लेख साहित्य

भक्ति आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य महाराज

रामानंदाचार्य जयंती (14 जनवरी 2023) पर विशेष

■डॉ. गोपाल चतुर्वेदी

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के प्रणेता एवं श्री रामानंद सम्प्रदाय के प्रवर्तक जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य महाराज हिन्दू धर्म के रक्षक, परम् तपस्वी, युगांतकारी, विलक्षण, दार्शनिक एवं समन्वय वादी सन्त थे। “अगस्त्य संहिता” में उन्हें भगवान श्रीराम का अवतार माना गया है। पृथ्वी पर उनका अवतरण यवनों के अत्याचारों से त्रस्त जनता की रक्षा हेतु हुआ था। उनका जन्म 14वीं शताब्दी में माघ कृष्ण सप्तमी को प्रयागराज के उच्चकुलीन, धर्मनिष्ठ व कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रारम्भ में उनका नाम रामदत्त था। वह उपनी बाल्यावस्था से ही अत्यंत विलक्षण व प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्हें अपनी 5 वर्ष की आयु में ही “श्रीमदवाल्मीक रामायण” एवं “श्रीमद्भगवदगीता” आदि ग्रंथ कंठस्थ हो गए थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा प्रयागराज में हुयी। बाद को वह अपनी वैराग्य भावना के चलते काशी चले गए। वो वहां पंच गंगा घाट पर बनी एक गुफा में रहकर भजन साधना एवं अध्ययन आदि में जुट गए। यहां रहते हुए वह केवल प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान के लिए निकलते थे। इसके बाद वह अपनी गुफा से बिल्कुल भी बाहर नही निकलते थे। इस दौरान वह अत्यंत अल्प समय में विभिन्न शास्त्रों व पुराणों के ज्ञान में पारंगत हो गए।
स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने अपने स्वप्रवर्तित रामानंद सम्प्रदाय में इष्ट, मन्त्र, पूजा पद्धति एवं तिलक के अलावा एक और तत्व यह जोड़ा कि उन्होंने रामभक्ति के भवन का द्वार प्रत्येक व्यक्ति के लिए खोल दिया। चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। जबकि रामानुज सम्प्रदाय में केवल ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य को ही भगवद्भक्ति का अधिकार प्राप्त था। उनका यह कार्य अत्यंत क्रांतिकारी था। उन्होंने भाषा के क्षेत्र में भी क्रांती का बीजारोपण किया। उनके समय हिंदी भाषा मातृभाषा होते हुए भी अत्यंत उपेक्षित व तिरस्कृत थी। उन्होंने स्वयं हिंदी भाषा में कई ग्रंथो का प्रणयन कर उसे मान्यता प्रदान की। उनके सद्गुरुदेव स्वामी राघवाचार्य जी महाराज का कहना था कि असंख्य सांसारिक जीवों का उद्धार करने हेतु ही भगवान श्रीराम स्वामी रामानंदाचार्य के रूप में अवतरित हुए हैं। “अगस्त्य संहिता” में स्वामी जी को भगवान श्रीराम का अवतार बताते हुए यह कहा गया है ;
” जाति-पांति कौ भेद लखि, सम्प्रदाय कौ द्वंद।
राम स्वयं ही अवतारे, बनकर रामानंद।।”
स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने सवर्णों के अलावा अन्त्यजों को भी अपनी दीक्षा प्रदान की ।
सन्त कबीर को काशी में कोई भी सन्त-महात्मा नाम दीक्षा देने के लिए तैयार नही था। अतः वह ब्रह्ममुहूर्त में पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर आकर लेट गए। रामानंदाचार्य महाराज जब अंधेरे में गंगा स्नान हेतु जा रहे थे तो उनके पैर सन्त कबीर पर पड़ गए। इस पर उन्होंने कबीर को उठाकर अपने गले से लगा लिया और यह कहा कि “राम को राम ही कहो” ।
सन्त कबीर ने रामानंदाचार्य महाराज से दीक्षा प्राप्त करने के बाद जाति-पांति, ऊंच-नीच, पाखण्ड और अंधविश्वासों का आजीवन पुरजोर विरोध किया। साथ ही उन्होंने इस बात को भी स्वीकार कि उन्हें ये शक्ति अपने सद्गुरुदेव से ही प्राप्त हुई है। वह कहा करते थे कि “कासी में हम प्रगट भये, रामानंद चेताये।”
साथ ही उन्होंने अपनी स्वरचित साखियों में प्रभु से भी अधिक अपने गुरु की महत्ता का गायन किया। स्वामी रामान्दनाचार्य के अत्यंज शिष्यों में संत कबीर एवं सवर्ण शिष्यों में स्वामी अनंताचार्य प्रमुख थे। इसके अलावा उन्होंने अपने जो अन्य शिष्य बनाये उनमें रैदास, पीपा, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावती, नरहरि, भगवानंद, धन्नाभगत, योगानन्द, अनंतसेन एवं सुरसरि आदि प्रमुख थे।
स्वामी रामान्दनाचार्य ने संस्कृत भाषा में ” वैष्णव मताब्ज भास्कर” व ” रामार्चन पद्धति” नामक ग्रंथों की रचना की। पहले ग्रंथ में उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य सुरसुरानंद द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दिए हैं और दूसरे ग्रंथ में भगवान श्रीराम की पूजा-अर्चना की परंपरागत विधि बताई है। स्वामी जी ने हिंदी भाषा में लिखे गए अपने ग्रंथ “ज्ञान तिलक” में ज्ञान की चर्चा की है। और “राम रक्षा” में योग व निर्गुण भक्ति का वर्णन किया है।
चूंकि सतयुग में महापुरुषों की एक लंबी आयु हुआ करती थी। अतः जगद्गुरु स्वामी रामान्दनाचार्य महाराज ने 249 वर्ष तक अपना शरीर धारण कर अपने शरणागति जीवों को भवसागर से पार किया। उन्होंने भारतीय धर्म व संस्कृति को संगठित कर एवं वैष्णव भक्ति धारा को पुनर्गठित करके साधु-संतों के खोये हुए सम्मान को उन्हें वापिस दिलाया। उन्होंने भक्ति के जिस विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का प्रवर्तन किया, उसके बारे में यह कहा जाता है कि उसकी प्रेरणा स्रोत मां जानकी हैं। स्वामी जगद्गुरु रामानंदचार्य महाराज का अवतरण तेरहवीं व चौदहवीं शताब्दी में यवनों के अत्याचारों से त्रस्त हिंदुओं की रक्षा करने के लिए हुआ था। क्योंकि यवन हिन्दू धर्म को निर्मूल करने के लिए हिंदुओं को मुसलमान बना रहे थेऔर न बनने पर उन्हें तलवार से मौत के घाट उतार रहे थे। मन्दिरों को क्षतिग्रस्त किया जा रहा था।हिन्दू कन्याओं का अपहरण किया जा रहा था। गौवंश का वध हो रहा था। स्वामी जी ने इन सभी दुष्कृत्यों का पूरी शिद्दत के साथ विरोध किया। उनके प्रभाव से मुगल शासक गयासुद्दीन तुगलक ने हिंदुओं पर लगाया जाने वाला जजिया कर, गौवंश का वध, हिन्दू नारियों का अपहरण , मन्दिरों की क्षति एवँ हिंदुओं को बलात मुसलमान बनाना आदि बन्द किया।
स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने विभिन्न मत-मतान्तरों एवं पंथ-सम्प्रदायों में फैली हुई वैमनस्यता को दूर करने के लिए समस्त हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोया। साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को अपना आदर्श मानकर सरल राम भक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। उनकी शिष्य मण्डली में जहां जाति-पांति, छुआ-छूत, वैदिक कर्मकांड, मूर्ति पूजा आदि के कट्टर विरोधी निर्गुण वादी सन्त थे तो वहीं दूसरी ओर अवतार वाद के पूर्ण समर्थक और चराचर जगत में भगवान श्रीराम को ही व्याप्त मानने वाले सगुण-उपासक भी थे। वह अपने ” तारक मन्त्र” की दीक्षा पेड़ पर चढ़-कर दिया करते थे ताकि वो सभी जाति-सम्प्रदायों व मत-मतांतरों के लोगों के कानों में पड़ सके। स्वामी जी का कहना था कि ” जाति-पांति पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।”
उनके सम्बन्ध में यह कहा जाता है ;
“राम भजन और साधु सेवा, स्वामी रामानंद।”

स्वामी जी ने आजीवन सभी को भक्ति और सेवा का संदेश दिया। उन्होंने अनेक तीर्थ स्थलों की रक्षा एवं मठों व आश्रमों की स्थापना की। उन्हीं के प्रभाव से वैरागी साधु समाज “अनी” के रूप में संगठित हुआ और जगह-जगह उसके अखाड़ों की स्थापना हुई। यह उन्हीं का प्रताप है कि वैष्णवों के 52 द्वारों(मठों) में सर्वाधिक 37 द्वारे (मठ) रामानंद सम्प्रदाय के ही हैं। यदि हम लोग उनके जीवन दर्शन को आत्मसात कर लें तो हमारे देश व समाज की अनेकों बुराइयों का खात्मा हो सकता है।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं आध्यात्मिक पत्रकार हैं)
डॉ. गोपाल चतुर्वेदी
वृन्दावन
मोबाइल- 9412178154

Live News

Advertisments

Advertisements

Advertisments

Our Visitors

0104206
This Month : 9720
This Year : 41499

Follow Me