राजनीति

कृषि कानून विरोध या राष्ट्र विरोध

साभार सोशल मीडिया

डाॅ.बचन सिंह सिकरवार

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गत दिनों कृषि कानूनों के विरोध में अमेरिका की राजधानी वांशिगटन में किसान आन्दोलन के समर्थको द्वारा जिस तरह भारतीय दूतावास के पास लगी महात्मा गाँधी की प्रतिमा पर पोस्टर चिपकाने के साथ उसे खालिस्तान गणराज्य लिखे झण्डे से ढकने का दुष्कृत्य किया, वह अत्यन्त निन्दनीय है। इसकी जितनी भत्र्सना की जाए, वह कम ही होगी। उनका यह दुष्कृत्य अक्षम्य है। क्षोभ की बात यह है कि इसके बाद भी कृषि कानूनों को लेकर आन्दोलनरत किसान नेताओं तथा उन्हें समर्थन दे रहे राजनीतिक दलों ने खालिस्तानियों के उक्त कृत्य की उस तरह खुल कर आलोचना और निन्दा नहीं की है, जैसी इस मामले में अपेक्षित थी। किसी मुद्दे को लेकर सरकार से विरोध अपनी जगह है, पर इसके लिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रतिमा का अपमान किये जाने का क्या औचित्य है ? इससे पहले कनाडा तथा ब्रिटेन की राजधानी लन्दन स्थित उच्चायुक्त कार्यालय के बाहर कथित किसान समर्थकों द्वारा खालिस्तान समर्थकों द्वारा भारत विरोधी और खालिस्तान के समर्थन में नारों लगाने के साथ खालिस्तानी झण्डे लहराए गए। उसके बाद भी किसी किसान ने नेता ने उनकी इन बेजा हरकतों की आलोचना करने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। इतना ही नहीं, किसानों के इन प्रदर्शनों में कुछ टैªक्टरों पर खालिस्तान के नारे लिखा होना तथा दिल्ली की टिकरी सीमा पर टुकड़े गैंग के सदस्यों, नक्सलियों, दिल्ली दंगों ंऔर भीमा कोरेगाँव के ‘एलगर परिषद्’ के आरोपितों की रिहाई के समर्थन में भी नारे लगाये जाने का औचित्य समझ से दूर है। कुछ समय पहले कुछ प्रदर्शनकारियों द्वारा ‘मोदी तेरी कब्र खुदेगी आज नही ंतो कल खुदेगी, जैसे नारे लगाना क्या साबित करता है ? अब साम्यवादी पार्टी से जुड़ी कुछ पंजाबी महिलाओं द्वारा प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्द तथा मरने की दुहाई लगाना। इससे किसानों के असल इरादों पर सन्देह होना स्वाभाविक है। कुछ का तो यह मानना है कि इनका मकसद इन कृषि कानूनों के विरोध से कहीं ज्यादा, मोदी और राष्ट्र का विरोध है। अब जहाँ तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार द्वारा देश के किसानों के कथित हित में जो तीन कृषि कानून बनाये गए हैं, उन्हें किसान नेताओं और भाजपा विरोधी विभिन्न राजनीति दलों द्वारा किसान विरोधीे और पूँजीपतियों के पक्ष में होने का आरोप लगाया जा रहा है। अगर ऐसा हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वर्तमान में दुनियाभर के

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लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में ज्यादातर राजनीतिक दल चन्दे से चलते हैं, जो उन्हें धनी वर्ग/पूँजीपति देते हैं। इस तरह चन्दा जुटाने मेें देश के दूसरे राजनीतिक दलों की तरह भाजपा भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन इसके माने यह भी नहीं है कि ये तीनों कृषि कानून सिर्फ और सिर्फ पूँजीपतियों के लिए फायदेमन्द और किसानों के पूरी तरह खिलाफ हों। अगर ऐसा होता, तो काँग्रेस ऐसे ही कृषि कानून बनाने की बात अपने चुनावी घोषणा पत्रों में बार-बार क्यों रखती ? एक सवाल किसानों से भी है कि केन्द्र सरकार बगैर कोई कानून बनाए उनकी आमदनी कैसे दुगुना करेगी? क्या इसके लिए वर्तमान कृषि व्यवस्था में सुधार आवश्यक नहीं हैं? ऐसा किये बगैर कृषि क्षेत्र में नई तकनीक, पं्रस्करण संस्थान, कृषि विविधता, आधारभूत संरचना, भण्डारण, उद्योगीकरण आदि के लिए निजी पूँजी निवेश की जरूरत नहीं है। बिना किसी कानून के उद्यमी कृषि में अपनी पूँजी क्यों निवेश करेगा ? ंरांकाँपा के अध्यक्ष तथा पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री रहते शरद पवार ने निजी मण्डियों का प्रस्ताव राज्यों को भेजा था। काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र में ही एपीएमसी एक्ट खत्म करने की बात कही थी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी ऐसी ही बात कही थी। दक्षिण में द्रमुक ने भी मण्डियों को सरल बनाने की बात कही थी। दिल्ली की आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल इन कृषि अधिनियमों का नोटिफिकेशन कर चुके है, अब विरोध में इन्हें विधानसभा में फाड़ कर दिखा रहे हैं। देश 26 राज्यों में किसानों को खुले बाजार में अपनी उपज बेचने की छूट राज्य सरकारों ने दी हुई, इनमें से 10 राज्यों में गैर भाजपाई राजनीतिक दलों की सरकारें हैं। अब किसान आन्दोलन का मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच गया,जिसने कमेटी बनाने के साथ-साथ आन्दोलनकारियों को आम लोगों की परेशानी का ख्याल रखने का निर्देश भी दिया।

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भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत सालों पहले किसानों को अपने उपज कहीं भी बेचने की माँग क्यों करते थे ? पहले उनके बेटे राकेश टिकैत ने मण्डी से बाहर उपज बेचने को सही क्यों कहा था ? अब महाराष्ट्र के किसानों के सबसे बड़े ‘शेतकारी संगठन’के नेता अनिल घनवट का कहना है कि ये कृषि कानून किसानों को आजादी देने वाले हैं। हालाँकि इन कानूनों में खामियाँ है, उनमें सुधार होना चाहिए। फिर हम यह भी मान लेते हैं कि भाजपा ने अपने पूँजीपति मित्र अम्बानी और अडानी के हित में ये कानून बनाए हैं, इन कानूनों में जो कमियाँ, खामियों और आशंकाएँ हैं, तो ये लोग बताएँ। फिर उन्हें सुधरवाने के लिए सहमत क्यों नहीं हैं ? उन्हें पूरी तरह वापस लेने की अब जिद्द क्यों कर रहे है, जबकि पहले उनकी माँग ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’(एम.एस.पी.) जारी रखने का लिखित आश्वासन और अनुबन्ध खेती की दशा में विवाद की निपटारा ‘उपजिलाधिकारी’(एस.डी.एम.) न्यायालय के स्थान पर ‘व्यवहार न्यायालय’ ( सिविल कोर्ट ) की जाने तक सीमित थी। फिर कई माँगें जोड़ी-बढ़ाई गईं और अन्त में तीनों कृषि कानून वापस लेने का फैसला सुना दिया। जो लोग और किसान लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा भारतीय संविधान के तहत अपनी माँगों के लिए आन्दोलन करना अधिकार बताते हैं, वह सही है,पर अपनी माँगे मनवाने के लिए उन्हें सार्वजनिक मार्ग रोकने का अधिकार किसने दिया है ? हकीकत यह है कि जितना हक उन्हें आन्दोलन करने का है, उतना अधिकार लोगों का निर्बाध रूप से सार्वजनिक मार्गों से गुजरने का भी है। लेकिन उनके अधिकार की चिन्ता/फिक्र किसी को नहीं है। कुछ राजनीतिक दल तथा किसान नेता केन्द्र सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि इन तीनों कृषि अधिनियमों का पारित करने में जल्दीबाजी दिखाते हुए संसद में चर्चा के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया,जबकि सच्चाई यह है कि लोकसभा में पाँच घण्टे और राज्यसभा में लगभग 7 घण्टे तक चली थी,जिसमें सभी विपक्षी दलों के नेताओं का अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया गया था। प्रस्तावित विधेयकों पर सभी राज्यों ने भी हामी भरी थी।
अनुबन्ध खेती( काण्टैªक्ट फार्मिंग) को पंजाब अकारण परेशान हैं। इस प्रान्त में सन् 2006 में काण्टैªक्ट फार्मिंग के कानून बना था,पर उनके तहत न तो कम्पनियाँ रजिस्टेªशन कराती है और न ही किसान। परस्पर सहमति से काण्टैªक्ट के अन्तर्गत फार्मिंग हो रही है। वैसे भी पंजाब में करीब एक करोड़ एकड़ कृषि योग्य भूमि है जिसमें सिर्फ पाँच से सात हजार एकड़ भूमि पर काण्टैªक्ट फार्मिंग होती है। वह भी बगैर किसी कागजी लिखापढ़ी के सिर्फ जुबानी वादे पर। इसके बाद भी किसानों का डर दिखाया जा रहा है कि काण्ट्रैक्ट फार्मिंग के काॅरपोरेट किसान की भूमि हथिया लेगा, किन्तु इतने साल में ऐसा भी मामला सामने नहीं आया है।
वस्तुतः पंजाब की मुख्य फसल गेहूँ और धान है। केन्द्र सरकार मण्डियों में आने पहले पहले इन दोनों फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य(एम.एस.पी.) के जरिए कीमत तय कर देती है और पूरी उपज खरीद लेती है। दरअसल, देश में केवल 6 प्रतिशत किसान ही एम.एस.पी.पर अपनी उपज बेच पाते हैं। इन 6फीसदी किसानों में से 84प्रतिशत पंजाब,हरियाण तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें पंजाब, हरियाणा से हर वर्ष 90,000 करोड़ रुपए का खाद्यान्न खरीदती है, पर यह खरीद सीधे किसान से न होकर बिचैलियों,आढ़तियों के माध्यम से होती है। इसके बदले में आढ़तियों को दलाली/कमीशन मिलता है।फिर आढ़तियों, और राज्य सरकार को 5,000 करोड़ रुपए के राजस्व मिलता है। ऐसे में आढ़तियों और राज्य सरकार को अपने हाथ से फिसलता नजर आ रहा है। पंजाब, हरियाणा खेती, किसानी से लेकर राजनीति तक आढ़तियों की गहरी पैठ है।नये कृषि अधिनियमो से आढ़तियो के वर्तमान महŸव और उनकी आमदनी घट जाएगी। इसलिए वे इस किसान आन्दोलन के पीछे खड़े हैं। देश की संसद ने ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अनियम’पारित किया हुआ।इसके लिए 6करोड़ टन प्रति वर्ष खरीदती है, जो 80 प्रतिशत लोगों को रियायती दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडी.एस.) द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। ऐसे में एम.एस.पी.और मण्डी व्यवस्था कैसे खत्म हो सकती है ?
वैसे भी काण्टैªक्ट फार्मिंग में कम्पनियों की दिलचस्पी नकद फसलों में है, जैसे फल, फूल, डेयरी उत्पाद, पोल्ट्रªी आदि। यदि इस सूबे के किसान अपनी सोच बदलें,तो बेहतरी के रास्ते खुल सकते हैं। फिर पंजाब की मिट्टी ही काण्टैªक्ट फार्मिंग के अनुकूल नहीं है, ऐसे में यहाँ के किसानों का अनुबन्ध खेती को लेकर डर गैर जरूरी है। वैसे भी एम.एस.पी.कभी कानून था ही नहीं। यह व्यवस्था केन्द्र सरकार ने सन् 1965में तब बनायी थी, जब देश में खाद्यान्नों की बेहद कमी थी। अब खाद्यान्नों का आधिक्य है। सरकार एम.एस.पी.को कानूनी रूप नहीं दे सकती, क्योंकि केन्द्र सरकार देशभर का खाद्यान्न नहीं खरीद सकती। एम.एस.पी.पर सारी खरीद अनिवार्य करने का अर्थ सरकार लगभग 17 लाख करोड़ रुपए की खरीद करनी होगी, क्यांेकि इस दाम पर निजी क्षेत्र तो खरीद करने से रहा। फिर सरकार की कुल आए ही साढ़े लाख करोड़ है। यानी सरकार केवल अनाज ही खरीदती रहे। एम.एस.पी.सेे नीचे कोई अनाज नहीं बिकेगा। अगर ऐसा होता है तो घरेलू जिंस बाजार का स्वाभाविक ताना-बाना बिगड़ जाएगा। आयात-निर्यात का सन्तुल बिगड़ सकता है। वैश्विक बाजार से अलग-थलग पड़ने का जोखिम उठाने की नौबत भी आ सकती है। इसका सबसे बड़ा असर कृषि उत्पादों के घरेलू बाजार पर पड़ेगा, जिसका खामियाजा अन्ततः किसानों को उठाना पड़ सकता है। देश में कुल 23 फसलों की एम.एस.पी. घोषित होती है जिसमें केवल गन्ना की एम.एस.पी.की गारण्टी है। इसका परिणाम है कि गन्ना किसानों का हजार करोड़ रुपए मिल मालिकों पर चढ़ा हुआ है।
कुछ किसान नेताओं का ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ लेकर है।वैसे तो इसका वर्तमान कोई औचित्य नहीं रहा है, क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम की व्यवस्था तब बनायी गई थी, जब देश में खाद्यान्नों का अभाव था। आज भारतीय खाद्यान्न निगम (एफ.सी.आई.) के गोदामों में अनाज रखने को स्थान नहीं है। अब देश दूसरे देशों का खाद्यान्न निर्यात करने की हालत में है। अब इसे केवल युद्ध या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में लागू किया जाएगा। फिर भी यदि कोई पक्ष कृत्रिम रूप से बाजार में कीमतें बढ़ता है,तो उस स्थिति से निपटने के लिए ‘भारतीय स्पद्र्धा आयोग है।
अब किसानो के भय और विरोध का कारण है कि इस कृषि अधिनियम का विरोध न्यूनतम समर्थन मूल्य(एम.एस.पी.)पर फसल बेचने का विकल्प खत्म हो जाएगा।इस मामले में केन्द्र सरकार एम.एस.पी.पर वर्तमान प्रणाली के सम्बन्ध में लिखित आश्वासन देने को तैयार है और किसान निजी मण्डियों के चुंगल में फँस जाएँगे। पराज्य सरकारें निजी मण्डियों का रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था लागू कर सकती हंै। किसानों की दूसरी आशंका है कि कारोबरियों पर अंकुश न होने से किसानों के साथ धोखा सम्भव है। ऐसे लोगों के पंजीकरण का नियम बनाने की शक्तियाँ राज्य सरकार को दी जा सकती है। विवाद पर किसानों को सिविल कोर्ट का अधिकार नहीं है। इस सम्बन्ध में सुनवायी एसडीएम के अतिरिक्त सिविल कोर्ट में कराने का विकल्प देने का तैयार है। कान्टैªक्ट फाॅर्मिंग का रजिस्ट्रेशन के मामले में रजिस्टेªशन के लिए राज्य सरकारें प्रबन्ध कर सकती हैं। किसानों को लगता है कि उनकी जमीन पर पूँजीपतियों का कब्जा हो जाएगा। अनुबन्ध कानून में यह प्रावधान है कि वह किसान की जमीन पर किसी प्रकार का ऋण अथवा मालिकाना हक किसी और को नहीं मिल सकता। किसानों को डर है कि उनकी भूमि की कुर्की हो सकती है। सरकार का कहना उनकी यह आशका निर्मूल है। कृषि सुधार कानून संवैधानिकता की कसौटी पर खरे नहीं हैं,यह सच नहीं है। अधिनियम और अध्यादेश लाने के समय सरकार द्वारा समुचित विधिक परामर्श किया गया था। किसानों की नई माँग है कि बिजली संशोधन विधेयक – 2020 खत्म किया जाए। इस सरकार का कहना है कि किसानों को विद्युत भुगतान की वर्तमान व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। किसानों की दूसरी नई माँग है किएयर क्वालिटी मैनेजमैण्ट आॅॅॅफ एनसीआर आर्डिनेन्स, 2020 खत्म किया जाए। पराली जलाए जाने से सम्बन्धित प्रावधानों की ज्यादातर आपत्तियों का समुचित समाधान किया जाएगा। इसके अलावा एम.एस.पी.पर फसल बेचने के लिए पंजाब समेत अन्य राज्यों किसानों फसल चक्र पर ध्यान देना बन्द कर दिया है,जिससे वे सिर्फ गेहँू,धान,गन्ना,कपास आदि बोते है।इस कारण अत्यधिक जल दोहन से पानी नीचे चला गया है। अधिक उर्वरकों, कीटनाशक के इस्तेमाल से मिट्टी विषाक्त हो गई है। उक्त तथ्यों के आधार पर अब इस किसान आन्दोलन के औचित्य पर स्वयं विचार करें

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