कहानी

शवयात्रा

साभार सोशल मीडिया

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

साभार सोशल मीडिया

रात के नौ बजते-बजते श्मशान में बस गिनती के लोग रह गए। दो घण्टे पहले यहाँ तिल रखने को भी जगह नहीं थी। हर तरफ नरमुण्ड ही नरमुण्ड नजर आते थे। लगता था पूरा शहर ही श्मशान की ओर उमड़ आया है। कई किलो मीटर तक सभी रास्तों पर वाहनों की कतारें लगी थीं। हर व्यक्ति मृत सम्पादक की अर्थी को कन्धा लगाना चाहता था, जो इसमें पिछड़ गया वह अन्तिम दर्शन कर हाथ जोड़ कर ही अपने को धन्य समझ रहा था। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी पूरी मुस्तैदी से भीड़ के इस महासागर को नियंत्रित करने में जुट हुए थे। उन्हें हर पल यही चिन्ता सता रही थी कि कहीं मुख्यमंत्री जी के सामने कोई ऐसा हादसा न हो जाए, जिससे न केवल अब तक के किये धरे पानी फिर जाए, बल्कि नाकामी का दाग उनके सिर पर मढ़ जाए।
आज के इस हंगामें से श्मशान के कुत्ते भी परेशान थे। उन्हें खड़े होने तक को कहीं जगह दिखायी नहीं दे रही थी। वे भी कौतूहल से श्मशान में अचानक घुस आयी इस इन्सानी भीड़ को देख रहे थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस शहर को क्या हो गया है, जो एक मरने वाले के साथ सारा का सारा ही उमड़ आया है। वे अपने मूल ठीयों को छोड़ कर इधर-उधर जगह तलाश रहे थे।
नवम्बर के महीने में रात के नौ बजे घना अन्धियारा घिरने के साथ-साथ ठण्ड भी खूब हो जाती है, लेकिन यह इतनी भी नहीं होती, जो बर्दाश्त न हो पाये। जब हम लोग श्मशान में आये थे, तब कई चिन्ताएँ जल रही थीं। उनमें ये अब ज्यादातर ठण्डी पड़ी चुकी थीं। बस दो -तीन ही कुछ दहक रही थीं। इनमें से एक सड़क हादसे में भरे किसी लावारिस व्यक्ति की थी जिसे कुछ देर पहले ही दो सिपाही रिक्शे पर रख कर लाये थे। उन्होंने बड़ी मिन्नतें कर डोमों की मदद से चिता की लकड़ियाँ जुटाई थीं, लेकिन भीड़ में शामिल एक भी समाजसेवी उनका हाथ बँटाने आगे नहीं आया।
इसी बीच श्मशान की बिजली चली गई। पूरा श्मशान और ज्यादा स्याह अँधेरे में डूब गया और यहाँ का माहौल पहले से और अधिक भयावह हो गया। श्मशान का यह निश्शब्धता चिमगादड़ों और उल्लुओं के इधर से उधर उड़ने चीखने, घुघुआने और कुछ समय के अन्तराल से कुत्तों के गुर्राने और भौंकने से टूट रही थी।
भीड़ से राहत पाकर अब ये हमेशा की तरह किसी बच्चे के शव को जमीन से खोद लाये थे और उसे लेकर आपस में झगड़ रहे थे। इस माहौल से अकुलाये मिश्रीलाल ने दियासलाई जलाकर घड़ी देखी। फिर अपने पास बैठे गोपीनाथ से कहा,‘‘ दादा! अब तो सभी चले गए। क्या चिता पूरी तरह ठण्डी होने पर ही उठेंगे।‘‘
इस पर गोपीनाथ ने व्यथित स्वर में जवाब दिया, ‘‘नहीं रे, बाबूजी का इतने वर्षों का साथ रहा, अब कम से कम उनका पूरा दाह तो हो जाए’’, यह कहते हुए गोपीनाथ चिता की ओर देखते को बढ़े , फिर वहीं से आवाज लगाकर बोले, ‘‘ अरे भाई! ऐसा लगता है लकड़ियाँ कम पड़ गई हैं। भीड़भाड़ में किसी ने ठीक से अन्दाज नहीं लगाया। अब चिता की आग में इतना दम नहीं ,जो लाश को पूरी तरह जला पाये।’’
‘‘ऐसे में हम क्या करें, दादा! रामबाबू ने गोपीनाथ से पूछा। तब उसने दुःख भरे स्वर में उत्तर दिया,‘‘बाबूजी के मरने की मैंने जैसे ही खबर सुनी, वैसे ही कोठी चला गया। अब मेरे पास इतने रुपए नहीं कि और लकड़ी खरीद सकूँ। मेरी जेब में कुल तीस रुपए पड़े हैं। इतने में कितनी लकड़ियाँ खरीद पाएँगे?‘‘ ‘‘ इस तरह की बातें क्यों कह रहे हो?’’ बाबूजी सिर्फ तुम्हारे ही नहीं थे। वे हमारे भी मालिक थे। यह बात दूसरी है कि तुम्हारा उनका कई साल का साथ रहा है। हमने भी बाबूजी का नमक खाया है। हम सभी मिलकर लकड़ी खरीद लेते हैं।’’
यह कहने के साथ ही रामबाबू ने अपनी जेब से पच्चीस रुपए निकाल कर गोपीनाथ को सौंप दिये। इसके साथ ही महेन्द्र, काशी, सईद, महमूद, हरी ने भी अपनी जेब से बिना गिने रुपए निकाल कर गोपीनाथ के हाथ पर रख दिये। इस तरह कुल 170रुपए एकत्र हो गये। ये सभी टाल से लकड़ियाँ खरीद लाये और उन्हें ठण्डी चिता पर रख दिया। यह देखकर सभी ने सन्तोष की साँस ली। उन्हें लगा कि कुछ अच्छा काम करने में कामयाब हो गये। इसी भाव से उठी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए हरी ने पूछ ही लिया,‘‘क्यों दादा! चिता को लकड़ी देना तो बहुत पुण्य का काम है ,उस पर भी अपनी तरफ से देना तो और ज्यादा पुण्य का काम हुआ।’’
गोपीनाथ ने हामी में सिर हिलाया। इसके बाद ऐसी ही चर्चाएँ छिड़ गई। हम सभी ठण्ड की चिन्ता छोड़ वही जमे रहे। इस बीच में मैं तरह-तरह के विचारों में खोया रहा। पता नहीं चला कि मेरे साथी क्या बात करते रहे।
आज सुबह दपतर के दरवाजे पर भीड़ लगी देखकर मेरा मन कुछ अनहोनी घटना की आशंका से काँप-सा गया था। पास आने पर दरबान बहादुर को रोते पाया। सोचा शायद उसके साथ कुछ हुआ है। जब उससे पूछा तो वह फफक-फफक कर रो पड़ा।
‘‘भाईसाहब ! बाबूजी नहीं रहे।’’
यह सुनकर मेरी सहन शक्ति ही जवाब दे गई। मैं उसके पास रखी कुर्सी पर धम्म से न चाहते हुए बैठ गया। उसके बाद आँसुओं
के साथ मेरे मन का आवेग बह निकला।
ज्यादातर कर्मचारी मेरे आने से पहले ही अपना जी हल्का कर चुके थे। जब मैं कोठी पर पहुँचा तो लोगों को हुजूम लगा था। जैसे-तैसे दरवाजे तक पहुँचा दी था। तो सुनने में आया-‘‘ मर गया साला। बहुत शोषण किया था इसने। जब छाती पर रख कर नहीं ले गया। मैंने पलट कर देखा तो हैरान रह गया। यह श्रीकान्त था, जो मेरे अखबार में आने से पहले काम करता था। आजकल फिर से नौकरी पाने के लिए बाबूजी के पास चक्कर लगाया करता था। सम्पादक बाबूजी के बेटे प्रवीण को अपने पास आते देख उसके चेहरे की रंगत बदल गई। शायद उसे डर लग रहा था कि प्रवीण को कहीं उसके पीने का पता न चल जाए। वैसे वह दुर्गन्ध छुपाने के लिए तम्बाकू का पान खाकर आया था। फिर भी पता लग गया, तो उसकी सारी मेहनत चौपाट हो जाएगा। लेकिन जब प्रवीण श्रीकान्त के पास आ ही गये तो वह गला अवरुद्ध कर आँखों में आँसू लाने की पूरी कोशिश करते-करते उसके गले लग गया, ‘‘ भाई! पापा हमें छोड़ कर चले गए। हम सब को अनाथ कर गये ………हमें ही क्यों आज इस शहर का कोई धनीधौरी नहीं रहा।’’
इस बीच प्रवीण के पास शोक व्यक्त करने दूसरे लोग आ गये। वह उन्हें अपने पापा की मौत की जानकारी देने लगे। तभी मेरी निगाह विजय पर पड़ी । उसने भी मुझे देख लिया। मैं कोई सवाल करूँ। उससे पहले ही वह स्वयं बताने लगा ,‘‘ मेरी तो एक हपते से तबीयत खराब बनी हुई थी लेकिन ‘‘पापाजी के निधन की खबर मिलते ही घर वालों के मना करने पर भी चला आया हूँ। आखिर वह हम सब के सम्पादक ही नहीं थे, संरक्षक भी थे, बल्कि मुझे तो उनसे अपने माता-पिता से भी बढ़ कर प्यार मिला था।’’
विजय मुनीन्द्र से बात कर ही रहा था कि उसकी नजर स्थानीय सांसद विशाल सिंह पर पड़ी। वह लपक कर उनकी अगवानी करने पहुँच गया। फिर रोनी-सी सूरत बनाते हुए सम्पादक जी से अपने सम्बन्धों का बखान करने लगा। इस पर औपचारिकतावश सिर हिलाते रहे। इसके बाद विजय उन्हें सम्पादक जी के शव के पास ले गया। सांसद श्री सिंह ने अपने पी.ए. को इशारा किसा तो उसने हाथ में लगी बड़ी पुष्पमाला उन्हें पकड़ा दी। सांसद विशाल सिंह ने पुष्प माला लेकर सम्पादक दरबारी लाल के शव के चरणों में रख दी। फिर आँखें बन्द कर श्रद्धांजलि देने की मुद्रा में खड़े हो गए। जब शोक प्रकट करने की रस्म अदायगी कर वह जाने लगे, तो विजय ने मौका पाकर उनसे अपने भाई के काम की बावत पूछ ही लिया और जाते-जाते उनके नाम से स्वयं ही दो कॉलम में श्रद्धांजलि लिख देने का भरोसा भी दिला दिया।
अभी सांसद श्री सिंह पोर्टिकों को पार भी नहीं कर पाये थे कि विजय को पूर्व मंत्री लखमीचन्द अपने साथियों के साथ कोठी में प्रवेश करते हुए दिखायी दिये। उन्हें देख उसने पहले से भी ज्यादा अपने को गमगीन बना लिया और उन्हें भी सम्पादक के शव के पास ले गया।
सम्पादक का शव फर्श पर धवल गद्दे और चादर पर रखा था, जिस पर सफेद रेशमी चादर ओढ़ाई हुई थी। कमरे में जल रहीं अगरबत्तियों से वातावरण पूरी तरह सुवासित था। फूल मालाओं से ढके शव को घर की महिलाएँ घेर कर बैठी थीं और धनिक वर्ग की महिलाओं की तरह ही किसी तरह रोने और दुःख व्यक्त करने का प्रयास कर रही थीं। उनके आसपास रिश्तेदार, पड़ोसी ,शहर की कथित समाज सेविकाएँ, महिला नेताएँ, लेखिकाएँ,कवयित्रीं जमीं हुई थीं। ये सब सम्पादक परिवार की स्त्रियों को अधिक रो- धोकर परेशान होने और अपनी तबीयत खराब न करने की बार-बार हिदायतें दे रही थीं। कुछ तो बाकायदा अपने पर्स में कोरामिन, नीबू, ग्लूकोज ,इलैक्ट्रोल के डिब्बे रख कर लायीं थीं। शायद यह सोच कर कि उनमें से किसी को कुछ हो और उन्हें अपने साथ लायी चीजें पिलाकर उपकृत करने का सौभाग्य मिल सके, ताकि भविष्य में टेलीफोन पर ही समाचार छपवाने की जुगाड़ बन सके।
कमरे में एक अन्य नेता के अपने समर्थकों के साथ घुस आने पर मुझे धक्का लगा। मैं गिरते-गिरते बचा। वह भी लाला अमीरचन्द की वजह से जिन्होंने संगमरमर के चिकने फर्श पर पाँव फिसलने से पहले सम्हाल लिया। मैं उन्हें देखकर बहुत चौंका। इससे पहले मैंने किसी के यहाँ किसी के यहाँ भी आते-जाते नहीं देखा। इसलिए टोकने की गरज से पूछ ही बैठा,‘‘ आप ! यहाँ कैसे लालाजी ?’’ अरे बेटा! दरबारी लाल जी हम पर बड़े अहसान रहे हैं, इन्हीं की कारण हम कभी सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स के झमेलों में नहीं फँसे। अब तुम्हीं बताओं? हम इतने अहसान फरामोश है,जो आखरी वक्त लकड़ी देने भी न आते?’’
अभी लाला अमीर चन्द अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि डॉक्टर कमाऊ लाल दरवाजे पर खड़े नजर आये। उन्हें देखकर ँँँभी मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। ये सभी लाला अमीरचन्द की तरह अपने नर्सिंग होम को छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। कभी-कभार सम्पादक जी से सिफारिशी चिट्ठी लिखाकर अपनी पत्नी को दिखाने गया था तो उन्होंने फीस देने वाले मरीजों को देख चुकने के बाद ही मेरी पत्नी को देखा था। यह यह कृपा भी इसलिए थी कि हमारा अखबार कहीं उनके नर्सिंग होम की खबरें न छापने की पत्रकारों को हिदायत भी दी, ताकि भूल-चूक में कभी कुछ इसके खिलाफ छप न जाए।
कमरे से जब मैं बाहर आया तो प्रवीण बाबू बड़ी बेचैनी से हरेन्द्र और श्रीश को तलाश रहे थे। उन्होंने मुझ से भी इनके बारे में पूछा कि तुमने उन्हें कहीं देखा है? मुझ से पूछने के बाद यही सवाल उन्होंने सौमित्र से किया। इन दोनों के विषय में हर कर्मचारी से पूछने पर मेरा मन संशय से भर गया कि कहीं इन दोनों से आज भी कुछ गड़बड़ी तो नहीं कर दी। तभी मुझे भीड़ में कई लोगों से घिरे वे दोनों नजर आये। मैं इनके पास पहुँचा और प्रवीण बाबू का सन्देश उन्हें दिया।
मेरी बात सुनकर हरेन्द्र ने भी वह अन्दाज लगाया जो मैं लगाये हुआ था। उसने कुछ ही क्षण पहले जलायी सिगरेट ने चाहते हुए भी मजबूरी में मसल नाली में फेंका तथा पान थूक कर अपने ओंठ रूमाल से साफ किये । उसकी देखादेखी श्रीश ने भी मुँह की तम्बाकू उगाल दी। फिर अपनी आदत के मुताबिक कंघी से बाल संवारे। उसके बाद दोनों मेरे पीछे-पीछे चल दिये। जब प्रवीण बाबू ने उनसे पूछर कि अब तक वे कहाँ थे तो दोनों ने अखबारी काम बता दिये। लेकिन उनके बहानों का प्रवीण बाबू न समझे हों,ऐसा नहीं लगा। उन्होंने हरेन्द्र से कहा, ‘‘तुम प्रधानमंत्री कार्यालय से कण्डोलेंस मैसेज हासिल करो। उसके बाद तुम दोनों खबरें और श्रद्धांजलि मैनेज करो। हाँ, कहीं कोई कमी न रह जाए।’’
इतना कहकर प्रवीण बाबू कोठी के अन्दर चले गए, लेकिन हरेन्द्र मुझे अपने साथ अखबार के कार्यालय ले आया। यहाँ आकर उसने रौबिली आवाज में टेलीफोन ऑपरेटर का पी.एम.कार्यालय को फोन मिलाने को कहा।
फोन मिलने पर हरेन्द्र ने कहा,‘‘ हैलो! हैलो, पी.एम.ऑफिस?’’
उधर से जवाब मिला,‘‘यस! मैं उनका पी.ए.बोल रहा हूँ। देखिए हमारे एडीटर साहब का निधन हो गया है। पी.एम.साहब का कण्डोलेन्स मैसेज चाहिए।’’
उधर से पूछा गया,‘‘ आप अपने अखबार और एडीटर का नाम के साथ-साथ यह भी बताइए कि यह अखबार कहाँ से पब्लिश होता है? उसके बाद मैसेज आपको भिजवा दिया जाएगा।’’
इस बीच हरेन्द्र और श्रीश अब तक प्राप्त हुई श्रद्धांजलियों को समायोजित करने लगे। पहले वी.वी.आई.पी.,वी.आई.पी.उसके बाद अपने कलाइण्ट ,जानपहचान वालों की श्रद्धांजलियाँ लगायीं। उन्हें थोड़ा काट-छाँट कर एडिट किया। तब श्रीश ने कई शीर्षक सोचे, लेकिन उसे हरेन्द्र का सुझाया यह शीर्षक बेहतर लगा‘ इस दुनिया का महामानव अब स्वयं स्वर्ग संवारने चला गया।‘‘ उसने जल्दी से पाइण्ट साइज और कॉलम लिखे।
तब पी.एम. ऑफिस का फोन पर शोक प्रस्ताव मिल गया। उसे ठीक कर शीर्षक लगाकर कम्पोज में भेज दिया। तत्पश्चात् हरेन्द्र और श्रीश में यह बताने की होड़ लग गई कि इतने महत्त्वपूर्ण कामों को अन्जाम देने का श्रेय कौन ले।
हरेन्द्र की प्रवीण बाबू को उसकी जानकारी बताने की उतावली देखकर श्रीश ने कहा,‘‘ देख! यह अच्छी बात नहीं। तू अकेला ही लाला की नजर में चढ़ना चाहता है और मुझे निकम्मा साबित करने पर तुला है। ऐसा है,एक-एक आइटम ले लेते हैं।’’
इधर कोठी पर शोक व्यक्त करने वालों का तांता लगा था। इनमें प्रेम इण्टर कॉलेज के प्राचार्य एम.एल.श्रीवास्तव और उनका चमचा अध्यापक कृष्णगोपाल भी थे। प्राचार्य श्रीवास्तव ने धीमे से कृष्णगोपाल से कहा,‘‘ सम्पादक के बेटे प्रवीण बाबू ने तो हमें देख लिया। अब अपना काम खत्म। इतनी दूर श्मशान तक जाना कैसे हो पाएगा। तुम्हें तो मालूम हैकि कॉलेज में कितने लफड़े रहते हैं? अगर इसके अखबार में गुप्ता काम न कर रहा होता,तो मैं यहाँ हरगिज नहीं आता। अब अपने खिलाफ कुछ छप न पाये, इसके लिए अखबार के मालिक से दुआ-सलाम रखना बेहद जरूरी है।‘‘
प्राचार्य श्रीवास्तव की बात पर अपनी स्वीकृति प्रकट करने के लिए कृष्ण गोपाल ने भी प्रशंसा भरी नजरों से उनकी ओर देखा।
ये दोनों जैसे ही खिसकने को हुए ,वैसे ही विजय आ पहुँच गया। उसने भेदभारी नजर से व्यंग्य के लहजे में पूछ ही लिया,
‘‘क्यों गुरुजी कुछ ज्यादा ही जल्दी में दिखाई दे रहे हैं?
इस पर अपना असल इरादा छिपाते हुए प्राचार्य श्रीवास्तव और अध्यापक कृष्णगोपाल दोनों एक साथ बोल पड़े, ‘‘ कैसे बातें करते हों? यहाँ से ज्यादा और महत्त्वपूर्ण काम आज हमारे लिए भला क्या हो सकता है। सम्पादक जी तो मेरे प्रेरणा स्रोत थे। उनकी हौसला अफजाई से ही मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ। श्रीवास्तव ने कहा।
इस बीच मूर्धन्य और युगान्तकारी पत्रकार,महान देशभक्त , गरीबों और दलितों के मसीहा, सच्चा जनसेवक ,अप्रतिम मानवतावादी आदि विशेषणों से भरा एक संस्मरणात्मक लेख लिखकर श्रीकान्त लौट आया। उसे देख कर लेख का शीर्षक भी लेखक की मर्मान्तक पीड़ा दर्शाता बन पड़ा था। उसे लेख को थोड़ी देर बाद श्रीकान्त ने प्रवीण बाबू को छपने को दे दिया। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े लेख पर सरसरी नजर डाली। फिर चपरासी को बुलाकर श्रद्धांजलियाँ के पुलिन्दें के साथ उसे प्रेस में भेज दिया।
श्रीकान्त की इस सफलता से उमेश का चेहरे की रंगत बिगड़ गयी। मुझे से बोला,‘‘ इसे पता नहीं कैसे समय और जगह मिल गई, जो पूरे छह पेज की सम्पादक दरबारी लाल की आरती उतार लाया। मेरा नम्बर ही काट डाला। अब क्यों न भागते भूत की लंगोटी लपकने की तरह इससे शाम को पीने की जुगाड़ ही बैठा ली जाए।’’
उमेश श्रीकान्त को सड़क के दूसरी तरफ ले जाकर उसके कान में भेदभरे स्वर में फुसफुसाया ,देख तेरा लेख छप रहा है। इसके माने यह समझ की तेरी नौकरी के रास्ते की सारी रुकावटें हट गईं। यह समझ लो, तुम्हें अखबार में नौकरी मिल गई। वैसे भी प्रवीण बाबू तुम्हें सालों से तुम्हें बहुत जानते-मानते हैं। तुमने तो उन्हें बचपन से देखा है।’’ इस बार श्रीकान्त ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
उमेश ने फिर भेदभरी नजरों से चारों ओर देखा,‘‘ अब हमें न भूलना। किसी तरह अन्दर खींच लेना। देखों, तुमने तो दिन में ही लगा ली है। अब इस खूसट को फूँकने के बाद शाम को अपनी पार्टी हो जाए।’’
दोनों गले मिलने लगे, तभी सामने से प्रवीण बाबू को आता देखकर झेंपक कर गलेमिल कर रोने का दिखावा करने लगे।
उन्होंने पूछा ,‘‘क्योे, क्या हो रहा है?’’
‘‘कुछ नहीं, श्रीकान्त ने बात बदल कर कहा,‘‘ पापा जी, के स्वर्गवास से उमेश को भी गहरा सदमा पहुँचा है, इस अभी गश आ गया था,लेकिन मैंने इसे गिरने से पहले थाम लिया।‘‘
‘‘इन्हें कहीं बैठा या लिटा दीजिए, ताकि तबीयत कुछ सम्हल जाए।’’ कहते हुए प्रवीण बाबू आगे बढ़ गए।
उमेश ने श्रीकान्त के इस अभिनय और तत्काल उत्तर देने के कौशल की प्रशंसा की। फिर दोनों अपने -अपने जन सम्पर्क अभियान पर निकल पड़े। उन्हें ऐसा दिखाने कि मानों उनका लगा बाप मर गया है। फिर किसी दूसरे वी.वी.आई.पी. को आते देख झट से उसके सामने रोती-बिसूरते पहुँच जाते।
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर रामेश्वर प्रसाद पूरे ठाठ-बाट से अपने चेले-चपाटों के साथ्ज्ञ शोक सम्वेदना व्यक्त करने आए। उन्हें देखकर लग रहा था कि वह मुर्दिनी में नहीं, विवाह समारोह में सम्मिलित होने आए हैं। उनके वस्त्रों से निकल रही यूडी कोलनी की खुशबू से पूरा माहौल महक उठा। सम्पादक दरबारी लाल के बेटे और उनकी जगह सम्हालने जा रहे प्रवीण बाबू को आता देख उन्होंने शोक जताते हुए उन्हें अपने गले लगा लिया। फिर रुंघे कण्ठ से बोले,‘‘ तुम्हारे पिताजी मेरे बड़े भाई सरीखे थे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। तुम लोग अपने को अकेला नहीं समझना। मैं तुम्हारे साथ हूँ।
तभी डॉक्टर रामेश्वर प्रसाद के निजी सचिव ने एक लिफाफा प्रवीण बाबू की ओर बढ़ा दिया।
उन्होंने पूछा,‘‘यह क्या है?’’
इसके जवाब में डॉ.प्रसाद ने कहा,‘‘कुछ नहीं, मेरी और पूरे विश्वविद्यालय की श्रद्धांजलियाँ हैं।’’
पास में खड़े नेता शम्भू नाथ को यह सब देख अपनी समझ पर खीझ हुई। वह क्यों सम्पादक दरबारी लाल के परिवारीजनों को अपनापन जताने को मरने की खबर सुनते ही सबसे पहले दौड़े चले आए। वे भी किसी से अच्छे शब्दों में श्रद्धांजलि लिखवा लाते,तो कम से कम आज तो पत्रकारों की बगैर खुशामद किये ही वह छप जाती।
शोक संवेदना और श्रद्धांजलि आसानी से छपने की सम्भावना देख कवि दिलजीत वहीं कविता लिखने बैठ गये और कुछ मिनटों में सम्पादक दरबारी लाल के कृतित्व व्यक्तित्त्व तथा उनके न रहने की स्थितियों पर लम्बी कविता लिख डाली। कई दूसरे नेता, लेखक, कवि,समाजसेवी जो अपने कागज-कलम नहीं लाए थे। वे अपनी इस चूक पर अफसोस जताने लगे। कुछ लोग कागज कलम की तलाश में निकल पड़े। कुछ ने तो इस सुनहरी मौके लाभ उठाया। वे जितनी संस्थाओं से जुड़े थे। उन सभी की तरफ से उन्होंने श्रद्धांजलियाँ दी डालीं। पत्रकारों को भी अपने कलाइण्टों को उपकृत करने का अच्छा मौका लगा था,जो उनकी पान, सिगरेट, पान मसाला, ठण्डे, गरम या दारू पार्टी देकर सेवा करते रहते थे।
दोपहर बाद कोई चार बजे से शवयात्रा शुरू हुई,लेकिन राजनीतिक दलों ने इसे अपनी-अपनी पार्टी कार्यक्रम सरीखा बन डाला। हर दल के नेता तथा कार्यकर्ता यह दिखाने में लगे थे कि स्वर्गीय सम्पादक उनकी पार्टी के ज्यादा निकट थे। कुछ न नारे लगाने शुरू कर दिये। एक राजनीतिक दल का कार्यकर्ता तो एक लम्बे बांस में अपनी पार्टी का झण्डा लगाकर आगे-आगे चलने लगा। जब शव गाड़ी पर चढ़ाया जाने लगा तो श्रीकान्त ,उमेश, विजय के साथ-साथ कई विधायक, सांसद और दूसरे छोटे-बड़े नेता भी उस पर चढ़ गये, जो नहीं चढ़ पाये थे वे उछल-उछल कर चढ़ने लगे।अखबारों के फोटोग्राफ और वीडियो कैमरा मैन फिल्म उतारने लगे। गाड़ी में चढ़े लोग अपना चेहरा फोटो में लाने के लिए विशेष सर्तक हो सके। उन्हें पता था कि यहाँ का खींचा फोटो अखबारों में जरूर छपेगा। हो सकता है, दिल्ली से छपने वाले किसी दैनिक या साप्ताहिक पत्र में इन फोटुओं को छापा जायें। कम से कम ण्क अखबार में अवश्य छपेगा, जिसका इसी शहर में रहने वाला सम्पादक, खबर छापकर ही दाम और राजनीतिक दलों से टिकट जुगाड़ने की कला में पारंगत है। वह सम्पादक महोदय इस नगर से चुनाव लड़ने का विचार कर रहे थे। उन्हें दरबारी लाल के राजनीतिक मंसूबे को पूरे कराने हैं, इसलिए उन्होंने श्रद्धांजलि में लिख भेजा था कि उसने स्वर्गीय दरबारी लाल के श्रीचरणों में बैठकर पत्रकारिता सीखी थी, जबकि इस क्षेत्र के लोग जानते हैं कि स्वर्गीय दरबारी लाल और उनके अखबार से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है। जब शव ही गाड़ी में चढ़े लोगों के कारण प्रवीण बाबू और उनके भाई , रिश्तेदारों का खड़ा होना मुश्किल हो गया तो उन्होंने सभी को उतारने के लिए अपने अनुरोध तथा बाद में धकेलना शुरू कर दिया। फिर भी शव गाड़ी से उतरे हुए लोग विजेता की मुद्रा में नीचे उतरे। उनका अखबार के लिए फोटो खिंचाने और वीडियो फिल्म में चेहरा आने मन्तव्य पूरा हो गया था। मार्ग में सम्पादक दरबारी लाल के एक रिश्तेदार ने उनके शव पर जब अपने घर से पुष्प् वर्षा की , तो साथ में चले रहे फोटोग्राफरों और वीडियों कैमरा वालो ने चित्र लिए। यह देखकर कई लोग फूल लेने दौड़ पड़े तथा रास्ते में जहाँ जिसे मौका लगा,उसने सम्पादक के शव पर फूल बरसाये और फोटो खिंचने पर अपने पैसे वसूल समझ लिये। ऐसे लोगों की वजह से ऐसा लग रहा था कि यह शव यात्रा न होकर किसी राजनीतिक दल के नेता का चुनावी जुलूस चल रहा है। हर कथित नेता ज्यादा से ज्यादा अपनापन दिखाने की दौड़ कर रहा था। लगभग पाँवत्रच किलो मीटर की दूरी तय करने के दौरान शवयात्रा में श्रीकान्त, विजय, उमेश आदि शव के आसपास ही मडराते रहे। फिर जहाँ कोई वी.आई.पी. या अपने काम का आदमी दिखायी दिया कुछ दूरी के लिए उसके साथ हो लिए। उसे पान-सिगरेट ,ठण्डा लिया-पिलाया, काम ही बातें की, फिर अपनी व्यस्तता जाहिर करते हुए अलग हो लिये। इस शव यात्रा में सबसे ज्यादा दुर्गति हुई गोपीनाथ, काशी, सईद, हरी, महमूद जैसे लोगों की। उन्हें कोई शव के पास तक फटकने नहीं दे रहा था जबकि ये लोग दरबारी लाल के साथ तभी से जुड़े थे जब उन्होंने कई मित्रों और अपने भाइयों की सहायता तथा सहयोग से इस अखबार की आधारशिला रखी थी। तब दरबारी लाल और उनके कर्मचारियों की माली हालत में भी कोई खास फर्क नहीं था। इस कारण ही मजदूरी और काम के घण्टों को लेकर कभी कोई तकरार नहीं हुई। बाद में कुछ कर्मचारियों के साथ कभी वेतन लेकर मतभेद भी हुआ, लेकिन दरबारी लाल ने उसे ले-देकर जल्दी ही निपट दिया। अपनी इन्हीं खूबियों और बदलते युगधर्म को पहचान और उसके साथ समन्वय बैठाकर दरबारी लाल ने पहले से जमे जमाये अखबारों को पीछे छोड़ दिया था।

श्मशान में जब शवयात्रा पहुँची तो एक राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता ने ‘दरबारीलाल अमर रहें’ सम्पादक कैसा हो…… .. ‘गरीबों का मसीहा …..जैसे नारे लगाने शुरू कर दिये। फिर जब गाड़ी से शव उतारा जाने लगा,तो कर्मचारी नेता गजराज ने कुछ फोटो खिंचाने और कुछ बाहुबल दिखाने के इरादे से अकेले ही शव की काठी उठा ली। उसकी इस हरकत से शव गिरते-गिरते बचा। जब लोगों ने गजराज को इस बेजा हरकत के लिए कुछ कहना चाहा तो उसके मुँह से निकलती शराब की दुर्गन्ध को सूंघ चुप रहना ही बेहतर समझा।
इधर शव को जलाने के लिए स्थान तय करने मे ही विवाद छिड़ गया। फिर जैसे- तैसे जगह नियत की, तो लोग प्रवीण बाबू को देखकर लकड़ी लाने को ऐसे टूट पड़े कि टाल वाले को लकड़ी तोलना मुश्किल हो गया। चिता तैयार करने में माहिर लोग शव के नीचे लगाने को बेहतर लकड़ी छाँटने में लगे थे। लोग लकड़ी लाकर बारी-बारी से प्रवीण बाबू को चेहरा दिखाकर आगे बढ़ रहे थे, ताकि उन्हें वे भलीभाँति पहचान लें। अभी चिता आधी तैयार हो पायी थी कि साइरन बजाती पालइट गाड़ियों को आवाज सुन लोक चौकन्ने हो गये। वे यह देखने चल दिये कि कौर से मिनिस्टर आयेंगे। जब उन्हें खबर लगी कि मुख्यमंत्री पधारें हैं तो मधुमक्खियों की तरह जो लोग सम्पादक के शव पर टूट पड़े थे। वे मुख्यमंत्री को देखने को दौड़ पड़े। भीड़ में ये कई ने मुख्यमंत्री से निकटता जताने के लिए उनके परिजनों के हालचाल तक पूछ डाले। कुछ मुख्यमंत्री के आने की खबर पाकर फूल मालाएँ लेकर ही आए थे। मौका देखकर उन्होंने मुख्यमंत्री को माला पहनासी और पूरी तरह सटकर मुदित मुद्रा में फोटो खिंचाये। प्रवीण बाबू भी चिता छोड़कर मुख्यमंत्री के पास आ गए। अखबारों के फोटोग्राफरों ने फोटो खींचे, लेकिन उनमें कोई भाव दिखाई नहीं दिया तो श्रीकान्त के सुझाव पर प्रवीण बाबू के गले लग गये और मुख्यमंत्री ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए सांत्वना देने की मुद्रा बनायी। वह फोटो ओके हो गया। तभी कुलपति, नेताजी ने बारी-बारी से मुख्यमंत्री से हाथ मिलाये। इस बीच उनके साथ चल रहे फोटोग्राफर ने उनके फोटो खींचे। जब फोटोग्राफर ने हरेक व्यक्ति के कहने पर फोटो खींचने से इन्कार कर दिया, तो लोग एडवांस में रुपए देने के लिए उसकी चिचौरी करने लगे।
कुछ नेताओं मुख्यमंत्री का सानिध्य पाकर वे सारे ज्ञापन जो कलेक्टर,एस.पी.आदि को देने को उनकी जेब में पड़े थे। अपने कलाइण्टों को दिखाकर वे मुख्यमंत्री को थमा दिये, ताकि उनसे दुहरी, तिहरी फीस वसूली जा सके।
जब दरबारी लाल के बेटे प्रवीण बाबू ने मुखाग्नि देने का काम पूरा कर दिया तो वहीं बरामदे में शोक सभा करने बैठे गए। जब मैंने सेठ राधा बिहारी को यह कहते हुए सुना तो अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ कि दरबारी लाल जी बहुत नेक इन्सान थे। उन जैसे ईमानदार, सच्चे, रहमदिल इन्सान इस धरती पर कभी-कभी आते हैं।
मैं इस सेठ की बीसियों साल से जानता हूँ। वे अक्सर सम्पादक जी से मिलने आया करते थे। लेकिन एक दिन जब मैं पैदल ही घर लौट रहा था। उन्होंने कार रोक कर मुझे भी उसमें बैठा लिया था। फिर बातचीत में कोई ऐसा प्रसंग छिड़ गया तो कहने लगे,‘‘ दरबारी लाल अब बैंक का रुपया हड़प मालदार हो गया,तो सीधे मुँह बात नहीं करता। जरा पेट्रोल पम्प के लिए मंत्री जी से सिफारिश करने को कहा तो कहने लगे किसी से ऐसी बातें नहीं करता। मुझे सब मालूम है कि किससे क्या लेकर उन्होंने सिफारिश की और खुद क्या बिना कुछ माँगे यहाँ तक पहुँचे? एक दिन वह मुझ से रुपए लेकर तनखा बाँटता पाते थे। सच कहूँ तो उन जैसा मैं हो जाऊँ तो हजार गुना पैसे वाला होकर दिखा सकता हूँ। ’’
श्रद्धांजलि में कुछ ऐसा ही ढोंग बुर्जुग पत्रकार करुणाशंकर ने किया। वह बोले,‘‘ दरबारी लाल जी गुणग्राही, भाषविद् ,उद्भट विद्वान थे। उन जैसा कर्मवीर ,कलम के धनी , अच्छी भाषा लिखने वाले पत्रकार अब कहाँ हैं? उनके न रहने से हिन्दी पत्रकारिता अपूरणीय क्षति हुई है, जिसकी भरपायी सम्भव नहीं है।’’
मैंने इन्हें अक्सर बाबू जी दरबारी लाल की स्कूली शिक्षा कम होने और उनकी भाषा तथा व्याकरण की त्रुटियों का उपहास करते सुना था। वे ही आज उन्हें भाषाविद् बता रहे थे।
ऐसे ही सांसद विशाल सिंह ने श्रद्धांजलि देते हुए विषाद भरे स्वर में कहा,‘‘ भाई दरबारी लाल मेरे बड़े भाई सरीखे थे। वे पत्रकारिता में जरूर थे, किन्तु उन्हें राजनीति की समझ किसी भी राजनेता से अधिक थी। मैं अक्सर उनसे मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता था। अब उनके न रहने से मेरी निजी क्षति हुई है।’’ यह सब सुनकर मुझे लगा कि लोग कैसे अपनी कहीं बात से मुकर जाते हैं। कलतक यह नेता दरबारी लाल को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं जाने दे रहा था। इन्हीं से एकप्रतिद्वन्द्वी अअखबार को शहर में लाकर तथा उसे जमवाने में दिनरात एक कर दिया था वही आज अपनी निजी क्षति बता रहा है।
सांसद विशाल सिंह की दरबारी लाल से नाराजगी की वजह सिर्फ इतनी थीी कि उन्होंने टिकट माँगी थी लेकिन उनका टिकट कटवाने में कामयाब नहीं हुए। बाद में सांसद ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। बदले में दरबारी लाल ने भी अपने अखबार में उनके खिलाफ वह सब लिखा जो अब तक सम्बन्धों के कारण कभी नहीं छपा था। पर इस देश के लोगों का संस्कार में यही मिला है कि व्यक्ति के मरने के बाद सारे रागद्वेष तथा उसकी बुराइयाँ खत्म हो जाती है। वह आदमी स्वर्ग जाने का अधिकारी हो जाता है। फिर लोग अपने लाभ-हानि देखकर ही मुँह से शब्द निकालते हैं। तभी तो दरबारी लाल की शोकसभा में हर व्यक्ति उन्ळें आज देवता साबित करने पर तुला है। लोगों के इस दुहरे चरित्र को देख गोपीनाथ का मन न जाने कैसे हो गया। उसे वहाँ बैठ पाना दूभर हो रहा था। इसलिए चिता देखने की कहकर उठ कर वहाँ से चल दिया।
आज प्रवीण बाबू हर वी.आई.पी.के आने पर आँखों में आँसू लाने की कोशिश कर रहे थे। उसे देखकर कुछ लोग यह कहते सुने गए कि बेटा हो तो, ऐसा। अपने पिता की मौत पर कितना दुखी है? लेकिन अगर मैनेजर पाण्डेय की बात यकीन करें,तो सच कुछ और ही था।
दरबारी लाल पिछले कई साल से बीमार थे। उनका कई डॉक्टरों ने इलाज किया,किन्तु उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। उनकी तबियत खराब होने की मैनेजर पाण्डेय से जानकारी मिलने पर एक व्यापारी ने उनसे कहा कि उनके चिकित्सक ने इसी तरह की बीमारी का इलाज किया है तुम उनकी केस हिस्ट्री भिजवा देना। मैं उस डॉक्टर को केस हिस्ट दिखाकर परामर्श कर लूँगा। लेकिन प्रवीण बाबू आज दे दूँगा,कल दे दूँगा कह कर टालते रहे। उन्होंने दरबारी लाल की केस हिस्ट्री दी ही नहीं। पाण्डेय ने बताया कि प्रवीण बाबू नहीं चाहते थे कि वह स्वस्थ हों। यहाँ तक कि उन्होंने अपने पिता अखबार के परिसर में रहने के आग्रह को भी टाल दिया था,ताकि वह उनके कामों पर निगाह न रख पाये।
महेन्द्र ने गोपीनाथ को आवाज दी ‘‘दादा’’! व्ह जैसे नींद से जाग उठे।
सईद ने कहा,‘‘ अब रात के ठीक 12 बज गये हैं और पिता की आग ठण्डी पड़ रही है।’’
हरी ने गोपीनाथ ने प्रतिवाद करते हुए कहा,‘‘नहीं, बस ऐसे ही सोच रहा था।’’
‘‘बताओ न दादा! क्यों बताने में झिझक रहे हैं?’’
‘‘बस सोच रहा था कि आदमी कितना ही अपने आपको समझदार समझें, लेकिन दरअसल, वह उतना अक्लमन्द है नहीं। सच तो यह है कि इस दुनिया में जिसे वह पाना समझ रहा होता है। वह हकीकत में खो रहा होता है। अपने बाबूजी को ही देखो। आखिर में उनके हिस्से में क्या आया? सच्ची बुराई और झूठी तारीफ ही न।’’ इन लोगों के साथ वापस लौटते हुए मैं गोपीनाथ की बात पर ही विचार करता रहा। मेरा घर कब आ गया, यह मुझे पता ही नहीं चला।

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Rekha Singh

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