14सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष –
वर्तमान में हिन्दी अपने विकास के जिस सोपन पहुँची है तथा उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करने में जिन अगणित हिन्दी सेवी साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों का योगदान रहा है उनमें राजा लक्ष्मण सिंह का नाम अग्र पंक्ति में आता है। उन्हें संस्कृत, प्राकृत, ब्रजभाषा, अँग्रेजी, फारसी, अरबी, उर्दू, गुजराती, बंगला आदि भाषाओं को अच्छा ज्ञान था। ये हिन्दी गद्य के प्रवर्तकों में से एक और हिन्दी गद्य शैली के प्रमुख साहित्यकार थे। सच्चाई यह है कि राजा लक्ष्मण सिंह भारतेन्दु युग के पहले के हिन्दी गद्य लेखक तथा अनुवादक थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य के उन्नायकों में इन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। उन्होंने ही सरकारी कार्यों में हिन्दी के प्रयोग की शुरुआत की थी। हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ होने के ये प्रबल पक्षधर और उसमें उर्दू, फारसी, अरबी शब्दों के घालमेल के घोर विरोधी थे। राजा लक्ष्मण सिंह की ब्रजभाषा की कविताएँ भी अत्यन्त सरस और मधुर होती थीं। ब्रजभाषा की सहज मिठास इनकी वाणी से टपकी पड़ती है।-1.हिन्दी साहित्य का इतिहास,पृष्ठ -314।इन्होंने अँग्रेजी, संस्कृत तथा फारसी के अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया। आप ने इटावा के डिप्टी कलेक्टर के पद पर रहते हुए ’दि इण्डियन पीनल कोड’/ एक्ट 45 ऑफ 1860यानी ‘ताजीराते हिन्द’ का ‘हिन्दुस्तान का दण्ड संग्रह’ अर्थात् एक्ट 45 सन् 1860 शीर्षक से अनुवाद किया, जो सन् 1861में ‘दि एजुकेशन प्रेस’, इटावा से राजा लक्ष्मण सिंह
मुद्रित हुआ था। ‘एक्ट 10 ऑफ1859’(द रिकवरी ऑफ रेण्ट्स) 10 नवम्बर, सन् 1859 ईस्वी में अँग्रेजी में जारी हुआ। आप ने इसका भी हिन्दी में अनुवाद ‘एक्ट नम्बर 10 सन् 1859 गूढ़ शब्दार्थ सहित ‘लगान उगाने इत्यादि के विषय में’ शीर्षक से किया, जिसे गवर्नमेण्ट प्रेस, इलाहाबाद द्वारा सन् 1861 में प्रकाशित किया था। इसके अलावा आप ने ‘टू फाइनेशियल स्पीचेस ऑफ जेम्स विल्सन’ का हिन्दी में ‘जेम्स विल्सन के दो वित्तीय अभिलेख’ शीर्षक से हिन्दी में अनुवाद किया था। उक्त दोनों अधिनियमों और ‘दो फाइनेशियल स्पीचेस’ के अनुवादकों में इटावा के तत्कालीन कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम भी सह अनुवादक थे। इन अनूदित अधिनियमों के प्राक्कथनों में कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम ने राजा लक्ष्मण सिंह को ‘अपना मित्र तथा सहयोगी’ लिखा है। राजा लक्ष्मण सिंह की एक खासियत यह भी रही कि अँग्रेजी हुकूमत में रहते हुए भी वे अँग्रेजियत के खिलाफ रहे। वह कुशल प्रशासक होने के साथ श्रेष्ठ अनुवादक और साहित्यकार भी थे।
राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर, सन् 1826 को वजीरपुरा, आगरा के मुहल्ले में यदुवंशी/जादौन ठाकुर रूपराम सिंह के यहाँ हुआ था। इन्होंने 13वर्ष तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की, जहाँ उर्दू और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। फिर अँग्रेजी और संस्कृत शिक्षा के लिए आगरा कॉलेज में प्रवेश लिया, यहाँ से सीनियर परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् 1जुलाई, सन् 1847 को वह पश्चिमोत्तर प्रान्त के सचिवालय में अनुवादक के रूप में नियुक्त हुए। सन् 1853 में वह सदर बोर्ड के प्रधान अनुवादक बना दिये गए। अप्रैल, सन् 1855 में आप इटावा के तहसीलदार नियुक्त हुए। सन् 1855 में ही आपके द्वारा ‘प्रजा हितैषी’ पाक्षिक पत्र का प्रकाशन किया गया ,जो सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारण बन्द हो गया। यह पत्र सन् 1861 में राजा साहब के योग्य निर्देशन और संरक्षण में पुनः प्रकाशित हुआ। इस पत्र की भाषा में बहुत सुधार हुआ। दिसम्बर, सन् 1856 को आपको प्रोन्नत कर बांदा का डिप्टी कलेक्टर बनाया गया। सन् 1857 में मई माह के तीसरे सप्ताह में आप जब आवश्यक पारिवारिक कार्य से विशेष अवकाश पर इटावा के रास्ते आगरा आ रहे थे,तब प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कारण उत्पन्न संकट से निपटने के लिए ए.ओ.ह्यूम की सहायता करने को कहा गया। सन् 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अँग्रेजों की उन्होंने बहुत सहायता की। उन्हें पुरस्कार स्वरूप पदोन्नत कर इटावा का डिप्टी कलेक्टर तथा मस्जिटेªट बना दिया गया। सन् 1859 में आप ने इटावा से ‘प्रजाहित’ पत्र का प्रकाशन किया,जिसकी तीस हजार प्रतियाँ प्रकाशित हुआ करती थीं।
सन् 1861में इटावा में आप ने संस्कृत के महान् साहित्यकार महाकवि कालिदास जी की अमर कृति ‘अभिज्ञान शकुन्तलम्’ का संस्कृत से हिन्दी में पद्यानुवाद भी किया। इनके अभिज्ञान शकुन्तलम् के पहले अनुवाद में तो पद्य न था, पर पीछे जो संस्करण इन्होंने निकाला उसमें मूल श्लोकों के स्थान पर पद्य रखे गए। ये पद्य बड़े ही सरस हुए।-3.हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ-314।
सन् 1863 में महाकवि कालिदास की ‘अभिज्ञान शकुन्तलम्’ का हिन्दी में अनुवाद‘‘ ‘शकुन्तला’ नाटक के नाम से प्रकाशित हुआ। इनमें हिन्दी की खड़ी बोली को जो नमूना आपने प्रस्तुत किया,उसे देखकर लोग चकित रह गए।’’ राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ द्वारा अपनी ‘गुटका’ में इस रचना को स्थान दिया गया। उस समय के प्रसिद्ध हिन्दी प्रेमी फ्रेडरिक पिन्कॉट ने राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा शैली से बहुत प्रभावित हुए और सन् 1876 में लन्दन फ्रेडरिक पिन्कॉट ने इण्डियन सिविल सर्विस परीक्षार्थियांे के लिए इंग्लैण्ड में इसे प्रकाशित किया था।इस कृति से राजा लक्ष्मण सिंह को पर्याप्त ख्याति मिली और इस ‘इण्डियन सिविल सर्विस’(आइ.सी.एस.) की परीक्षा में पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। इससे राजा लक्ष्मण सिंह को धन और सम्मान दोनों प्राप्त हुए। इस सम्मान से राजा साहब को अधिक प्रोत्साहन मिला। सन्1863में आपको बुलन्दशहर का डिप्टी कलेक्टर तथा मजिस्टेªट बनाया गया। फिर सन् 1865-67 बिजनौर का डिप्टी कलेक्टर तथा मजिस्टेªट रहे।
सन् 1870 इन्हें ’राजा’ की पदवी से सम्मानित किया गया। अँग्रेज सरकार की सेवा करते हुए राजा लक्ष्मण सिंह का साहित्य अनुराग बना रहा। अनुवादक के रूप में उन्हें अत्याधिक सफलता मिली। वे ‘भारतेन्दु युग’ के पहले के कवि थे, वे भारतेन्दु युग से पूर्व की हिन्दी गद्य शैली के पहले विधायक।। उन्होंने हिन्दी भाषा को हिन्दी संस्कृति से नहीं, बल्कि संस्कृतनिष्ठता से जोड़ने का प्रयोग किया। उनकी टकसाली भाषा काफी प्रभावशाली थी।
सन् 1877 में कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य का हिन्दी में अनुवाद किया, इसकी भूमिका में अपनी भाषा सम्बन्धी नीति स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा-‘‘ हमारे मत से हिन्दी-उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल की भाषा है। हिन्दी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी-फारसी के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी -फारसी के शब्द भरे हों।’’-हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ-241
उनके इस कथन् से स्पष्ट है कि वे अपने समकालीन साहित्यकारों को जताना-बताना चाहते थे कि हिन्दी को अरबी, फारसी जैसी विदेशी/ परायी भाषाओं की जरूरत नहीं है, वह अपनी मातृभाषा संस्कृत और अपनी सहोदर भाषा-बोलियों-ब्रज, अवधी, मगधी, कौरवी, मैथिली, भोजपुरी, बुन्देली, ढूंढारी, मारवाड़ी, मेवाड़ी आदि के बल पर आसानी से अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं।
सन् 1881में राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा अनूदित महाकवि कालिदास संस्कृत में रचित ‘मेघदूत’ की पूर्वार्द्ध और सन् 1883 में उत्तरार्द्ध का पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ, जिसमें चौपाई, दोहा, सोरठ, सवैया, शिखरिणी, छप्पय, कुण्डलिया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग किया गया। इस पुस्तक में अवधी और ब्रजभाषा दोनों के शब्द प्रयुक्त हैं, यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग है।‘मेघदूत’जैसे मनोहर काव्य के लिए ऐसा ही अनुवादक होना चाहिए थ। इस अनुवाद के सवैए बहुत ही ललित ओर सुन्दर हैं। जहाँ चौपाई दोहे आए हैं, वे स्थल उतने सरस नहीं हैं।-2हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ-314।
अनुवादक के रूप में राजा लक्ष्मण सिंह को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई। आप शब्द-प्रतिशब्द के अनुवाद को उचित मानते थे। यहाँ तक कि विभक्ति प्रयोग और पद विन्यास भी संस्कृत की पद्धति पर ही रहते थे। राजा साहब के अनुवादों को सर्वाधिक सफलता का रहस्य भाषा की सरलता और भावव्यंजना की स्पष्टता है। उनकी टकसाली भाषा का प्रभाव सभी पर पड़ा और तत्कालीन सभी विद्वान उनके अनुवाद से प्रभावित हुए थे। उर्दू में राजा साहब की सबसे अधिक कृतियाँ हैं- ‘कैफियत-ए-जिला बुलन्दशहर’ (1847), ‘किताब खाना शुमार- ए-मगरबी’, ‘हिदायतनाम वास्ते डिप्टी मजिस्टेªट’,’ कीप विद’, ‘सवाल-जवाब पुलिस’, ‘मजिस्टेªट गाइड’ आदि पुस्तकें हैं, जिनसे यह साबित होता है कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्षधर होते हुए हुए भी उन्हें उर्दू से किसी तरह का परहेज नहीं था। आप ने बुलन्दशहर का गजेटियर/इतिहास भी लिखा है। राजा लक्ष्मण सिंह सन् 1865के एनडल्यूपी की जनगणना के लिए बुलन्दशहर जिले की जातियों तथा समुदायों का विवरण अँग्रेजी में तैयार किया था,जो सन् 1867में इलाहाबाद में प्रकाशित हुआ।
सन् 1887 में राजा लक्ष्मण सिंह कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘फेलो’ तथा ‘रॉयल एशियटिक सोसाइटी’ के सदस्य रहे। सन् 1888 में बुलन्दशहर के प्रथम श्रेणी डिप्टी कलेक्टर के पद पर 20साल रहने के बाद सेवानिवृत्त हुए। इसके पश्चात् आप आगरा आ गए तथा यहाँ की चुंगी के वाइस चेयरमैन बने और आजीवन बने रहे।सन् 1888 में आपने ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस अधिवेशन ’में भाग लिया था, जिसकी स्थापना ए.ओ.ह्यूम, व्योमेश चन्द्र बनर्जी आदि ने सन् 1985में की थी। अपनी मृत्यु से एक माह पहले राजा लक्ष्मण सिंह अपनी कर्मभूमि बुलन्दशहर के गंगा के तट राजघाट पहुँच गए, जहाँ इस महान साहित्यकार का 14 जुुुुलाई, 1896 को स्वर्गवास हो गया। राजा लक्ष्मण सिंह के हिदी गद्य शैली और साहित्य के विकास में अपने अतुल्यनीय योगदान के लिए सदैव याद किये जाते रहेंगे।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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