हिन्दी दिवस पर विशेष
डाॅ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार
‘मेरा नम्र ,लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा दर्जा और अपनी -अपनी प्रान्तीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं।’ उक्त कथन महात्मा गाँधी के 29 मार्च, सन् 1818 में इन्दौर में आयोजित आठवे हिन्दी साहित्य सम्मेलन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन का अन्तिम अंश है,। उनके इस सार्वजनिक आह्वाहन की अनुगूँज तब स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत बहुभाषी देश में दूर-दूर तक सुनायी दी थी, लेकिन देश के स्वतंत्र होने के बाद नेताओं ने उनकी इस भावना को एकतरह से भुला ही दिया। तभी तो देश के स्वतंत्र होने के सात दशक से अधिक होने के बाद भी अभी तक हिन्दी को सही माने में अपने राजभाषा होने का दर्जा नहीं मिला है। वह भी तब जब हिन्दी भारत में ही नहीं, विश्वभर में सबसे अधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा है। राजनीतिक नेतृत्व की इच्छा शक्ति की कमी तथा निहित क्षेत्रीय राजनीतिक स्वार्थों के कारण राजकाज के साथ-साथ उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में अँग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। हिन्दी अपनी तमाम खूबियों और प्रसार के रहते हुए भी महज आम लोगों की परस्पर सम्पर्क , वस्तुओं की खरीद-फरोख्त तथा मनोरंजन की भाषा बन कर रह गई है। यहाँ तक कि हिन्दी भाषा प्रदेशों में भी उसे वांछित स्थान प्राप्त नहीं है। इसका एक बड़ा कारण हिन्दी का अपनों द्वारा ही अपेक्षित मान-सम्मान न देना रहा है, क्योंकि सरकारी नौकरियों, न्यायालय, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी,,तकनीकी क्षेत्रों में अँग्रेजी की अनिवार्यता एवं अपरिहार्यता बनी हुई है। अँग्रेजी के अच्छे ज्ञान के अभाव में भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय विदेश सेवा, भारतीय राजस्व सेवा, न्यायिक सेवा, उच्च सैन्य पदों समेत अधिकांश सेवाओं आदि में नौकरी पाना असम्भव है।
उक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन में ही महात्मा गाँधी जी ने अपनी मातृभाषा के महत्त्व को समझते हुए कहा था, ‘‘जैसे अँग्रेज मादरी जबान यानी अँग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें, इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कत्र्तव्य पालन करना चाहिए।’’ इसके बाद महात्मा गाँधी ने ‘पाँच हिन्दी दूत’ उन राज्यों में भेजे, जहाँ इस भाषा का अधिक प्रचलन नहीं था। इन पाँच हिन्दी दूतों को हिन्दी का प्रचार के लिए सबसे पहले तत्कालीन मद्रास स्टेट भेजा, जिसे वर्तमान में ‘तमिलनाडु’ कहा जाता है। इन हिन्दी दूतों में महात्मा गाँधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गाँधी और स्वामी सत्यदेव भी थे। उनके प्रयासों से दक्षिण भारत के लोगों ने अपने यहाँ ‘दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा’ का गठन किया। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महात्मा गाँधी सबसे बड़े और प्रभावशाली नेता थे,जो स्वयं गुजराती भाषी थे,पर उन्हें देश के विभिन्न भागों को भ्रमण करते हुए यह जानने-मानने में देर नहीं लगी कि हिन्दी ही स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रमुख भाषा बन सकती है,जिसे देश के बहुत बड़े हिस्से में जनसाधारण द्वारा समझा और बोला जाता है। हिन्दी ही देश की एकमात्र भाषा है जो पूरे देश को जोड़ सकती है। इसके पश्चात् वह हिन्दी सबसे बड़े समर्थक और प्रचारक बन गए।
वस्तुतः जब महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे,तब उनका सन् 1917 में पहला आन्दोलन बिहार के चम्पारण में ‘नील की खेती’ के खिलाफ हुआ। वहाँ उन्हें सबसे बड़ी समस्या भाषा को लेकर हुई। तब उनकी सहायता कुछ स्थानीय साथियों ने की थी। उसके बाद महात्मा गाँधी ने बहुत जतन से हिन्दी सीखी।
यद्यपि महात्मा गाँधी गुजराती ढंग की हिन्दी में भाषण देते थे, तथापि इसके माध्यम से ही जनता से उनका गहरा जुड़ाव हो गया। हिन्दी के लेखकों, साहित्यकारों, कवियों के साथ उनके रिश्ते अत्यन्त घनिष्ठ रहे। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का किस्सा तो प्रसिद्ध है ही जब गाँधी जी ने कहा कि हिन्दी में कोई ‘टेगौर’ नहीं है, तब निराला भड़क गए और गाँधी जी से प्रतिवाद किया। उसके बाद महात्मा गाँधी जी ने अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ ऐसा ही पाण्डेय बैचेन शर्मा उग्र जी के साथ हुआ। उनकी पुस्तक ‘चाकलेट’ पर जब बनारसीदास चतुर्वेदी ने अश्लीलता का आरोप लगाया और उसे ‘घासलेटी’ साहित्य कहा, तब यह मामला महात्मा गाँधी तक पहुँचा। इस पर गाँधी जी ने उस किताब को दिलचस्पी लेकर पढ़ा। उन्होंने उग्र जी को उस आरोप से बरी करते हुए उसे समाज के हित में बताया। उस पर बाकायदा उन्होंने अपने पत्र ‘हरिजन’ में लेख भी लिखा।
महात्मा गाँधी के विचारों और उनके स्वतंत्रता आन्दोलन, स्वदेशी, खादी, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, अछूतोद्धार, शराबबन्दी, आदि का समकालीन हिन्दी लेखकों,साहित्यकारों, कवियों के लेखन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने स्वीकार किया कि उनका हिन्दी और राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ना गाँधी जी के कारण ही सम्भव हुआ। प्रेमचन्द की गोदान समेत दूसरी रचनाओं में तत्कालीन राजनीति ,गाँधी जी के आन्दोलन का जगह-जगह उल्लेख मिलता है। महात्मा गाँधी जी जिस तरह की हिन्दी लिखते और बोलते थे, वे उसे हिन्दी नहीं, बल्कि उसे ‘हिन्दुस्तानी’ कहते थे। यह उस समय की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी से अलग थी। यह सहज, सरल हिन्दी थी जिसे गाँधी जी ने एक सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया। उनका यह वाक्य बहुत प्रसिद्ध है कि राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए आवश्यक है।
महात्मा गाँधी बैरिस्टर, समाज सुधारक और राष्ट्रीय राजनेता होने के साथ-साथ कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेजी में अखबार निकाला। इसके बाद भारत लौटने उन्होंने गुजराती, अँग्रेजी, हिन्दी में कई समाचार पत्र प्रकाशित किये। हिन्दी में महात्मा गाँधी ने ‘नवजीवन’ और ‘हरिजन सेवक’ निकाले। उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’, ‘आत्मकथा’ समेत कई दूसरी पुस्तकें भी हिन्दुस्तानी में ही लिखी थी। वह अपने पास आए पत्रों का उत्तर हिन्दी में ही दिया करते थे।
महात्मा गाँधी ने ‘राष्ट्रभाषा के विषय में 10अगस्त, सन् 1947को प्रकाशित लेख में लिखा था ,‘‘ दिल्ली में मैं रोज ही हिन्दुओं और मुस्लिमों से मिलता हूँ जिनमें हिन्दुओं की संख्या ज्यादा है। इनमें से ज्यादातर एक ही भाषा बोलते हैं जिसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं। फारसी और अरबी के भी (शब्द) ज्यादा नहीं होते, इनकी बड़ी संख्या को देवनागरी लिपि नहीं आती। वे मुझे अलग-सी अँग्रेजी में चिट्ठी लिखते हैं और जब मैं उन्हें विदेशी भाषा में न लिखने के लिए कहता हूँ वे उर्दू में लिखते हैं तो अगर ऐसे यह अनेक भषाओं की खिचड़ी हिन्दी हो और इसकी लिपि केवल देवनागरी हो इन हिन्दुओं की क्या दुर्दशा होगी?’’
‘‘लाखों भारतीय जो गाँवोे में रहते हैं उन्हें किताबों से कोई लेना-देना नहीं है।वे हिन्दुस्तानी बोलते हैं जिसे मुस्लिम उर्दू लिपि में लिखते हैं और हिन्दू उर्दू या नागरी लिपि में लिखते हैं। इसलिए हमारा और आपका यह कत्र्तव्य है कि हम दोनों ही लिपियाँ सीखें।’’ महात्मा गाँधी से जब यह प्रश्न किया गयाकि आधिकारिक रूप से अँग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है और इसे बदलने के बजाय ऐसे ही जारी रखा जाए, क्यों कि लोग इस भाषा को भी भारत में समझने लगे हैं। इस सवाल पर महात्मा गाँधी का कहना था कि अँग्रेजी से बेहतर होगा कि हिन्दुस्तानियों को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाया जाए, क्योंकि यह हिन्दू-मुसलमान, उत्तर-दक्षिण को जोड़ती है। महात्मा गाँधी का यह भी मानना था कि हिन्दी का प्रयोग केवल बोलचाल और देश की आधिकारिक भाषा के तौर पर ही नहीं, बल्कि न्यायालयो में सुनवायी के लिए भी जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में वह कहते थे,‘‘कोर्ट की सुनवायी के दौरान राष्ट्रीस भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।, अगर ऐसा नहीं होता है लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया पूरी तरह से समझ नहीं आएगी। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं को कोर्ट में जरूरी आगे बढ़ाना चाहिए। इसमें कोई शक-सन्देह नहीं कि हिन्दी यदि राष्ट्रभाषा बन सकी ,तो उसमें महात्मा गाँधी जी का बहुत अधिक योगदान रहा है।
सम्पर्क – डाॅ.अनुज कुमार सिंह सिकरवार
63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-7983582737
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