डॉ.बचन सिंह सिकरवार

गत दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019(सीएए)के खिलाफ लखनऊ में प्रदर्शन करने वालों के फोटोयुक्त बैनर-पोस्टर सार्वजनिक स्थलों पर लगाये जाने पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अवकाश के दिन सुनवायी कर निजता और जीवन की स्वतंत्रता के मूल अधिकारों पर अनावश्यक हस्तक्षेप मानते हुए उत्तर प्रदेश सरकार से उन्हें तत्काल हटाने का, जो आदेश दिया है, वह विधिक रूप से सही जरूर है और उस पर टिप्पणी करने के माने न्यायालय की अवमानना या अविश्वास किया जताना/बताना समझा जाएगा। लेकिन जिस तरह इस मामले में उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए तत्परता दिखायी है उस पर हैरानी जरूर होती है। आखिर उ.प्र.सरकार ने दंगाइयों के चौराहों पर पोस्टर लगाकर ऐसा क्या भारी जुल्म/अपराध कर दिया, जिसने उच्च न्यायालय को इतना व्यथित कर दिया, कि उसे स्वतः संज्ञान लेकर रविवार के अवकाश में सुनवायी करने को विवश होना पड़ा दिय। क्या इस देश और उ.प्र. में शासन-प्रशासन और पुलिस द्वारा जनसाधारण के साथ कोई जुल्म/ अन्याय नहीं किया गया है?अगर किया गया, तब उस पर उच्च न्यायालय ने कभी ऐसी तत्परता क्यों नहीं दिखायी? इसी न्यायालय में न जाने कितने श्रमिकों के निर्वहन भत्ते या अवैध तरीके से नौकरी से निकाले जाने या फिर तलाक या गुजारा भत्ता, निर्मम हत्या, बलात्कार आदि के मामलों वर्षो ही नहीं, दशकों तक निपटारा नहीं हो पाता, पर उन मामलों में ऐसी तत्परता शायद ही उसके द्वारा कभी दिखायी गई हो। श्रीरामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवाद के हल में कई साल लगाए,जिससे करोड़ों हिन्दुओं की भावनाएँ हो रही थीं। क्या निजता और जीवन की स्वतंत्रता के अधिकार केवल दंगाइयों/प्रदर्शनकारियों के ही होते हैं। उनसे बदसलूकी झेलने, पीटने,मार खाने,अपनी सम्पत्ति को बर्बाद कराने वालों के कोई अधिकार नहीं होते? आखिर न्यायालयों को सिर्फ अपराधियों, दंगाइयों,देशद्रोहियों, हत्यारों, आतंकवादियों के ही मानवाधिकार, निजता,जीवन के अधिकार ही ज्यादा क्यों नजर आते हैं ?उनके लिए सर्वोच्च न्यायालय को आधी रात को सुनवायी करते देखा गया है?
अब जहाँ तक लखनऊ में सीएए की मुखालफत में हुए प्रदर्शन के दौरान हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ को लेकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने दंगाइयों के पोस्टर चौराहों पर लगाये जाने का प्रश्न है, तो उसने वही कदम उठाये हैं, जो देशकाल, विषम परिस्थितियाँ को देखते हुए उनसे निपटने के लिए जरूरी होते हैं, भले ही उसमें कुछ विधिक बाधाएँ भी हों। लेकिन ऐसे में कुछ विशेष उपाय करने जरूरी होते है,ं ताकि अचानक आयी समस्या को हल किया जा सके। अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दंगाइयों के चौराहों पर लगे पोस्टरों को हटाये जाने के आदेश पर उ.प्र.सरकार ने उस आदेश पर अमल करने के बजाय उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिये जाने का जो निर्णय लिया है वह सर्वथा उचित, सामयिक और सही दिखायी दे रहा है, क्योंकि साम्प्रदायिक दंगे से निपटने में उसका यह कदम सार्थक सिद्ध हुआ है। फिर कार्यपालिका को ही शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने और लोगों के जान माल की रक्षा करने का अति महत्त्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन करना होता है,उसे इसके निर्वहन में अपने विवेकाधिकार से जनहित में कार्य करने की कुछ छूट होनी चाहिए,जैसी कि न्यायालय को भी प्राप्त है। वह भी तो सच्चाई जानते हुए साक्ष्य के अभाव अपराधी को मुक्त करने का अधिकार रखता है। ऐसे में फिर सरकार को साक्ष्यों के रहते हुए किसी अपराधी को सजा देने के लिए कानून की जरूरत क्यों होनी चाहिए?

लखनऊ में सीएए के विरोध में गत 19 दिसम्बर को हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों द्वारा कैसरगंज, ठाकुरगंज, हजरतगंज, हसनगंज में पत्थरबाजी करते हुए उग्र, हिंसक प्रदर्शन कर आगजनी और जमकर तोड़फोड़ की गई, जिसमें करोड़ रुपए की सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति नष्ट की। इनमें परिवहन निगम की बसे, निजी कारों, दुपहिया वाहनो, पुलिस चौकी को फूँक दिया। इस पर पुलिस -प्रशासन द्वारा 150 लोगों को क्षेत्रवार चिन्हित किया। फिर उन्हें क्षेत्रवार नोटिस भेजे। इसके बाद सीसीटीवी फुटेजों से मिले साक्ष्यों के आधार पर 57 आरोपितों के खिलाफ आगजनी तथा अशान्ति फैलाने के आरोप तय किये और उनसे दंगे हुए लगभग 150करोड़ रुपए के नुकसान की क्षतिपूर्ति हेतु लगभग 150करोड़ रुपए वसूली के लिए नोटिस जारी किये गए। नोटिस जारी होने के बाद उपस्थित न होने पर इन आरोपितों के क्षेत्रवार पोस्टर क्षेत्रवार लगाए गए। इसमें उन्होंने क्या गलती कर दी? अगर इस बारे में कोई कानून नहीं है,तो क्या दंगाइयों को यों ही छोड़ दिया जाए। वैसे सर्वोच्च न्यायालय भी अपने एक मामले में दंगे में नष्ट हुई सम्पत्ति की भरपाई के लिए दंगाइयों से वसूली का निर्णय दे चुका है। उसी के अनुपालन में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने दंगाइयों के पोस्टर लगवाये । ऐसा किये जाने के पीछे मुख्यमंत्री योगी का इरादा दंगाइयों को भविष्य में दंगा न करने की सीख देना भी था। इसका असर भी सामने आया है। हाल में दिल्ली के दंगे के दौरान उससे लगे उ.प्र. के गाजियाबाद, मेरठ, नोएडा, ग्रेटर नोएडा शान्त बने रहे।
उ.प्र. सरकार के इस सकारात्मक कदम की अल्पसंख्यक वोट बैंक तथा जातिवादी राजनीति करने वाली सपा,बसपा,काँग्रेस ने जमकर आलोचना की,उस पर प्रदेश के लोगों को कोई हैरानी नहीं हुई, क्योंकि वह सपा, बसपा तथा काँग्रेस की नीति, नियत से अच्छी तरह वाकिफ है जिनके लिए देशहित से बढ़कर सत्ता पाना है। इसके लिए ये दल पंथनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम और कुछ जातियों का तुष्टीकरण करते आए हैं। अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय का पोस्टर लगाए जाने के खिलाफ फैसला आया,तो उनकी प्रसन्नता क कोई ठिकाना नहीं रहा। सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने निर्णय का स्वागत करते हुए अब जहाँ भाजपा पर वोट तथा कुर्सी खातिर देश का बँटाधार करने का आरोप लगाया, तो उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भाजपा के मुद्दों को तोड़ने वाला और सपा के मुद्दों को देश को जोड़ने वाला बताया।अब आप ही तय कर इनमें से किसके मुद्दों से देश टूट रहा है और किनके से देश जुड़ रहा है? बसपा की अध्यक्ष मायावती ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ दंगे के आरोपियों के पोस्टर लगाये जाने पर स्वतः संज्ञान लेकर उन्हें हटाये जाने के फैसला स्वागत किया है। इसके साथ काँग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने उच्च न्यायालय का आभार जताते हुए योगी सरकार को अंहकारी बताया है जो अपने स्तर से लखनऊ के कुछ लोगों को अपराधी और दंगाई बताकर सार्वजनिक सम्पत्ति नष्ट करने का दोषी मान लिया था और उन लोगों से वसूली के लिए उनके फोटो और पता युक्त होर्डिंग्स लगायी गई थीं। प्रदेश सरकार का यह कदम पूरी तरह असंवैधानिक, मनमाना और तानाशाही पूर्ण था। ऐसे में काँग्रेस से प्रश्न यह है कि क्या सीएए सचमुच मुसलमानों के खिलाफ है जिसे लेकर उनका प्रदर्शन करते हुए पत्थरबाजी, आगजनी, तोड़फोड़ करना संवैधानिक और इन्सानियत से भरा था? हकीकत क्या है इसे प्रदर्शन से पीड़ित और देश के लोग भलीभाँति जानते हैं।लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम लोगों और विपक्ष को सरकारी आदेश,कानून के विरोध में शान्तिपूर्ण ढंग से अपना विरोध जताने को धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल, आन्दोलन आदि करने का संवैधानिक अधिकार है,पर इनकी आड़ में समाज विरोधी, हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ करना नहीं है। अगर ऐसा करते हैं तो उनके ये कृत्य अपराध की श्रेणी के समझे जाएँगे।ऐसे में उनके साथ अपराधियों सरीखा बर्ताव करना क्यों गलत है? जो सपा,बसपा, काँग्रेस आदि राजनीतिक दल उ.प्र.सरकार की दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई को गलत बताने और अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से खुश हैं,उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वे दंगाइयों, पत्थरबाजों,आगजनी करने वाले को बेकसूर और उनके इन दुष्कृयों को वैधानिक मानते हैं? क्या वे प्रदर्शन के समय आम जनता के साथ लूटपाट, मारपीट, निजी तथा सार्वजनिक सम्पत्ति बर्बाद करने को सही मानते हैं? वह समय कब आएगा जब देश के छोटे-बड़े न्यायालय आम आदमी के साथ आए दिन होने वाले तरह-तरह के अन्यायों से छुटकारा दिलाने को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तरह स्वतः संज्ञान लेकर तत्काल न्याय देने को कदम उठायेंगे?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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