लेख साहित्य

भारतीयता के उद्घोषक रचनाकार-मुंशी प्रेमचन्द

31जुलाई जन्मतिथि के अवसर पर विशेष-

अपने लेखन की विशेषताओं के चलते उनके प्रशंसक मुंशी प्रेमचन्द को ‘जन-जीवन का अमर चितेरा’ तो कोई उन्हें ‘कलम का जादूगर तो कुछ लोग उन्हें ‘कलम का सिपाही’ तो बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपध्याय उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’की उपाधि दी,तो कुछ ने उन्हें ‘हिन्दी कहानी का पितामह’कहा। वह अपने समय के हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी तथा उपन्यासकार थे। वह कहानीकार, उपन्यासकार,नाटक, अनुवादक, निबन्धकार, सम्पादक, चिन्तक, विचारक, समाज सुधारक, दार्शनिक,साम्यवादी, गाँधीवाद आदि का विशिष्ठ घालमेल थे। यूँ तो प्रेमचन्द ने साहित्य कई विधाओं यथा-कहानी,उपन्यास, नाटक,निबन्ध आदि का लेखन किया है,पर उन्हें विशेष सफलता और लोकप्रियता कहानी तथा उपन्यास लेखन में ही मिली। प्रेमचन्द की हर रचना अनमोल है,जो अपने काल की यथार्थ का वर्णन आमजन की भाषा-बोली में करती है। उनके लेखन की यही विशेषता उसे आज भी प्रसांगिक बनाए हुए हैं। प्रेमचन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार थे। इस आशय में उन्हें ‘राष्ट्रवादी’ भी कहा जा सकता है। वह मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी ।उनकी सभी रचनाओं में भारत का सबकुछ समाया हुआ,इस माने में उन्हें भारतीयता उद्घोषक रचनाकार कहना सर्वथा उपयुक्त होगा। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें ‘प्रेमाश्रम’ के समय से आकर्षित कर रही थी। प्रेमचन्द ने सन् 1936में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’को सभापति के रूप में सम्बोधित किया था,उनका यही भाषण ‘प्रगतिशील आन्दोलन’का घोषणापत्र का आधार बन गया। निश्चित रूप से प्रेमचन्द हिन्दी प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में न केवल आम आदमी के जीवन संघर्ष, स्त्रियों की समस्याएँ, गाँवों, किसानों, मजदूरों,निम्न जातियों की दशा, शोषण तथा उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार,माध्यम वर्ग की समस्याएँ और उसकी आकांक्षाएँ, मानवीय जीवन के विविध पक्षों, सामन्तों, जमींदार का जीवन और दूसरे लोगों के प्रति उनका नजरिया, स्वतंत्रता आन्दोलन, नौकरशाहों, शासकों के आचार-व्यवहार, ं को सटीक एवं जीवन्त चित्रण किया, बल्कि उसमें तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीति और उनमें बदलावों को लेकर हो रहे गुलामी के विरोधी, जातिभेद, छुआछत,दहेजा प्रथा, विधवा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, लगान,आधुनिकता स्त्री-पुरुष समानता,प्रगतिवादी आदि आन्दोलन ं का भी विशद् उल्लेख है। उनका लेखन कोरी कल्पना की उड़ान न होकर स्वयं भोगे,उससे जनित अनुभूति,दूसरों के भोग-कहा सच्चा है।इसलिए उनके लेखन को यथार्थवादी कहा जाता है।यह उनकी कहानी ‘रियासत के दीवान’के इस संवाद से स्पष्ट है-‘‘बेशक, मेरे लिए मुनासिब तो यही था;लेकिन जीवन में इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब और सहने की शक्ति नहीं रही। यह निश्चय है कि नौकरी करके मैं अपने को बेदाग नहीं रख सकता। धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलों में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खायीं। मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारी के लिए है, जो अवसर और काल देखकर काम करते हैं। सिद्धान्तवादियों के लिए यह अनुकूल स्थान नहीं है।’’इस स्थिति में अब कोई खास बदलाव नहीं आया है। अँग्रेजों के राज में आम हिन्दुस्तान कितना उपेक्षित और पीड़ित था।यह उनकी कहानी ‘ममता का हृदय’के इस कथन से प्रकट होती है- ‘‘ अँग्रेज हजारों चूक करें, कोई नहीं पूछता। हिन्दुस्तानी एक भूल भी कर बैठे, तो सभी अफसर उसके सिर हो जाते हैं। हिन्दुस्तानियों को तो कोई बड़ा पद नहीं मिले,वही अच्छा। पद पाकर तो उनकी आत्मा का भी पतन हो जाता है। उनको अपनी हिन्दुस्तानियत की कमी मिटाने के लिए कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ती हैं, जिनका अँग्रेज का हृदय में कभी ख्याल ही नहीं उत्पन्न हो सकता,तो बोलो,स्वीकार करती हो?’’

ग्रामीण जीवन से जुड़े प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों में नारी पात्रों के प्रति मार्मिकता और संवेदना है। इतना लम्बा अन्तराल गुजर जाने के बाद उनकी अमूल्य रचनाओं में आज भी नवीनता की खुशबू है। विश्व प्रसिद्ध ‘मुंशी प्रेमचन्द का लोकप्रिय साहित्य’ भारतीय समाज की कुरीतियों और विषमताओं को एक सच्चा दर्पण है- जिसका अक्स में गरीब…बेबस….असहाय ओर सामन्त शाही के पैरों तले रौंदे जाते मजदूर इंसानों की आहें फूटती हैं। उन्हीं के दर्द टीस, भावुकता और वेदना की आवाज आज भी कर्ण पटल टकराती हैं-उनके पात्र जन-जीवन के इतने निकट होते हैं कि लगता है मानो समाज का आईना दिखा रहे हैं। मुंशी प्रेमचन्द की लोकप्रिय कहानियाँ साहित्य जगत् में ऐसा नश्तर है, जिसकी चुभन से आपकी अन्तर्रात्मा तक चीत्कार उठेगी। उनका लेखन प्रेमचन्द काल का दस्तावेज है। प्रेमचन्द ने अपनी कहानियाँ और उपन्यासों के माध्यम से एक नयी परम्परा की शुरुआत की थी,जिसे भावी पीढ़ियों के लेखकों, कथाकारों और उपन्यासकारों का पथ प्रदर्शन किया। वैसे तो प्रेमचन्द ने कोई तीन सौ से अधिक कहानियाँ और करीब डेढ़ दर्जन उपन्यास लिख हैं।इनमें ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ आदि उपन्यास तथा ’कफन’,’पूस की रात’, ’पंचपरमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटी’,‘ईदगाह’ ‘बूढ़ी काकी’आदि कहानियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। प्रेमचन्द की रचनाएँ उनके दौर की सभी प्रमुख उर्दू तथा हिन्दी पत्रिकाओं ‘जमाना’, ‘सरस्वती’,‘माधुरी’, ‘मर्यादा’, ‘चाँद’ ,‘सुधा’इत्यादि में प्रकाशित हुई थीं। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र ‘जागरण’ और साहित्यिक पत्रिका ‘ हंस’ का सम्पादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा,जो घाटे में रहा और बन्द करनी पड़ी। प्रेमचन्द हिन्दी फिल्मों की पटकथा लिखने मुम्बई गए और तीन लगभग तीन वर्ष तक रहे। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में सन् 1918से 1936 तक तीस वर्ष के कालखण्ड को ‘प्रेमचन्द युग’कहा जाता है। मुंशी प्रेमचन्द हिन्दी और उर्दू के महानतम थे । प्रेमचन्द का जन्म 31जुलाई, सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नामक एक गाँव में हुआ था। प्रेमचन्द इनका असली नाम नहीं था। इनका वास्तविक नाम ‘धनपतराय’ था। प्रेमचन्द का पहला कहानी संग्रह‘ सोजे वतन’(राष्ट्र का विलाप) सन् 1908में प्रकाशित हुआ था,जो ‘नवाब राय’नाम से प्रकाशित हुआ था। इसी संग्रह की कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ सामान्यतः उनकी पहली कहानी बतायी जाती है।लेकिन उन शोध करने वाला डॉ.कमलकिशोर गोयनका के अनुसार उनकी प्रथम कहानी कानपुर से उर्दू मासिक ‘जमाना’के अप्रैल अंक में प्रकाशित ‘ सांसारिक प्रेम ओर देशप्रेम’ (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) थी।इस संग्रह के सभी प्रतियाँ अँग्रेज सरकार ने जब्त कर ली।तब कलेक्टर ने उन्हें हिदायत दी कि अब नवाबराय के नाम से कुछ भी नहीं लिखेंगे। यदि लिखेंगे,तो जेल भेज दिया जाएगा। तब उनके घनिष्ठ मित्र और उर्दू मासिक पात्रिका ‘जमाना’के सम्पादक दयानारायण निगम उन्हें ‘प्रेमचन्द’के नाम से लिखने का सुझाव दिया।
प्रेमचन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों 8अक्टूबर,1936 निधन तक साहित्य सृजन में जुटे रहे।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार-63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

 

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