डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा बलिया की रसड़ा तहसील में अधिवक्ताओं/वकीलों द्वारा एक लम्बे समय से की जा रही हड़ताल के विरुद्ध दायर याचिका पर सुनवायी करते हुए जो तल्ख टिप्पणी की है,वह सर्वथा उचित और सामयिक है। उसका यह कहना पूरी तरह सही है कि अदालतें कोई उद्योग नहीं हैं और न ही ‘बार काउंसिल‘/‘बार एसोसियेशन‘ ट्रेड यूनियन(श्रमिक संगठन) हैं, जो अपनी माँगें मनवाने के लिए उद्योग के स्वामियों से सौदेबाजी करती है। वकीलों की हड़ताल न सिर्फ न्याय देने के समय को बर्बाद करती हैं,अपितु इससे सामाजिक मूल्यों का क्षरण और हानि होती है। विचाराधीन वाद बढ़ते हैं। इससे न्याय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उसका यह कथन भी अधिवक्ताओं को आईना दिखाने वाला है। उसका यह कथन भी पूर्णतः कटु सत्य है कि बिना उचित के कारण वकीलों हड़ताल समाज के हाशिए पर बैठे गरीब वादकारी की जीवन की स्वतंत्रता और जीविकोपार्जन को कठिनाई में डालती है। वादकारियों की मौन चीत्कार सुनकर सभ्य समाज को हल निकालना चाहिए। यह वास्तविकता है कि वादकारी अपने सारे जरूरी काम छोड कर और किराये पर भारी धन व्यय कर न्याय पाने की आशा में अदालत आता है,पर वकीलों की हड़ताल की वजह से वहाँ कार्य न होने पर उसे सिर्फ तारीख मिलती है। ऐसे में निराश होकर उसे अपने घर लौटने को मजबूर होना पड़ता है। इनमें से बहुत से वादकारी अपनी रोजी-रोटी कमाना छोड़ कर, तो कुछ दूसरे मार्ग व्यय और अदालती खर्च के लिए कर्ज लेकर अदालत आते है, किन्तु उसके इस दर्द को अपने क्षुद्र स्वार्थ में लिप्त देश भर की बार एसोसियेशनें बराबर अनदेखी करती आ रही हैं। उनके इस अनुचित रवैये के कारण न्यायालयों में न केवल विचाराधीन वादों की संख्या लगातार बढ़ रही है, बल्कि सालों साल तक मुकदमों का फैसला नहीं आ पाता। इसी कारण वर्तमान में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ही विचाराधीन वादों की संख्या 10 लाख से अधिक हो गई है। वादकारी अधिवक्ता पर विश्वास करके ही अपना वाद लड़ने का दायित्व सौंपता है, लेकिन वही उसे न्याय दिलाने में बाधा उत्पन्न करते हैं, क्या ऐसा करके वे उसके विश्वास का भंग नहीं करते? एक तथ्य यह भी है कि बार एसोसियेशन की आए दिन हड़तालों से न सिर्फ वादकारियों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है,बल्कि कई वकीलों और उनसे सम्बन्धित लोगों की कमाई पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। न्यायालय परिसर में अनेक लोग विभिन्न कार्यों से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। जब अधिवक्ताओं की हड़ताल के कारण न्यायालय में कार्य नहीं होता, तब वे भी खाली हाथ घर लौटते हैं। इस तरह उनकी हड़ताल से बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते हैं।इस सच्चाई से वकील देखते-समझते न हो,ऐसा नहीं है।फिर भी वे बहुत मामूली बातों को लेकर हड़ताल करने पर उतर आते हैं।
क्षोभ का विषय यह है कि शायद ही कभी किसी बार एसोसियेशन के पदाधिकारी ने इस मुद्दे पर अपने सदस्यों के अनुचित रवैये पर विचार करने की हिदायत दी हो? इसकी वजह यह है कि ऐसा करने पर बार एसोसियेशन के उस पदाधिकारी की सियासत खत्म हो जाएगी?
उच्च न्यायालय के इस कथन में कुछ भी अनुचित नहीं है कि न्याय के दरवाजे बन्द होने पर वे कानून के दायरे के बाहर अपराधियों की सहायता लेने लगेंगे? या फिर कानून हाथ लेकर स्वयं अन्याय को दूर करने पर उतर आएँगे। अदालत से न्याय न मिलने की स्थिति में ऐसा होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालय का यह सुझाव भी विचारणीय है कि वकील और अदालत को संविधान प्रदत्त न्याय प्रणाली में भरोसा कायम रखने का उपाय करना चाहिए। अब बर काउंसिल और बार एसोसियेशनों को न्यायालय की इच्छा/अपेक्षा का मन्तव्य समझना होगा। अपने हितों की रक्षा के लिए वकीलों की हड़ताल के बजाए दूसरे ढंग अपनाने लगें,तो उचित होगा। अब प्रश्न यह है कि क्या इलाहाबाद उच्च न्यायालय की इस सही हिदायत पर वकील और उनकी बार एसोसियेशनें विचार कर उसे अमल में लायेंगी?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.न.9411684054
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