डॉ.बचन सिंह सिकरवार
हाल में नेशनल कॉन्फ्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला द्वारा चुनाव आयोग के इस सूबे में रह रहे गैर कश्मीरियों/ लोगों को मतदाता सूची में सम्मिलित किये जाने को लेकर कश्मीर की अपनी पहचान गुम होने का डर दिखाकर लोगों को भड़कते हुए विरोध करने तथा सरकार पर दबाव बनाने के इरादे से सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता दिखाने को बैठक आहूत की, लेकिन उसमें ‘पीपुल्स कान्फ्रेंस’ के सज्जाद गनी लोन तथा ’अपनी पार्टी’ अल्ताफ बुखारी के न आने तथा उनकी उम्मीद मुताबिक आम लोगों ने न कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त की गई और न ही वे मुखालफत करते सड़क पर उतरे। यह देखते हुए गुपकार गुट के इन सियासी नेताओं को इस सूबे की सत्ता फिर से हासिल करने की सियासत/हसरत नाकाम होती नजर आ रही है।साथ ही उनका जम्मू-कश्मीर को इस्लामिक स्टेट बनाने का ख्वाब हमेशा के लिए खत्म हो गया।
वैसे भी हकीकत यह है कि कश्मीर घाटी की ये नेता भले ही किसी भी दल से ताल्लुक रहते हों, पर इन सभी का मकसद इस सूबे में निजाम-ए-मुस्तफा’ कायम करना रहा है। इस सूबे के खास दर्जे की आड़ में न सिर्फ मुस्लिम मुख्यमंत्री बनते रहे, बल्कि ये शासक जम्मू और लद्दाख के इलाकों के क्रमशः हिन्दू तथा बौद्धों के साथ हर तरह का भेदभाव भी करते रहे।
अब इन नेताओं के बार-बार भड़काने/बहकाने पर पहले भी घाटी के लोग परिसीमन की मुखालफत को आगे नहीं आए थे, जिसकी वजह से उनकी चुनावी कामयाबी अब आसान नहीं रह गई है। अब रही-सही कमी परिसीमन के बाद अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, कश्मीरी पण्डितों के लिए विधानसभा की सीटें आरक्षित करने के साथ-साथ गैर कश्मीरियों को मतदाता बनाने के फैसले ने कर दी है।
निश्चय ही इससे गुपकार गुट के सरगना डॉ.फारूक अब्दुल्ला और उनकी सियासी साथियों को गहरी निराशा-हताशा हुई होगी। अब उनके पास चुनाव आयोग के निर्णय के खिलाफ अदालत जाने का ही विकल्प ही बचा है। वैसे सन् 1947के बाद जब 2019में जम्मू-कश्मीर में तीन स्तरीय पंचायत राज व्यवस्था बहाल हुई है, तब भी गुपकार गुट ने लोगों से इन चुनावों के बहिष्कार करने को उकसाया था।लेकिन सूबे के लोगों ने इनका कहना नहीं माना। सन् 2019 के पश्चात् जम्मू-कश्मीर के लोगों ने पहली बार ब्लाक विकास और जिला विकास परिषद्ों को देखा। सरपंच, बीडीसी,डीडीसी चेयरमैन के लिए विधायक विकास निधि की तर्ज पर निधियों का निर्धारण किया है,जिसे लेकर सूबे के लोग खुश और विकास के जरिए अपने जीवन में बदलाव देख रहे हैं
चुनाव आयोग के निर्णय से जम्मू-कश्मीर की सियासी पार्टियों के नेताओं में कितनी बेचैनी है इसका अन्दाज उनके बयानों से आसानी से लगाया जा सकता है। अब जहाँ ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी’ (पीडीपी)की अध्यक्ष और पूर्वमुख्यमंत्री महबूबा मुपती ने आरोप लगाया कि इस फैसले से जम्मू-कश्मीर के लोगों की चुनाव में आस्था खत्म हो जाएगी। उन्होंने लोगों को भड़काने के लिए यह आरोप भी कहा है कि सन् 2024 के संसदीय चुनावों में भाजपा भारतीय संविधान को भी समाप्त कर देगी। वह राष्ट्र ध्वज तिरंगे की जगह भगवा झण्डा करेगी। वह जम्मू-कश्मीर के लोगों को राजनीतिक रूप से कमजोर बनाने और भाजपा के जम्मू-कश्मीर में सत्ता सुनिश्चित करने का केन्द्र का नया हथकण्डा है, वहीं ‘नेशनल कॉन्फ्रेस’(एन.सी.)के उपाध्यक्ष तथा पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि भाजपा अब इतनी असुरक्षित महसूस कर रही है कि उसे वोट के लिए बाहर से लोगों का आयात करना पड़ रहा है। इसी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ.फारूक अब्दुल्ला ने पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुपती, पीपुल्स कॉन्फ्रेस के सज्जाद गनी लोगन, अपनी पार्टी के प्रधान सैयद अल्ताफ बुखारी, प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष विकार रसूल और काँग्रेस के कार्यवाहक प्रधान रमण भल्ला, माकपा नेता मोहम्मद युसूफ तारीगामी, अवामी नेशनल कॉन्फ्रेस के उपाध्यक्ष मुजपफर शाह को निजी तौर पर फारूक ने फोन किया। 22अगस्त को बैठक में शामिल होने का आग्रह किया था। इस सम्बन्ध में सभी समाचार पत्रों में विज्ञापन पर छपवाया। यह अलग बात है कि उनकी मंशा पूरी नहीं हुई।
वस्तुतः इन कश्मीरी नेताओं को अपनी सियासत 5 अगस्त, 2019 के बाद से खत्म होती नजर आ गई थी, जब केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के खास दर्जे से सम्बन्धित संविधान के अनुच्छेद 370 तथा 35ए को हमेशा के लिए हटा दिया था। तब उस जम्मू-कश्मीर को विभाजित कर जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख को केन्द्र शासित राज्य भी बना दिये। विशेष दर्जे की बदौलत ही ये लोग एक लम्बे अर्से से जम्मू-कश्मीर में ‘निजाम-ए-मुस्तफा’/‘दारुल इस्लाम’ बनाने में जुटे हुए थे। वैसे भी इसकी शुरुआत यहाँ इस्लाम के प्रवेश से हो गई थी। कश्मीर के डोगरा शासन(1846-1947)के दौरान कश्मीरी पण्डितों की संख्या घाटी की जनसंख्या का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी, पर बीसवीं सदी में सन् 1931 में तत्कालीन मुस्लिम कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने इस रियासत में ग्रामीण इलाकों में काफिरों ं के सफाये की मुहिम चला कर की थी, जिसमें बड़े पैमाने पर हिन्दुओं और सिखों का कत्ल-ए-आम किया गया। उनकी घर-सम्पत्ति को लूटा गया। लाखों हिन्दू तथा सिखों को हिन्दू बहुल क्षेत्रों में शरण लेने को विवश होना पड़ा। देश विभाजन के बाद सन् 1950 के भूमि सुधारों के बहाने मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने साजिश के तहत कश्मीरी पण्डितों की जमीनों को कानून बना कर उनसे छीन कर मुसलमानों में बाँट दी। उसके बाद इन्हीं सियासी नेताओं की मदद से नब्बे के दशक में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने बन्दूक के जोर पर कश्मीर घाटी से कोई हजारों की तादाद में कश्मीरी पण्डितों को अपना सब कुछ छोड़ कर पलायन को मजबूर किया गया। अब भी ये इस्लामिक कट्टरपंथी रह-बचे /कश्मीरी पण्डितों की घर वापसी के लिए चलाए जा रहे पैकेज के तहत नौकरी कर रहे या फिर रोजी-रोटी के लिए आए शेष भारत के लोगों को चुन-चुन कर हत्याएँ कर रहे हैं ,ताकि इस सूबे में मुसलमानों के सिवाय कोई न बचे।फिर भी जम्हूरियत,इन्सानियत,कश्मीरियत का राग अलापने वाले कश्मीर घाटी के सियासी नेता खामोश बने हुए हैं। इससे इनका असल चेहरा सामने आ गया है।
अनुच्छेद 370 के रहते भारत सरकार को रक्षा,विदेश, संचार विभाग छोड़कर किसी दूसरे में इस सूबे में दखल देने का अधिकार नहीं था, क्योंकि यहाँ का अलग झण्डा और विधान था। उस समय राष्ट्र ध्वज तिरंगे तथा राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान पर सजा नहीं होती थी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश भी पहले मान्य नहीं थे और यहाँ की विधान सभा का कार्यकाल 6वर्ष था। पहले जम्मू में 37 सीटें थीं और कश्मीर घाटी में 46 थीं। यहाँ कुल सीटें 83थीं, जो परिसीमन के बाद अब बढ़कर 90 हो गई हैैं। इनमें जम्मू में 6 तथा कश्मीर घाटी में 1 सीट बढ़ाई गई है। इनमें 90 सीटें में से कश्मीर घाटी की 47,जबकि जम्मू की 43सीटें हैं। इसमें दो सीटें कश्मीर पण्डितोें के लिए आरक्षित रखी गई हैं। पहली बार अनुसूचित जनजाति(एस.टी.)कोटे की 9सीटों के आरक्षित रखा गया। इसके साथ ही पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर(पी.ओ.के.)के विस्थापित शरणार्थियों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव है। जम्मू-कश्मीर अल्पसंख्यक हिन्दू, सिखों को आरक्षण 16 प्रतिशत लाभ नहीं दिया जाता है। अनुच्छेद 35ए के 14 मई, 1954 या इससे 10पहले राज्य में निवास करने वाले ही स्थायी नागरिक माने जाते थे, उन्हें ही वोट देने, जमीन, सम्पत्ति खरीदने का अधिकार था। रोहिंग्या मुसलमान मतदाता सूची में शामिल नहीं हो सकेंगे,जिन्हें साजिश के तहत हिन्दू बहुल जम्मू में बसाया गया था,ताकि इसे भी मुस्लिम बहुल बनाया जा सके। कश्मीर पण्डित प्रवासी अपने गृह निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता के रूप में पंजीकृत करने को शिविर लगाये जाएँगे। 15सितम्बर को समग्र मतदाता सूचियों का मसौदा प्रकाशित किया जाएगा। फिर 15से 25 सितम्बर आपत्तियाँ की स्वीकार की जाएँगी। फिर 25नवम्बर ,2022को अन्तिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी।
अनुच्छेद 370समाप्ति के साथ ही जम्मू-कश्मीर में केन्द्रीय कानून लागू हो गए। इसके तहत देश के अन्य राज्यों की तरह आकर बसे नागरिक मतदाता सूची में नाम शामिल करा सकेंगे, बशर्ते उनका नाम मूल राज्य की मतदाता सूची शामिल न हो। अनुच्छेद 370 समाप्त होने के बाद बन रही मतदाता सूचियों में करीब 25 लाख नए मतदाता जुड़ेंगे। अनुच्छेद 370 के खात्मे के साथ ही हाशिए पर आ चुके कश्मीर दल इस मुद्दे पर यकायक आक्रामक होते नजर आए। इण्टरनेट मीडिया पर भी इस बहस को गर्म करने का प्रयास किया गया। स्पष्ट है कि यह दल लोगों की भावनाओं को उकसाकर खोया आधार पाने का प्रयास करेंगे। जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों के जवान भी अब वोट डाल सकेंगे।
अब ऐसा लगता है कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद की यह स्थिति स्वीकार नहीं है,जिसमें जम्मू-कश्मीर में देश का कोई भी नागरिक स्थायी तौर पर बसने का अधिकार है। उन्हें अपनी इस मानसिकता का परित्याग करना होगा कि कश्मीर उनकी निजी जागीर है। वैसे भी अनुच्छेद 370 जहाँ अलगाव और आतंकवाद पैदा किया, वहीं अनुच्छेद 35 ए से जम्मू-कश्मीर के दलित-जनजाति समुदाय के साथ-साथ महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता रहा। अफसोस की बात यह है कि इस अन्याय पर कश्मीर आधारित दलों के साथ दलों में काँग्रेस ने भी कभी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। जम्मू-कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी की ओर से की गई घोषणा को लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता डॉ.फारूक अब्दुल्ला सबसे ज्यादा तकलीफ हो रही है।
उनसे ज्यादा खराब रवैया पीडीपी की नेता महबूबा मुपती का है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में रहने वाले अन्य राज्यों के नागरिकों को भी वोट देने के अधिकार दिये जाने पर आपत्ति जताते हुए जिस प्रकार यह कहा कि पानी अब सिर से ऊपर जा चुका है। निश्चय ही उनका यह बयान लोगों को उकसाने वाला है। यह सच है कि जम्मू-कश्मीर इस्लामिक कट्टरपंथियों पाक परस्तों और अलगाववादियों का पूरी तरह सफाया नहीं हुआ है, लेकिन मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो अब मजहबी खूनखराबा नहीं चाहता। वह इस सूबे में अमन शान्ति और विकास चाहता है, ताकि वह और उसके परिवार सुकून की जिन्दगी जी सके। लेकिन डॉ.फारूक अब्दुल्ला समेत कश्मीर घाटी के सियासी नेता इस बदलाव को समझने को तैयार नहीं है,लेकिन यह भी तय है कि अब सूबे के लोग इनकी बौखलाहट या इनके बरगलाने और बहकावे आने वाले नहीं हैं।
सम्पर्क- डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054
मताधिकार पर क्यों बेचैन हैं कश्मीरी नेता?

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