देश-दुनिया

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का अनुचित रवैया

डॉ. बचन सिंह सिकरवार

गत दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (यूएनएससी) में भारत के विरोध के चलते अमेरिका तथा आयरलैण्ड प्रतिबन्धित क्षेत्रों में मानवीय आधार पर सहायता देने को लेकर किसी तरह के भेदभाव समाप्त कराने को लाए प्रस्ताव को मतदान के जरिए 15में से 14सदस्यों के समर्थन से पारित कराने में अवश्य सफल रहे हैं,पर ऐसा करते हुए उसने अपने सामरिक रूप से एक विश्वसनीय साथी देश भारत की सुरक्षा की पूर्णतः अनदेखी की है। इससे संयुक्त राष्ट्र की ओर से प्रतिबन्धित संस्थानों और एजेन्सियों को भी मानवीय सहायता देने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। आश्चर्य की बात यह है कि उसने धतकरम यानी अनुचित कार्य ऐन दस दिसम्बर ‘मानवाधिकार दिवस’ पर किया। वैसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का यह निर्णय ही उसके आतंकवाद विरोधी अभियान को ही विफल करेगा, यह तय है। वैसे भी अमेरिका समेत विकसित देशों को अन्य देशों की सुरक्षा की परवाह ही कहाँ है? वे तो बस दिखावा करते आए हैं और अब भी कर रहे हैं।
भारत ने अमेरिका और आयरलैण्ड के इस प्रस्ताव का जिस तरह खुलकर विरोध किया है, वह सर्वथा उचित, साहसिक और सराहनीय है। भारत ने अपने इस कदम से परिषद् के सदस्यों को आईना दिखाया है, जो एक ओर तो आतंकवाद के विरुद्ध सहयोग करने का दम भरते हैं, वहीं दूसरे ओर वे जानते-बूझते अपने देशों के हित साधने को परोक्ष रूप से आतंकवादियों की हर तरह सहायता करने तत्पर रहते हैं। वैसे रूस को अफगानिस्तान से बेदखल करने को अमेरिका ने इस्लामिक कट्टरपंथियों को शह, आर्थिक, शस्त्रों से सहायता की थी। आज वे ही तालिबानी हैं। दुनिया को सबसे बड़ा दहशतगर्द संगठन‘ इस्लामिक स्टेट’(आइ.एस.) सऊदी अरब और सुन्नी मुसलमानों के सहयोग समर्थन से बना,तो हाउती दहशतगर्दों को ईरान की शिया मुसलमानों की हिमायत और इमदाद हासिल है। आज दुनिया में जितने भी आतंकवादी संगठन है,उन्हें किसी ने किसी देश से प्रत्यक्ष या अपरोक्ष सहायता मिल रही है। दहशतगर्दों की मदद से भारत में दहशत फैलाना और अलगाव को बढ़ावा देना तो पाकिस्तान की विदेश नीति का अभिन्न हिस्सा है।इसमें उसकी गुप्तचर एजेन्सी‘ आइएसआइ और पाकिस्तान सेना भी खुलकर मदद करती है।
अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सदस्य देशों के इस कदम से उनकी अपने सदस्यों की राष्ट्रीय सुरक्षा और विश्वभर में आतंकवाद के खिलाफ उसकी मुहिम की असलियत सामने आ गई। वस्तुतः संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व में शान्ति और सुरक्षा बनाए रखने के अपने मूल उद्देश्य को पूर्ण करने में विफल रहा है, जिनके लिए 24 अक्टूबर, 1945 में इसका गठन/स्थापना की गई थी। अपने पूर्ववर्ती संगठन ‘लीग ऑफ नेशन्स’की भाँति यह भी शक्तिशाली राष्ट्रों की स्वार्थ सिद्धि/पूर्ति का साधन बन कर रह गया है। यही कारण है कि कभी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान में रह रहे दहशतगर्दों को अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित होने पर अपने विशेषाधिकार/वीटो का प्रयोग कर रोक लगवा देता है,तो कभी अमेरिका या कोई दूसरा विशेषाधिकार रखने वाला देश हमलावर देश के खिलाफ कार्रवाई करने से रोक देता। इसकी वजह से ताकतवर मुल्क अपने से कमजोर मुल्क का हर तरह से शोषण और उनकी जमीन हड़पते आए हैं।रूस -यूक्रेन युद्ध भी कुछ ऐसा ही है,जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ बेबस बना देख रहा है।भारत का कहना था कि इससे पाकिस्तान स्थित दहशतगर्द संगठनों को भी मदद मिलने लगेगी।ऐसा ही अमेरिका ने पाकिस्तान को उसने एफटीए की ग्रे सूची से निकलते समय किया था,जिसकी वजह से उसे अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों से आर्थिक सहायता नहीं मिल पा रही थी और आर्थिक तंगी से जूझ रहा था।
क्षोभ की बात यह है कि वर्तमान में भारत यूएनएससी का अध्यक्ष है, फिर भी इसके सदस्य देशों को उसकी सुरक्षा और उसके हितों की परवाह नहीं है।ऐसे इस संगठन से सही और निष्पक्ष निर्णय लेने की आशा कैसे की जा सकती है? आगामी हपते भारत तथा अमेरिका के मध्य आतंकवाद के खिलाफ सहयोग को लेकर बैठक होने वाली है, इसके बावजूद वह भारत की चिन्ताओं की अनदेखी कर वह यूएनएससी के जरिए उसे क्षति पहुँचाने वाले आतंकवादी संगठनों की मदद करना चाहता है। इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कम्बोज द्वारा बगैर पाकिस्तान का नाम लिए यह बताने-जताने में कतई गुरेज नहीं किया कि जिन्हें सहायता देने का प्रस्ताव पारित किया जा रहा है, वे अपरोक्ष रूप से आतंकवादी संगठनों को न केवल सहायता देते हैं,बल्कि वे उन्हें संचालित भी कर रहे हैं। वस्तुतः उनका संकेत पाकिस्तान स्थित ‘अल रहमत ट्रस्ट’ और ‘फलह-ए-इन्सानियत फाउण्डेशन’की ओर था,जिन्हें क्रमशः इस्लामिक कट्टरपंथी दहशतगर्द संगठन‘ जैश-ए-मोहम्मद’ और लश्कर-ए-तैयबा द्वारा चलाया जा रहा है। लश्कर-ए-तैयबा का संस्थापक मुम्बई पर 26नवम्बर,2008करे हमले का मास्टर माइण्ड हाफिज सईद है,जो पाकिस्तान में हैं। श्रीमती कम्बोज ने यूएनएससी के सदस्यों से यह भी कहा कि हमारे पड़ोस में कई बार ऐसे उदाहरण मिले हैं कि सुरक्षा परिषद् की तरफ से प्रतिबन्धित संगठनों ने अपनी पहचान बदल कर मानवीय मदद देने वाली एजेन्सियों के तौर पर काम किया है। वैसे आतंकवाद के खिलाफ जैसी टिप्पणियाँ रुचिरा कम्बोज ने यूएनएससी में की हैं,कुछ वैसी विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने एक टी.वी.चैनल पर की है,जिसमें उन्होंने कहा,‘‘ अगर आपका पड़ोसी देश आतंकवाद को बढ़ावा दे,तो क्या करेंगे?यह किसी से छिपा नहीं है कि नेता कौन है? कैम्प कहाँ हैं?हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि सीमा पर आतंकवाद सामान्य है। मुझे कोई अन्य उदाहरण दें,जहाँ एक पड़ोसी दूसरे के खिलाफ आतंकवाद को प्रायोजित कर रहा है। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है। सच्चाई यह है कि अपनी स्थापना से ही विकसित धनी और शक्तिशाली देशों के अनुचित दबाव/प्रभाव चलते संयुक्त राष्ट्र संघ और इसके अनुषांगिक संगठन अपने सिद्धान्तों,आदर्शों पर चल नहीं पाए। इस कारण ये उद्देश्यों की पूर्ति नाकाम रहे हैं।इसलिए भारत को अपनी रक्षा-सुरक्षा और आतंकवाद का सामना करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का भरोसा छोड़ कर अपनी शक्ति,क्षमता और सामर्थ्य को बढ़ाने पर ध्यान देना होगा।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054

 

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