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विक्रम संवत का महत्त्व

योगेन्द्र सिंह चौहान

साभार सोशल मीडिया

आदिकाल से ही मनुष्य की काल गणना में रुचि रही है, ताकि समय को काल खण्डों में विभाजित किया जा सके। सौर मण्डल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल ,उनकी निरन्तर परिवर्तित स्थिति पर भी हमारे दिन, महीने, वर्ष एवं उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। इस कारण दिन और रात होते हैं। ऐसे ही पृथ्वी के अपने अक्ष में 23.5डिग्री झुकाव के कारण दिन व रात की अवधि में परिवर्तन होता है। चैत्र प्रतिपदा को दिन और रात्रि की अवधि बराबर रहती है इसलिए इस दिन को ‘विषुव’ कहते है। इसके पश्चात् रात की अपेक्षा दिन लम्बे और रात छोटी होने लगती हैं। दिन और रात्रि के समय में परिवर्तत होना सामान्य प्रक्रिया है। सौर मण्डल का केन्द्र सूर्य में स्थित है। सूर्य आठ ग्रहों के परिवार का मुखिया है। ये ग्रह हैं-बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेपच्यून। हाल के वर्षों में प्लूटो को नौवाँ ग्रह कहा है। ये सभी अपनी गति और स्थिति से जीवों के जीवन को प्रभावित करते हैं।
ग्रहाधीन जगत्सर्व,ग्रहाधीना नरावराः।
सृष्टि-रक्षण सहारा सर्वेचापि ग्रहानुगा।।
सृष्टि सृजन, संरचना, रक्षण भरण-पोषण तथा अभिवृद्धि विनाश के कारण हेतु सूर्यादि समस्त ग्रह, नक्षत्र मण्डल और तारापंुज ही हैं। गुरु बृहस्पति के अनुसार समस्त जगत् ग्रहों के प्रभावाधीन है। चाराचार में व्याप्त प्राणीमात्र ग्रहों से प्राप्त रश्मियों द्वारा फलते-फूलते हैं। सभी के दुष्प्रभाव से भविष्य के गर्त में समा जाते हैं। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है।’ ‘वेदस्य निर्मलं चक्षुज्योतिष शास्त्र कलषम्’ ज्योतिष शास्त्र वेदों के निर्मल नेत्र हैं। ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में भाष्कराचार्य जी ने लिखा है-
लंका नगर्यां बुधास्त च भानोः तस्येव वारे प्रथमंबभूव।
मधोः सितावेः दिन मास वर्षः युगादिकानां युगपत प्रवृत्तिः।।
अर्थातः लंका नगरी में सर्वप्रथम सूर्य उदित हुआ। सर्व प्रथम उसी का वार था। अर्थात् रविवार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन,मास, वर्ष युग का प्रारम्भ हुआ।
वर्तमान में अपने देश में ‘ग्रेगोरियन कैलेण्डर’ से अलग देश में कई संवत् प्रचलित हैं। इनमें विक्रम संवत ,शक संवत, बौद्ध संवत, जैन, तेलुगू संवत, हिजरी संवत प्रमुख हैं।इनमें हिजरी संवत मुसलमान मानते हैं। सभी का का अपना नव वर्ष होता है लेकिन इस सभी में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम एवं शंक संवत हैं। विक्रम संवत की शुरुआत चन्द्रगुप्त द्वितीय यानी चन्द्रगुप्त ने शकों को पराजित करने के उपलक्ष्य में 57ईसा पूर्व में प्रारम्भ किया था। विक्रम संवत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। इसका सम्बन्ध 380-413ईस्वी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से है। समुद्र गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चन्दगुप्त द्वितीय बना, जिसका उपनाम ‘विक्रमादित्य’ था। लेकिन कुछ विद्वानों के अनुसार समुद्रगुप्त का तात्कालिक उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय का बड़ा भाई राम गुप्ता था। विशाखदत्त के नाटक ‘देवीचन्द्रगुप्तम्’ के अनुसार शक प्रमुख बासन द्वारा आक्रमण किये जाने पर रामगुप्त अपनी पत्नी रानी ध्रुवदेवी को शक राजा को सौंपने को तैयार हो गया। रानी की लाज रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त ने बचायी। उसने शक राजा एवं रामगुप्त की हत्या कर गद्दी पर अधिकार कर लिया तथा राम गुप्त की विधवा से विवाह किया। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल को गुुप्त साम्राज्य का ‘स्वर्णयुग’ कहा जाता है, क्यों कि उनके काल में ही साहित्यिक पुनर्जीवन हुआ।इनके समय के विद्वान -कालिदास और अन्य कई कवि अत्यन्त विद्वान थे। उसी समय हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार हुआ।
कनिष्क प्रथम शताब्दी का शासक था तथा 78 ईस्वी में उसने ‘शक संवत’ का प्रारम्भ किया थ। कनिष्क कला और ज्ञान का महान संरक्षक था। कनिष्क के काल में गांधार शैली की सर्वोत्तम कलाओं का निर्माण हुआ। कनिष्क दरबार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष, पार्श्व तथा वसुमित्र थे। आयुर्वेद का प्रसिद्ध विद्वान चरक उसका दरबारी वैद्य था तथा मातर, प्रतिभाशाली राजनीतिज्ञ उसका मंत्री था।
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्म ससर्ज प्रथम अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रेतु सदा सूर्याेदय सति। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र मास के प्रथम सूर्याेदय पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की। वर्तमान में भले ही दुनिया के अनेक देशों समेत भारत में नव वर्ष के रूप में ग्रेेगोरियन कलैण्डर का एक जनवरी अधिक चर्चित है, किन्तु इससे कहीं पूर्व से अपने देश में हिन्दू विक्रम संवत को महत्त्व देते आए हैं। हिन्दुओं में धार्मिक अनुष्ठान तथा मांगलिक कार्यों में तिथि और काल गणना का आधार बना हुआ है। भारतीय पंचांग तथा काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है। विशेषता-विक्रम संवत का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न होकर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धान्त एवं ब्रह्माण्ड के ग्रहों और नक्षत्रों से हैं। भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना तथा राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। वेदों में भी इसका वर्णन है। विक्रम संवत के वैज्ञानिक आधार के कारण ही आज भी हम किसी भी शुभ लग्न चाहे वह बच्चे के जन्म की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार करने की बात हो,सभी में हम पण्डित के पास जाकर शुभ मुहूर्त पूछते हैं। प्राकृतिक महत्त्व ़ऋतु का आरम्भ वर्ष प्रतिपदा से होता है जो उल्लास, उमंग खुशी तथा चहुंओर पुष्पों की सुगन्ध से भरी होती है। फसल पकने का प्रारम्भ यही होता है। यानी किसी भी कार्य का प्रारम्भ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है। राष्ट्रीय कलैण्डर -पंचांग सुधार समिति ने सन ्1955में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की संस्तुति की, किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेेगोरियन कैलेण्डर को उपयुक्त मानते हुए 22मार्च, सन्1957को राष्ट्रीय कैलेण्डर माना गया। विक्रम संवत के चैत्र प्रतिपदा का अपने देश में बहुत महत्त्व है इस पर्व को अपने देश के अलग-अलग प्रदेशों में विभिन्न नामों से मनाया जाता है जैसे उत्तर भारत में ‘चैत्र प्रतिपदा’-शक्ति की देवी माँ दुर्गा की आराधना वाले नक्षत्र नवरात्र का पहला दिन, जम्मू-कश्मीर में ‘नवरेह’, महाराष्ट्र के लोग इसे ‘गुड़ी पड़वा’ के नाम से, आन्ध्र प्रदेश में इसे उगादी (युग प्रारम्भ) नाम से दीपावली की तरह मनाते हैं, वहीं सिन्धु प्रान्त में नव संवत को चेती चाँद (चैत्र का चाँद) नाम से पुकारा जाता है। इस प्रकार विक्रम संवत ही सही अर्थों में नव वर्ष प्रतीत होता है। सम्पर्क-11गाँधी नगर, आगरा-282003

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