देश-दुनिया

अब यूएई के राह पर बहरीन

साभार सोशल मीडिया

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

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हाल में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपनी मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात(यू.ए.ई.)के बाद अब बहरीन के इजरायल के साथ रिश्ते सामान्य करोने हेतु इन दोनों देशों के मध्य शान्ति समझौते के सहमति बनाने में जिस तरह कामयाब हुए हैं, उससे अमेरिका के विरोधी मुल्कों का हैरान -परेशान होना स्वाभाविक है,क्योंकि राष्ट्रपति ट्रम्प एक के बाद इस्लामिक मुल्कों को उनके पैदाइशी दुश्मन इजरायल के खेमे में शामिल कराने में लगे हैं। यही वजह है कि इससे कुपित होकर अमेरिका से सबसे बड़े विरोधी ईरान ने बहरीन के इस फैसले न केवल शर्मनाक बताया है, बल्कि इससे क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा होने की आशंका भी जतायी है। इससे पहले जब गत 13अगस्त राष्ट्रपति ट्रम्प ने यूएई और इजरायल के बीच समझौता कराया था, उस समय भी ईरान और तुर्की ने यूएई मध्य हुए ऐतिहासिक समझौते को फलीस्तीन के साथ विश्वासघात और सभी मुसलमानों की पीठ में खंजर घोंपना बताया था। हकीकत अब यह है कि ये इस्लामिक कट्टरपन्थी मुल्क दूसरे इस्लामिक मुल्कों पर कितने ही संगीन इल्जाम लगते रहें, पर उन पर इसका कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। दुनिया भर में दूसरे देशों की तरह इस्लामिक मुल्क भी अपना पुराना मजहबी नजरिया छोड़ कर अपने राष्ट्रीय हितों को देखकर नए रिश्ते बना रहे हैं। अब इस समझौते को कराने राष्ट्रपति ट्रम्प के दामाद और विशेष सलाहकार जेरेण्ड कुश्नर की अहम भूमिका बतायी जा रही है। यह भी सम्भावना जतायी जा रही है कि पश्चिम एशिया में होने वाले दूसरे शान्ति समझौतों में भी उनकी अहम भूमिका होगी। इजरायल के साथ सम्बन्ध सामान्य करने वाला बहरीन चौथा अरब देश बन गया है, इससे पहले मिस्र, जॉर्डन,यू.ए.ई. हैं। वैसे इस समझौते की घोषणा अमेरिका राष्ट्रपति ट्रम्प ने इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और बहरीन के किंग हमाद बिन इसा अल खलीफा से बातचीत करने के बाद इसी 11सितम्बर की है। पिछले दिनों यू.ए.ई.और इजरायल के बीच समझौता कराने को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिये जाने की चर्चा हुई थी,क्योंकि उन्होंने इस असम्भव से दिखने वाले कार्य को कर दिखाया है,जो इलाके में शान्ति स्थापित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
इस शान्ति समझौते के पश्चात् इजरायल और बहरीन केे बीच राजनयिक सम्बन्ध पूरी तरह सामान्य होंगे। ये दोनों देश एक-दूसरे के यहाँ दूतावास स्थापित करेंगे और राजदूतों की नियुक्ति करेंगे। दोनों देशों की बीच सीधी उड़ानें भी शुरू होगी। इसके अलावा वे स्वास्थ्य, कारोबार, प्रोद्यौगिकी ,शिक्षा, सुरक्षा और कृषि जैसे क्षेत्रों में सहयोग की भी पहल करेंगे। यह वास्तव में ऐतिहासिक दिन है। इसके बाद राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह कहना खास माने रखता है कि उन्हें उम्मीद है कि दूसरे खाड़ी देश भी इस राह पर चलेंगे।
बहरीन एक अरब राज्य है,जिसमें अरब खाड़ी के 33 छोटे-छोट द्वीप सम्मिलित हैं। बहरीन सबसे बड़ा द्वीप है और इसी के नाम पर इस द्वीप समूह का नाम है।15अगस्त, 1971 का स्वतंत्र हुआ। इस देश में स्वाधीन राजतंत्र है। इसका क्षेत्रफल- 669 वर्ग किलो मीटर तथा राजधानी -मनामा है। बहरीन की जनसंख्या- 8,07,000 से अधिक है, जो इस्लाम मानते हैं तथा अरबी एवं अँग्रेजी बोलते हैं। इस देश की मुद्रा-दीनार है। पशु पालन, कृषि और मछली पकड़ने जैसे परम्परागत धंधों के साथ ही बहुत से आधुनिक उद्योग भी स्थापित हो गए हैं। इस राज्य की आय का अधिकांश भाग तेल से प्राप्त होता है। लोगों के रहन-सहन का स्तर बहुत ऊँचा है। माध्यमिक स्तर तक शिक्षा निःशुल्क है और उच्च स्तर की शिक्षा में छात्रवृत्तियों के रूप में बड़ी मात्रा में सरकारी सहायता उपलब्ध है।यहाँ के अमीर- शेख हमद बिन ईसा अल खलीफा प्रधानमंत्री- शेख खलीफा बिन सुलमान अल खलीफा हैं।
वैसे भी इस्लामिक दुनिया उसमें भी तेल पैदा करने वाले मुल्क पर अपना दबदबा कायम करने की कोशिशें से हमेशा से होती आयी हैं, ताकि उनके तेल को बेचकर अधिक से अधिक मुनाफा उठा सकें। इस खेल में अमेरिका और रूस के बाद अब चीन भी शामिल हो गया है। इसके लिए बड़ी सैन्य शक्ति वाले देश ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमों मुल्कों को अपने खेमे लाने में लगे हुए हैं। ये इस्लामिक मुल्कों के शिया -सुन्नी की फिरका परस्ती का भी पूरा फायदा उठा रहे हैं। इनमें सुन्नी मुसलमानांे की रहनुमाई सऊदी अरब करता आया है तथा शिया मुसलमानों की ईरान। इनके बीच आपसी संघर्ष की सबसे बड़ी वजह यह फिरकापरस्ती ही है,जैसे बहरीन शिया बहुल है, पर यहाँ के शासक सुन्नी हैं। इसी तरह सीरिया सुन्नी बहुल है,लेकिन शिया शासक बशर अल असद हैं, िजन्हें ईरान तथा रूस का पूरा समर्थन मिला हुआ है। शिया बहुल यमन में सऊदी नेतृत्व वाले सैन्य गठजोड़ के खिलाफ ईरान ‘हाउथी मिलिशिया’ को समर्थन दे रहा है। ईरान ने ‘अल बद्र’ तथा मेहदी आर्मी’ जैसे शिया मिलिशिया खड़े किये गए हैं,जिसके पीछे उसका मकसद शिया बहुल इराक में अपना असर बढ़ना है। तुर्की एक फिर इस्लामिक दुनिया का खलीफा बनने की चाहता रखता है,जहाँ पहले ओटोमन साम्राज्य था। यहाँ सन् 1934में कमाल पाशा ने तुर्की गणराज्य की घोषणा करते हुए इसे सेक्यूलर मुल्क बनाया था,किन्तु पिछले 17साल से वर्तमान राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन फिर से इस्लामिक मुल्क बनाने में जुटे हैं। अब जहाँ अमेरिका सऊदी अरब और उसके खेमे के मुल्कों में अपनी पैठ बनाये हुए हैं, वहीं रूस शिया मुल्क ईरान समेत दूसरे शिया मुस्लिम मुल्कों में अपना असर बनाने में जुटा है। तेल उत्पादक देशों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेने की स्पर्द्धा में अब चीन भी कूद पड़ा है, इसके लिए उसने हाल में ईरान को भारी कर्ज देने के साथ-साथ उसे परमाणु बम निर्माण में सहायता और घातक हथियार बेचने का प्रलोभन दिया हुआ ह, ैजिस पर अमेरिका ने आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं। इस कारण भारत समेत कई देशों ने ईरान से तेल खरीदना बन्द कर दिया है। इसका ही चीन लाभ उठा रहा है। इसीलिए हाल में पहले भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और उसके बाद विदेशमंत्री एस.जयशंकर ने ईरान के दौरे पर गए थे, ताकि उसे पूरी तरह चीन के खेमे में जाने से रोका जा सके।
इस दौरान तुर्की और पाकिस्तान खुद को इस्लामिक दुनिया का नया खलीफा/रहनुमा साबित करने में लगे हुए हैं, जिसकी कमान कभी सऊदी अरब के हाथ में हुआ करती थी। अब तुर्की सिर्फ पाकिस्तान, मलेशिया जैसे मुल्कांे का साथ मिला हुआ, जो इन्हीं की तरह इस्लामिक कट्टरपन्थ के रास्ते पर चल रहे हैं। इन्हें चीन का भी साथ मिला हुआ है। पिछले दिनों हुए समझौते से इन कट्टरपन्थी इस्लामिक मुल्कों के भड़कने और परेशान होने की असल वजह उनकी खिलाफत यानी रहनुमाई को खतरे में पडना है। ये कभी इजरायल से लड़ने को, तो कभी दूसरे मुद्दों पर अपने मजहबी मुल्कों के मंचों पर ‘इस्लाम खतरे में हैं कहकर एकजुट होने की कोशिशें करते आए हैं, लेकिन इनकी फिरकापरस्ती और निजी नुकसान- फायदे इन्हें वैसे इकट्ठे नहीं होने देते, जैसा ये चाहते हैं। जहाँ तक इजरायल से दुश्मनी और उससे लडने का सवाल है, तो इन्होंने उससे एक साथ मिलकर और अकेल-अकेले लड़कर भी देख लिया। हर दफा इन्हें हार का मुँह देखना पडा है। इस हकीकत को समझ कर मिस्र और कई दूसरे इस्लामिक मुल्कों ने इजरायल से न लड़ने में ही अपनी खैरियत समझकर समझौता करने या चुप बैठना मुनासिब समझा।
वैसे यह जरूर है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अरब देशों ,पश्चिमी एशिया के देशों की इजरायल से तथा अफगानिस्तान में इस्लामिक दहशतगर्द संगठन ‘तालिबान’से समझौता कराने की जरूरत है, क्यों कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का उनका पिछला चुनावी वादा पूरे होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं, क्यों कि उनका कराया तालिबान समझौता खटाई में पडता दिखायी दे रहा है। अब जब तालिबान ने अफगानिस्तान की कैद से अपने कई हजार दहशतगर्द तो रिहा करा लिए,लेकिन अब समझौते से मुकरते हुए वह अफगानिस्तान की राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार को मान्यता देने से ही इन्कार कर रहा है। अब तालिबान एक ओर अफगानिस्तान की सरकार से कतर की राजधानी दोहा में वार्ता कर रहा है,दूसरी ओर उसके दहशतगर्दों ने गत 13सितम्बर को अफगानिस्तान के 18प्रान्तों में हमले किये हैं। ऐसे में ये दोनों समझौते उन्हें राहत देने वाले होंगे,क्योंकि वह अपने चुनाव में इन्हें उपलब्धि के रूप में पेश कर पाएँगे। अब देखना है कि बहरीन ने यू.ए.ई का जो रास्ता चुना है,उस वह उस पर कितना आगे बढ़ता है?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63 ब,गाँधी नगर, आगरा- 282003 मो.नम्बर-9411684054

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