डाॅ.बचन सिंह सिकरवार

देश में वर्तमान संविधान के लागू होने के बाद सात दशक से अधिक समय हो गया और हम 72वाँ गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, लेकिन हमें अपनी आजादी और संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों की तो याद है जिन्हें माँगने और उन्हें लागू कराने के लिए तरह-तरह उपाय करते आए हैं। इनमें हड़ताल, उपवास, शान्तिपूर्ण आन्दोलन आदि से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की सहायता भी लेते आए हैं। लेकिन हम में से ज्यादातर लोग उन संविधान प्रदत्त अधिकारों से सम्बन्धित कत्र्तव्यों का शायद ही ध्यान रखते हों। फिर ये संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता का अधिकार निर्बाध/असीम नहीं हैं। यह आजादी उसी सीमा तक है, जहाँ से दूसरे की आजादी बाधित होनी शुरू हो जाती है। हमें ध्यान रखना है कि संविधान में मिले हर अधिकार के साथ कर्Ÿाव्य भी जुड़े हैं। 26 जनवरी, सन् 1950 को अपने देश में संविधान लागू हुआ और देश ‘गणतांत्रिक’ या ‘गणतंत्र’ बना। ‘गणतंत्र’ शब्द ‘गण’ और ‘तंत्र’ को मिलाकर बना है। इसमें ‘गण’ का अर्थ ‘जन/आमआदमी’ और ‘तंत्र’ व्यवस्था है। इसके माने जनसाधारण के लिए बनी व्यवस्था है। जो आम आदमी के मत/वोट से चुनी हुई सरकार चलाती है और उसके हित के लिए ही काम करने के बनी होती है। अब यहाँ प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में यह ‘गण’ का ‘तंत्र’ है ? हकीकत में वर्तमान ‘गणतंत्र’ में जहाँ एक ओर यह ‘तंत्र’ ‘गण’ का स्वामी बनकर उसका हर तरह से शोषण कर रहा है। इससे जुड़े सांसद, विधायक और दूसरे कथित जनप्रतिनिधि, नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी स्वयं को ‘गण’ का मालिक समझते हुए उसके साथ गुलामों सरीखा सलूक करते हैं, वहीं दूसरे ओर इनके साथ-साथ कुछ अन्य निहित स्वार्थी तत्त्व स्वतंत्रता के अपने -अपने माने निकाल कर मनमानी करते आए हैं। यही कारण है कि अभी तक संविधान निर्माताओं की भावना के अनुरूप ‘गणतंत्र’ नहीं बन पाया है। इसे सत्ता लोभियों(तांत्रिकाओं) ने ‘भीड़तंत्र’ बना कर रख दिया है। इसके लिए ये लोग जाति, मजहब, क्षेत्रवाद, भाषावाद या फिर तमाम तरह की सुविधाएँ मुफ्त में देने का लालच देकर कर अपने पक्ष में ‘गण’ की भीड़ जुटाते आएँ, उसके बाद इन्होंने अपनी सुविधा के मुताबिक ‘तंत्र’ बना लिया है।

क्षोभ की बात यह है कि आजादी के बाद से ही लोगों ने स्वतंत्रता के माने बीच सड़क पर चलना या हर तरह की मनमानी करना समझ लिया है। ये अपनी इस आजादी के अधिकार के गुमान में न सिर्फ संसद में पारित कानून को मानने से इन्कार कर रहे हैं, बल्कि उसमें उन्हें कमियाँ बता कर सरकार से संवाद करना तक गंवारा नहीं है,जबकि गणतंत्र/लोकतंत्र में संवाद ही उसे चलाने की आधारशिला है। जो न्यायपालिका संसद यानी विधायिका के बनाये कानून के संविधान होने का परीक्षण करती है,वह उसकी भी अनसुनी कर रहा है, या कहें, उस पर भी अविश्वास जता रहा है। यह कैसा ‘गण’है और कैसा यह ‘तंत्र’ है ? यही कारण है कि जहाँ आजकल किसान केन्द्र सरकार द्वारा संसद में पारित तीन कृषि अधिनियमों को वापस लेने की जिद्द पर डटे हंै। अपनी दूसरी माँगें मनवाने के लिए किसान दो महीने से भी अधिक समय से दिल्ली के सभी प्रमुख प्रवेश मार्गों को घेरे बैठे हैं और उससे पहले ये पंजाब में रेल की पटरियों पर कब्जा कर रेलों के आने-जाने को बाधित किये हुए थे। इससे ऐसे लोगों को रोजाना कितनी परेशानी हो रही है, उनके कारोबार ठप्प होने के कगार पर हैं, उससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है। अब वे संविधान में प्रदत्त विरोध जताने और आन्दोलन के अधिकार की दुहाई देते हुए 26 जनवरी ‘गणतंत्र दिवस’ पर टैªक्टरों समेत परेड करने की हठ कर रहे हैं, जिसे 26 जनवरी, सन् 1950 को लागू किया था।इस दिन पूरा देश उसका उत्सव मानता है,पर ये खूनखराबा करने पर उतारू हैं। देश के लोग संविधान में प्रदत्त विरोध प्रदर्शन के अधिकार का ऐसा दुरुपयोग करेंगे, शायद ही उन संविधान निर्माताओं ने इसे बनाते हुए सोचा होगा ? दरअसल, ये किसान नेता भी सन् 2019 के मुसलमानों द्वारा ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सी.ए.ए.) के विरोध में ‘शाहीन बाग’में सार्वजनिक मार्ग रोके जाने की नकल करते हुए आमजन और सरकार को परेशान करने पर तुले हैं, जबकि शाहीनबाग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में विरोध के लिए सार्वजनिक मार्ग को अवरुद्ध करने को अनुचित माना था। फिर भी किसान नेता जानबूझकर संविधान के निर्णय का बराबर उल्लंघन करते आ रहे हैं। कुछ ऐसे ही मामला अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के अधिकार है, जिसकी लोग अब तक अपने मनमाफिक व्याख्या करते आए हैं। अब जहाँ बहुसंख्यक हिन्दू और उनके संगठन वेब सीरिज पर प्रसारित फिल्म ‘ताण्डव’ में हिन्दू देवताओं का उपहास बनाये जाने तथा दलितों के विषय में अनुचित टिप्पणी करने तथा दिखाने का घोर विरोध कर रहे हैं, वहीं तथाकथित उदार, सेक्यूलर इसे अभिव्यक्ति आजादी बताकर उसका समर्थन कर रहे हैं। क्या ये लोग किसी दूसरे मजहब के बारे मे इसी तरह के चित्रण को सही बताने की हिमाकत कर सकते हैं ? हरगिज नहीं, भूल से भी नहीं, किसी भी सूरत में नहीं, क्यों ? क्या हिन्दू सहिष्णु है, उदार हैं, असंगठित है, इसलिए ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इन पहरुओं को केवल हिन्दुओं के मामले में यह आजादी नजर आती है। गत वर्ष फ्रान्स के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पैगम्बर मोहम्मद साहब के व्यंग्य चित्र (कार्टून) प्रकाशित किये जाने के मामले में सिर्फ इतना कहा था, ‘‘हालाँकि मैं ऐसा किये जाने का समर्थक नहीं हूँ, पर मैं इसके छापने पर प्रतिबन्ध नहीं लगाऊँगा, क्योंकि मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर हूँ।’’ उस समय अपने देश में इस्लामिक कट्टरपन्थियों ने मुम्बई समेत कई नगरों में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के पुतले जलाये गए और उनके चित्रों को जमीन पर चिपका कर पाँवों और वाहनों के पहियों से कुचला गया। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपने मुल्क में अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के पक्षधर खामोश बने रहे। यही लोग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.ए.यू.) में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’,‘कश्मीर माँगे आजादी’,‘ अफजल हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल जिन्दा’ जैसे देश विरोधी नारों को भी अभिव्यक्ति स्वतंत्रता मानते हैं। इतना ही नहीं, इन्होंने कभी जम्मू-कश्मीर में नब्बे के दशक में कश्मीरी पण्डितों को बन्दूक के जोर घाटी से बेदखल करने और अलगाववादियों द्वारा इस्लामिक दुर्दान्त दहशतगर्द संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ और पाकिस्तान के झण्डे लहराते हुए पाकिस्तान जिन्दाबाद, हिन्दुस्तान मुर्दाबाद जैसे नारों पर भी कभी ऐतराज नहीं जताया,लेकिन जम्मू-कश्मीर में इण्टरनेट सेवा करना अभिव्यक्ति स्वतंत्रता में व्यवधान और मानवाधिकार का उल्लंघन दिखाई देता है। संविधान में मिले अधिकारों की दुहाई देते हुए कुछ मजहबी संगठनों गरीब आदिवासियों, अनुसूचित जातियों को धन, नौकरी, स्वस्थ कर देने का झांसा देकर, तो कुछ हिन्दू धर्म में तमाम कमियों और अपने में फर्जी अच्छाइयों दिखाकर मतान्तरण करा रहे हैं,तो कुछ देश को तोड़ने में लगे हैं। कुछ समय से अपना मजहब, नाम, जाति छुपाकर युवतियों को झूठे प्यार में फँसाने में लगे हैं, जिन्हें उनके मजहबी संगठन धन और पैसे से मदद कर रहे हैं। इस साजिश को नाकाम करने को जब कुछ राज्य सरकारों ने ‘धर्म स्वातंत्र्य विधयेक’ पारित किया है, तो उस पर वे भारी नाराजगी जता रहे हंै। अब उनका संगठन राष्ट्रीय जमीयते उलेमा-ए-हिन्द इसके विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में चला गया। क्या छल, कपट, धोखाधड़ी से युवतियों का फँसाने की आजादी संविधान ने दी है ? अपने देश में फिल्म निर्माताओं और कलाकारों ने फिल्मों के जरिए अश्लीलता, अभद्रता, अपशब्द, हिन्दू धर्म का उपहास उड़ाना अभिव्यक्ति की आजादी समझा रखा है, वहीं कुछ जनसंचार माध्यमों ने देश विरोधी गतिविधियों और उनसे जुड़े लोगों को नायक की तरह दिखाना। ऐसे ही नेताओं, नौकरशाह, पुलिसकर्मियों, सरकारी कर्मचारियों ने भ्रष्टाचार, अनाचार कर रिश्वत लेकर अपनी जेबें भरना। इन्हें देखकर गण यानी आमआदमी भी अपनी शक्ति और सामथ्र्य के अनुसार कानून तोड़ने में लगा। कहीं कोई गन्दगी फैला रहे हैं,तो प्रदूषण ,तो कोई बिजली या पानी की चोरी कर रहा है, तो कोई सार्वजनिक मार्गों, नदियों, नाली, नालों, ताल-पोखरों पर अतिक्रमण कर। यह सब करते हुए उन्हें नहीं लगता कि वह कुछ गलत कर रहे हैं। सभी इस तंत्र की जड़ें सुदृढ़ करने नहीं, बल्कि उन्हें उखाड़ने में लगे हैं। अगर हम ‘गणतंत्र’ को सही ढंग से चलते देखना चाहते हैं, तो उस दशा में हम सभी गण का कत्र्तव्य है कि हम सभी संविधान की मूल भावना के अनुरूप स्वयं में बदलाव लाएँ। तभी हम संविधान के अनुरूप ‘तंत्र’ बना पाएँगे। संविधान में प्रदत्त अधिकारों के साथ उसमें निहित कत्र्तव्यों का भी पूरा ध्यान रखें,तभी ‘तंत्र’सही ढंग से अपने कत्र्तव्य का निर्वहन करेगा। संविधान में निहित कत्र्तव्यों को पूरा किये बगैर अधिकार माँगने का कोई औचित्य नहीं है ? यह गण की समझ में जितनी जल्दी आ जाए, उतना ही उसके और देश के लिए बेहतर होगा।
सम्पर्क-डाॅ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर, आगरा – 282003 मो.नम्बर-9411684054
Add Comment