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क्यों भड़क रहे हैं यूएई-इजरायल समझौते से?

साभार सोशल मीडिया

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

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गत दिनों इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात(यू.ए.ई.) के मध्य हुए ऐतिहासिक समझौते को लेकर जिस तरह ईरान और तुर्की इसे फलस्तीन के साथ विश्वासघात और सभी मुस्लिमों की पीठ में खंजर घोेेंपना बताते हुए तीव्र विरोध कर रहे हैं, उससे हैरानी की कोई वजह नहीं है, क्योंकि ये दोनों ही मुल्क अब खुद को इस्लामिक दुनिया का नया रहनुमा साबित करने में लगे हुए हैं, जिसकी कमान कभी सऊदी अरब के हाथ में हुआ करती थी। अब इन्हें सिर्फ पाकिस्तान, मलेशिया जैसे मुल्कांे का साथ मिला हुआ, जो इन्हीं की तरह इस्लामिक कट्टरपन्थ की राह पर चल रहे हैं। इस समझौते से इन कट्टरपन्थी इस्लामिक मुल्कों के भड़कने और परेशान होने की असल वजह उनकी खिलाफत यानी रहनुमाई को खतरे में पडना है। ये कभी इजरायल से लड़ने को, तो कभी दूसरे मुद्दों पर अपने मजहबी मुल्कों के मंचों पर ‘इस्लाम खतरे में हैं कहकर एकजुट होने की कोशिशें करते आए हैं, लेकिन इनकी फिरकापरस्ती और निजी नुकसान- फायदे इन्हें वैसे इकट्ठे नहीं होने देते,जैसा ये चाहते हैं। जहाँ तक इजरायल से दुश्मनी और उससे लडने का सवाल है, तो इन्होंने उससे एक साथ मिलकर और अकेल-अकेले लड़कर भी देख लिया। हर दफा इन्हें हार का मुँह देखना पडा है। इस हकीकत को समझ कर मिस्र और कई दूसरे इस्लामिक मुल्कों ने इजरायल से न लडने में ही अपनी खैरियत समझकर समझौता करने या चुप बैठना मुनासिब समझा। वैसे इस समझौते का फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास का मजम्मत करना समझ में आता है, क्योंकि उन्हें तो इजरायल के खिलाफ इस्लामिक मुल्कों की हर तरह की इमदाद का ही सहारा है। इसीलिए ही उसने यूएई के इस कदम को धोखा बताया है।
अब इसी 13 अगस्त को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मध्यस्थता में हुए समझौते से इन दोनों मुल्कों के बीच पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित होंगे। इस समझौत का संयुक्त राष्ट्र(यू.एन.), यूरोपीय यूनियन(ईयू),फ्रान्स,चीन समेत दुनिया के कई दूसरे मुल्कों ने स्वागत किया है। अब जहाँ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एण्टोनिया गुतेरस ने समझौते का स्वागत करते हुए उम्मीद जताई है कि इससे इजरायली और फलस्तीन नेताओं के बीच अर्थपूर्ण बातचीत का मार्ग प्रशस्त होगा, वहीं यूरोपीय यूनियन ने कहा कि यह समझौता क्षेत्र में स्थिरता स्थापित करने में मददगार होगा। ऐसा ही कुछ फ्रान्स का विचार है। उसका कहना है कि इस समझौते से इजरायल और ईयू के सम्बन्ध सामान्य होंगे। इस मुद्दे पर चीन का तुर्की से अल्हदा रुख चौंकाने वाला है,जो कई मामलों में अब तक तुर्की की मदद करता आया है। लेकिन इस समझौते को चीन ने तनाव दूर करने वाला कदम बताया है।
इस पूरे घटनाक्रम समझने के लिए यूनाइटेड अरब अमीरात( यूएई) के बारे में जान लेना जरूरी है,जो फारस की खाड़ी में स्थित सात शेख राज्यों -अबूधाबी, दुबई, शरजाह, उम्म अल कुवैन, अजमान, फुजइंराह और रस अल खैमा को मिलाकर बना है। इनमें से पहले छह शेख राज्यों ने 2 दिसम्बर, 1971 को यूनियन दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये और अन्तिम शेख राज्य यूनियन में फरवरी, 1972 में सम्मिलित हुआ। इसका क्षेत्रफल-82,880 वर्ग किलोमीटर और राजधानी अबूधाबी है। यू.ए.ई.की जनसंख्या-82,64,070से अधिक है,जो इस्लाम के अनुयायी है तथा अरबी बोलती है। इसकी मुद्रा‘दिरहम’ है। अबूधाबी इस यूनियन की राजधानी है, जो इस क्षेत्र में सबसे बड़ा है। दुबई यूनियन का मुख्य बन्दरगाह है और अब मध्य-पूर्व में सबसे बड़ा बन्दरगाह है। यूनाइटेड अरब अमीरात की लगभग समूची अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर है।
वैसे यूएई और इजरायल के बीच यह समझौता अचानक नहीं हो गया है, बल्कि काफी सोच-विचार और सभी तरह के नफे-नुकसान का अन्दाजा लगाकर किया होगा।इसकी पुष्टि अमेरिका के अधिकारियों ने यह कहकर की है कि यह समझौता इजरायल, यूएई और अमेरिका के मध्य लम्बी चर्चा का परिणाम है।वैसे यह जरूर है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को इसकी जरूरत कुछ ज्यादा थी, क्यों कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का उनका पिछला चुनावी वादा पूरे होने के आसार नजर नहीं आ रहे, क्यों कि उनका कराया तालिबान समझौता खटाई में पडता दिखायी दे रहा है। अब जब तालिबान ने अफगानिस्तान की कैद से अपने कई हजार दहशतगर्द तो रिहा करा लिए,लेकिन अब समझौते से मुकरते हुए वह अफगानिस्तान की राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार को मान्यता देने से ही इन्कार कर रहा है। ऐसे में यह समझौते उन्हें राहत देने वाला होगा,क्योंकि वह अपने चुनाव में इसे उपलब्धि के रूप में पेश कर पाएँगे। यही कारण है कि इस समझौते के तुरन्त राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ट्वीट करते हुए लिखा था,‘‘ आज बहुत बड़ी उपलब्धि मिली। दो अच्छे दोस्तों इजरायल और यूएई के बीच ऐतिहासिक शान्ति समझौत हुआ है।’’ जहाँ तक कि यूएई का सवाल है तो वह केवल तेल निर्यातक देश है। उसे मुस्लिम दुनिया की जकड़ रहने में कोई फायदा नजर नहीं आ रहा होगा,फिर इजरायल से मिस्र समझौता कर सकता है, दूसरे मुस्लिम मुल्क सहज रह सकते हैं,तो यूएई को ऐसा करने में क्या हर्ज है?
जहाँ तक तुर्की का सवाल है तो वह तो एक बार फिर से खलीफा बनने की तैयारी कर रहा है। उसने ईसाई मुल्कों की जनता की धार्मिक भावनाओं की परवाह न करते हुए हगिया सोफिया को इसी जुलाई में संग्रहालय से पुनः मस्जिद बना दिया गया,जो मूलतः गिरजाघर(चर्च) है,जिसका निर्माण 537ईस्वी में वायज जस्टिन कराया था। इस चर्च को ‘चर्च ऑफ विजडम’ कहा जाता था।इसे पन्द्रहवीं शताब्दी तुर्की के उस्मानी सुल्तान मेहमत द्वितीय के हुक्म पर मस्जिद में तब्दील कर दिया। इसके बाद 1934 में मुस्तफा कमाल पाशा ने इस मस्जिद को फिर से चर्च बनाये जाने के बजाय संग्राह में परिवर्तित कर दिया। इसके बाद तुर्की के सर्वोच्च न्यायालय के पश्चात् तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने इसे फिर मस्जिद में तब्दील कर नमाज पढने का आदेश जारी कर दिया। ऐसी हालत में तुर्की के मिजाज को समझा जा सकता है, तभी तो उसके विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में यह कहना जरूरी समझा है कि क्षेत्र के लोग इसे कभी नहीं भूलेंगे। ये यूएई को उसके कपटपूर्ण बर्ताव को भी कभी माफ नहीं करेंगे। इससे पहले फलस्तीन का अतिवादी संगठन ‘हमास’ भी इस समझौते की तीखी आलोचना कर चुका है। उसने भी समझौते को लोगों की पीठ में छुरा घोंपने जैसा करार दिया है। अफसोस की बात यह है कि फलस्तीन समेत कोई मुस्लिम मुल्क इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं है कि इस समझौते से फलस्तीन को भी फायदा होना है, क्योंकि इस समझौते के तहत इजरायल पश्चिम तट(वेस्ट बैंक) के इलाकों पर अपनी गतिविधियाँ रोकने पर राजी हुआ है।यह क्षेत्र फलस्तीन का पूर्वी भाग है,जिस पर इजरायल ने सन् 1967 में कब्जा कर लिया था। क्या तुर्की, ईरान समेत मुस्लिम मुल्क और उनके संगठन यह दावा कर सकते हैं कि वे इजरायल से लड़कर या दूरी बना कर फलस्तीन को फायदा पहुँचा पा सकते हैं,अगर नहीं, तो फिर खामखाँ उससे दुश्मनी बनाये रखने से उन्हें आखिर क्या हासिल होगा?
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054

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