डॉ.बचन सिंह सिकरवार

हाल में पाकिस्तान की औद्योगिक शहर कराची में प्रतिबिन्धित कुख्यात दहशतगर्द संगठन‘ सिपह-ए-सहाबा’ (एस.एस.पी.) तथा ‘तहरीक लब्बाइक पाकिस्तान‘ की अगुवाई में हजारों की संख्या में कट्टरपन्थी सुन्नी शिया विरोधी समूहों से जुड़े मुसलमानों द्वारा हाथ में सिपह-ए-सहाबा’ के बैनर लेकर सड़क उतर कर शियाओं को इस्लाम से खारिज करने की माँग करते हुए खुलेआम ‘काफिर-काफिर शिया काफिर’ जैसे नारे लगाते हुए जैसा उग्र प्रदर्शन किया गया, उससे पाकिस्तान के असली चेहरे को एक बार फिर बेनकाब कर दिया है, जो आगामी अक्टूबर में होने वाली ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ (एफएटीएफ) की पेरिस में होने वाली बैठक से काली सूची में डाले जाने से बचने के लिए दुनिया भर में घूम-घूम कर खुद को न सिर्फ दहशतगर्दों का सताया साबित करता आया है, बल्कि उन पर हर तरह की बन्दिश लगाने और कठोर कार्रवाई किये जाने का यकीन भी दिलाता फिर रहा है, क्योंकि उसे जून, 2018 में उसने अपनी ग्रे सूची में डाला हुआ है। इस कारण पाकिस्तान को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक सहायता मिलने में दिक्कत आ रही है। लेकिन अब कराची में आतंकवादी संगठन‘ सिपह-ए-सहाबा’ ने पाकिस्तान की पोल खोलकर रख दी है, जिस पर इस मुल्क में शिया मुसलमानों के बड़ी तादाद में कत्ल किये जाने का इल्जाम लगते आए हैं, जो इस मुल्क के मुसलमानों का अकल्लियत (अल्पसंख्यक) फिरका है। गत 11 सितम्बर, शुक्रवार को दहशतगर्द संगठन सिपह-ए-सहाबा’ ने यह जुलूस कराची के मुहम्मद अली जिन्ना मार्ग पर दिन के उजाले में निकाला। कराची के पुराने शहर लाइन्स एरिया से जब यह मोटरसाइकिल रैली गुजरी तो वहाँ स्थित शियाओं की इमामियों मस्जिद और इमामबाड़े पर जमकर पत्थराव किया गया। यह सब करते हुए इस रैली में शामिल लोगों को किसी पुलिस- प्रशासनिक अधिकारियों को डर दिखायी नहीं दे रहा था। फिर 12 सितम्बर, शनिवार को भी कराची में सुन्नी मुसलमानों के कई समूहों ने विशाल सभा की, जिसमें शियाओं के खिलाफ बहुत ही आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया। फिर लाहौर, इस्लामाबाद समेत दूसरे शहरों में शिया विरोधी जुलूस निकाले जा रहे हैं, इससे यहाँ कि देश में दंगे भड़कने के आसार नजर आने लगे। इस बड़ी रैली को देख कर शिया समुदाय दहशत में फैल गई। यह रैली प्रधानमंत्री इमरान खान की अगुवाई वाली सरकार के मुल्क में दहशतगर्द संगठनों को जड़ से उखाड़ने के दावांे और इरादों पर गम्भीर सवाल खड़े करती है। वैसे भी इस्लामिक कट्टरता की बुनियाद पर वजूद में आए पाकिस्तान से किसी गैर मजहब के लोगों के महफूज रहने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हकीकत में ऐसा ही हो रहा है। पाकिस्तान बनने के बाद से ही अल्पसंख्यक हिन्दुओं, सिखों को हर तरह से सताना, उनकी बेेेटियों को अगवा कर उन्हें इस्लाम मजहब कबूल कराके उनसे निकाह करना ही नहीं, इनका खून बहाना भी आम बात है। कमोबेश यही हालत, शिया मुसलमानों समेत दूसरे फिरके अहमदियों, हजारा, कादियानी आदि की है। सुन्नी मुसलमान इन्हें मुसलमान नहीं मानते। इनमें से कुछ फिरकों को तो बाकायदा इस्लाम से खारिज किया जा चुका है। वैसे इस बार शिया मुसलमान विरोधी का यह आयोजन मुहर्रम पर आशूरा जुलूस के दौरान एक शिया नेता द्वारा कथित तौर पर इस्लाम के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी किये जाने की मुखालफत में किया गया। शिया अधिकार कार्यकर्ता गुल जहरा नकवी ने कहा,‘‘ जब कराची में खुलेआम शिया विरोधी रैली निकाली जा सकती है, तो यह दर्शाता है कि साम्प्रदायिक हिंसा जारी रहेगी। यह रैली एक दहशतगर्द संगठन द्वारा निकाली गई थी, जो पाकिस्तान की गैरकानूनी संगठनों की आधिकारिक सूची में प्रतिबन्धित है। रिजवी ने कहा, ‘फिर भी वे रैली करने में कामयाब रहे। यह चिन्ताजनक है। उन्होंने कहा, ‘‘मुहर्रम की शुरुआत के बाद से हम कई शिया समुदाय के लोगों को धार्मिक ग्रन्थों का पढ़ने और आशूर स्मरणोत्सव में भाग लेने के लिए लक्षित के तौर पर देखते रहे हैं। एक अन्य शिया अधिकार कार्यकर्ता आफरीन ने कहा,‘‘ इस प्रदर्शन को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। खासकर तब जब हमारे भाइयों ओर बहनों का अपहरण करने और उनकी मान्यताओं के लिए उन्हें मार दिया जाता है।

शिया नेताओं ने शिया मुसलमानों क खिलाफ नफरत फैलाने वाले कामों की हिमायत करने के लिए प्रधानमंत्री की सख्त जवाबदेही का आह्वान किया है। आफरीन ने कहा,‘ कुछ साल पहले पाकिस्तान में शियाओं को गुमनाम पैगाम (सन्देश) मिल रहे थे, जिनमें कहा गया था कि शियाओं को मार डालो। जहाँ आशूरा जुलूस हो रहे थे, वहाँ आतंकवादियों ने हथगोले फेंके। उन्होंने कहा, ‘यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि क्या पाकिस्तान सरकार ने दहशतगर्दों को दूर-दूर तक शियाओं के खिलाफ बयानबाजी फैलाने की इजाजत दी है। इमरान खान को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। शिया विरोधी रैली पर एक और ट्विटर यूजर ने लिखा,‘‘ कल मेरा शहर काफिर, काफिर शिया काफिर के नारों से गूँज उठा। कुछ घण्टों बाद ही हिंसा को कवर करने वाले पत्रकार बिलाल फारूकी को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह शियाओं का नरसंहार नहीं तो और क्या है? पाकिस्तान में ईशनिन्दा एक संवेदनशील मुद्दा है और अक्सर इसी मुद्दे पर शिया समुदाय और अल्पसंख्यकों को इसका दोषी करार देते हुए प्रताड़ित किया जाता है। पाकिस्तान ज्यादा आबादी सुन्नियों की है,पर दूसरे स्थान पर शिया मुसलमान है,जिन्हें शुरू से उनका वाजिब हक की बात तो दूर हर जगह उन्हें हिकारत की नजर से देखा जाता है।
इसी 6सितम्बर को पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रान्त के कोहाट शहर में एक दुकानदार कैसर अब्बास को अज्ञात बदमाश ने सरेआम

गोली मार दी,जो शिया समुदाय से था। सीसी टीवी फुटेज में एक हमलावर दुकान में घुसता है। अब्बास पर पॉइण्ट ब्लैंक रेंज के बन्दूक से फायर करता है। गोली लगने से वह अपनी कुर्सी से गिर जाता है। वहीं दुकान के बाहर मौजूद ग्राहक भागते हुए दिखायी दे रहे हैं। अभी तक किसी भी समूह ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली है। हत्या के पीछे स्थानीय देवबन्दी प्रायोजित आतंकवादी संगठनों की भूमिका संदिग्ध है। मृतक की तस्वीर सामने आयी है, जिसमें उसका शव स्टेªचर पर खूर से लथपथ दिखायी दे रहा है। 10 जनवरी, 2013 को क्वेटा में क्वेटा में बम से किये हमले में करीब सौ शियाओं को मार डाला। करीब सौ शियाओं की हत्या के बाद इस समुदाय के का धीरज जवाब दे गया और अपने साथ हो रहे जुल्मों के खिलाफ हजारों की संख्या में शिया सड़कों पर उतर पड़े। उन्होंने दक्षिणी-पश्चिमी राज्य बलूचिस्तान की सरकार को बर्खास्तगी की माँग की। उनके भारी दबाव के आगे पाकिस्तानी सरकार को झुकना पड़ा। तब इस हमले की जिम्मेदारी कुख्यात ‘लश्कर -झांगवी’ ने ली। इससे एक दिन पहले पेशावर में ‘सिपह-ए-सहाबा’ ने एक प्रसिद्ध शिया डॉक्टर की हत्या की। उससे दस दिन पहले 30 दिसम्बर, 2012 क्वेटा के पास मस्तुंग में 20 शिया तीर्थयात्रियों की सामूहिक हत्या हुई थी। उसकी जिम्मेदारी ‘जैश-ए-इस्लाम’ ने ली। 3 मार्च, सन् 2013 को कराची के अब्बास कस्बे के इमामबाड़े के बाहर दस मिनट के अन्तराल में दो बड़े धमाके हुए जिनमें 48 शिया मारे गए तथा 140 घायल हुए थे। शियाओं की हालत महज पाकिस्तान में ही नहीं दुनिया के दूसरे मुल्कों में भी है। फरवरी, 2013 को इराक की राजधानी बगदाद के शिया बहुल इलाके में चार कार बम विस्फोट हुए जिनमें 31 शिया मारे गए तथा दो दर्जन से ज्यादा आहत हुए। इराक में शियाओं के जितने भी जियारत स्थल यानी तीर्थस्थल थे, उन्हें दहशतगर्द संगठन आई.एस.ने जमींदोज कर दिया। इससे 22 नवम्बर, 2012 को रावलपिण्डी में 23 शियाओं का सामूहिक संहार हुआ। यह काम पाकिस्तानी तालिबानी ने किया। उसके प्रवक्ता ने कहा कि शिया लोग काफिर और मजहबद्रोही हैं। हम उन पर हमले करते रहेंगे। इस तरह कई संगठन नियमित रूप से शियाओं के संहार में लगे हैं। इतना नियमित है कि बलूचिस्तान के शिया नेता सैयद दाऊद आगा कहते हैं कि हम लोग तो बस कब्र खोदने वाला समुदाय बन गए हैं। शियाओं को लेकर ऐसा रवैया सिर्फ कट्टरपन्थी सुन्नियों की नहीं, आम उलेमा भी अपनी तकरीरों में रोजाना शियाओं के खिलाफ नफरत फैलाते रहते हैं। इमाम मुहम्मद बिन सऊद इस्लामी विश्वविद्यालय (आधिकारिक मौलवियों को प्रशिक्षित किया जाता है) के प्रोफेसर का कहना है कि अगर किसी सुन्नी बहुल देश में शिया अपने विश्वासों को खुले रूप में पालने करने की जिद्द करंे, तो सुन्नी राज के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि वह शियाओं के खिलाफ जंग छेड़ दे। हकीकत यह है कि बहरीन, इराक आदि शिया बहुल मुल्कों में भी उन्हें अपमान और संहार झेलना पड़ता है। हालाँकि हमेशा की तरह इस्लामिक दुनिया कराची में शियाओं के खिलाफ दहशतगर्द संगठन ‘सिपह-ए-सहाबा’ की इस दहशतगर्दी के खामोश है,लेकिन इस बार अपने देश के शिया संगठन और मजहबी नेताओं ने पाकिस्तान सरकार के शियाओं को लेकर उसके नजरिए और रवैये की कड़ी मजम्मत की है। एक ओर जहाँ भारत के शिया संगठन ने वैश्विक आयोग गठित करने की माँग- ऑल इण्डिया शिया हुसैनी फण्ड (एआएसएचएफ) ने संयुक्त राष्ट्र को पत्र लिखकर पाकिस्तान में शिया मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की माँग की है। इसके महासचिव सैयद हसन मेंहदी ने पत्र में लिखा है कि पिछले तीन दशक में पाकिस्तान में करीब 30 हजार शियाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। उन्होंने शियाओं पर हो रहे जुल्मों के मामलों की जाँच के लिए अन्तर्राष्ट्रीय आयोग के गठन की माँग की। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की हालत इतनी खराब है कि चाहे शिया हो,या सिख,हिन्दू अथवा ईसाई कोई भी महफूज नहीं है, दूसरी ओर वहीं लखनऊ में इमाम-ए-जुमा और शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद ने घटना की कड़े शब्द में निन्दा की। उन्होंने कहा कि शिया समुदाय के प्रति नफरत बढ़ रही है, उससे एक दिन पाकिस्तान ‘यजीदिस्तान’ में तब्दील हो जाएगा।
वैसे तो इस्लाम में 72 फिरके बताये जाते हैं, लेकिन इनमें शिया और सुन्नी प्रमुख है। शिया और सुन्नी पैगम्बर मुहम्मद की मौत के बाद इन दोनों समुदायों ने अपने रास्ते अलग कर लिए। इनका शुरुआती विवाद इस बात को लेकर था कि अब मुसलमानों को नेतृत्व कौन करेगा? मुसलमानों में ज्यादा संख्या सुन्नियों की है, जो कुल मुस्लिम आबादी का 85 से 90 फीसदी माने जाते हैं। दोनों ही समुदाय सदियों तक मिलजुल कर एक साथ रहते आए हैं। बहुत हद तक उनकी बुनियादी धार्मिक आस्थाएँ और रीति रिवाज एक जैसे ही हैं। इराक में हाल के समय तक शिया और सुन्नियों के बीच निकाह (शादियाँ) बहुत आम रही हैं। उनके मतभेद सिद्धान्त, अनुष्ठान, कानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठनों को लेकर रहे हैं। सुन्नी मुसलमान खुद को इस्लाम की पुरातनपन्थी और पारम्परिक शाखा समझते हैं। ‘तालिबानी’ चरमपन्थी कई बार शिया धार्मिक स्थलों को निशान बनाते हैं। सुन्नी शब्द अहल अल सुन्ना से आया है जिसका अर्थ होता है परम्परा मानने वाले लोग। इस मामले में परम्परा का अर्थ है पैगम्बर मुहम्मद या उनके करीबी लोगों की ओर से कायम की गई मिसलों और निर्देशों के अनुरूप काम करना। कुरान में जिन सभी पैगम्बरों का जिक्र है सुन्नी उन सबको मानते हैं, लेकिन उनके लिए मुहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे। उनके बाद जो भी मुसलमान नेता हुए उन्हें सांसरिक हस्ती माना जाता है। शियाओं के विपरीत सुन्नी धार्मिक अध्यापक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण के तहत रहते हैं। सुन्नी परम्परा इस्लामी कानूनी और उससे कानून की चार विचार धाराओं के संगम पर बल देती हैं।
इस्लामी इतिहास की शुरुआत की शिया एक राजनीतिक शाखा थे। शब्दशः ‘शियात अली’ यानी ’अली की सेना’। शिया मानते हैं कि पैगम्बर मुहम्मद की मौत के बाद उनके दामाद अली को ही मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने का अधिकार था। इराकी प्रधानमंत्री मलिकी पर सुन्नियों की अनदेखी करने का आरोप लगते हैं। मुसलमानों का नेता यानी खलीफा किसे बनाया जाए ? इसी सत्ता संघर्ष में अली मार गए। उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी खिलाफत को हासिल करने के लिए संघर्ष किया। हुसैन युद्ध भूमि में मारे गए, जबकि हसन के बारे में माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। इसी से शियाओं में शहादत की महत्ता को बढ़ा दिया और दुःख प्रकट करना उनके लिए एक धार्मिक अनुष्ठान बन गया। माना जाता है कि दुनिय में 12 से 17 करोड़ शिया हैं,जो कुल मुसलमानों 10 प्रतिशत के बराबर है। अधिकतर शिया मुसलमान ईरान, इराक, बहरीन ,अजरबैजान और यमन यमन में रहते हैं। इनके अलावा अफगानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, कतर, सीरिया, तुर्की, सऊदी अरब ,संयुक्त अरब अमीरात में भी अच्छी खासी संख्या में शिया रहते हैं।
वर्तमान में जिन इस्लामिक मुल्का में सुन्नी में सत्ता हैं, वहाँ शिया आमतौर पर समाज का सबसे पसमांदा (गरीब) तबका हैं। शिया खुद को हर तरह भेदभाव और जुल्म का शिकार मानते हैं। कई सुन्नी कट्टरपंथी सिद्धान्तों में शियाओं के खिलाफ नफरत को बढ़ावा दिया जाता है। ईरान में सन् 1979 की क्रान्ति के बाद एक कट्टरपन्थी इस्लामी एजेण्डे को आगे बढ़ाया गया,जिसे खासतौर से खाड़ी देशों की सुन्नी सत्ताओं के लिए एक चुनौती के तौर पर देखा गया। ईरान की सरकार ने अपनी सरहदों से बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया, जबकि खाड़ी देशों ने भी इसी तरह सुन्नियों को बढ़ावा दिय,इससे दुनिया में सुन्नी सरकारों और आन्दोलन के साथ उनके मेलजोल को बढ़ावा मिला । जहाँ लेबनान के गृहयुद्ध के दौरान हिज्बुल्लाह की सैन्य गतिविधियों के कारण शियाओं की राजनीतिक आवाज मजबूती से दुनिया को सुनायी दी, वहीं पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान, सिपह-ए-सहाबा’,‘लश्कर-ए-झांगवी, जैशे इस्लाम’ जैसे कट्टरपन्थी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के मजहबी स्थलों की निशाना बनाते हैं। सीरिया और इराक में जारी संकट में शिया और सुन्नी विवाद की गूँज सुनायी देती है। इन दोनों ही देशों में युवा सुन्नी विद्रोही गुटों में शामिल हो रहे हैं। इनमें बहुत से लोग ‘अलकायदा’ की कट्टरपन्थी विचारधारा को मानते हैं। दूसरी ओर शिया सम्प्रदाय के कई लोग सरकार की ओर से या सरकार सेनाओं के मिलकर लड़ रहे हैं। कभी -कभी ऐसा लगता है कि उनके नेताओं के बीच भी होड़ हो रही है। ऐसे में लेबनान और सीरिया से लेकर इराक और पाकिस्तान तक कई देशों में हाल में दोनों समुदायों के बीच हिंसा होती रहती है। इससे उनमें मतभेदों की खाई और बढ़ी है। लेकिन इसे पाकिस्तान समेत दुनिया के किसी मुल्क ने सुन्नी -शियाओं के मजहबी मतभेदों को दूर करने के संजीदा पहल नहीं की। ऐसे में इस्लामिक दुनिया में ही नहीं, पूरी दुनिया मंे अमन-चैन कायम करने के लिए सुन्नी-शिया मजहबी मतभेद दूर किया जाना बहुत जरूरी है। अब देखना है कि दुनिया में इस्लाम की बहबूदी कौन आगे आता है?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर, आगरा- 282003 मो.नम्बर-9411684054
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