डॉ.बचन सिंह सिकरवार

गत दिनों तुर्की की सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1934 में तत्कालीन सरकार द्वारा विश्व प्रसिद्ध हागिया सोफिया को संग्रहालय में बदलने के तत्कालीन सरकार के फैसले को गैरकानूनी करार देने के घण्टे भर बाद ही राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन द्वारा यहाँ फिर से इसे मस्जिद में तब्दील कर नमाज के लिए खोलने का जो ऐलान किया है, उसे इस्लामिक उसूलों और किसी भी नजरिये से जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसकी वजह यह है कि इस्लामिक कानून के मुताबिक विवादित जगह पर मस्जिद तामीर नहीं की जा सकती। इस मामले में इस्लामिक रहनुमाओं ने भी अपने बर्ताव नजीरें पेश की हैं। राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के इस रवैये से यही लगता है कि उन्हें दुनियाभर के ईसाइयों की भावनाओं के आहत होने का ख्याल कतई नहीं है। एर्दोगन दुनिया को यह दिखाना-जतान चाहते हैं कि तुर्की को फिर से इस्लामिक कट्टरपन्थी मुल्क में तब्दील करने को वह कुछ भी कर सकते हैं।एक तरह से वह तुर्की को मुस्लिम जगत् में वह जगह दिलाना चाहते थे जिस पर कभी सऊदी अरब की थी। वर्तमान में सऊदी अरब खुद कट्टरवादी इस्लामिक नेतृत्व छोड़कर उदारवाद के रास्ते पर चल रहा है। एर्दोगन ऐसा पिछले 17 साल से करते आए हैं, जब से वह राष्ट्रपति बने हैं। इस्लामिक कट्टपन्थी

विचारधारा के कारण राष्ट्रपति एर्दोगन विभिन्न विश्व मंचों पर भारत का विरोध करते हुए पाकिस्तान का अन्ध समर्थन करते आ रहे हैं।
वैसे एर्दोगन ने यह फैसला अचानक नहीं लिया है, बल्कि उन्होंने ऐसा सोची-समझी नीति के तहत लिया है। अपने सियासी जिन्दगी की शुरुआत से ही इस्लामिक कट्टरपन्थियों को खुश करने के लिए वह अक्सर कहा करते थे कि अगर उन्हें कभी मौका मिला तो हागिया सोफिया को मस्जिद में तब्दील करके रहेंगे। तब यह सुनकर मजहबी कट्टरपन्थी एर्दोगन की तारीफ किया करते थे। अब उन्होंने यह करके भी दिखा दिया है। यह विडम्बना नही ंतो क्या है? इस्लाम मजहब के पैगम्बर मुहम्मद साहब ने दूसरे मजहबों की हिफाजत और उन्हें इज्जत देने के लिए जो खत लिखा था, जिसे ‘अहदनामा’ कहा जाता है। वह इस्ताम्बुल में ही रखा है। अब राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन और तुर्की सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ उसे पूरी तरह दरगुजर किया है, बल्कि उसका उलट किया है। फिर भी वह और उनके हिमायती खुद को ‘इस्लाम का सबसे बड़ा मुजाहिद’ साबित कर रहे हैं। पैगम्बर मुहम्मद साहब इसी उसूल पर चले। कि उन्होंने भी अपने जीवन काल में मिस्र के सेण्ट कैथरीन मौनेस्ट्री को एक खत लिखा था। वह ‘मुहम्मद साहब का अहदनामा’ के नाम से मशहूर हुआ। इसमें उन्होंने लिखा था कि किसी को भी न ईसाइयों के इबादतगाह को नुकसान पहुँचाने की इजाजत है और न ही उसमें रखी किसी वस्तु को लेने की। सन् 1517में

तुर्क शासक इस ‘अहदनामा’ को मिस्र से इस्ताम्बुल ले आये, ताकि उसे और भी हिफाजत रखा जा सके।
अब उनके इस फैसले को लेकर विश्वभर के ईसाइयों में भारी असन्तोष और आक्रोश व्याप्त है। ईसाइयों के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप फ्रान्सिस ने हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में तब्दील करने के फैसले की आलोचना करते हुए कहा,‘‘ ‘‘मैं जब सांता सोफिया के बारे में सोचता हूँ तो बहुत दुःख होता है। इसके अलावा ‘वर्ल्ड आर्थोडोक्स क्रिश्चियन’ के इस्ताम्बुल स्थित एक धार्मिक नेता ने भी तुर्की के फैसले को निराशाजनक बताया है। तुर्की के पड़ोसी देश ग्रीस सरकार के प्रवक्ता स्टेलियस पेटसस ने कहा कि यूरोपीय यूनियन एर्दोगन के फैसले को अपने लिए अपमान और चुनौती के रूप में ले रही है। गत 14 जुलाई को सत्ताइस देशों के संगठन यूरोपीय संघ(ई.यू.) के विदेश मंत्रियों ने विवादित भूमध्य सागर में तेल की खोज करने, हागिया सोफिया को संग्रहालय से मस्जिद बनाने सहित विभिन्न मुददों पर तुर्की की निन्दा की है। उन्होंने कहा कि तुर्की के राष्ट्रति रेसेप तैयप एर्दोगन के इस कदम से विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास और विघटन बढ़ेगा और लोगों के बीच सहयोग और संवाद के प्रयासों को आघात लगेगा। इसलिए तुर्की की सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। यहाँ तक कि अमेरिका और रूस ने भी तुर्की के फैसले पर निराशा व्यक्त की है।
वैसे यह सवाल अपनी जगह मौजूं है कि तुर्की की सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति एर्दोगन ने इस्लामिक उसूला और उसके रहनुमाओं के कहे की अनदेखी क्यों की? आखिर इस मुल्क की अदालत ने 86 साल पुराने सरकारी फैसले को किस आधार पर अवैध ठहराया है? अब इस मुद््दे को सुनने और फैसला देने की क्यों जरूरत आ पड़ी है? पूरी दुनिया इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ है कि इस्ताम्बुल में हागिया सोफिया मूलतः गिरिजाघर(चर्च) है जिसका निर्माण वायंजटीन सम्राट जस्टिन द्वारा सन् 537 ईस्वी कराया गया था। इस गिरिजाघर को ‘चर्च ऑफ होली विजडम’ कहा जाता था। सम्राट जस्टिन ने ही इस शहर को बसाया था, जिसे ‘कोॅस्टेनटीनोपाल(कस्तुनतुनिया )कहा जाता था। लेकिन पन्द्रहवीं शताब्दी में उस्मानी सुल्तान मेहमत द्वितीय के हुक्म पर इसे तलवार के जोर पर मस्जिद में तब्दील कर दिया गया, जबकि ऐसा किया जाना इस्लामिक सिद्धान्तों के मुताबिक गलत था। उसके बाद बीसवीं शताब्दी की शुरुआत यह नमाज पढ़ने का सिलसिला जारी रहा। फिर सन् 1934 में तुर्की गणराज्य के पहले राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने इस मस्जिद को फिर से गिरिजाघर में परिवर्तित करने के स्थान पर इस इमारत को संग्रहालय में तब्दील करने का हुक्म दिया। दरअसल, मुस्तफा कमाल पाशा आधुनिक और प्रगतिशील विचारों से ओतप्रोत शासक थे। उन्होंने तुर्की को ‘इस्लामिक मुल्क’ की जगह इसे ‘सेक्युलर देश’ बनाया। इसका कारण उन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है। हालाँकि तब उनके खिलाफ भारत समेत दुनियाभर के कट्टरपन्थी मुसलमानों ने ‘खिलाफत आन्दोलन’ चलाया था। कालान्तर में हागिया सोफिया के इस संग्रह को यूनेस्को ने विश्व धरोहर की सूची में सम्मिलित कर लिया। उसके पश्चात् दुनियाभर के पर्यटकों के लिए यह संग्रहालय विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गया।
इस्लामिक सिद्धान्तों के मुताबिक दो मजहबों के इबादत की जगह एक-दूसरे से काफी दूरी पर होने चाहिए, जिससे उनके बीच किसी तरह झगड़ा-फसाद न पैदा हो। इजराइल स्थित येरुशलम में ‘मस्जिद-ए-उमर’ इस्लाम के इसी सिद्धान्त की बिना पर बनायी गई है। कहा जाता है कि इस्लाम के दूसरे खलीफ उमर इब्न -अल-खताब को येरुशलम शहर के संरक्षक सोफ्रोनियस द्वारा बुलावा भेजा गया। शहर पहुँचने पर उन्होंने ‘चर्च ऑफ रिेसरेक्शन’ देखने की ख्वाहिश जतायी, तब उमर गिरिजाघर (चर्च) पहुँचे तो उनकी नमाज का वक्त हो गया। इस पर उन्होंने सोफ्रोनियस ने ऐसी जगह बताने को कहा, जहाँ नमाज पढ़ सकें। तब सोफोनियस ने उमर से गिरिजाघर में नमाज पढ़ने को कहा, पर उन्होंने यह कहते हुए गिरिजाघर में नमाज पढ़ने से इन्कार दिया कि अगर वह ऐसा करते हैं, तो यह एक मिसाल बन जाएगी। आगे चल कर मुसलमान इस जगह पर मस्जिद बनने की सोच सकते हैं। इसके बाद गिरिजाघर से बाहर निकल कर खलीफा उमर ने पूरी ताकत से एक पत्थर उठाकर फेंका, वह जहाँ गिरा। उसी जगह पर उन्होंने नमाज अदा की। कालान्तर में अय्युबिद खानदान के साम्राज्य में उस जगह पर मस्जिद का निर्माण कराया गया, जहाँ खलीफा उमर ने नमाज पढ़ी थी। इस ‘मस्जिद -ए-उमर’ कहा जाता है।
इस्लाम के नाम तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन और दुनियाभर में उन जैसे तमाम कट्टरपन्थी मौजूदा वक्त जो कुछ कर रहे हैं,उसे देखते हुए यही लगता है कि उन्हें न तो इस्लाम की समझ है ओर न वे अपने मजहब के रहनुमाओं के बताये रास्ते पर ही चल रहे हैं। पैगम्बर मुहम्मद साहब और उन्हें मानने वाले दूसरे मजहबों को मानने वालों को इज्जत देने और उनके साथ हमदर्दी की हिमायत करते थें पैगम्बर साहब ने खुद की जिन्दगी में जो कुछ कहा उस पर अमल भी किया। लेकिन मौजूदा दौर इस्लाम के मुजाहिद मजहब के नाम पर दूसरे मजहबों के लोगों को ही नहीं, हममजहबियों के दूसरे के फिरकों का भी खून बहा रहे हैं। इस्लाम के ये फर्जी मुजाहिद दूसरे मजहबों के खिलाफ नफरत फैलाने के साथ खूनखराबा और दहशतगर्दी से दुनियाभर में खुद के मजहब की तौहीन और उसे बदनाम करने में लगे हैं। इनकी मुखालफत करने को खुद इस्लाम के मानने वालों को आगे आना होगा, ताकि दुनिया इस्लाम के सही उसूलों से वाकिफ हो सके।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054
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