कहानी

कलंकित

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
बल्देवराज जसूजा रोजाना की तरह अपने लॉन में बैठकर जैसे ही अखबार खोलकर पढ़ने बैठे, तो पहले ही पृष्ठ पर अपने बेटे सुखदेव का फोटो और उसके बारे में मोटे-मोटे अक्षरों में छपा समाचार दिखायी दिया। उसमें बैंक प्रबन्धक सुखदेव जसूजा की तमाम धाँधलियों के साथ-साथ 12 करोड़ रुपए के गबन में गिरपतारी का समाचार था। यह सब पढ़कर दिसम्बर माह की सर्द सुबह में भी 65 वर्षीय बल्देवराज जसूजा पसीने से तरबतर हो गए। यह खबर उनके अपने स्वजन-प्रियजन की मौत से बढ़कर थी। वे जिस दुःस्वप्न को पिछले कुछ समय से बार-बार देख रहे हैं वह यथार्थ बन जाएगा, ऐसा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था।
शुरु-शुरु में सुखदेव में बैंक में नौकरी लगने और ठीक-ठाक वेतन मिलने पर भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया, पर कुछ समय से बल्देव राज को अपने बेटे के रंग-ढंग अच्छे नहीं दिखायी दे रहे थे। पिछले दिनों उनके घनिष्ठ मित्र कुन्दनलाल ने सुखदेव की घूसखोरी और उसकी कई बुरी आदतों के बारे में बताया, तो वह उन्हीं पर बरस पड़े।
दरअसल, बल्देवराज जसूजा को तब यह यकीन ही नहीं हो रहा था कि इतने अच्छे माहौल में पाला और बढ़ा हुआ उनका बेटा ऐसे कुमार्ग पर चल पड़ेगा। उन्हें बार-बार अपने पर गुस्सा आ रहा था, क्यों उन्होंने बहू के कहने पर सुखदेव को अलग रहने को कह दिया। फिर बहू की बेरुखी के कारण उसके घर की खबर-सुध लेना भी एक तरह से छोड़ दिया। अब समाज में मैं कैसे मुँह दिखाऊँगा? राह चलतेे लोग मेरी तरफ इशारा करके कहेंगे, ‘‘देखो! सुखदेव का बाप जा रहा है जिसने पूरे 12 करोड़ रुपए का बैंक से गबन किया और इस समय जेल में बन्द है।‘‘ हे भगवान! ऐ जिन्दगी मैं किस तरां जिवांगा।’’ यह सोचकर बल्देवराज जसूजा सिर पकड़ कर बैठ गए।
सुबह पार्क घूमने तथा शाम को सत्संग के साथी सुखदेव के बारे में पूछेंगे, तो क्या कहूँगा? निश्चय ही उनमें से कुछ लोग यह भी कहेंगे कि हमें तो धर्म-कर्म के बड़े-बड़े उपदेश देते फिरते हैं और अपनी औलाद को सही संस्कार भी नहीं दे पाए। वे स्वयं बार-बार कहा करते थे कि गरीब होने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन कलंकित होना बहुत बुरा है, उसे समाज सहज स्वीकार नहीं करता। आदमी की ईमानदारी, उसका सचरित्र ही उसकी सबसे बड़ी दौलत है। लेकिन सुखदेव तथा उसकी पत्नी जसवीर को उनकी यह सीख कभी रास नहीं आयी। वह अक्सर कहा करती थी, ‘‘पापा जी! ते पुराने ख्यालातां दे हन, आज दी दुनिय बौत बदल गयी ऐ, जिसदे कौल पैसा है, उसी दी इज्जत है, जिसदे कौल पैसा नहीं, उसकी किद रै पुछ नहीं, न कर , बार’’’
जसवीर के ये शब्द बल्देवराज के दिल में तीर से चुभ जाते थे, किन्तु पीढ़ियों के विचारों का अन्तर समझ कर चुप रह जाते थे, इसकी एक वजह यह भी थी कि तब उन्हें सुखदेव के आचार-विचार में कोई खराबी नजर नहीं आती थी। जब सुखदेव की पदोन्नति बैंक प्रबन्धक के रूप में हुई, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्हें लगा कि उनके सारे जप-तप काम आ गए। उनकी साधना -कामना पूरी हो गई, पर उनकी यह खुशी ज्यादा दिन कायम नहीं रही। कुछ साल बाद एक दिन जसवीर ने कहा,‘‘पापा जी! ये अब मैनेजर बन गए हैं। इस मीडिल क्लास लोगों के मुहल्ले के छोटे से मकान में रहना ठीक नहीं लगता। हमारे मेहमान तथा बैंक से सम्बन्धित लोग यहाँ आते हैं। हम लोगों का भी अपना कोई स्टे्टस है? उसी के अनुसार अब हमें रहना चाहिए।’’
हालाँकि उसके यह सब कहने में कुछ भी गलत नहीं था, लेकिन ये घर मेरे लिए सिर्फ रहने के लिए ईंट-गारे की इमारत भर नहीं था। वह मेरे लिए मन्दिर से बढ़कर था, जिसे मैंने अपने पुरुषार्थ से बनाया था। इसके बनाने के लिए वर्षों रात-दिन एक किये थे, यहाँ के लोग सिर्फ पड़ोसी नहीं ,उनमें से कई सुख-दुःख के बराबर के भागीदार भी हैं। सन् 1947 में देश के विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आया था, तब मेरे पास थोड़े से रुपए और माँ के कुछ गहने थे। मेरे माँ-बाप की हत्या करने साथ-साथ आताताइयों ने हमारा सब कुछ लूट लिया था। मैं किसी तरह उनकी नजरों से बच गया था। बाद में भारत आ रहे लोगांे के साथ दिल्ली आ गया। एक ही धरती पर सदियों से साथ-साथ रहे हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन बन जाएँगे, दोनों में से किसी ने भी सोचा नहीं था। लेकिन मजहब के नाम पर हैवानियत का नंगा नाच हुआ। उससे लगता था कि इन्सानियत अब इस जमीं पर नहीं बचेगी। ऐसे में किसी तरह से भूखे-प्यास रह कर मेहनत-मजदूरी कर पेट भरा और कुछ रुपए इकट्ठे किये। तब मैंने शरणार्थियों के रहने के लिए लगे तम्बू को छोड़कर किराये के मकान में रहना शुरू किया। उसी दौरान मैंने समय निकाल कर हिन्दी -अँग्रेजी की टाइपा सीख ली। बाद में उसी बदौलत मुझे चुंगी में क्लर्क की नौकरी मिल गयी। इस बीच माँगेराम ने पाकिस्तान से उजड़ कर आये अपने रिश्तेदार की बेटी भाग्यवती से मेरी शादी करा दी। मुझे याद है कि मेरी बरात के नाम पर माँगेराम का परिवार ही था, वही दोनों पक्षांे की जिम्मेदारी उठा रहा था। हमारी शादी भी क्या थी? लेकिन हर तरह के अभाव के रहते माँगेराम तथा दूसरे लोगों ने परिजनों की कमी महसूस नहीं होने दी।
फिर जब कुछ रुपए जमा हो गए, तब पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए बनायी कॉलोनी में जमीन ले ली। उस पर धीरे-धीरे एक-एक कमरा बनाकर मकान बना लिया। हमारी शादी के पाँच साल तक जब कोई बच्चा नहीं हुआ, तो भाग्यवती को चिन्ता हुई। पड़ोसी औरतें भी उससे तरह-तरह के सवाल पूछतीं। उन्हीं में से कोई हकीम-डॉक्टर को दिखाने और इलाज कराने की, तो कोई मन्दिर-गुरुद्वारे ,पीर-फकीर के पास जाकर दुआ माँगने की सलाह देतीं। भाग्यवती ने सबकी सलाहों पर अमल किया, तब कहीं जाकर सुखदेव का जन्म हुआ। हालाँकि गर्भवती होने के बाद से ही भाग्यवती को कई गम्भीर बीमारियों ने घेर लिया, पर बेटे के जन्म ने उसके उन दुःख-दर्दों को भुला दिया। उसने कितने यतन-जतन से से सुखदेव का पाला-पोसा। उसे सोच-सोच कर हैरान रह जाता हूँ। उसकी तबीयत जरा-सी खराब होने पर हकीम-डॉक्टर से दवा खुद ही लेने जाती थी। साथ ही मुहल्ले -पड़ोस की महिलाओं की बतायीं मजारों-गुरुद्वारों में मत्था टेकने जाती। भाग्यवती ने उसे अच्छी शिक्षा-दीक्षा और संस्कार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सुखदेव के बाद मन्दाकिनी पैदा हुई, लेकिन भाग्यवती को अपनी बेटी से उतना लगाव नहीं था, जितने बेटे से। सुखदेव को बी.कॉम.करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई, तो भाग्यवती की खुशी की कोई सीमा नहीं थी। उसे लगा कि वाहे गुरु की कृपा से उसकी सारी मुरादें पूरी हो गईं।
बल्देवराज ने सेवानिवृत्त होने से पहले अच्छा लड़का देखकर मन्दाकिनी की शादी कर दी। उसके बाद सुखदेव की शादी के लिए लोग चक्कर लगाने लगे, तो भाग्यवती के दूर के रिश्तेदार की बेटी जसवीर से विवाह कर दिया। उसके पिता धनीराम ने भी यहीं आकर अपना व्यापार जमाया और अच्छे खासे पैसे वाले बन गए, लेकिन उनमें धन का अहंकार बिलकुल नहीं था। इस वजह से भी बल्देव राज और धनीराम रिश्तेदार के साथ-साथ सुख-दुःख के साथी बन गए थे। अक्सर वे दोनों गुरुद्वारे, मन्दिर, सत्संग साथ-साथ जाया करते। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।
इस बीच सुखदेव के दो बेटे हुए। उसने महँगे अँग्रेजी स्कूल में पढ़ने भेज दिया। वह विभागीय परीक्षा पास कर क्लर्क से प्रबन्धक बन गया। उसके बाद उसमें बहुत तेजी से बदलाव आया। यह उसी तक सीमित नहीं रहा। बहू जसवीर और दोनों नातियों पर भी स्पष्ट दिखायी देने लगा। अब उन्हें घर छोटा, पड़ोसी घटिया और अपने रहन-सहन पर शर्म आने लगी।
अन्ततः सुखदेव घर छोड़कर अपनी कोठी में चला गया। तब बल्देव और भाग्यवती ने न चाहते हुए बहू-बेटे की खुशी को देखते हुए अपने साथ रहने की जिद्द नहीं की। बल्देवराज हपता-पन्द्रह दिन में स्वयं जाकर बेटे के परिवार के हालचाल जानने चले जाते। उन्हें बहू-बेटे, नातियों का बिछोह खलता, पर बहू-बेटे ने कभी उनसे साथ रहने को नहीं कहा। उन्होंने भी अपनी ओर से कभी साथ रहने का आग्रह नहीं किया। वैसे वह स्वयं अपना मकान और पड़ोसियों को छोड़कर अजनबी मुहल्ले में रहना नहीं चाहते थे, किन्तु उनसे यह दूरी बल्देवराज के सपनों के महल को इस तरह ढहा देगी, यह उन्होंने नहीं सोचा था। उनके विचारों का सिलसिला जब थमा, तब उन्हें ध्यान आया कि उनकी चाय वैसी की वैसी रखी और ठण्डी हो चुकी है। वैसे भी तब तक बल्देवराज की चाय पीने की इच्छा नहीं रही।
आगे अखबार पढ़ने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी। उन्होंने अखबार तथा चाय का कप उठाया। फिर अन्दर आकर बल्देवराज ने सुखदेव के बारे में अखबार में जो कुछ छपा था वह सब पत्नी को सुना दिया, जिसे सुनकर भाग्यवती सिर पकड़ कर बैठ गयी। बल्देवराज जसूजा ने जैसे-तैसे कपड़े बदले और रिक्शे पर सवार होकर सुखदेव की कोठी के लिए चल पड़े। रास्ते में उन्हें लगा कि आते-जाते लोग उन्हें उपहास भरी निगाहों से देख रहे हैं जैसे वे कह रहे हों कि बहुत ईमानदार बनता था, रिश्वत नहीं लेता था। अब उसी बेटे ने लोगों का जमा धन का हड़पा है, थोड़ा बहुत नहीं पूरे 12 करोड़ रुपए का गबन किया है।
बल्देवराज जब सुखदेव की कोठी पर पहुँचे, तब उसके यहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। बहू जसवीर ने दरवाजा खोला और उनके पाँव छुए। फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी। तभी दोनों नाती अभिषेक और अपूर्व भी उनसे लिपट गए। वह भी बहू का दुःख देखकर भाव विह्नल होकर रोने लगे। बल्देवराज ने उन सभी को ढाँढस बँधाया। फिर उन्होंने पूछा,‘‘ ऐ किस तरां होयआ ? इसी बैंक के साथी, दोस्त या उसके पीहर से कोई आया या नहीं, मुझे तुरन्त खबर क्यों नहीं भेजी ?’’
इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में जसवीर ने सिर हिलाते हुए कहा कोई नहीं। यह सुनकर बल्देवराज को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि जिस बेटे ने पैसा पाकर माँ-बाप को भुला दिया हो, वह भला बैंक के साथियों और पड़ोसियों से कैसा बर्ताव करता होगा? फिर व्यावसायिक सम्बन्ध रखने वालों का भावनात्मक रिश्ता ही क्या होता है? यह सब जानने के बाद बल्देवराज ने बहू जसवीर से घूमा- फिराकर पूछा कि अब जमानत के लिए कोई आदमी है? तब जसवीर ने सिर हिला दिया। उसने यह भी कहा,‘‘ मैंने भइया से इनकी जमानत का बन्दोबस्त करने को कहा, तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि जिस आदमी ने हजारों लोगों के साथ विश्वासघात किया, उस पर भला कौन विश्वास करेगा?’’
इस कठोर सच को सुनकर बल्देवराज को कुछ भी गलत नहीं लगा। उन्होंने बहू जसवीर से कहा,‘‘ सुखदेव मेरा पुत्तर, मेरा खून सी। ओदे अच्छे-बुरे करना ने चन्दे न चन्दे मैं ही पोगंगा। होन तुसी सारे लोग यकीन रखो। मैं ही ओदी जमानत दा इन्तजाम करांगा।’’ सुखदेव की कोठी से कुछ दूर पैदल चलकर बल्देवराज रिक्शा लेकर अपना चेहरा छिपाते हुए घर लौट आये। घर में अपनी पत्नी भाग्यवती को सुखदेव के घर का सब हाल कह सुनाया। इसके बाद अपने मकान के कागजात तथा रुपए जेब में डालकर माँगेराम के घर पहुँचे। वह उनके सुख-दुःख के साथी थे। उन्होंने भी अखबार में सुखदेव के बारे में पढ़ लिया था। माँगेराम ने भी बल्देवराज को देखते ही समझ लिया कि वह किस लिए आए हैं?
बल्देवराज ने भी उनकी आँखों की भाषा पढ़ ली और कहा, ‘‘चलो! कपड़े-लत्ते पाओ और जमीन-जायदाद दे कागज लौ, शायद जमानत देवी पवे।’’
जैसा कि अब तक होता आया था माँगेराम की जमानत पर सुखदेव शाम को छूट कर आ गया। वह सबसे पहले अपने पिता के घर आया। वह अपने माता-पिता के गले लग कर फूट-फूट कर रोया, जैसे वर्षों के बिछोह के बाद मिल रहा हो। एक दिन में ही उसे अपने-पराये की पहचान हो गयी। वह यह भी जान गया कि पैसे से भरोसा और अपनत्व नहीं खरीदा जा सकता। धन जितना सुख देता है उतना ही दुःखी भी करता है। जेल में पुराने दुर्दान्त कैदियों ने उसकी पिटाई सिर्फ इसलिए कि वह 12 करोड़ रुपए का गबन करके आया है। उस पर माल है। एक कैदी अभिलाख ने उससे दस लाख रुपए देने और न देने पर अंजाम भुगतने की चेतावनी दी, तो दूसरे गुण्डे इनाम अली ने पूरे पन्द्रह लाख रुपए देने को कह दिया।
बाद में बल्देवराज सुखदेव को लेकर माँगेराम के घर ले गए। उसके पश्चात् बाप-बेटे रिक्शे में बैठाकर कोठी पहुँचे, वहाँ जसवीर और उसके दोनों बेटे एक ही कमरे में गुमसुम बैठे हुए थे। दोनों बच्चे अपने पिता और बाबा को देखकर दौड़कर खुशी से लिपट गए। इस माहौल को देखकर सुखदेव की आँखों में आँसू निकल गए।
तब बल्देवराज जसूजा ने कहा,‘‘ बेटे! जे बात मैं बरसों से तुम से कहता आया हूँ उसे आज फिर सुनो। दुनिया में धन बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं। आज तुम्हारे पास धन होते हुए सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं है। लोगों को तुम पर भरोसा नहीं है। उसी का नतीजा है कि कल तक जो लोग तुम्हारे आगे-पीछे मंडराते रहते थे। वह बुरे वक्त में तुम्हारा साथ छोड़ कर चले गए। वह तुम्हारी बदनामी मंे भागीदार नहीं बनना चाहते थे।’’
‘‘बाबा जी! जब से अखबार में पापा की गिरपतारी की खबर छपी है, उसके बाद से मेरे दोस्तों ने भी मुझे से बोलना छोड़ दिया जैसे मैंने ही उनकी चोरी कर ली है।’’ अभिषेक बीच में ही बोल उठा।
बल्देवराज ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा,‘‘ तुम और तुम्हारी बहू जसवीर अक्सर कहा करते थे कि पैसे से सब कुछ हो जाता है। अब तुम दोनों ने स्वयं देख लिया। अपार धन होते हुए भी सुखदेव की जमानत देने कोई क्यों नहीं आया? वह इसलिए कि इसने बैंक में जमा लोगों के धन का गबन कर समाज का विश्वास खो दिया, जो किसी व्यक्ति, परिवार, समाज की सबसे बड़ी पूँजी होती है।’’
‘‘पापा जी! जेल में भी मुझ जैसे पढ़े-लिखे को बन्दी के रूप में देखते सन्तरी से लेकर जेलर तक ने हिकारत की नजर से देखा। कई कैदियों ने सवाल किया कि हमने गरीबी-परेशानी में चोरी-उठाईगीरी की ,पर तुम्हें इतनी ज्यादा तनखा मिलती है। फिर भी तुम्हारा पेट नहीं भरा? धिक्कार है,तुम जैसे लोगों को। यह कहते हुए सुखदेव का गला ग्लानि से रुंध गया।
इस पर बल्देवराज जसूजा ने कहा,‘‘ पुत्तर ! इस विच उन्नाने कुछ गलत नहीं क्या। अगर सभी इसी तरां सारे सोचण लगण ते ए समाज-परिवार किस तरां चलणगे? जहाँ तक जरूरतों का सवाल है मैंने अपनी नौकरी में कभी रिश्वत नहीं ली। तमाम अभाव सहन किये। कई बार तुम्हारी फीस देने को दोस्तों से रुपए उधार लिये। यहाँ तक कभी-कभी तुम्हारी माँ के गहने गिरवीं रखे और एक बार कुछ बर्तन भी बेचे,पर तुम्हारी पढ़ाई जारी रखी। उसी की बदौलत तुम बैंक मैनेजर बन गये।’’
‘‘ पापा जी! आप सच कह रहे हैं लेकिन मैंने भी नौकरी में आकर अपने अधिकारियों तथा साथियों से जो कुछ सीखा उसी पर चल पड़ा। ऐसा किये बगैर जल्दी से बंगला, कार तथा ठाटबाट को रुपए कहाँ से आता ?’’ सुखदेव ने अपने पिता को समझाने के लहजे में कहा।
‘‘पुत्तर ! वाहे गुरु ने सभी को दिल-दिमाग दिया है फिर भी तुमन उनकी सीख को अपने कसौटी पर क्यों नहीं कसा? बुरे कामों के नतीजों पर विचार क्यों नहीं किया? आँख मींच कर उसी पर चलने के कारण ही तुम्हारी गत हुई है।’’ इसके जवाब में बल्देव राज ने कहा।
अब तक चुपचाप बाप-बेटे की बातें सुन रही जसवीर ने कहा,‘‘ पापा जी! अब जो कुछ होना था वह तो हो चुका। इन सब को दोहराने से क्या फायदा है?’’
‘‘है बहू! तभी तो मैं कह रहा हूँ मेरी तो बहुत मामूली-सी तनखा थी फिर भी समाज में मेरी कुछ हैसियत है। लोग मेरी बात पर भरोसा करते हैं। मेरे बहुत से रिश्तेदार और दोस्त हैं जिनसे मैं कुछ भी माँगू। वे अपनी हैसियत से ज्यादा दे दंेगे, लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा कोई भी नहीं है।मेरी जिन्दगी तो पूरी हो चली, कुछ दिन लोगों के ताने सुनकर जैसे-तैसे काट लूँगा कि ये ही वह बल्देवराज है जिनके बैटे ने 12 करोड़ रुपए का गबन किया और जेल गया था। पर पुत्तर! तुम्हारा और मेरे नातियों को तो पूरा जीवन पड़ा है। इसलिए जैसे भी हो, इस कलंक को जल्दी से धो डालो।’’
इस पर सुखदेव ने कहा,‘‘ ऐसा ही होगा, पापा जी!
इसके बाद वह अपने पिता से लिपट कर बच्चों की तरह रोने लगा। जैसे आज वह अपने अन्दर के सारे मैल को पश्चाताप के आँसुओं से धो देना चाहता हो।
डॉ.बचन सिंह सिकरवार- 63ब,गाँधी नगर, आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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