शिक्षा

मातृभाषा की उपेक्षा कब तक

डॉ. अनुज कुमार सिंह सिकरवार

अभी हाल ही में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगमोहन रेड्डी द्वारा बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा अंग्रेजी में करने की वकालत की है। वहां विपक्षी पार्टियों द्वारा विरोध किया जा रहा है, उनका कहना है कि तेलगू विरोधी है। हमें ये समझना बहुत जरूरी है कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से हम कहां तक जा सकते है। अगर हम विकसित देशों की बात भी करे तो क्या विश्व से सभी देशों में अंग्रेजी बोली जाती है, ये हमें समझना आवश्यक है। विश्व के अनेक देशों जिसमें चीन, रूस, कोरिया, जापान, फ्रांस, स्पेन, नार्वे, इटली जर्मनी आदि सभी देशों अपनी मातृभाषा में ही पढ़ाई होती है और बोली जाती है। वस्तुतः स्थिति हमारे देश में भिन्न है, हमें लगता है कि अंग्रेजी के बिना हमारा गुजारा नहीं होने वाला। एक तरफ जहां हम अपने देश में बोली जाने वाले क्षेत्रीय भाषाओं और हिन्दी का विरोध करते है। वहीं अंग्रेजी पढने-बोलने से हमें कोई गुरेज नहीं है, क्योंकि यही हमने अपना आदर्श मान लिया है।
हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में देशवासियों से अपील की थी कि हमें अपनी मातृभाषा को आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन क्या कोई सरकार इसको गम्भीरता लेती है। हमारे देश की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक पूरी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है। बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों में अंग्रेजी माध्यम से स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह फैल गये है तथा लोगों की सोच में भी यह बात व्यापक रूप से समाई हुई है वह अपनी मातृभाषा को हेय दृष्टि से देखते है और बोलते से कतराने है। उन्हें लगता है कि अंग्रेजी में अगर बात नहीं करेंगे तो हम विद्वान नहीं समझा जाएगा।
प्रारम्भिक शिक्षा को लेकर यह बहस होना लाजमी है कि प्रारमिभक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जाए। देश के अधिसंख्यक विद्वान, बाल मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों ने सरकार को कई बार चेताया है कि कक्षा 1 से 5 तक कि शिक्षा अपनी भाषा में ही हो पर सरकारों से सभी को दरकिनार कर अंग्रेजी पढ़ाना शुरु कर दिया। यह सिध्द हो चुका है कि मातृभाषा में शिक्षा बालक के उन्मुक्त विकास में ज्यादा उपयुक्त होती है। जहां बालक अलग-अलग आर्थिक स्थिति के होने के कारण विषय को ग्रहण करने की क्षमता समान नहीं होती और वो भी तब जब शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जाए। देश में ऐसे परिवार बहुत कम या नगण्य ही होगें जहंा घरों का परिवेश ही अंग्रेजी भाषामय हों। जब यहां सिर्फ भाषा की ही बात नहीं हो रही है उसके साथ आने वाले संस्कार भी बच्चों को नहीं मिल रहे है। बालक न तो अग्रेंजी ही सीख पा रहा है न मातृभाषा है। इस तरह की भाषा खिचडी हुई जा रही है।
हम देखे तो एक भाषा में बात भी नहीं सकते, उसमें कई अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। क्योंकि हमारे चारों तरफ के वातावरण में ही ये सब चल रहा है, तो हम कैसे सीख सकते है। हमें सोचना चाहिए कि हमारी भाषा कितनी समृद्ध है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश बच्चे स्कूल जाने से कतराते है क्योंकि उन्हें शिक्षा उस भाषा में नहीं मिलती जिसको वह घर पर बोलते है।
यह सोचनीय विषय है कि भाषा संस्कृति और संस्कारों की संवाहिका होती है। भाषा के पतन से संस्कृति व संस्कारों का भी पतन हो जाता है। । भाषा बदलने से जीवन के मूल्य भी बदल जाते हैं सोच भी बदल जाती है। भाषा संस्कृति का अधिष्ठान है। मौजूदा दौर में देश में जैसे अंग्रेजी का स्थान है, उसी प्रकार सन् 1362 तक ब्रिटेन में फ्रांसीसी का स्थान था। फिनलैन्ड में 100 वर्ष पूर्व स्वीडिश भाषा चलती थी, रूस में जार के जमाने में फ्रांसीसी भाषा का दबदबा था। इन सभी देशों में वहां की जनता एवं शासकों की इच्छा शक्ति के कारण, आज वहां अपनी भाषाओं में सारा कार्य हो रहा है। आज आवश्यकता है अपने देश लोगों में इच्छाशक्ति जागृत करने की। इसकी शुरूआत स्वयं से करनी पडे़गी। इसके लिए सबसे पहले अपने सभी हस्ताक्षर अपनी भाषा में करें। किसी भी भाषा में लिखें या बोलें तब ‘भारत‘ शब्द का प्रयोग करें, इन्डिया का नहीं। अपने कार्य व व्यवहार में अपनी भाषा का ही उपयोग करें। अपने बच्चों को मातृभाषा में ही पढा़यें। अपने संगठन, कार्यलय के स्तर पर सारा कार्य व्यवहार अपनी ही भाषा में करें। अपने बालकों को मातृभाषा माध्यम के विद्यालय में ही पढाएं। घर, कार्यालय, दुकान में नाम पट्ट एवं पट्टिकाएं अपनी भाषा में ही लिखे। अपने व्यक्तिगत पत्र, आवेदन पत्र, निमंत्रण-पत्र आदि भी मातृभाषा या भारतीय भाषा में लिखें या छपायें।
इसका दूसरा पहलू यह भी है कि देश भर में चल रहे कान्वेन्ट स्कूल, यूनिवर्सिटी, कॉरर्पोट सेक्टर सभी में अंग्रेजी का प्रयोग होता है, अगर यह नहीं होगा तो इनकी दुकानों पर ताला लग जाएगा, जो सिर्फ इन्हीं से मोटी रकम बना रही है। हम सिर्फ पश्चिमी नजरीये से सोचते है। आजकल रोजगार और मान-सम्मान की भाषा अंग्रेजी ही है। इसके छद्म परिणाम स्वरूप भारत में एक भाषाई अभिजात्य वर्ग पैदा हुआ है जो अंग्रेजी के माध्यम से अपने हितों को साधता है और शेष भाषाई समाज का शोषण करता है।
इसी प्रकार विश्व कवि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने कहा था कि ‘‘ यदि विज्ञान को जन-सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।’’
हमें देखना होगा कि क्या विश्व में सारा शोध कार्य अंग्रेजी में ही हो रहा है। यह समझना बहुत आवश्यक है कि अगर देश को आगे बढ़ाना है तो अपनी मातृभाषा को आगे बढ़ाना होगा। तभी हमारा और देश के विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।

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