डॉ.बचन सिंह सिकरवार
विश्व में शायद ही ऐसा कोई देश होगा, जो अपने देश के विभाजन और उसके कारण कई लाख लोगों के विस्थापन, मजहबी हिंसा में कोई बीस लाख लोगां की मौतों और बड़ी संख्या में स्त्रियों के साथ बलात्कारों के लिए जिम्मेदार/गुनाहगार व्यक्ति/शख्स के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व को विधिवत पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर अपने विद्यार्थियों को पढ़वाए, लेकिन अपना भारत ऐसा ही अजूबा देश है। यहाँ देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद अब दिल्ली विश्वविद्यालय को अपनी इतनी बड़ी भूल को सुधारने की याद आयी, जिसके राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में पाकिस्तान के कौमी शायर/राष्ट्र कवि अल्लामा मोहम्मद इकबाल से सम्बन्धित एक अध्याय था। इकबाल ‘मुस्लिम लीग’ को संस्थापक सदस्यों में से एक और सर सैय्यद अहमद खान के ‘द्विराष्ट्र के सिद्धान्त’ के हिमायती के रूप में मुसलमानों के पृथक मुल्क के रूप में भारत के बँटवारे और पाकिस्तान के गठन का विचार का प्रसारक-प्रचारक थे। उनके प्रयासों से 14 अगस्त, 1947को द्विराष्ट्र की अवधारणा को मोहम्मद अली जिन्ना ने मूर्त रूप देकर पाकिस्तान की स्थापना की थी। अफसोस की बात है मुल्क के बँटवारे के दोनों गुनाहगारों के पूर्वज हिन्दू थे। इनमें इकबाल के पिता रतन लाल सप्रू कश्मीरी ब्राह्मण थे, जिन्होंने इस्लाम कुबूल कर मुस्लिम महिला इमाम बीबी से निकाह किया और अपना नाम नूर मोहम्मद रख लिया। इसी तरह मोहम्मद अली जिन्ना भी गुजरात के कठियावाड़ के मतान्तरित दम्पती जेनाभाई पूंजा/ठक्कर और मीठीबाई की सन्तान था।
गत 26 मई को दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद् ने पाकिस्तान के कौमी शायर/राष्ट्र कवि अल्लामा मोहम्मद इकबाल से सम्बन्धित एक अध्याय को राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटाने का एक प्रस्ताव पारित कर किया गया,जिसकी अब कार्यकारी परिषद् ने भी पुष्टि कर दी है। मोहम्मद इकबाल को बी.ए. में राजनीति विज्ञान के अध्याय ‘मॉर्डन इण्डियन पॉलिटिकल थॉट’ में पढ़ाया जाता था। यह अध्याय बी.ए.के छठवें सेमेस्टर के पाठ्यक्रम का हिस्सा था,इसमें अन्य विचारकों में राजा राममोहन रॉय, पण्डिता रमाबाई, विवेकानन्द,महात्मा गाँधी,डॉ.भीमराव आम्बेडकर आदि हैं। अब इनके स्थान पर वीर विनायक दामोदार सावरकर को सम्मिलित किया जा रहा है,जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के दण्डस्वरूप ब्रिटिश सरकार द्वारा दो आजन्म कारावास की सजा मिली और डेढ़ दशक अण्डमान की जेल में बैल की कोल्हू चला कर काला पानी की सजा भोगी । अब जहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद् के इस साहसिक और विवेक सम्मत निर्णय की राष्ट्रवादियों तथा ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्‘(एबीवीपी) द्वारा स्वागत किया है, वहीं कथित पंथ निरपेक्ष राजनीतिक दल तथा मुसलमान विरोध व्यक्त कर रहे हैं। अब ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक/लाजिमी हैं कि आखिर मुल्क के बँटवारे के इस गुनाहगार को इतने लम्बे समय तक क्यों और कैसे भूले बैठे रहे? इतने बड़े गुनाह के लिए कौन जिम्मेदार है?
वस्तुतः अल्लामा मोहम्मद इकबाल के महिमामण्डन पीछे कुछ थोक वोट बैंक के लोभी काँग्रेसी और वामपंथी दल रहे हैं, जो उन्हें महान् विद्वान् यानी ‘अल्लामा’ तथा उनके ‘तराना-ए-हिन्द’ ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। हिन्दी हैं हम वतन है,हिन्दुस्तां हमारा’ की आड़ में उन्हें हिन्दुस्तान प्रेमी शख्स दिखाने की बेजां कोशिश करते आए हैं। इकबाल द्वारा लिखित ‘तराना-ए-हिन्द’ 16 अगस्त,1904 को ‘इत्तेहाद’नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। अपनी इस कविता को इकबाल ने लाहौर के गवर्नमेण्ट कॉलेज में छात्रों को सुनायी। इसी तरह उनका गीत ‘लब पर दुआ बनके तमन्ना मेरी …. भी बहुत मशहूर हुआ, लेकिन कुछ सालों में ही उनके सोच/विचार पूरी तरह बदल गए। सन् 1910 में इकबाल ने ‘तराना-ए-मिल्ली’ लिखी, जिसमें ‘चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा। मुस्लिम हैं हम वतन हैं सारा जहाँ हमारा’।। तौहीद की अमानत सीनों में हैं हमारे। आसां नहीं मिटाना नाम-ओ-निशां हमारा।। दुनिया के बुत -कदों में पहला वो घर खुदा का। हम इस के पासवां है वो पासवां हमारा।। दूसरे शब्दों में कहें तो जो इकबाल सन् 1904 में हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए पूरी दुनिया से अच्छा हिन्दुस्तान बता रहे थे, वही इकबाल सन् 1910में चीन-ओ-अरब और यहाँ तक पूरी दुनिया को मुसलमानों का बताने लगे। इसमें अल्लाह के सिवाय किसी दूसरे ईश्वर के अस्तित्त्व पर ही वह प्रश्न उठाने लगे।
यद्यपि ‘द्विराष्ट्र के सिद्धान्त का विचार सैय्यद अहमद खान ने 1876 में दिया था। उनका कहना था,‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि हिन्दू और मुसलमान मिलकर कभी भी एक मुल्क बना ही नहीं सकते, क्योंकि उनके मजहब/धर्म और जिन्दगी बसर करने का तरीका एक-दूसरे से बिल्कुल जुदा है, तथापि इकबाल ने मुस्लिम लीग के अधिवेशन में भारत के बँटवारे की नींव रखी थी।
लेकिन ये लोग उनके असल चेहरे और उनके कट्टर इस्लामी जेहदी सोच की बराबर पर्देदारी करते आए । मोहम्मद इकबाल का विचार था,‘‘ हिन्दू बहुल देश में मुसलमान हमेशा दोयम दर्जे के नागरिक/शहरी बन कर रह जाएँगे। ईसाइयत की तरह इस्लाम में कानून और मजहब/धर्म अलग-अलग नहीं हो सकते। इसलिए इस्लामिक मजहबी कानून ‘शरिया’ के पालन के लिए अलग मुस्लिम राज्य का होना बेहद जरूरी है।’’
सन् 1919में मोहम्मद इकबाल ने वकालत छोड़ दी और ‘अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम’ के महासचिव बने। सन् 1922 में ब्रिटिश सरकार ने इकबाल को ‘नाइटहुड’ की उपाधि प्रदान की,जो उन्होंने खुशी-खुशी मंजूर की। सन् 1927 में वह पंजाब विधानसभा के सदस्य चुने गए। सन् 1928-29 में इकबाल ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय,मद्रास विश्वविद्यालय में छह भाषण दिये। इन्हीं भाषणों को संकलित कर ‘द रिकस्ट्रक्शन ऑफ रिलीजियस थॉट इन इस्लाम’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की गई । हालाँकि इकबाल खुद लेखक और शायर थे, पर सन् 1923में लाहौर में ‘रंगील रसूल’शीर्षक से इस पुस्तक को छापने वाले प्रताप प्रकाशन के मालिक महाशय राजपाल की हत्या एक इस्लामिक कट्टरपंथी इल्मउद्दीन द्वारा कर दी गई, तब इकबाल पूरी बेशर्मी से अपने हममजहबी हत्यारे की कानूनी पैरवी की। यहाँ तक कि उसके मुकदमे की बहस के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को बम्बई से बुलाया। इसके बाद अदालत द्वारा जब इल्मउद्दीन को फाँसी दी गई,तब भी इकबाल उसके जनाजे में शामिल होकर कब्रिस्तान तक गए। इससे बढ़कर उनका कट्टरपंथी होने को और क्या सुबूत होगा?
29दिसम्बर, 1930को इलाहाबाद में ‘ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग’ के पच्चीसवाँ अधिवेशन में इकबाल को अध्यक्ष चुना गया। उसके अध्यक्षीय भाषण में इकबाल ने कहा,‘मैं पंजाब, उत्तर-पश्चिम ,सीमा प्रान्त (नॉर्थ-वेस्ट फ्राण्टियर प्रोविन्स), सिन्ध और बलूचिस्तान को एक संयुक्त राज्य के रूप में देखना चाहता हूँ। वह चाहे ब्रिटिश राज का हिस्सा रहे या उसके बिना। मुझे एकीकृत उत्तर-पश्चिम मुस्लिम राज्य का गठन कर उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों की नियति प्रतीत होती है। इकबाल ने कहा कि यह प्रस्ताव नेहरू कमेटी के सामने रखा गया था,किन्तु उन्होंने इस आधार पर खारिज दिया कि अगर इस प्रस्ताव को लागू किया जाता है,तो यह एक बिल्कुल ही एक जटिल राज्य होगा। हालाँकि सन् 1905में ‘मुस्लिम लीग’ मुसलमानों को उनके हर तरह के हक दिलाने का हुई थी। पर सन् 1930में इसके नेताओं के आपसी झगड़ों से मायसू होकर मोहम्मद अली जिन्ना लन्दन चले गए। तब इकबाल ही ऐसे शख्स थे, जो सोचते थे कि हिन्दुस्तान में जिन्ना में ही मुसलमानों को रहनुमाई करने की कुब्बत/क्षमता है। वह उन्हें हिन्दुस्तान बराबर कोशिश करते रहे। आखिर इकबाल के कहने पर जून, 1937में जिन्ना हिन्दुस्तान लौट आए। इसके लिए इकबाल ने उन्हें एक खत लिखा था।इसमें उन्होंने लिखा,‘‘ मुसलमानों पर गैर मुसलमानों के वर्चस्व को कम करने के लिए मुस्लिम प्रान्तों का एक अलग संघ ही एकमात्र तरीका है। हिन्दुस्तान और दुनिया के दूसरे मुल्कों को खुद के लिए फैसला लेने का हक है, तो उत्तर-पश्चिम हिन्दुस्तान और बंगाल के मुसलमानों को यह हक क्यों नहीं होना चाहिए?
मोहम्मद इकबाल का कहना था दुनिया कहीं भी रह रहे सभी मुसलमानों को एक ही राष्ट्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी,जिसके नेता मोहम्मद हैं,जो मुसलमानों के पैगम्बर हैं इस्लाम राष्ट्रवाद की हिमायत/पैरवी नहीं करता।
इकबाल जिन्दगी के आखिरी दिनों तक दुनियाभर में घूम-घूम कर मुस्लिम लीग के समर्थन जुटाते रहे। जब भी हिन्दुस्तान की आजादी की बात होती,तो इकबाल यह कहकर खारिज कर देते कि जब तक मुसलमानों के लिए अल्हदा राज्य का फैसला नहीं लिया जाता,तब तक आजादी की बात बेमानी है।
अब आप ही तय करें, ऐसे कथित महान् शायर,लेखक,दार्शनिक,राजनीतिज्ञ,विधिवेता होने के अपने देश के लिए क्या माने हैं? इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर योगेश्वर सिंह का यह विचार प्रासंगिक है जिन इकबाल ने मुस्लिम लीग की स्थापना और पाकिस्तान के लिए आन्दोलन के समर्थन में कविताएँ लिखी थीं। भारत विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार इकबाल ने आगे बढ़ाया। हमें ऐेसे व्यक्तियों को पढ़ाने के बजाय अपने राष्ट्रनायकों के बारे में जानना चाहिए। क्या आपको भी इसमें कोई खोट नजर आया हो,तो बतायें?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर, आगरा- 282003 मो. नम्बर- 9411684054
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