव नहीं कर रहा हूं, पर यह मुझमें विद्यमान है और मुझे उससे शंका न करनी चाहिए, क्योंकि उस वस्तु के आने से डरना, जो पहले ही आ चुकी है हिमाकत है। यह किसी पुस्तक के अन्तिम पृष्ठ के समान उपस्थित है, जिसे मैंने पॄा है, पर अभी समाप्त नहीं कर चुका हूं।

उसका शेष रास्ता इस वाद में कट गया, लेकिन इससे उसके चित्त को शान्ति न मिली, और जब यह घर पहुंचा तो उसका मन विवादपूर्ण विचारों से भरा हुआ था। उसकी दोनों युवती दासियां परसन्न, हंसहंसकर टेनिस खेल रही थीं। उनकी हास्यध्वनि ने अन्त में उसके दिल का बोझ हल्का किया।
पापनाशी और थामस भी शहर से निकलकर समुद्र के किनारेकिनारे चले। रास्ते में पापनाशी बोला-‘थायस, इस विस्तृत सागर का जल भी तेरी कालिमाओं को नहीं धो सकता।’ यह कहतेकहते उसे अनायास क्रोध आ गया। थायस को धिक्कारने लगा-‘तू कुतियों और शूकरियों से भी भरष्ट है, क्योंकि तूने उस देह को जो ईश्वर ने तुझे इस हेतु दिया था कि तू उसकी मूर्ति स्थापित करे, विधर्मियों और म्लेच्छों द्वारा दलित कराया है और तेरा दुराचरण इतना अधिक है कि तू बिना अन्तःकरण में अपने परति घृणा का भाव उत्पन्न किये न ईश्वर की परार्थना कर सकती है न वन्दना।’
धूप के मारे जमीन से आंच निकल रही थी और थायस आपने नये गुरु के पीछे सिर झुकाये पथरीली सड़कों पर चली जा रही थी। थकान के मारे उसके घुटनों में पीड़ा होने लगी और कंठ सूख गया। लेकिन पापनाशी के मन में दयाभाव का जागना तो दूर रहा, (जो दुरात्माओं को भी नर्म कर देता है) वह उलटे उस पराणी के परायश्चित पर परसन्न हो रहा था जिस के पापों का वारापार न था। वह धमोर्त्साह से इतना उत्तेजित हो रहा था कि उसे देह को लोहे के सांगों से छेदने में भी उसे संकोच न होता जिसका सौन्दर्य उसकी कलुषता का मानो उज्ज्वल परमाण था। ज्योंज्यों वह विचार में मग्न होता था, उसका परकोप औरभी परचण्ड होता जाता था। जब उसे याद आता था कि निसियास उसके साथ सहयोग करचुका है तो उसका रक्त खौलने लगता था और ऐसा जान पड़ता था कि उसकी छाती फट जायेगी। अपशब्द उसके होंठों पर आआकर रुक जाते थे और वह केवल दांत पीसपीसकररह जाता था। सहसा वह उछलकर, विकराल रूप धारण किये हुए उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसके मुंह पर थूक दिया। उसकी तीवर दृष्टि थायस के हृदय में चुभी जाती थी!
थायस ने शान्तिपूर्वक अपना मुंह पोंछ लिया और पापनाशी के पीछे चलती रही। पापनाशी उसकी ओर ऐसी कठोर दृष्टि से ताकता था मानो वह सन्देह नरक है। उसे यह चिन्ता हो रही थी कि मैं इससे परभु मसीह का बदला क्योंकर लूं, क्योंकि थायस ने मसीह को अपने कुकृत्यों से इतना उत्पीड़ित किया था कि उन्हें स्वयं उसे दण्ड देने का कष्ट न उठाना पड़े। अक्समात उसे रुधिर की एक बूंद दिखाई दी जो थायस के पैरों से बहकर मार्ग पर गिरी थी। उसे देखते ही पापनाशी का हृदय दया से प्लावित हो गया, उसकी कठोर आकृति शान्त हो गयी। उसके हृदय में एक ऐसा भाव परविष्ट हुआ जिससे वह अभी अनभिज्ञ था। वह रोने लगा, सिसकियों का तार बंध गया, तब वह दौड़कर उसके सामने माथा ठोंककर बैठ गया और उसके चरणों पर गिरकर कहने लगा-‘बहन, मेरी माता, मेरी देवी’-और उसके रक्त प्लावित चरणों को चूमने लगा।
तब उसने शुद्ध हृदय से यह परार्थना की-ऐ स्वर्ग के दूतो ! इस रक्त की बूंद को सावधानी से उठाओ और इसे परम पिता के सिंहासन के सम्मुख ले जाओ। ईश्वर की इस पवित्र भूमि पर, जहां यह रक्त बहा है, एक अलौकिक पुष्पवृक्ष उत्पन्न हो। उसमें स्वगीर्य सुगन्धयुक्त फूल लिखें और जिन पराणियों की दृष्टि उस पर पड़े और जिनकी नाक में उसकी सुगन्ध पहुंचे, उनके हृदय शुद्ध और उनके विचार पवित्र हो जायें। थायस परमपूज्य थायस ! तुझे धन्य है; आज तूने वह पद पराप्त कर लिया जिसके लिए बड़ेबड़े सिद्ध योगी भी लालायित रहते हैं।
जिस समय वह यह परार्थना और शुभाकांक्षा करने में मग्न था। लड़का गधे पर सवार जाता हुआ मिला। पापनाशी ने उसे उतरने की आज्ञा दी; थायस को गधे पर बिठा दिया और तब उसकी बागडोर पकड़कर ले चला। सूयार्स्त के समय वे एक नहर पर पहुंचे जिस पर सघन वृक्षों का साया था। पापनाशी ने गधे को एक छुहारे के वृक्ष से बांध दिया और काई से की हुई चट्टान पर बैठकर उसने एक रोटी निकाली और उसे नमक और तेल के साथ दोनों ने खाया, चिल्लू से ताजा पानी पिया और ईश्वरीय विषय पर सम्भाषण करने लगे।
थायस बोली-‘पूज्य पिता, मैंने आज तक कभी ऐसा निर्मल जल नहीं पिया, और न ऐसी पराणपरद स्वच्छ वायु में सांस लिया। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि इस समीकरण में ईश्वर की ज्योति परवाहित हो रही है।’
पापनाशी बोला-‘पिरय बहन, देखो संध्या हो रही है। निशा की सूचना देने वाली श्यामला पहाड़ियों पर छाई हुई है। लेकिन शीघर ही मुझे ईश्वरीय ज्योति, ईश्वरीय उषा के सुनहरे परकाश में चमकती हुई दिखाई देगी, शीघर ही तुझे अनन्त परभाव के गुलाबपुष्पों की मनोहर लालिमा आलोकित होती हुई दृष्टिगोचर होगी।
दोनों रात भर चलते रहे। अर्द्धचन्द्र की ज्योति लहरों के उज्ज्वल मुकुट पर जगमगा रही थी; नौकाओं के सफेद पाल उस शान्तिमय ज्योत्स्ना में ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनीत आत्माएं स्वर्ग को परयाण कर रही हैं। दोनों पराणी स्तुति और भजन गाते हुए चले जाते थे। थायस के कण्ठ का माधुर्य, पापनाशी की पंचम ध्वनि के साथ मिश्रित होकर ऐसा जान पड़ता कि सुन्दर वस्त्र पर टाट का बखिया कर दिया गया है ! जब दिनकर ने अपना परकाश फैलाया, तो उनके सामने लाइबिया की मरुभूमि एक विस्तृत सिंह चर्म की भांति फैली हुई दिखाई दी। मरुभूमि के उस सिरे पर कई छुहारे के वृक्षों के मध्य में कई सफेद झोंपड़ियां परभात के मन्द परकाश में झलक रही थीं।
थायस ने पूछा-‘पूज्य पिता, क्या वह ईश्वरीय ज्योति का मन्दिर है ?’

‘हां पिरय बहन, मेरी पिरय पुत्री, वही मुक्तिगृह है, जहां मैं तुझे अपने ही हाथों से बन्द करुंगा।’

एक क्षण में उन्हें कई स्त्रियां झोंपड़ियों के आसपास कुछ काम करती हुई दिखाई दीं, मानो मधुमक्खियां अपने छत्तों के पास भिनभिना रही हों। कई स्त्रियां रोटियां पकाती थीं, कई शाकभाजी बना रही थीं, बहुतसी स्त्रियां ऊन कात रही थीं और आकाश की ज्योति उन पर इस भांति पड़ रही थी मानो परम पिता की मधुर मुस्कान है, और कितनी ही तपस्विनियां झाऊ के वृक्षों के नीचे बैठी ईश्वरवन्दना कर रही थीं, उनके गोरेगोरे हाथ दोनों किनारे लटके हुए थे क्योंकि ईश्वर के परेम से परिपूर्ण हो जाने के कारण वह हाथों से कोई काम न करती थीं; केवल ध्यान, आराधना और स्वगीर्य आनन्द में निमग्न रहती थीं। इसलिए उन्हें ‘माता मरियम की पुत्रियां’ कहते थे, और वह उज्ज्वल वस्त्र ही घारण करती थीं। जो स्त्रियां हाथों से कामधन्धा करती थीं, वह ‘माथी की पुत्रियां’ कहलाती थीं और नीचे वस्त्र पहनती थीं। सभी स्त्रियां कनटोप लगाती थीं, केवल युवतियां बालों के दोचार गुच्छे माथे पर निकाले रहती थीं-सम्भवतः वह आपही-आप बाहर निकल आते थे, क्योंकि बालों को संवारना या दिखाना नियमों के विरुद्ध था। एक बहुत लम्बी, गोरी, वृद्ध महिला, एक कुटी से निकलकर दूसरी कुटी में जाती थी। उसके हाथ में लकड़ी की एक जरीब थी। पापनाशी बड़े अदब के साथ उसके समीप गया, उसकी नकाब के किनारों का चुम्बन किया और बोला-‘पूज्या अलबीना, परम पिता तेरी आत्मा को शान्ति दें ! मैं उस छत्ते के लिए जिसकी तू रानी है, एक मक्खी लाया हूं जो पुष्पहीन मैदानों में इधरउधर भटकती फिरती थी। मैंने इसे अपनी हथेली में उठा लिया और अपने श्वासोच्छ्वास से पुनजीर्वित किया। मैं इसे तेरी शरण में लाया हूं।’
यह कहकर उसने थायस की ओर इशारा किया। थायस तुरन्त कैसर की पुत्री के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गयी।
अलबीना ने थायस पर एक मर्मभेदी दृष्टि डाली, उसे उठने को कहा, उसके मस्तक का चुम्बन किया और तब योगी से बोली-‘हम इसे ‘माता मरियम की पुत्रियों’ के साथ रखेंगे।’
पापनाशी ने तब थायस के मुक्तिगृह में आने का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। ईश्वर ने कैसे उसे पररेणा की, कैसे वह इस्कन्द्रिया पहुंचा और किनकिन उपायों से उसके मन में उसने परभु मसीह का अनुराग उत्पन्न किया। इसके बाद उसने परस्ताव किया कि थायस को किसी कुटी में बन्द कर दिया जाय जिससे वह एकान्त में अपने पूर्वजीवन पर विचार करे, आत्मशुद्धि के मार्ग का अवलम्बन करे।
मठ की अध्यक्षिणी इस परस्ताव से सहमत हो गयी। वह थायस को एक कुटी में ले गयी जिसे कुमारी लीटा ने अपने चरणों से पवित्र किया था और जो उसी समय से खाली पड़ी हुई थी। इस तंग कोठरी में केवल एक चारपाई, एक मेज और एक घड़ा था, और जब थायस ने उसके अन्दर कदम रखा, तो चौखट को पार करते ही उसे कथनीय आनन्द का अनुभव हुआ।
पापनाशी ने कहा-‘मैं स्वयं द्वार को बन्द करके उस पर एक मुहर लगा देना चाहता हूं, जिसे परभु मसीह स्वयं आकर अपने हाथों से तोड़ेंगे।’
वह उसी क्षण पास की जलधारा के किनारे गया, उसमें से मुट्ठी भर मिट्टी ली, उसमें अपने मुंह का थूक मिलाया और उसे द्वार के दरवाजों पर म़ दिया। तब खिड़की के पास आकर जहां थायस शान्तचित्त और परसन्नमुख बैठी हुई थी उसने भूमि पर सिर झुकाकर तीन बार ईश्वर की वन्दना की।
‘ओ हो ! उस स्त्री के चरण कितने सुन्दर हैं जो सन्मार्ग पर चलती है ! हां, उसके चरण कितने सुन्दर, कितने कामल और कितने गौरवशील हैं, उसका मुख कितना कान्तिमय!’
यह कहकर वह उठा, कनटोप अपनी आंखों पर खींच लिया और मन्दगति से अपने आश्रम की ओर चला।
अलबीना ने अपनी एक कुमारी को बुलाकर कहा-‘पिरय पुत्री, तुम थायस के पास आवश्यक वस्तु पहुंचा दो, रोटियां, पानी और एक तीन छिद्रों वाली बांसुरी।

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Rekha Singh

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