देश-दुनिया

गम्भीर संवेदनशील चुनावी मुद्दा बनता कच्चातिवु

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में मेरठ में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को दिये जाने के मुद्दे पर काँग्रेस के देश की अखण्डता के प्रति उसके नरम रवैये की जिस तरह से तीखी आलोचना की है, उसमें कुछ भी अनुचित और असत्य नहीं है। लेकिन इसकी सामयिकता और प्रासंगिता को लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है, क्योंकि इस मुद्दे को ऐन चुनाव के समय उठाने की श्री मोदी और उनकी पार्टी भाजपा को याद अब कैसे आयी? विगत दस वर्षों से केन्द्र में उनकी सरकार है,पर कच्चातिवु को श्रीलंका से वापस लेने का उसने किसी भी तरह का प्रयास क्यों नहीं किया? यह प्रश्न भी मौजूं है। वैसे यह सच है कि काँग्रेस नेतृत्व ने देश की सीमाओं और उससे जुड़े दूसरे भू-भागों के सामरिक,आर्थिक और दूसरी विशेषताओं पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण वे दूसरे देशों के कब्जे में चले गए। यह स्थिति आज द ेश की सुरक्षा और लोगों की हितों को प्रभावित कर रही है।एक ऐसा ही मुद्दा है-कच्चा तिवु।
अब कच्चातिवु के मुद्दे काँग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का यह कहना पूरी तरह सही है कि चुनाव से ठीक पहले आप इस संवदेनशील मुद्दे को उठा रहे हैं, लेकिन आपकी ही सरकार के अटॉनी जनरल मुकुल रोहतगी ने 2014 में उच्चतम न्यायालय में बताया था कि कच्चातिवु सन् 1974 में एक समझौते के तहत श्रीलंका को गया था। आज इसे वापस कैसे लिया जा सकता है? यदि आप इस वापस चाहते हैं तो इस वापस पाने के लिए श्रीलंका से युद्ध करना होगा। उनके सम्भावित प्रत्युत्तर की आशा प्रधानमंत्री मोदी को न हो,ऐसा सम्भव नहीं है, पर उन्हें तो चुनावी माहौल में यह मुद्दा उठाना ही था। इसकी भूमिका उन्होंने पहले ही तैयार कर ली थी, तभी 11अगस्त, 2023को लोकसभा में कच्चातिवु द्वीप के मुद्दे पर काँग्रेस पर जमकर तीखे बाण चलाये थे, पर इसी इरादे से भाजपा की तमिलनाडु इकाई के प्रमुख के.अन्नामलाई ने सूचना के अधिकार अधिनियम(आर.टी.आइ.) के अन्तर्गत कच्चातिवु द्वीप के मुद्दे से सम्बन्धित जानकारी माँगी गईं, इससे इस मुद्दे पर प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के उपेक्षापूर्ण रवैये का पता चलता है।
सच यह है कि प्रधानमंत्री मोदी तमिलनाडु में अपनी पार्टी के पाँव जमाने की कोशिशें काफी समय से कर रहे है, पर उनमें उन्हें अपेक्षित तो दूर कैसी भी सफलता अब तक नहीं मिल पायी है। इसीलिए उन्होंने लोकसभा चुनाव के अवसर तमिलों की भावना से जुड़े कच्चातिवु द्वीप के मुद्दे को उठाना जरूरी समझा, ताकि इस मुद्दे पर काँग्रेस और राज्य सत्तारूढ़ द्रमुक को फिर से कठघरे में खड़ा किया जा सके। फिर कच्चातिवु से सबसे अधिक प्रभावित इस राज्य का मछुआरा समुदाय है, जिन्हें समुद्र में अन्तरराष्ट्रीय जल सीमा लांघते ही श्रीलंका के नौसेनिक हिरासत में ले लेते हैं।
इसी सिलेसिले में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने तमिलनाडु के प्राचीन नगर मल्लपुरम में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को आमंत्रित किया था,जहाँ से कभी चीन से व्यापार किया जाता था। प्रधानमंत्री श्री मोदी पिछले दो वर्ष से काशी-तमिल संगमम् आयोजन कर रहे हैं,जिसमें इस राज्य के धर्माचार्य,बुद्धिजीवियों और अन्य विधाओं के प्रमुख नेताओं का आहूत करते है। इसी तरह इस साल श्री मोदी गुजरात-तमिल संगमम् का भी आयोजन किया था। नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना भी तमिल संस्कृति को स्थापित करना था। अब कच्चा तिवु के बारे में भी जान लें।
कच्चातिवु पाक जलडरूमध्य में स्थित निर्जन द्वीप है,जो भारत के रामेश्वरम् से 12मील और श्रीलंका क जाफना के नेदण्डी से 10.5मील दूर है। इसका क्षेत्रफल 285एकड़/1.15किलोमीटर है। यह द्वीप सामरिक महत्त्व का था और मछली पकड़ने के लिए अहम स्थान है। यही कारण है कि भारत और श्रीलंका दोनों मछली पकड़ने के लिए इस द्वीप पर अपना-अपना दावा करते थे। देश के स्वतंत्र होने बाद सन्1974- 76 के बीच चार समझौते किये गए थे। समझौते के तहत भारतीय मछुआरों को द्वीप पर आराम करने और जाल सुखाने की अनुमति दी गई और यह द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया गया। अब भारतीय मछुआरे मछलियों के लिए अन्तरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा को पार कर कच्चातिवु द्वीप पहुँचते हैंतो कई बार भारतीय मछुआरों को श्रीलंकाई नौसेना हिरासत में ले लेती है।
जो वर्तमान में श्रीलंका द्वारा प्रशासित है। यह 14वीं सदी में ज्वालामुखी से बना द्वीप है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी कच्चातिवु पर उसका आधिपत्य बना रहा। 10मई,1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस मुद्दे का आप्रासंगिक बताते हुए खारिज कर दिया।उन्होंने लिखित बयान दिया कि मैं इस द्वीप पर दावे को छोड़ने में कोई हिचाकिचाहट नहीं दिखाऊँगा। मैं इस छोटे द्वीप को थोड़ा भी महत्त्व नहीं देता। मुझे यह पसन्द नहीं कि विवाद अनिश्चित काल तक बना रहे या संसद में फिर से उठाया जाए। पारम्परिक रूप से दोनों देशों के मछुआरों द्वारा इसका उपयोग किया जाता रहा है। लेकिन श्रीलंका इस पर लगातार अपना दावा करता रहा। इस मुद्दे पर पहली बैठक 26जून, 1974 को श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में हुई। इसके पश्चात् दूसरी बैठक 28जून, 1974को नई दिल्ली में हुई थी। इनमें श्रीलंका ने कड़ा रुख अपनाया।उन्होंने वार्ताकारों को सूचित किया कि साक्ष्य के रूप में 1505से 1608ईस्वी तक यह द्वीप पुर्तगालियों के कब्जे में रहा है। दूसरी ओर भारत ने तर्क दिया की सत्रहवी सदी में इस पर मदुरई के राजा रामानन्द का नियंत्रण हो गया था और यह उनकी सम्पत्ति है। कालान्तर में भारत उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश राज के समय यह मद्रास प्रेसीडेन्सी का भाग बन गया। यह द्वीप डच और ब्रिटिश मानचित्रों में जाफनापटनम का हिस्सा था। लेकिन इस क्षेत्र का कभी सीमांकन नहीं हुआ। सन् 1976तक यह क्षेत्र भारत के और श्रीलंका के बीच विवादित था। सन्1974में भारत ने सशर्त समझौते के माध्यम से इस द्वीप का स्वामित्व श्रीलंका को सौंप दिया था। इनमें यह शर्त भी सम्मिलित थी कि भारतीय मछुआरां का मछलियाँ पकड़ने का अधिकार सुरक्षित रहेगा। इस द्वीप आकर वे अपने जाल भी सुखा सकेंगे। इस द्वीप पर सेण्ट एन्थोनी कैथोलिक गिरजाघर/चर्च है जिसका निर्माण श्रीनिवास पादैयाची एक तमिल कैथोलिक द्वारा कराया गया था।इस गिरजाघर में तमिलनाडु और श्रीलंका के पादरी सेवाएँ देते हैं। हर साल दो से ढाई हजार भारतीय और श्रीलंका के ईसाई यहाँ पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहाँ हिन्दू मन्दिर भी बताया जाता है।कच्चा तिवु जाने के लिए भारतीय पासपोर्ट और श्रीलंका के वीजा की आवश्यकता नहीं है। इसे लेकर हाल के कुछ सालों में कुछ छोटे विवाद भी हुए हैं।
इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी और श्रीलंका की राष्ट्रपति श्रीमती सिरिमावो भण्डारनायके के बीच समझौता हुआ,जिसके तहत कच्चातिवु द्वीप औपचारिक रूप से श्रीलंका को सौंप दिया गया। तत्कालीन विदेश सचिव केवल सिंह ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि को भारत के कच्चा तिवु से अपना दावा छोड़ने के निर्णय से अवगत कराया। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के इस निर्णय के विरोध में तमिलनाडु में उग्र विरोध हुआ। इस राज्य के मछुआरों के हितों पर यह निर्णय बहुत बड़ा कुठाराघात था। सन् 1991में तमिलनाडु की तत्कालीन सरकार ने कच्चातिवु को श्रीलंका से वापस लेने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराया। वैसे तमिलनाडु की राजनीति में कच्चातिवु का द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच विवाद का मुद्दा रहा है, पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने मछुआरों के मुद्दों का समाधान करने के लिए इस द्वीप को वापस पाने तक का संकल्प लिया था। तमिल मछुआरों की गिरपतारी और उत्पीड़न के साथ कच्चातिवु फिर से हासिल करने का मुद्दा तमिलनाडु की दोनों पार्टियों के लिए बहस का विषय रहा है। अब चुनाव के वक्त कच्चातिवु के श्रीलंका को दिये जाने पर भाजपा के सवाल उठाने की गम्भीरता और संवेदनशील को समझते हुए काँग्रेस- द्रमुक समेत विपक्षी दल सन् 2015 की आर.टी.आइ.के जवाब का हवाला दे रहे है, जिसमें सन् 1974 और 1976 के समझौतों में भारत से सम्बन्धित जमीन का न तो अधिग्रहण किया गया और न ही कोई हिस्सा छोड़ा गया। वस्तुतः इस क्षेत्र का परिसीमन ही नहीं किया गया था। विपक्षी दलों ने पूछा कि क्या मोदी सरकार के रुख में यह परिवर्तन चुनावी राजनीति के चलते हैं?निश्चय ही इसका उत्तर हाँ है। अगर भाजपा कच्चातिवु श्रीलंका से वापस लेना है,तो अब उसे लेने के बारे में कोई वादा क्यों नहीं कर रही?अगर भाजपा कच्चातिवु श्रीलंका से वापस लेने का वादा करती है,तो वह इस राज्य चुनावी पलट सकती है?
खेद की बात यह है कि अब काँग्रेस के देश एकता, अखण्डता और सीमाओं की अक्षुण्णता को लेकर रवैये बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है कि काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी देश की संघीय व्यवस्था को देश के संघ से करते हैं, किन्तु अपने यहाँ भारत एक देश है। यहाँ प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि राज्य गठित किये गए हैं,न कि यह किन्हीं देश का संघ बनाया गया है। कर्नाटक के काँग्रेस सांसद डी.सुरेशकुमार दक्षिण भारत के राज्यों को मिलाकर अलग देश बनाने की बात करते हैं, पर काँग्रेस का कोई नेता उनके बयान की निन्दा नहीं करता। जम्मू-कश्मीर की स्थानीय पार्टियों के नेताओं के अलगाववादी वक्तव्यों की काँग्रेस ने कभी खुलकर आलोचना नहीं की। जे.एन.यू.में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे‘ के नारे लगाने वाले छात्रों के समर्थन में राहुल गाँधी वहाँ पहुँच जाते है और उनके नेता कन्हैया कुमार को लोकसभा के लिए चुनाव लड़ने को अपनी पार्टी का टिकट देते हैं। जहाँ तक अपना नाम विश्व के नेताओं में दर्ज कराने या फिर पड़ोसी देश की सदाश्यता प्राप्त करने में ऐसी ही भूल- चूक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपींग को देश में दो बार बुलाकर या फिर बिना आमंत्रण की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने पहुँच कर या फिर बांग्लादेश से एक समझौते में कर चुके हैं। उनसे पहले पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी भी लाहौर बस यात्रा की भूल कर चुके थे।
फिलहाल,एक-दूसरे की गलती गिनना देश की राजनीति का चलन बन गया है,पर देश की स्वतंत्रता, सम्प्रभुता, एकता, अखण्डता को लेकर भूल- चूक अक्षम्य है, फिर भी इन भूलों-चूकों से देश का कोई भी राजनीतिक दल सीख/सबक लेता दिखायी नहीं दे रहा है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा ,मो.न.9411684054

 

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