डॉ.बचन सिंह सिकरवार

गोविन्द की आँखें रेल के सिग्नल की ओर लगी हुई थीं। राधा की हर कराह तथा मर्मांतक चीख से उसका दिल भय से और भी धड़कने लगता था कि कहीं उसकी तबीयत ज्यादा खराब न हो जाए। रेल अपने नियत समय से पूरे पाँच घण्टे देर से चल रही थी। उसके कारण रामपुर के उस छोटे से स्टेशन पर बैठे हजारों यात्री बेचैनी से जैसे-तैसे अपना समय गुजार रहे थे। इनमें से अधिकतर शरद पूर्णिमा पर गंगा स्नान करने को जाने वाले थे, पर गोविन्द की बात दूसरी थी। उसकी पत्नी राधा प्रसव पीड़ा से बराबर कराह रही थी। जब उससे दर्द सहन नहीं होता,तो वह ‘‘अरी! दहया मरी’’कह कर चीख पड़ती। उसे सुनकर आसपास बैठे लोगों की निगाहें बरबस उसकी ओर उठ जातीं। उनमें से कुछ लोग गोविन्द से राधा की हालत के बारे में पूछते, तब उन्हें न चाहते हुए सारा वृतान्त बताना पड़ता। गोविन्द को बार-बार अपने घर-परिवार के लोगों तथा साथियों पर गुस्सा आ रहा था, जिनके लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। आज उसके बुरे समय में उनमें से कोई भी सहायता करने को आगे नहीं आया, बल्कि उनमें से ज्यादातर उससे मुँह छुपाने की कोशिश करते रहे कि कहीं वह उनसे कुछ माँग न बैठे।
गोविन्द ने बहुत हिम्मत बटोर कर उनमें से कुछ से रुपए माँगे, तो वे अपनी ही परेशानियों का रोना लेकर बैठ गए। उस समय गोविन्द ने सोचा कि अपनी इस हालत के लिए कोई और नहीं वहस्वयं जिम्मेदार है, जो हर किसी के दुःख-परेशानियों में अपने शरीर तथा धन से सहायता करता रहा। उसने आड़े वक्त के लिए कुछ भी बचा कर नहीं रखा। उसके कानों में अपनी माँ के ये शब्द हमेशा गूँजते रहते थे, ‘‘ बेटा! हमारे पुरखे कहा करते थे कि अपने से जो भी बन पड़े, वह दूसरों के लिए करते रहो। जिन्दगी में हम जो बोते हैं, वही काटते हैं। प्रेम की गंगा कभी सूखती नहीं है।’’
इस बार पूरे तीन साल बाद राधा गर्भवती हुई थी। गाँव में उसके पहले भी दो बच्चे हुए थे, किन्तु वे प्रसव के कुछ दिनों बाद ही गुजर गए। उनकी मौत पर राधा बहुत रोई थी। कोई एक महीना तक उसने ढंग से खाना भी नहीं खाया था। तब वह सूख कर काँटा सरीखी हो गई थी। राधा की उस दशा के बारे में सोच कर ही गोविन्द सिहर उठता था। इसलिए गोविन्द ने पहले से ही तय कर लिया था कि इस बार प्रसव के लिए राधा को शहर के अस्पताल में ले जाएगा और कुछ दिनों तक वहीं रहेगा। अगर उसके पास आज रुपए होते, तो राधा को टैक्सी से अस्पताल ले जाता। इधर-उधर से भाग दौड़ कर गोविन्द सिर्फ बारह सौ रुपए ही इकट्ठा कर पाया। इतने से राधा का ज्यापा कैसे हो पाएगा ? इतने रुपए तो गाँव से शहर तक टैक्सी वाला ही ले लेता। इसलिए मजबूरी में उसने रेल से जाने का निश्चय किया था। कभी-कभी गोविन्द को ऐसे लोगों पर गुस्सा भी आया। आखिर ये लोग पूछ-पूछ कर क्या करेंगे? फिर जब अपने ही लोग वक्त पर काम नहीं आए, तो राह चलते भला उसकी मदद क्या करेंगे?
आखिर पूरे छह घण्टे इन्तजार कराने के बाद रेल आयी। उसके आते ही लोग टिड्डी दल की तरह उसमें बैठने के लिए टूट पड़े। रेल के अधिकांश डिब्बे पहले से ही सवारियों से भरे हुए थे। कुछ यात्रियों ने तो दरवाजे अन्दर से बन्द कर लिए थे। प्लेटफार्म पर खड़े लोग उनसे दरवाजा खुलवाने के लिए मिन्नतें कर रहे थे, लेकिन उसमें बैठे यात्री उनकी पुकार की अनसुनी कर रहे हैं। इसके लिए तेज स्वर में भजन गाने का दिखावा कर रहे थे। इस पर प्लेट फार्म पर खड़े लोगों ने गंगा की सौगन्ध दी , तो मजबूरन उन्हें डिब्बे का दरवाजा खोलना पड़ा। रेल की छत भी खाली नहीं थी। फिर यदि गोविन्द अकेला होता, तो किसी भी तरह अपने लिए जगह बना लेता, किन्तु राधा को इस हालत में लेकर कैसे चढ़ सकता था?
रेल में भीड़ देखकर गोविन्द के हाथ-पाँव फूल गए। वह घबरा गया कि राधा को अब कैसे शहर ले जा पाएगा? लेकिन उसकी और भावी सन्तान के प्राण बचाने के लिए अपने को सम्हाला। फिर वह रेल के इंजन से लेकर गार्ड के डिब्बे तक झांक कर देख आया, पर किसी भी डिब्बे में पाँव रखने को रखने तक की जगह नहीं दिखायी दी। हर किसी को स्वयं को किसी भी तरह डिब्बे में घुसने की पड़ी थी। ऐसे में गोविन्द की परेशानी की चिन्ता कौन करता?
इधर रेल ने सीटी बजायी, उधर गोविन्द का कलेजा मुँह तक आ गया। वह सोचने लगा कि राधा की गर्भावस्था ने उसे कितना असहाय बना दिया है, वह स्वयं न जाने कितनी बार शरद पूर्णिमा हो या फिर गंगा दशहरा स्नान को इसी रेल से पता नहीं कितनी बार जा चुका था और न जाने कितने को उसने रेल में बैठाकर उसने गंगा स्नान कराने का पुण्य कमाया है। माँ अक्सर कहा करती थीं, ‘‘बेटा! भलाई का बदला जरूर मिलता है। फिर उस पर गंगा मैया नहाने का पुण्य की तो बात ही क्या है?’’लेकिन गोविन्द को लग रहा था कि आज गंगा मैया के कारण ही उसे रेल में बैठने को भी जगह नहीं मिल पा रही है। समाज में बढ़ रहे स्वार्थ ने प्रेम की गंगा को सुखा-सा दिया है।
गोविन्द हताशा-निराशा के अतल सागर में डूबता जा रहा था। तभी उसे एक डिब्बे से एक युवक उतरा, उसने गोविन्द को लगभग झिझोड़ते हुए कहा,‘‘ तुम्हें अपनी पत्नी को शहर नहीं ले जाना है?’’
‘‘पर कैसे?’’ गोविन्द ने उससे पूछा। तब उस युवक ने कहा,‘‘ इसकी चिन्त मत करो।’’ इस पर गोविन्द ने ज्यादा पूछताछ किये बिना ही राधा को सहारा देकर उठाया। उधर उस युवक ने गोविन्द का प्लेटफार्म पर पड़ा सामान समेटा। डिब्बे के दरवाजे पर पहुँचने पर वहाँ खड़े उस युवक के साथी ने उलाहना देते हुए कहा,‘‘ यहाँ खड़ा होने की जगह नहीं है,साहब परोपकार करने निकल पड़े।’’ उनमें से एक ने हाथ मटकाते हुए कहा,‘‘ जनाब ने डिब्बे से नीचे उतरते समय पूछ तो लिया होता? अब इन्हें क्या हम अपने सिर पर बैठा लें।’’
डनमें से एक ने व्यंग्य बाण चलाते हुए कहा,‘‘ सुधीर को तो समाज सेवा की बीमारी है, बेचारा आदत से मजबूर है।’’
‘‘पहले दरवाजे से अन्दर तो आने दो। फिर देखेंगे कहाँ खड़े होते हैं या कहाँ बैठते हैं?’’
यह कहते हुए सुधीर ने गोविन्द को राधा को चढ़ाने का इशारा किया। गोविन्द ने वैसा ही किया, लेकिन राधा की चढ़ते समय मर्मांतक चीख निकली गई, जिसे सुनकर दरवाजे पर खड़े युवक और पीछे खिसक गए। थोड़ी जगह खाली हो गयी, वहाँ पर राधा जैसे-तैसे बैठ गयी। वहीं पास में बैठी अधेड़ उम्र की महिला अपनी असुविधा को देखकर बोली, ‘‘ऐसी हालत में रेल में चलने की क्या पड़ी थी?’’ इस बीच सुधीर ने गोविन्द का सामान चढ़ा दिया। फिर गोविन्द से उसने कहा, ‘‘आप अपनी पत्नी के साथ खड़े हो जाओ। मैं पायदान पर खड़ा हो जाता हूँ।’’
रेल ने जैसे प्लेटफार्म को छोड़ा, वैसे ही यात्रियों ने गंगा मैया की जय का -जयकारा लगाया। डिब्बे में बैठे लोग फिर से भजन गाने लगे-
गंगा मैया तेरी शक्ति है अपार।
तेरी माया-ममता का नहीं है कोई पार।।
कहाँ तक तुम्हारी महिमा का करूँ बखान।
वही जाने जिसने पाया तेरा वरदान ।।……गंगा मैया तेरी शक्ति है अपार
दुनियाभर के पापियों के तूने धोए पाप।
तमाम दुष्टों को भी किया तूने माफ ।।
पुरखे हमारे तारे भवसागर से पार।
धरा को पावन किया तुमने माने हम आभार।। गंगा तेरी शक्ति है अपार.
गोविन्द राहत की साँस भी नहीं ले पाया था कि राधा के करहाने की आवाज लगातार बढ़ रही थी और बीच-बीच में उसकी चीख भी निकल जाती। राधा की मर्मभेदी चीख सुनकर गोविन्द अनिष्ट की आशंका से सिहर उठा। राधा के पास ही एक मुस्लिम महिला अपने रोते हुए बच्चे को आंचल से दूध पिलाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह बच्चा बराबर रोये जा रहा था। मुस्लिम महिला का सानिध्य उसे अच्छा नहीं लग रहा था। राधा मन ही मन सोच रही थी कि इसे भी आज ही जाना था। वह बार-बार भीड़ को कोस रही थी। सर्दी के मौसम में भी उसे पसीना आ रहा था। तभी उसकी नजर डिब्बे में बैठी चमेली पर पड़ी। उसने भी किसी तरह राधा को देख लिया। तब किसी तरह भीड़ को चीरते हुए उसने गोविन्द से पूछा,‘‘ कैसी हालत है पण्डित जी बहू जी की?’’ गोविन्द ने अनमने ढंग से उसे बताया, ‘‘ हालत तो अच्छी नहीं है।’’ तभी उसे ख्याल आया, चलो । इसके साथ होने से औरत की कमी तो पूरी हुई, पर होश में रहते राधा शायद ही उसे अपना शरीर छूने दे। जब चमेली घर सफाई करने आती थी, तो राधा उसे अपने घर की चौखट का भी स्पर्श नहीं करने देती थी।
गोविन्द ने सोचा अब जो होगा, सो प्रभु जाने । वह इस हालत में कर ही क्या सकता है? सम्भवतः उसकी दुविधा को चमेली ने भांप लिया। वह बोली,‘‘ कोई फिकर मत करो। पण्डित जी मेरे रहते बहू जी को कुछ नहीं होगा। मैं उम्र में छोटी जरूर हूँ , किन्तु मैंने तमाम जापे कराये हैं। रही बात छूआछूत की, तो वह गंगा मैया में डूबकी लगाकर बहू जी को फिर से पवित्र कर लेना।’’ यह कह कर चमेल जोर से हँस पड़ी। इस पर गोविन्द भी मजबूरी में फीकी हँसी हँस पड़ा । चमेली ने उसे सांत्वना देने के इरादे से उससे कहा,‘‘ अगर पण्डित जी, मुझसे बहू जी को छूआछूत लगे, तो बुधिया चाची भी डिब्बे में हैं, उनसे तो बहू जी अपना आँगन लिपवा लेती हैं।’’
गोविन्द ने सोचा कि राधा के लिए चमेली और बुधिया में कोई अन्तर नहीं है। उसके लिए दोनों ही अछूत हैं। गोविन्द उसके प्रश्न का उत्तर देता, उससे पहले परिस्थिति की गम्भीरता को समझते हुए चमेली बुधिया को बुला लायी।
डिब्बे में यात्री भजन गाने में मस्त थे, उधर प्रसव पीड़ा से त्रस्त राधा की चीख निकल गई, जिसे सुनकर वे शान्त हो गए। तब चमेली और बुधिया राधा के पास आ गयीं। बुधिया ने राधा की गम्भीर हालत देखी। फिर गोविन्द की ओर देखा। उसकी आँखों में भाव पढ़कर बुधिया ने राधा का सिर अपनी गोद में रख लिया। इसके बाद वह बोली,‘‘ पण्डित जी! अब बहू जी के बालक का जन्म अस्पताल में नहीं, इसी डिब्बे में होगा। अपने थैले से बहूजी की साड़ी तथा कुछ फटे-पुराने कपड़े दे दो। इसके साथ ही पानी, ब्लेड या उस्तरा का इन्तजाम कर दो।’’
तब बुधिया ने ही लोगों से कहा,‘‘ किसी तरह डिब्बे का एक कोना खाली कर दो, जहाँ साड़ी की आड़ कर प्रसव कराया जा सके।’’
इतना सुनने के बाद डिब्बे में बैठै कुछ यात्रियों ने अपना सामान समेट कर राधा के लेटने लायक जगह बना दी, जिस युवक सुधीर ने राधा को चढ़ाया था वह कहीं से पानी और ब्लेड माँग लाया। बुधिया तथा चमेली को राधा की मदद करते देख मुसलमान महिला अपने बच्चे को पास में बैठे यात्री को सौंप कर वहीं आ गयी।
बुधिया ने चमेली को दर्द से चीखती राधा के पाँव पकड़ने को कह दिया। महिलाओं ने राधा को घेर कर साड़ी तान कर आड़ बना दी। डिब्बे के दूसरे यात्री खिसक -खिसक कर जगह बनाने लगे। वे ईश्वर का स्मरण कर राधा का प्रसव पीड़ा को दूर करने की प्रार्थना करने लगे।
जैसे ही मर्मांतक चीख के साथ राधा ने शिशु को जन्म दिया और उसके रुदन यात्रियों को सुनायी दिया, वैसे ही उन्होंने बहुत जोर से ‘गंगा मइया की जय‘ का जयकारा लगाया।
बुधिया ने चमेली से कहा,‘‘ देखती क्या है, जल्दी से नाल काट।’’ इसके बाद मुस्लिम महिला ने नवजात शिशु को आंचल में ले लिया।
बुधिया और चमेली सफाई करने में जुट गयीं। गोविन्द मन ही मन ईश्वर को स्मरण करने लगा। उसे लगा कि उसने ही यात्रियों को राधा की सहायता के लिए भेजा। उसी समय डिब्बे में बैठी महिलाएँ ढोलक की थाप पर सोहर गाने लगीं और इनका साथ बुधिया, चमेली और मुस्लिम महिला भी उनका साथ देने लगीं।
देवकी के जनमे गोपाल रे,
धूम मची सारे ब्रज में रे।
कन्हैया की मोहनी सूरत लख,
उसमे ं छिपी सीरत देख ।।
अपने दुखन को भूल,
मइया देवकी भई रे निहाल।।
जैसे ही सोहर का गीत खत्म हुआ। वैसे ही डिब्बे के एक कोने में बैठे वृद्ध यात्री ने सुझाव दिया,‘‘ सबरे संकट गंगा मैया की किरपा ते कट गए, तो चौना बालक कौ नाम गंगा परसाद रख दयो जाए।’’
यह कहकर उसने अपनी गंगा जली में बचे गंगा जल की कुछ बूँदें नवजात शिशु के मुँह में टपका दीं। उस वृद्ध यात्री के सुझाव को गोविन्द सहित दूसरे यात्रियों को खूब पसन्द आया।
तब तक राधा को भी होश आ गया था। सकुशल शिशु के जन्म की खुशी में उसके आँसू रोकने पर भी रुक नहीं रहे थे। अधमुदी आँखों से राधा ने बुधिया की गोद में अपने शिशु को देखा, तो निश्चिन्त होकर करवट बदल कर लेट गयी। तभी डिब्बे के यात्रियों ने एक बार फिर जोर से जयकारा लगाया,‘‘ बोलो गंगा मैया की जय।’’
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054
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