देश-दुनिया

ताइवान की चीन को फिर चुनौती

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
ताइवान की दूसरी बार राष्ट्रपति निर्वाचित हुई साई इंग-वेन का स्पष्ट शब्दों में यह कहना कि ताइवान पहले से स्वतंत्र देश है और हमारी पहचान ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना,ताइवान’ के रूप में है। ताइवान को अपनी स्वतंत्रता की औपचारिक घोषणा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चीन को उसके प्रति अपने स

साभार सोशल मीडिया

ख्त रुख पर फिर से विचार करना चाहिए। उनके देश पर किया गया कोई भी हमला उस पर बहुत महँगा पड़ सकता है। निश्चय ही साई इंग-वेन की विजय और उनके इस वक्तव्य से दुनिया का नया दादा बनने/दिखाने की कोशिश में लगे चीन को गहरा झटका लगा होगा, जो सात दशक से भी पहले अपने से अलग हुए ताइवान पर अपना दावा जताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता और उसे हर कीमत पर अपने भू-भाग में मिलाने की फिराक में लगा हुआ है। चीन ने तो यह कहने में कभी गुरेज नहीं किया, यदि ताइवान ने अपने को स्वतंत्र घोषित किया, तो वह बलपूर्वक उस पर कब्जा कर सकता है,जबकि चीन को भारत के जम्मू-कश्मीर से सम्बन्धित अनुच्छेद 370 एवं 35 ए हटाने तथा उसे दो केन्द्र शासित राज्यों में विभाजित किये जाने पर घोर आपत्ति है, जो उसका सदा से अभिन्न अंग है। इसे लेकर वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् समेत दूसरे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान, मलेशिया के साथ मुखालफत कर रहा है। यह अलग बात है कि उसे और चीन का हर जगह अपनी इस मुहिम में मुँहखानी पड़ी है और स्वयं 70साल पहले अलग हुए ताइवान पर बन्दूक के जोर पर कब्जा जमाने की खुले आम धमकी देता फिर रहा है।उसका यह रवैया कहाँ तक उचित है?मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रान्त में भी चीन ने कोई दस लाख उइगर मुसलमानों को यातना केन्द्रों में रखा हुआ है,जहाँ उनपर हर तरह की मजहबी पाबन्दियाँ हैं।
ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने उक्त वक्तव्य बहुत सोच-समझकर अपनी सियासी रणनीति के तहत दिया है। इसकी वजह यह है कि ताइवान में एक वर्ग ऐसा है जो चाहता है कि वे चीन से अपने देश की औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा करंे, ताकि चीन हमेशा के लिए ताइवान पर अपना दावा जताना बन्द कर दे। लेकिन देश-काल परिस्थितियों को देखते-समझते और लोगों की भावनाओं को सम्मान करते हुए राष्ट्रपति इंग-वेन ने उक्त कथन से चीन को इशारों -इशारों में समझा दिया है कि उसे अलग से अपनी आजादी के ऐलान करने की कोई जरूरत नहीं है। इस मुद्दे पर यथास्थिति बनाये रखना हमारी नीति है, उन्हें लगता है यह चीन के भी अनुकूल संकेत ही है। राजनयिक भाषा में संकेत देकर उन्होंने चीन से व्यर्थ में टकराव लेने से बचने का प्रयास किया। राष्ट्रपति इंग-वेन ने चुनाव जीतने के बाद चीनी अधिकारियों को यह स्मरण कराना जरूरी समझा कि शान्ति, समता, लोकतंत्र और संवाद स्थिरता की कुँजी है। वे इस बात को भी जान लें कि लोकतांत्रिक ताइवान और उसकी लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार कभी खतरों को स्वीकार नहीं करेगी। अब आप ही विचार करें,इससे बेहतर चीन को वह कैसे समझाएँ?

साभार सोशल मीडिया

चीन ताइवान के साथ एकीकरण को लेकर यहाँ के नेताओं से बहुत पहले से बातचीत का दाबव डालता आया है, जिससे ताइवान के नेता भी बचते आए हैं। उनके विपरीत साई कहती रही हैं कि वह चीन से वार्ता करने को तैयार हैं ,लेकिन इसके लिए वह कोई पूर्व शर्त न रखे। चीन अब भी अपने रवैये से पीछे हटने को तैयार नहीं है उसने 15 जनवरी को कहा कि साई इंग-वेन प्रचण्ड बहुत से सत्ता में जरूर लौट आयी हैं, किन्तु उसकी एक देश-दो प्रणाली के हमारे सिद्धान्त बदलाव नहीं आया है। ताइवान मामलों के मंत्री मां शियाओगुआंग ने कहा, हम ‘92-सर्वसम्मति’ पर जोर देना जारी रखेंगे, जो एकल चीनी राष्ट्र के हिस्से के तौर पर स्वशासित द्वीप और मुख्य भूमि दोनों को स्वीकार करता है। यद्यपि उन्होंने अब ताइवान को बलपूर्वक चीन में मिलाने की बात तो नहीं की, तथापि यह जरूर कहा,‘‘ ताइवान सरकार को इस पर विचार करना चाहिए, क्योंकि चीन की जनता की तरफ से इस बारे में माँग बढ़ती जा रही है।’’ चीन ताइवान के एकीकरण लेकर कोई बहाना तथा कैसा भी दाबव बनाए,पर ताइवान की जनता चीन में विलय के पक्ष में नहीं है, इसका प्रमाण साई इंग-वेन का भारी बहुमत से फिर से राष्ट्रपति चुना जाना है। जहाँ तक चीन का प्रश्न है तो वह साई इंग-वेन के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के पक्ष में नहीं था और मकसद का पूरा होने देने में उन्हें बहुत रोड़ा मानता है। उन्हें लेकर चीन न केवल अपनी नापसन्दगी का इजहार कर चुका था,वरन् उन्हें पराजित कराने में भी अपनी ओर से कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी थी।यह अलग बात है कि ताइवान की जनता ने चीन की चाहत की परवाह न करते हुए गत 11जनवरी को हुए राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें ही चुनना श्रेयष्कर समझा। इसीलिए साई इंग-वेन एक साक्षात्कार में चीन से यह कहना जरूरी समझा कि वह इस चुनाव में ताइवान के लोगों द्वारा व्यक्त की राय को समझेगा और अपनी वर्तमान नीतियों की समीक्षा करेगा। हालाँकि कहने को राष्ट्रपति इंग-वेन ने चीन को संकेत तो कर दिया है, पर इससे चीन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि जिस चीन को दूसरे पड़ोसी मुल्कों की जमीनों, सागरों, महासागरों, द्वीपों पर अपना झूठा दावा करने और उन्हें छलबल से हथियाने में शर्म-संकोच नहीं होता, उससे अपने ही भू-भाग के छोड़े जाने की उम्मीद करना ही फिजूल है।

साभार सोशल मीडिया

वैसे ताइवान भी अपने प्रति चीन की नीति और नीयत से भलीभाँति परिचित है। वह उसके यहाँ लोगों को डरा-धमका कर ही नहीं, उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर सकता है। इस कारण राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने घुसपैठ विरोधी कानून बनाया, ताकि कोई दूसरा देश विशेष रूप से चीन उनके देश की राजनीतिक गतिविधियों में दखल न दे। ताइवान की जनता भी ऐसा कानून चाहती थी कि चीन का कैसे से भी उनके देश की राजनीति में हस्तक्षेप रुके। वास्तव में ताइवान में घुसपैठ कानून बनने के बाद मुल्क की सियासी गतिविधियों में विदेश से मिल रही मदद पर रोक लगी।
ताइवान के मसले समझने को इसका इतिहास-भूगोल समझना जरूरी हैै। उत्तर प्रशान्त महासागर में स्थित द्वीप राष्ट्र ‘ताइवान‘ को पहले ‘फारमोसा’कहा जाता था। इसमें ताइवान के साथ अनेक छोटे-छोटे द्वीप भी सम्मिलित हैं। मूल रूप से ताइवान और आसपास के इलाके चीन के हिस्से थे। इसका क्षेत्रफल 35,981वर्ग किलोमीटर है तथा इसकी राजधानी ‘ताइपे’ है। यहाँ की आबादी 2,31,64,457 से अधिक है ,जो मेण्डेरिन चीनी, ताइवान, हाक्का बोलियाँ भाषाएँ बोलती है और बौद्ध, तावोयिसम एवं कन्फूशियस धर्म की अनुयायी है। इस देश की मुद्रा-न्यू ताइवान डॉलर, साक्षरता-96.1प्रतिशत और प्रति व्यक्ति आय-34.743 डॉलर है। सन् 1949 में गृहयुद्ध के दौरान चीन से अलग हो गया। सन् 1950 में चांग काईशेक ने ताइवान को ‘नेशनलिस्ट रिपब्लिक ऑफ चाइना ’का मुख्यालय बनाया और अपनी स्वतंत्र पहचान कायम की। हालाँकि ताइवान अभी तक दावा करता आया है कि वही समूचे चीन की वैधानिक सरकार है, लेकिन 1971 में इसने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता तथा सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता खो दी है, जो चीन साम्यवादी चीन को प्राप्त हो गई। सन् 1987 में 38वर्षों के पश्चात् मार्शल लॉ हटा लिया गया और सन् 1991 में 43साल से चली आ रहा आपात काल शासन की समाप्ति कर दी गई। मई, सन् 1996 में इस द्वीप के पहले प्रत्यक्ष राष्ट्रपति पद के चुनाव में ली टेंग हुई की प्रचण्ड बहुमत से विजय हुई। सन् 1993से प्रधानमंत्री रहे ली चान ने अगस्त,सन् 1997 में ली चान ने द्वीप में हुए नरसंहार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। इस नरसंहार से तब पूरा देश स्तब्ध रह गया था। पचास साल के शासन के बाद मार्च में नेशनलिस्ट पार्टी चुनाव में हार गई और विपक्षी डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी ने सत्ता सम्हाली। चीन के साथ टकराव बढ़ गया। फरवरी, 2006 में ताइवान ने नेशनल यूनिफिकेशन काउंसिल को भंग कर दिया, जिसे मुख्य भू-भाग से जोड़ने के लिए गठित किया गया था। चीन ने इसे भयानाक भूल करार दिया। यहाँ की मुख्य कृषि फसलें चावल, चाय, चीनी, शकरकन्द, रैमी, पटसन ,हल्दी है। वनों से प्राप्त काफूर पर सरकार का एकाधिकार है। यहाँ के उद्योगों में सूती कपड़ा, बिजली का सामान, लोहे की वस्तुएँ, काँच ,साबुन है। कोयला, संगमरमर, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मुख्य खनिज हैं।
चीन दूसरी बार निर्वाचित राष्ट्रपति साई इंग-वेन को लेकर बहुत चिन्तित और परेशान नहीं है, क्योंकि वह न केवल बेखौफ होकर अपने मुल्क के हित में फैसला लेने की सामर्थ्य रखती हैं,बल्कि ताइवान की जनता में बहुुत लोकप्रिय भी हैं। यही कारण है कि चुनाव जीतने के तुरन्त अमेरिकी राजनयिक विलियम ब्रेंट क्रिस्टेंसेन से भेंट कर समर्थन दिये जाने पर शुक्रिया अदा किया। उस दौरान उन्होंने कहा कि ताइवान और अमेरिका की भागीदारी द्विपक्षीय स्तर से बढ़कर वैश्विक स्तर पर पहुँच गई है। भविष्य में हम वैश्विक मुद्दों पर अपने सम्बन्धों को मजबूत करने का काम जारी रखेंगे। इधर चीन भी ताइवान पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है। उसका कहना है कि हमारा पूरा विश्वास है कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय एक चीन सिद्धान्त का पालन करना जारी रखेगा। इससे फर्क नहीं पड़ता कि ताइवान में जमीन स्तर पर क्या बदलावा होंगे। पूरे विश्व में केवल चीन है,जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी शासन है।ताइवान चीन का ही हिस्सा हैै और यह स्थिति कभी नहीं बदल सकती। अब ऐसी हालत में ताइवान कब स्वतंत्र मुल्क बन पाएगा या चीन उसे अपने में मिला पाएगा,यह भविष्य ही बता पाएगा।

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