डॉ.बचन सिंह सिकरवार

हाल में अमेरिकी संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव के जरिए तिब्बत के लोगों की इच्छाओं, मानवाधिकारों और स्वतंत्रता के साथ ही उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई और राष्ट्रीय पहचान के अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण को, जो समर्थन दिया है,वह सर्वथा उचित और सामयिक है। निश्चय ही चीन को इससे गहरा आघात लगा होगा,जो तिब्बत की उन सभी विशिष्ट पहचानों को मेटता आया है,जो उसे चीन से अलग दर्शाती हैं। इस प्रस्ताव में तिब्बत की वास्तविक स्वायत्तता और चौदहवें दलाई लामा द्वारा वैश्विक शान्ति, सौहार्द और सामंजस्य के महत्त्व के लिए किये जा रहे कार्यों को, जो मान्यता प्रदान की है, उसमें भी कुछ अनुचित नहीं है, वरन् पूर्णतः सत्य है। वस्तुतः ऐसा करके अमेरिकी संसद ने तिब्बत की स्वायत्तता बहाने दुनियाभर में उन मुल्कों को संदेश दिया, जिन्हांेने दूसरे देशों या उसके किसी हिस्से पर गैरकानूनी कब्जा कर वहाँ के बाशिन्दों की हर तरह स्वतंत्रता, मानवाधिकारों का हरण किया हुआ और उनके साथ हर तरह के बेइन्साफी कर रहे हैं। इनमें चीन और पाकिस्तान समेत दुनिया के कई दूसरे देश भी सम्मिलित हैं। जहाँ तक चीन का प्रश्न यह है कि उसने तिब्बत, शिनजियांग(ईस्ट तुर्की) और ईस्ट मंगोलिया पर अनधिकृति आधिपत्य किया हुआ हैऔर वहाँ के तिब्बतियों,उइगर मुसलमानों,मंगोलों पर अत्याचार करता रहता है, वहीं पाकिस्तान भी बलूचिस्तान तथा गुलाम कश्मीर के लोगों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा सलूक करता आया है। अमेरिकी संसद के प्रस्ताव में तिब्बत की सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व को पहचान दिये जाने के साथ ही संघर्ष के शान्तिपूर्ण समाधान का भी जो उल्लेख किया गया है,उससे स्पष्ट है कि अमेरिका विश्व का ध्यान तिब्बत की विशेषताओं की ओर आकर्षित कराने और उनके अक्षुण्ण बनाये रखने के प्रति गम्भीर है।वह तिब्बत समस्या के शान्तिपूर्ण हल की अपेक्षा भी रखता है और उसके लिए प्रयासरत भी है। वर्तमान में तिब्बत और पूरे विश्व में साठ लाख से अधिक तिब्बती हैं। इस अवसर पर सांसद एवं विदेशी मामलों के अध्यक्ष इलियट एंजल ने कहा कि चीन की सरकार स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र में अमेरिका के राजनयिक, अधिकारियों, पत्रकारों और पर्यटकों का जाना नियोजित तरीके से अवरुद्ध करने का आरोप लगाया है,वह भी पूरी तरह सही है। दरअसल, चीन नहीं चाहता कि तिब्बत की असलियत दुनिया के सामने आए। वह तिब्बत के लोगों के साथ हर तरह के भेदभाव ही नहीं,उनका कई प्रकार से उत्पीड़न कर रहा है। तिब्बती बौद्धों के अपने धार्मिक विश्वास तथा आस्था से रहने में बाधा डालता है। उसने तिब्बत में बड़ी संख्या में हान चीन नस्ल के लोगों बसा कर यहाँ जनसंख्यिांकि स्वरूप को बदल दिया है। तिब्बत भारत का न केवल पड़ोसी देश रहा है,वरन् उसके साथ भारत के सदियों पुराने घनिष्ठ धार्मिक,सांस्कृतिक, सामाजिक,व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं। जब तक तिब्बत का अस्तित्व था, तब तक भारत की सीमा सुरक्षित रहीं।

सन् 1947में दिल्ली में ‘एशियन रिलेशंस कान्फ्रेंस’ में तिब्बत और चीन दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह भाग लिया था। सन् 1951 तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश था। बाद में मई,सन् 1951में कम्युनिस्ट चीन ने इस पर अधिकार कर लिया। पहले पहल सन् 1950 में चीन ने तिब्बत के पूर्वी इलाके पर हमला किया। तिब्बत कब्जे के बाद सन् 1952-53 में ‘कोरिया संकट‘ के समय पीकिंग(बीजिंग)में भारतीय राजदूत ने कम्युनिस्ट चीन की मंशा की चेतावनी देनी शुरू कर दी थी,लेकिन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी कम्युनिज्म से सम्मोहित थे और अपनी महत्ता एवं सद्भावना पर स्वयं फिदा थे। उन्हें चीनी नेताओं से कृतज्ञता मिलने की कल्पना थी, पर उन्हें धोखा मिला। 27 अप्रैल,सन् 1954 में पीकिंग में हुआ यह समझौता भारत और तिब्बत के सम्बन्ध में हुआ था। इस समझौते के शीर्षक में दर्ज है कि चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार और सम्बन्धों के बारे में समझौता। मात्र छह अनुच्छेदों के समझौते में तिब्बत का भी नाम आया है। पाँच अनुच्छेदों में है कि भारत और तिब्बत सम्बन्ध पूर्ववत चलते रहेंगे।
सन् 1959 तक पूरे तिब्ब्त को हड़प लिया। उसके बाद तिब्बत के असली शासक और धर्मगुरु दलाई लामा ने चीन के उत्पीड़न से त्रस्त होकर अपने अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली। वर्तमान में वे भारत के हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निवास कर रहे हैं। उन्हें अब भी इस बात का पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन उनके देश को स्वाधीनता मिलेगी। वैसे सन् 1914में भी शिमला में चीन, तिब्बत और भारत ने आपसी सीमांकन समझौता किया था। इधर चीन अभी तक सन् 1890 के दस्तावेज का हवाला देकर ‘डोकलाम’को अपना बताता है। चीन द्वारा सन् 1951 में तिब्बत पर हमले के बाद ही विश्व जनमत ने भारत की ओर देखा था। तिब्बत से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला पड़ोसी देश भारत था। भारत द्वारा चीन का समर्थन करते रहने से ही दुनिया खामोश रही, वरन् तब चीन महाशक्ति तो क्या, मान्यता प्राप्त देश तक नहीं था। तिब्बत पर कब्जा जमाने के बाद चीन की ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’(पीएलए) की सैनिकों ने 98प्रतिशत बौद्ध मठों में माँस पका कर अपवित्र कर दिया और फिर उन्हें ध्वस्त कर दिया। इन्हीं सैनिकों ने तिब्बती महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया। उस दौरान भारत के केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू से तिब्बत को लेकर चीन के रवैये पर अगाह किया,पर उन्होंने यह कहकर कि यह चीन का आन्तरिक मामला है,इसमें नहीं पड़ना चाहिए।
तिब्बत चीन के दक्षिण में स्थित है। इसकी दक्षिणी सीमा पर भारत, नेपाल और भूटान हैं। इसका क्षेत्रफल- 4,75,000वर्ग मील है और इसकी राजधानी -ल्हासा और तिब्बती लोग तिब्बती भाषा बोलते हैं। इसके तिब्बती स्वाधीनता के आन्दोलन को चीनियों ने पाशविक बल से कुचल दिया। यही नहीं, तिब्बती नस्ल का भी नाश करने की कोशिश चीन ने की है। सन् 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ(यू.एन.ओ.) ने फरमोसा(ताइवान) को मान्यता दी थी। सन् 1978 तक कूटनीतिक तक नहीं बनाए थे। इस समय भारत समेत दुनियाभर में बसे तिब्बती चीन से स्वतंत्रता पाने को आन्दोलनरत हैं। कई बार चीन के उत्पीड़न के खिलाफ अपनी नाराजगी जताने को आत्महत्या करते आए है। हाल में 29-30 अगस्त, 2020 की रात्रि को पैंगोंग झील के दक्षिण में सामरिक महत्त्व की कई पहाड़ियों पर कब्जा करने में भारत की सेना की तिब्बतियों की विशेष टुकड़ी ने सफलता प्राप्त कर चीन को चुनौती दी है।गत दिनों धर्मशाला से तिब्बत काँग्रेस के युवकों ने अपने देश की मुक्ति हेतु मोटरसाईकिलों पर जनजागरण रैली भी निकाली है। चीन तिब्बत पर अपना कब्जा मजबूत करने के इरादे से धर्मगुरु दलाई लामा का उत्तराधिकारी स्वयं चुनने में लगा है, जिससे तिब्बतियों में उसके प्रति भारी असन्तोष और गुस्सा है। ऐसे में अमेरिका संसद द्वारा तिब्बत की स्वायत्तता को मान्यता दिये जाना एक सार्थक और तिब्बतियों की मुक्ति के लिए एक उत्साहवर्द्धक पहल है। अमेरिका के इस कदम का भारत समेत स्वतंत्रता पसन्द देशों को बढ़चढ़ कर समर्थन करना चाहिए।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054
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