डाॅ.बचन सिंह सिकरवार
गत दिनों गुजरात के काँगे्रस प्रदेश इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल द्वारा अपने पद और पार्टी छोड़ते हुए काँग्रेस आला कमान पर जो आरोप लगाए हैं, वे लगभग वहीं हैं, जो उनसे पहले कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी छोड़ते वक्त लगाए थे। आश्चर्य की बात यह है कि फिर भी आला कमान ने उनके आरोपों को अब तक न गम्भीरता से लिया है और न पार्टी में बदलाव या सुधार करने पर ध्यान देने की जरूरत ही समझी। वह भी तब जब विभिन्न राज्यों के विधानसभाओं तथा लोकसभा के चुनाव में पराजय का मुँह देखना पड़ा है। इतना ही नहीं, कमोबेश यह स्थिति काँग्रेस की स्थानीय निकायों के चुनावों में रही है। लेकिन उसने जनता द्वारा बार-बार नकारे जाने पर भी स्वयं का आत्म विश्लेषण की आवश्यकता अनुभव नहीं की। हालाँकि सन् 2014 के लोकसभा के चुनाव में पार्टी की हार के बाद वरिष्ठ काँग्रेसी नेता ए.के.एण्टोनी की अध्यक्षता में गठित जाँच समिति ने पराजय के कारणों का गहन मन्थन के उपरान्त सुझाव दिये थे, किन्तु खेद की बात यह है कि उन पर अमल करना तो बहुत दूर, काँग्रेस ने कभी उन विचार करने तक आवश्यकता अनुभव नहीं की। वह देश के लोगों की अपेक्षा और आकांक्षाओं का समझने की जगह पहले की तरह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और हिन्दुओं को सवर्ण, पिछड़ा, अनुसूचित, अनुसूचित जनजातियों में बाँट कर अपनी नकारात्मक राजनीति के जरिए का कामयाबी हासिल करना चाहती है। उसकी इस राजनीति से देश की जनता अब आजिज आ चुकी है। फिर भी काँग्रेस बदलाव को तैयार नहीं है।
अब हार्दिक पटेल के मामले को देखते हुए भी यही लगता है कि काँग्रेस आला कमान और उनके अन्ध समर्थकों से इस अनुचित रवैये से स्पष्ट है कि ये लोग अपनी कमियों-खामियों से सबक लेना नहीं चाहते, भले ही एक-एक कर सभी प्रमुख नेता पार्टी को अलविदा करते चले जाएँ। उन्हें पार्टी का हित नहीं, खुद की सत्ता की हर हाल में सलामत चाहिए। हार्दिक पटेल से पहले पंजाब प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ के पार्टी छोड़ने और काँग्रेस के नेताओं की खामोशी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि काँग्रेस के तीन दिवसीय उदयपुर चिन्तन के बाद भी उसका कुछ नहीं बदला हैं।
यही कारण है कि दूसरे वरिष्ठ नेताओं की तरह ही हार्दिक पटेल को पार्टी छोड़ते वक्त किसी ने भी उन्हें मनाने का प्रयास नहीं किया। इसके विपरीत हमेशा की तरह उनके पार्टी से इस्तीफा देने पर कुछ लोगों ने खुशी जतायी है। वैसे हार्दिक पटेल गुजरात की अन्य पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक प्रभावशाली कुर्मी/पाटीदार बिरादरी के नेता हैं, जिन्हें काँग्रेस में शामिल करते हुए वह अपनी बहुत बड़ी कामयाबी समझ रही थी। तब काँग्रेसियों को लग रहा था कि वह पार्टीदार समुदाय को अपने पक्ष में करके इस सूबे में आसानी से सत्ता हासिल कर लेगी। पता नहीं क्यों ? काँग्रेस नेता यह समझना नहीं चाहते कि इक्कीसवीं सदी का भारत सक्षम नेतृत्व चाहता, जबकि काँग्रेस में नेतृत्व का सर्वथा अभाव है। उन्हें गुजरात की समस्या और लोगों की भावनाओं को समझने में काँग्रेस गम्भीर नहीं है। उनका ध्यान पार्टी के नेताओं तथा कार्यकत्र्ताओं की समस्या को जानने के बजाय मोबाइल और अन्य चीजों में अधिक रहता है। कुछ नेता विदेश यात्रा का मजा ले रहे थे, जब पार्टी तथा देश को उनकी जरूरत होती थी। वैसें हार्दिक पटेल ने अपने इन आरोपों में कुछ भी गलत नहीं कहा है। ऐसा ही कुछ अरुणाचल के मुख्यमंत्री के साथ किया। जब राहुल गाँधी ने एक हपते तक इन्तजार करने के बाद उन्हें मिलने का समय दिया, तब उनके बातों पर ध्यान देने के बजाय अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में कहीं ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे। इससे नाराज होकर उन्होंने काँग्रेस को दूसरे विधायकों समेत हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। हार्दिक पटेल ने काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर ऐसा बर्ताव करने का आरोप भी लगाया जैसे वे गुजरात और गुुजरातियों से नफरत करते हों। हार्दिक ने लिखा, ‘काँग्रेस को आज भारत के लगभग हर राज्य में खारिज कर दिया गया है, क्योंकि पार्टी और उसका नेतृत्व लोगों के समक्ष बुनियाद रोडमैप भी प्रस्तुत करने में सफल नहीं रहा है। सभी मुद्दों के बारे में गम्भीरता का अभाव पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व नेताओं की बड़ी समस्या है। जब भी मैं वरिष्ठ नेताओं से मिला, मुझे महसूस हुआ कि उनकी गुजरात के लोगों का समस्याओं को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हार्दिक पटेल के इस आरोप में भी है कि काँग्रेस का राम मन्दिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से सम्बन्धित अनुच्छेद 370, वस्तु एवं सेवा कर, नागरिकता संशोधन जैसे मामलों में विरोध करना सही नहीं था। यह सच है ,क्योंकि देश की बहुसंख्यक लोगों को उससे रूष्ट होना स्वाभाविक है। उनकी दृष्टि में उक्त मामलों में केन्द्र सरकार निर्णय सर्वथा उचित था। यही कारण देश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोकसभा के 2019 में विश्वास व्यक्त करते हुए पुनः देश की सत्ता की बागडोर सौंपी है। हालाँकि जब काँग्रेस के कोई दर्जन वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी संगठन में बदलाव तथा वर्तमान रीति-नीतियों पर फिर से विचार करने की माँग की,तो उनके साथ ऐसा बर्ताव किया जैसे वे पार्टी के दुश्मन हों। उन्हें अपमानित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इन्हीं कारणों से मध्य प्रदेश के बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिन्धिया, उत्तर प्रदेश के जितिन प्रसाद, आर.पी.एन.सिंह, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह, अश्विनी कुमार फिर उत्तर -पूर्व के सुष्मिता देव, अब पंजाब काँग्रेस के अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ ने भी उसका दामन छोड़ भाजपा में शामिल हो गए, जिन्होंने पचास साल काँग्रेस को दिये थे। काँग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष के सहारे चल रही है,लेकिन वह अपना स्थायी अध्यक्षता तक नहीं चुन पा रही है। काँग्रेस की शीर्ष नेतृत्व यह नहीं समझ पा रहा है कि उसकी नीतियाँ पुरानी पड़ गई हैं। उसकी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण लाॅलीपाप देने की नीति पर निष्प्रभावी हो गई है।उसके इस वोट बैंक पर सपा,बसपा, तृणमूल काँग्रेस,आम आदमी पार्टी हथियाँ चुकी हैं। उसकी कोई अलग से आर्थिक से लेकर दूसरे मसलों पर भी कोई विशेष नीति हो,ऐसा भी नहीं है। फिर भी काँगे्रस मतदाताओं अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नए तौर-तरीके अपनाने पर विचार करने को तैयार नहीं है।उसके जो नेता थोड़ा बहुत भी जनाधार रखते थे, वे भी अपने नेताओं के अड़ियल और संवेदहीन रवैये से निराश होकर दूसरे दलों का दामन थामने को मजबूर हुए हैं। इसका बड़ा कारण उन्हें काँग्रेस और उसमें रह कर स्वयं का भविष्य में कुछ भी सुखद होता दिखायी न देना है। उ.प्र. और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में काँग्रेस का लगभग सफाया हो गया है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में सफाये के नजदीक है,जहाँ कुछ साल पहले तक वह सत्ता में हुआ करती थी। वर्तमान में भी जिन राज्यों में वह पूरी तरह सत्ता में हैं या साझीदार है उनमें भी कुछ उल्लेखनीय या कहें भाजपा सरकारों से कुछ अलग करके नहीं दिखा पा रही है। इतने पर भी काँग्रेस आला कमान के तमाशबीन बने रहने से यही लगता है कि वह आत्मघात पर उतारू हैं। ऐसी मानसिकता में उसे समझा-बुझाना निरर्थक है। इसलिए देश की जनता का भी उसके प्रति भरोसा लगतार कम हो रहा है।
सम्पर्क-डाॅ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो. नम्बर-9411684054
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