राजनीति

इन सवालों पर कब गौर करेंगे ?

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष-
डॉ. बचन सिंह सिकरवार
अपना देश 75 वाँ स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, जो किसी भी देश के लोगों के लिए प्रसन्नता और गर्व की बात है। यह स्वतंत्रता देश को बहुत लम्बी प्रतीक्षा और उसे पाने के लिए लाखों लोगों के सतत् संघर्ष से मिली। इसके लिए अनगिनत लोगों ने बलिदान दिये, तब कहीं जाकर ये आजादी हमने पायी है। यह आजादी तो हमें मिल गई, पर सवाल यहाँ कई हैं कि इतने सालों बाद भी क्या हम अपनी इस स्वतंत्रता का असली मोल जान पाये हैं? क्या उनके सिद्धान्तों पर कुछ कदम भी चल पाएँ,जिनके लिए हमने आजादी चाही थी? क्या हम उन स्वतंत्रता सेनानियों के सपने साकार करने में सफल रहे हैं, जो उन्होंने इस आजादी की जंग करते वक्त देखे थे? हम आज के भारत को उनके मुताबिक तो क्या, उसके आसपास भी बनाने में सफल हुए हैं? जिस औपनिवेशिक सोच से मुक्ति पाने को स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी आवाज बुलन्द की थी?क्या हमारे नेता,प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति,मंत्री, नौकरशाह उस औपनिवेशिक मानसिकता का परित्याग कर पाये हैं? क्या उनका भाव दाता और प्रजा सरीखा नहीं है? क्या हम भाषाई दसता को अब तक छोड़ पाएँ हैं?अगर नहीं,तो क्यों? हमने राजनीतिक व्यवस्था के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुना ,क्या हम अपने वास्तविक व्यवहार में उसके अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश की हैं? क्या समाज में पंक्ति के अन्तिम व्यक्ति वह सब कुछ तो प्राप्त है,जो सबसे आगे खड़े को प्राप्त है?नहीं, यहाँ तक कि उसे इन्सान होने का दर्जा भी नहीं दे पाए हैं।यह सवाल आज मौजूं है।
विदेशी हमलावरों ने यहाँ के लोगों के साथ हर तरह के जोर-जुल्म करने के साथ उनका आर्थिक शोषण भी किया और देश को लूटकर ‘सोने की चिड़िया’ की जगह एक तरह से कंगाल बना दिया।। विदेशी शासकों ने लोगों पर तरह-तरह की पाबन्दियाँ ही नही ं, उनका तलवार के जोर पर मतान्तरण भी कराया। उनके धार्मिक स्थलों का विध्वंस कर अपने इबादतगाह खड़े किये गए । जिन लोगों ने उनका मजहब कबूल नहीं किया, उन्हें दण्डित करनेे को आर्थिक दण्ड यानी ‘जजिया’, ‘तीर्थकर’ समेत तमाम तरह से प्रताड़ित किया गया। आजादी की चाहत रखने और उसे पाने के लिए जंग करने वालों को सजा के तौर पर उनकी जमीन-जायदाद जब्त या बेदखल कर दिया। उन्हें लम्बी सजा देकर जेलों की काल कोठरियों में ही नहीं डाला, बल्कि मामूली से वजहों के लिए फाँसी देने में भी देर नहीं की। फिर भी आजादी के लिए लड़ने वालों ने कभी अपना इरादा नहीं बदला। इसे पाने के लिए खुशी-खुशी फाँसी पर चढ़ना तक मंजूर किया,पर अफसोस, आजाद होने के बाद देश को चलाने वालों ने सत्ता पाने और उस पर काबिज बने रहने के लिए ये लोग अब तब क्या-क्या धतकरम करते आए हैं ,यह सोचकर ही शर्म/ घिन आती है।
देश के स्वतंत्र होने के बाद सिंचाई के लिए बड़े-बड़े बाँध, बिजलीघर, इस्पात के बड़े-बड़े कारखाने, तेलशोधक कारखाने, परमाणु ऊर्जा रियेक्टर,भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन(इसरो), रेल के डिब्बे बनाने, हवाई और पानी के जहाज के कारखाने, विभिन्न शहरों गगनीचुम्बी इमारतें का निर्माण, तमाम शोध और अनुसंधान केन्द्र, स्थापित किये, उवर्रकों के कारखाने, कपड़ा मिल,भोग-विलास की अनेकानेक वस्तुओं, साइकिलों से लेकर लक्जरी कारों के कारखाने स्थापित कर लिए हैं। चीनी और अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता जैसी तमाम कामयाबी हासिल की हैं, इनसे बहुत से लोगों के जीवन कई तरह के बदलाव भी आए हैं, इन पर इतराया जा सकता। लेकिन दूसरी ओर गुलामी के सैकड़ों सालों के बीच अपने लोगों की जो चारित्रिक सुदृढ़ता बनी रही थी,किन्तु पिछले सात दशकों में देश के लोगों का चरित्र धरातल पर नहीं, अब रसातल में चला गया है।
देश और समाज की चिन्ता करने और उस पर बगैर स्वार्थ के मर मिटने वाले अब गिनती के ही बचे हैं,उन्हें भी सिरफिरा कहा जाता है। नौबत यह आ गयी है कि देश की चिन्ता कौन करे, सेतमेत में कौन मरे? जैसी कहावत चल पड़ी है। आज स्थिति यह है कि बिना स्वार्थ के कोई एक कदम भी आगे रखना नहीं चाहता। देश में भ्रष्टाचार का कोई ओरछोर नहीं है। किसी भी सरकारी विभाग में बगैर रिश्वत के काम नहीं होता। न्यायालयों में न्याय बिकता है। बगैर दाम और दबाव के कहीं सुनवायी नहीं होती। यहाँ तक कि मन्दिरों में भी बिना चढ़ावे के देवदर्शन दुर्लभ हैं। देश में जातिगत छुआछूत में कमी जरूर आयी है, पर लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए विद्यालय में प्रेवश, वजीफा, सरकारी नौकरी, चुनाव लड़ने के लिए नाम पूछने पर उसके साथ जाति बताने में शान समझ रहे हैं। हर क्षेत्र में गैर बराबरी बढ़ती जा रही है। संविधान में कानून के समक्ष बराबरी का अधिकार अवश्य है, जो सिर्फ चुनाव में वोट देने तक सीमित है, बाकी हर जगह धन, जाति, धर्म ,बाहुबल आदि के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं। संविधान में कुछ दलित जातियों के लोगों को सिर्फ 10साल के लिए सीमित क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान किया गया था, जो सात दशक गुजरने के बाद भी सभी क्षेत्रों में व्याप्त हो गया। आज यह आरक्षण तथाकथित सामाजिक न्याय की आड़ में समाज में परस्पर विद्वेष उत्पन्न करने, बाँटने-लड़ाने तथा गैर बराबरी बढ़ाने को औजार बन गया है। देश के सभी राजनीतिक दल इसका अधिकाधिक उपयोग कर सत्ता हथियाने के लिए बढ़चढ़ कर इस्तेमाल कर रहे हैं। देश में योग्यता की बराबर अनदेखी की जा रही है। देश में ऐसा कौन होगा, जो देश के गुलामी के कारणों से परिचित न हो। उन्हें अच्छी तरह पता है कि हम बँटे हुए थे, इसलिए देश के लोग विदेशी हमलावरों का सामना करने में विफल रहे। नतीजा, देश सैकड़ों साल तक विदेशियों का गुलाम रहा, पर हमने अपनी उस गलती से सबक लेकर उसे सुधारने की कोशिश नहीं की। सत्ता के लिए चुनाव जीतने हेतु अपने देश की सभी सियासी पार्टियाँ धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, जाति- उपजाति, क्षेत्र, भाषा आदि के बहाने लोगों के बीच नफरत फैलाकर उन्हें बाँटती आयी हैं। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि हम देश के लोगों को बाँटने की राजनीति को तिलांजलि देकर, उन्हें जोड़ने की सियासत करें। क्या आपको एक भी पार्टी ऐसी दिखायी दे रही है। ऐसे ही जो लोग सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधि बनकर सियासत या फिर नौकरशाह के रूप में सत्ता का स्वाद चख चुके हैं, वे दूसरों को अपनी जगह आने देना नहीं चाहते। सत्ता की लालसा/हवस इस हद कदर बढ़ गई कि उन्हें समाज और देश के दुश्मनों से भी हाथ मिलने से कतई गुरेज नहीं है।इनमें से कुछ लोग देश के भ्रष्टाचारियों, धर्मान्तरण कराने वालों, मजहबी जहर फैलाकर फिर से मुल्क को तोड़ने की कोशिशों में लगे आस्तीन साँपों की अनदेखी ही नहीं, उन्हें पालने-पोसने में भी लगे हैं। कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने तरह-तरह के झूठ का जहर फैलाकर समाज में विघटन उत्पन्न करने और देश को दुनिया के सामने नीचा दिखाने में जुटे हुए हैं। देश में बढ़ती गरीबी, आबादी, बेरोजगारी, महँगाई, सीमाओं की असुरक्षा, अन्याय, अत्याचार, लाचारी, भ्रष्टाचार जैसे ज्वलन्त मुद्दों और सवालों को छोड़कर फिजूल के मुद्दे उठाकर जनता को भरमाने-भटकाने में लगे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद/विधानसभा उसका केन्द्र बिन्दु होते हैं,जहाँ देश के लोगों के हित-अनहित पर विचार करना होता है,लेकिन इनके स्थान पर ये अब हुल्लड़बाजी और बाहुबल के प्रदर्शन स्थल बना दिये हैं। वैसे तो जीवन के हर क्षेत्र में नैतिकता और शुचिता होनी चाहिए, पर इनके बगैर देश की राजनीति कैसे हो गई हैं,यह बताने-जताने की आवश्यकता नहीं रह गई। बड़ी संख्या में आपराधिक मानसिकता/प्रवृत्ति के लोग ही नहीं, अपराधी भी सांसद, विधायक आदि बन गए हैं, इन से राष्ट्र और जनहित में कुछ करने की उम्मीद करना ही बेमानी है। यह सच है कि एक स्वतंत्र देश के नागरिक होने के नाते लोगों ने भी स्वयं को नहीं बदला है, पर इसके लिए भी कहीं तक देश के नेता ही उत्तरदायी हैं। देश में अधिकार जताने और माँगने का चलन तो सभी ने सीख लिया है, पर किसी ने उनसे जुड़े कर्त्तव्यों पर ध्यान देने की कभी आवश्यकता तक अनुभव नहीं की। क्या इनमें कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है? इन प्रश्नों को उठाने का उद्देश्य स्वतंत्रता दिवस की उपलब्धियों का नकारना नहीं,अपनी कमियों-खामियों पर गम्भीरता से चिन्तन-मनन करन उन्हें दूर करना है। जयहिन्द।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार, 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.न.9411684054

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