त्यौहार

‘मुहर्रम’ के माने-दीन के लिए सब कुछ कुर्बान

साभार सोशल मीडिया

मुहर्रम पर खास पेशकश-
इमरान खान

साभार सोशल मीडिया

इस्लाम मजहब के मानने वालों के लिए ‘मुहर्रम’ का त्योहार अपने दुःख/शोक का इजहार करने का मौका है, जिसका रिश्ता मजहबी तवारीख के एक दुखद वाकये से है। मुहर्रम में अपने दीन की हिफाजत और सच्चाई की खातिर बड़ी से बड़ी कुर्बानी दिये जाने का पैगाम छिपा है। यूँ तो इस्लामिक कैलेण्डर के पहले महीने का नाम ‘मुहर्रम’ या ‘मोहर्रम’ है, लेकिन इस नाम के पीछे ‘तवारीखी वजह ’यानी ऐतिहासिक घटना है, जो मजहब और उसूलों की खातिर अपना सब कुछ कुर्बान करने की घटना से जुड़ी हुई है। इसी महीने से इस्लामिक साल का आगाज होता है। इसी महीने की 10 तारीख को ‘रोजा-ए-आशुरा’ (डे ऑफ आशुरा) कहा जाता है। इसी दिन को अँग्रेजी कैलेण्डर में ‘मुहर्रम’ कहा जाता है। मुहर्रम के महीने में इस्लाम मजहब की स्थापना करने वाले मुहम्मद साहब के छोटे नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 शार्गिदों का बड़ी बेरहमी से कत्ल किया गया था। हजरत इमाम हुसैन पैगम्बर मुहम्मद साहब के छोटे नवासे तथा चौथे खलीफा (मजहबी रहनुमा/धार्मिक नेता) हजरत अली के बेटे थे। हजरत अली के बाद तो वे मक्का के खलीफा माने जाते थे, इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने को कहा गया। इस्लाम में छल,फरेब, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब आदि ऐब/बुराइयाँ हराम समझी जाती हैं। हजरत मुहम्मद साहब ने इन्हीं हिदायतों का खुद पालन किया। इन्हीं इस्लामिक उसूलों (सिद्धान्तों)पर अमल करने की हिदायत उन्होंने सभी मुसलमानों को दी थी। सऊदी अरब के शहर मदीना में इस्लाम का जन्म/उदय हुआ है। मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक बादशाह था। मुआविया की मौत के बाद शाही वारिस के तौर पर यजीद को गद्दी पर बैठाया जाना था। यजीद उन सारे बुरे कामों को करता था, जिन्हें इस्लाम में वर्जित या हराम बताया गया है। वह ‘शाम’ की गद्दी पर बैठ गया। इसके बाद यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने का समर्थन इमाम हुसैन करें, क्यों कि वह मुहम्मद साहब के छोटे नवासे हैं। वहाँ के लोग उनकी बहुत इज्जत करते हैं। यजीद जैसे शख्स को इस्लामी हुक्मरान कुबूल करने से हजरत मुहम्मद साहब के घराने ने मना कर दिया। इसकी वजह यजीद का इस्लामी उसूलों में यकीन न करना था। हजरत इमाम हुसैन ने यजीद की बात मानने से साफ तौर से इन्कार दिया। उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मुहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहाँ अमन कायम रहे। इसके बाद इमाम हुसैन हमेशा-हमेशा के लिए मदीना छोड़कर खानदान और अपने कुछ शार्गिदों को साथ लेकर इराक की तरफ जा रहे थे। उसी वक्त कर्बला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को चारों ओर से घेर लिया । यजीद ने उनके सामने कई शर्तें रखीं, जिन्हें मानने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। यजीद से बातचीत करने के दौरान इमाम हुसैन अपने काफिले के साथ फरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीद की फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फरात नदी के किनारे से हटाने का हुक्म दिया। उन्हें इस नदी से पानी लेने पर भी पाबन्दी लगा दी। इमाम हुसैन का जंग करना नहीं चाहते थे। इसकी वजह उनके काफिले में सिर्फ 72 लोग थे। इनमें छह महीने का उनका बेटा, उनकी बहन-बेटियाँ, बीवी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मुहर्रम थी और गर्मी का मौसम था। आज भी इराक में गर्मियों में दिन के वक्त आमतौर पर 50 डिग्री से ज्यादा तापमान रहता है। सात मुहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना-पानी था, वह खत्म हो चुका था। फिर भी इमाम हुसैन साहब सब्र से काम लेते हुए लड़ाई को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन ,उनके खानदान के लोग और शार्गिद भूख -प्यासे तड़पते रहे। 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ से एक-एक करके गए सभी शख्स यजीद की फौज से जंग करते हुए मारे गए। इस दसवीं तारीख को छोटे-छोटे बच्चे ,औरतों और हजरत इमाम हुसैन के दो भाँजे शहीद हुए, जो उनकी बहन जैनब के बेटे थे। इस तरह यजीद के सेनापति ने शिम्र में सबके साथ बेहद बेरहमी की। जब इमाम हुसैन के सभी साथी मारे गए। तब आशर(दोपहर)की नमाज के बाद हजरत इमाम हुसैन जंग के लिए खुद गए। उसमें वे बहुत बहादुरी के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बाद दुश्मनों ने हजरत इमाम हुसैन के सर को नेजा पर रखा। यह वाकया इस्लाम की तवारीख की सबसे खूनी शहदत है। इसी के चालीसवें दिन ‘चेहल्लुम’ मनाया जाता है,जिसका माने ‘चालीसवाँ’। यह श्रद्धा का पर्व है।
इस जंग में इमाम हुसैन का एक बेटा जैनुअल आबेदीन जिन्दा बचा, क्योंकि 10 मुहर्रम को वह बीमार थे। बाद में उन्हीं से मुहम्मद साहब की पीढ़ी चली। इसी कुर्बानी की याद में ‘मुहर्रम’ मनाया जाता है। कर्बला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मुहम्मद साहब के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है। इमाम हुसैन और उनके मर्द साथियों और खानदानियों का कत्ल करने के बाद यजीद ने हजरत इमाम हुसैन के खानदान की औरतों को गिरपतार करने का हुक्म दिया। जंग फतेह के बाद यजीद ने इमाम हुसैन के लूटे हुए काफिले को देखने वालों को यह कहते हुए डराया कि वे उसकी मुखालफत की जुर्रत न करें। अगर किया, तो उसका अंजाम भी ऐसा ही होगा। इसके बाद यजीद के बादशाह बनने पर मुखालफत करने वाले खामोश हो गए। यजीद ने मुहम्मद साहब के घर की औरतों पर बेइन्तहा जुल्म किये। उन्हें कैदखाना में रखा, जहाँ हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की सीरिया के कैदखाना में मौत हो गई। इसी शहदत को इस्लाम के मानने वाले ‘मुहर्रम’ की पहली तारीख से दसवीं तारीख तक दस दिनों का ‘मातम’ मानते हैं। मुसलमानों में जो शिया फिरका हैं, उनके लिए तो यह घटना बेहद ‘गमनाक दर्दनाक’ है। वे लोहे की छूरी लगी जंजीर से अपने सीने और पीठ को पीट-पीट कर लहूलुहान कर लेते हैं। औरतें स्याह मातमी पोशाक पहनती हैं और कर्बला के वाकये को याद कर अपनी छाती पीट-पीट कर रोती और चिल्लाती हैं। इस मौके पर मजलिसें होती हैं। इनमें खतीब(अभिभाषणकर्त्ता) कर्बला का वाकया को कविता या गद्य में सिलसिलेवार सुनाते हैं। इसमें मजलिस में शामिल होने वाले लोग इस दर्दनाक हादसे को सुनकर गर्म उच्छवास छोड़ते हैं। इस दौरान लोग आँसू बहाते हैं और आहें भरते हैं। इसके साथ ही कराहते भी हैं। ये धीमें स्वर में गिरिया-व-जारी( रोना-पीटना) करते हैं। इस मौके पर सिपर(ढाल), दुलदुल(घोड़ा) ,परचम(झण्डा/ध्वज/पताका) लेकर ताजिये निकाले हैं। ताजिया बाँस की खपच्चियों से मकबरे के आकार ढाँचा बनाया जाता है,जिसमें इमाम हुसैन की कब्र होती है। ताजिए के पास ये लोग मातम मनाते हैं। मुहर्रम की दसवी तारीख को बहुत से मुसलमान ‘रोजा’ रखते हैं। गमजदा होकर ‘या हुसैन’ ‘या हुसैन’ बोलते हुए उन्हें याद करते हैं। अपने ताजिये के साथ अलग-अलग जत्थों में अखाड़ो के साथ चौराहों पर बनैठी(लाठ्यिाँ घूमाते) या तलवारबाजी करते हुए चलते हैं। यह सब दिखा कर ये लोग यह दिखाना चाहते हैं कि हजरत इमाम हुसैन बड़ी बहादुरी के साथ यजीद की फौज से लड़े थे। इस फिर मुहर्रम के दिन इसे कर्बला में दफना देते हैं। इमाम हुसैन झूठ और नाइन्साफी खिलाफ यजीद की फौज से पूरी ताकत से लड़े।उन्होंने यजीद को कभी भी खलीफा नहीं माना। भले ही उन्हें बड़ी से बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी। इसलिए यह पर्व हमें उस आदर्श की याद दिलाता है कि मनुष्य के लिए जीवन से बढ़ कर उनका उसूल/ आदर्श होते हैं। इन्सान के सामने चाहे जितनी दुश्वारियाँ और मुसीबतें आएँ,किन्तु उसे अपने ‘दीन’ और ‘सच्चाई’ के रास्ते पर चलते रहना चाहिए। नाइन्साफी की मुखालफत की निशानी है, मुहर्रम। यही वजह है कि मुहर्रम इस्लामिक तवारीख की कभी नहीं भुलाये जाने वाला वाकया बन गया है।
सम्पर्क-इमरान खान मोबाइल नम्बर-9897551888

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