देश-दुनिया

क्या कामयाब हो पाएगा तालिबान से समझौता ?

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

साभार सोशल मीडिया

अन्ततः अमेरिका द्वारा बर्बर दुर्दान्त कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन ‘ तालिबान’ से अफगानिस्तान में उसकी सत्ता में भागीदारी और अमन की बहाली के लिए शान्ति समझौता जरूर हो गया है, लेकिन इसकी कामयाबी लेकर कोई भी पक्ष आश्वस्त नहीं हैं। सम्भवतः इसीलिए अमेरिका ने तालिबान को स्पष्ट कर दिया है कि अफगानिस्तान से उसके और उसके सहयोगी देशों के सैनिकों की वापसी की गति इस पर निर्भर करेगी कि तालिबान इस समझौते को कितनी गम्भीरता से लागू करता है। अमेरिका अपनी हिसाब से उसका आकलन करेगा। इसकी सभी शर्तों को यथावत न मानने की शुरुआत भी समझौते के एक दिन बाद ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कर दी। उनका कहना है कि 10 मार्च को नार्वे की राजधानी ओस्लो में विभिन्न अफगान गुटों के साथ होने जारी वार्ता से पहले 5 हजार तालिबानी कैदियों को रिहा नहीं किया जाएगा। उनका कहना है कि अमेरिका इस तरह का वादा नहीं कर सकता। तालिबानी कैदियों को रिहा करने का फैसला हमें करना है और हम बातचीत से पहले शुरू होने से कैदियों को रिहा करने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल, उक्त समझौते के तहत एक हजार अफगानी सुरक्षा बलों के कैदियों के बदले में अफगानिस्तान सरकार को 5 हजार तालिबान कैदियों को रिहा करना है। राष्ट्रपति अशरफ ने विभिन्न अफगान गुटों से बातचीत से पहले तालिबानी कैदियों की रिहा इन्कार उसकी अब तक के रवैये को देखते हुए ही कहा है,वह न सिर्फ क्रूर इस्लामिक दहशतगर्द संगठन है, बल्कि उसके नेताओं के अपने कहे से मुकरने और धोखा देना उनकी फितरत रही है। तभी तो इस समझौते की नाकाम होने की आशंका का सबसे बड़ा कारण तालिबान समेत दूसरे पक्षकारों की वादा खिलाफी की पुरानी फितरत होना है। यहाँ तक कि तालिबान कई बार ऐन समझौते से पहले हिंसा फैलाने से बाज नहीं आया है।इस समझौते का पहला सोपन ओस्लो में विभिन्न अफगान गुटों तथा तालिबान के बीच सरकार बनाने पर सहमति बनना है। जैसी आशंका की थी वैसा ही हुआ। अब 2मार्च को अफगानिस्तान सरकार के तालिबानी कैदियों के रिहाई से इन्कार के बाद तालिबान ने भी कहा दिया कि तालिबानी कैदियों के रिहाई बगैर भी वह अफगानिस्तान सरकार से बातचीत नहीं करेगा। अफगानिस्तान पर निगाह रखे भारत ने भी कहा है कि 17-18 वर्षों में किये गए विकास पर आसानी से पानी नहीं फिरने देगा।

साभार सोशल मीडिया

अब समझौते को लेकर अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार, वहाँ के लोग विशेष रूप से स्त्रियाँ ही नहीं, पड़ोसी मुल्क भारत भी यहाँ चल रहीं अरब डॉलर के 500 से अधिक परियोजनाओं के साथ-साथ ईरान से अफगानिस्तान की सड़क और रेल मार्ग से जोड़कर उनके माध्यम से पश्चिम एशियाई देशों में पहुँचने की भारत की योजना में बाधा उपस्थित होने की आशंका के साथ-साथ कश्मीर और देश के दूसरे प्रदेशों में सुरक्षा के लिए भारी खतरा पैदा होने को लेकर बहुत परेशान है,क्यों कि तालिबान उसके दुश्मन मुल्क पाकिस्तान फौज और उसकी खुफिया एजेन्सी ‘आइ.एस.आइ.’का मददगार रहा है और अब भी है। उसने ही भारत के यात्री विमान का अपहरण कराके आतंकवादी मसूद अजहर को रिहा कराने में अहम भूमिका निभायी थी। कालान्तर में उसी अजहर ने भारतीय संसद भवन और कश्मीर में फिदायनी हमला कराया था। तालिबान भारत की ओर से कराये जा रहे विकास कार्यों पर भी कई बार हमला कर चुका है। अफगानिस्तान के लोग जहाँ उसे अपने मुल्क में खूनखराबे और उसकी तबाही की असल वजह मानते हैं, वहाँ यहाँ की खवातीन(महिलाएँ) उसके द्वारा लगाये जाने वाले शरई कानून से खौफजदां है,जो उसकी हुकूमत में भुगत भी चुकी हैं। उसने उनकी हर तरह की आजादी पर पाबन्दी लगा दी थी।अब भी तालिबान ने अपनी विचारधारा को छोड़ने का इरादा नहीं जताया है। फिर तालिबान ने कभी भी काबुल के नेताओं को अहमियत नहीं दी,ऐसे में उनसे मिलकर सरकार चलाना कितना आसान होगा, इसे समझना मुश्किल नहीं है। तालिबान के गैर भरोसेमन्द होने की वजह से इस समझौते के वक्त दोहा में दुनिया के 50देशों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित कर गवाह बनाया,ताकि उससे हमदर्दी रखने वाले मुल्कों के जरिए जरूरत पड़ने पर उस पर दबाव बनाया जा सके।
इस समझौते से एक ओर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प खुश हैं, क्योंकि वह अपने यहाँ कुछ ही माह में होने जा रहे राष्ट्रपति के चुनाव से पहले पिछले चुनाव में गृहयुद्ध ग्रस्त अफगानिस्तान में पिछले 18 साल से भी अधिक समय से फँसे अमेरिकी सैनिकों की वापसी का वादा पूरा करने में कामयाब हो गए हैं,जिनके परिजन उनकी जल्द वापसी चाहते हैं। यह अलग बात है कि

साभार सोशल मीडिया

अभी उनके सैनिकों की वापसी का सिलसिला शुरू होने में कुछ वक्त लग सकता है, वहीं दूसरी ओर तालिबान और पाकिस्तान अपनी-अपनी वजहों से अपने लिए फायदेमन्द मान/समझ रहे हैं। इस समझौते को लेकर पाकिस्तान बेहद उत्साहित रहा है। इस समझौते में पाकिस्तान प्रमुख पक्ष है। इसीलिए समझौते से दो दिन पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कतर का दौरा किया, तभी तो पाकिस्तान इस समझौते का श्रेय लेने में पीछे नहीं रहा। यही कारण है कि पाकिस्तान के सूचना एवं प्रसारण मामलों की विशेष सहायक फिरदौस आशिक अवान ने कहा कि यह समझौता पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बनाए रोडमैप पर हो रहा है। तालिबान लगातार अमेरिका और सहयोगी देशों की फौज से जूझते अपनी बहुत सारी ताकत गवां चुका है उसकी मालीहालत भी खस्ता हो चली है। वह अफगानिस्तान की सत्ता में भागीदार बनकर अपनी ताकत और माली हालात में इजाफा करने को कुछ वक्त चाहता है, जो इस समझौते से उसे मिलने जा रहा है। इसी तरह पाकिस्तान भी तालिबान की पीठ पर सवार होकर अफगानिस्तान में भारत द्वारा चलायी परियोजनाओं को बन्द कराके उसे आर्थिक क्षति पहुँचाने के साथ-साथ तालिबान की मदद से कश्मीर में दहशतगर्दी में बढ़ोत्तरी करा सकता है। कतर की राजधानी दोहा में सम्पन्न हुए इस समझौते की शर्ते इस प्रकार हैं-1.अमेरिका अगले 14महीने में अफगानिस्तान से अपने और सहयोगी देशों के सभी 1300हजार सैनिकों को निकाल लेगा। 2.पहले चरण में अगले चार महीने में अफगानिस्तान में अमेरिका और सहयोगी देशों की संख्या घटाकर 8600पर लायी जाएगी।3.तालिबान आतंकवादी संगठन ‘अल कायदा’ के साथ अपने सभी रिश्ते तोड़ेगा और हिंसक गतिविधियों में भी शामिल नहीं होगा।4.10मार्च तक अफगानिस्तान 5हजार तालिबानी कैदियों और तालिबान एक हजार कैदियों को छोड़ेगा। इसके बाद कैदियों को छोड़ने का काम वार्ता पर निर्भर करेगा।5.अमेरिका इस साल मई तक तालिबान के सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रतिबन्धों से मुक्त कराएगा। भारत
अब जहाँ तक इस समझौते से भारत के हितों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का प्रश्न है तो देखते हुए इसके लिए अपेक्षित सजगता-सर्तकता सावधानी बरती जाना जरूरी और स्वाभाविक भी है। इसीलिए भारत के विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रंृखला 28फरवरी काबुल पहुँच गए, जहाँ उन्होंने राष्ट्रपति अशरफ गनी, सीईओ अब्दुल्ला अब्दुल्ला, निर्वाचित उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह,राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मोहिब और कार्यवाहक विदेशमंत्री हारून चखनसूरी से भेेंट की। साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पत्र भी राष्ट्रपति गनी को सौंपा। उसमें भारत ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि किसी भी शान्ति समझौते में अफगानी जनता और उसके द्वारा चुनी हुई सरकार की पूरी भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए और सत्ता की चाबी भी निर्वाचित सरकार के पास रहनी चाहिए। भारत का अफगान नेताओं को चेताना जरूरी है,क्योंकि तालिबान जिस विचारधारा को मानता है,उसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था की कोई जगह नहीं है। हर्षवर्द्धन श्रंृगला ने अफगानिस्तान के शीर्ष नेताओं से भारत के सहयोग से वहाँ चलने से परियोजनाओं के भविष्य पर भी विचार विनिमय किया गया। भारत विगत डेढ़ दशक में कई बड़ी परियोजनाएँ-संसद भवन का निर्माण, विद्युत निर्माण, सिंचाई हेतु बाँध आदि के साथ-साथ छोटी-छोटी परियोजनाएँ- स्कूलों, पुलों, अस्पतालों इत्यादि का निर्माण किया गया है। इसके सिवाय सॉफ्ट डिप्लोमेसी के अन्तर्गत अफगानिस्तान में खेल और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बहुत सहायता दी है। उसी दौरान भारतीय विदेश सचिव ने बामयान से मजार-ए-शरीफ के मध्य भारत की सहायता से सड़क निर्माण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसके लिए दूसरी रणनीतिक समझौते पर भी बात हुई। यह सब कर भारत ने अफगानिस्तान के नेताओं को यह जताने की कोशिश की है,वह उसके अन्दरूनी मामलों में दखल नहीं देना चाहता,पर उसे कोई भी नया कदम उठाने से वाले उसके सभी पहलुओं को अच्छी तरह जाँच -परख ले। अब देखना यह है कि अमेरिका द्वारा तालिबान से किया शान्ति समझौता अफगानिस्तान में कितना कामयाब हो पाएगा?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

Live News

Advertisments

Advertisements

Advertisments

Our Visitors

0106389
This Month : 1710
This Year : 43682

Follow Me