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तिब्बत को लेकर अमेरिका की सही पहल

साभार सोशल मीडिया

डॉ.बचन सिंह सिकरवार

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गत दिनों अमेरिका के विदेशमंत्री माइक पोम्पियों की‘रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत-2018’ कानून के तहत चीन (पीआरसी) के उन अधिकारियों के एक समूह पर वीजा प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की है, जो चीन के ‘स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत’(टीएआर)तथा तिब्बत के अन्य क्षेत्रों में अमेरिकी राजनयिकों, अन्य अधिकारियों, पत्रकारों और पर्यटकों की जाने से जानबूझ कर लगातार रोकते आए हैं। इसके साथ ही अमेरिका ने तिब्बतियों के लिए सार्थक स्वायत्ता हेतु अपना समर्थन फिर से दोहराया है। अमेरिका के ये दोनों ही कदम पूरी तरह पूरी तरह से उचित और सामयिक है। ऐसा करके अमेरिका ने जहाँ एक ओर तिब्बत पर अवैध कब्जा कर उसके लोगों पर जुल्म ढहाने वाले चीन के असली चेहरे छुपाने वाले अधिकारियों को सही सबक सिखाया है, वहीं तिब्बतियों के लिए सार्थक स्वायत्ता के लिए पुनः समर्थन कर विस्तारवादी चीन की खूनी पंजे से छुटकारा पाने को तड़पते तिब्बतियों को न्याय दिलाने का मुद्दा उठाया है। इसके लिए अमेरिका साधुवाद का पात्र है। इसका अनुकरण भारत समेत दुनिया के दूसरे देशों को अपने-अपने स्तर से करना चाहिए। अमेरिका के इस कदम से तिब्बतियों के ‘फ्रीडम मूवमेण्ट’(मुक्ति साधना) को बल मिलेगा, जो तिब्बत, भारत, भूटान, नेपाल समेत दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे तिब्बती चला रहे हैं।चीन ने तिब्बत में 98 प्रतिशत बौद्ध मठों को ध्वस्त कर दिया गया है। चीनी सैनिकों ने तिब्बती महिलाओं के साथ बलात्कार किया और कोई 10लाख से अधिक तिब्बतियों को मार डाला। बड़ी संख्या में बौद्ध लामाओं की भी हत्याएँ की हैं। तिब्बत में बड़ी संख्या में चीनी ‘हान’ नस्ल के लोगों को बसा कर यहाँ की जनसंख्यिाकीय स्थिति को बदल दिया गया। तिब्बती बौद्धों पर अब भी कई तरह प्रताड़ित किया रहा है। इसलिए चीन अमेरिका और दूसरे देश के अधिकारियों तथा पत्रकारों को तिब्बत में जाने नहीं देता है, इस कारण ही अमेरिका को उक्त कानून लाने की आवश्यकता अनुभव हुई है। हालाँकि अब चीन ने भी अमेरिका द्वारा की गई कार्रवाई के प्रत्युत्तर में तिब्बत सम्बन्धी मुद्दों पर अनुचित व्यवहार करने वाले अमेरिकी अधिकारियों पर वीजा प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय किया है।

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अमेरिकी विदेशमंत्री पोम्पियों ने चीन द्वारा तिब्बत में किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन ,एशिया की प्रमुख नदियों के उद्गम स्थलों के निकट हो रही पर्यावरणीय क्षति को रोकने में बीजिंग विफलता को देखते हुए तिब्बती इलकों तक पहुँच क्षेत्रीय स्थिरता के लिए लगातार महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। अमेरिका वहाँ सतत् आर्थिक विकास, पर्यावरण संरक्षण को गति देने तथा चीन और बाहर तिब्बती समुदायों की मानवीय स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए लगातार काम करता रहेगा। इतना ही नहीं, अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने एक अक्टूबर से शुरू हो रहे वित्त वर्ष 2021में तिब्बती मुद्दों की खातिर 1.7करोड़ डॉलर के कोष और तिब्बती मुद्दों पर विशेष समन्वयक के लिए दस लाख डॉलर का प्रस्ताव पेश किया है।निश्चय ही अमेरिका के इस कानून और आर्थिक मदद से तिब्बत की स्वायत्ता के लिए आन्दोलनरत तिब्बतियों को अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
अब प्रश्न यह है कि आखिर अमेरिका को तिब्बत को लेकर ‘रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत-2018’ कानून बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?यह जानने के लिए तिब्बत का इतिहास जान लेना जरूरी है। तिब्बत की वर्तमान स्थिति के लिए चीन के साथ-साथ भारत भी बराबर का जिम्मेदार और दोषी है, क्यों सन् 1951 तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश था। उसकी सीमा भारत से मिलती थी, जिससे उसके सदियों पुराने धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यापारिक प्रगाढ सम्बन्ध थे। तिब्बत भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट था।यह भारत की सुरक्षा के

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लिए अत्यन्त अनुकूल थी,़ लेकिन जब चीनी कम्युनिस्टों ने तिब्बत पर हमला कर गैर कानूनी तरीके से कब्जा कर लिया, तब तत्कालीन भारत सरकार ने चीन की हमलावर कार्रवाई का विरोध करने के स्थान पर शान्त रहा है,जबकि इससे तिब्बतियों के बाद सबसे अधिक उस पर ही प्रभाव पड़ना था।भारत के मूकदर्शक रहने के कारण दुनिया के देश भी चुप रहे। भारत के इस अनुचित रवैये के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का कम्युनिज्म के प्रति सम्मोहित होना था। हालाँकि तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने तिब्बत पर हमले के पीछे चीन की कपटपूर्ण और विश्वासघाती नीति को लेकर नेहरू जी को सावधान रहने और उसका विरोध करने को कहा था। वैसे सन् 1950 में चीन ने तिब्बत के पूर्वी इलाके पर आक्रमण किया। फिर सन् 1959 तक धीरे -धीरे कर उसने पूरे तिब्बत को हड़प लिया। तब तिब्बतियों के सबसे बड़े धार्मिक गुरु दलाई लामा ने ल्हासा स्थित अपने निवास को छोड अपने अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली। इस दौरान भारत मूकदर्शक बना रहा। यह तब जब सन् 1947 के बाद जब अँग्रेज भारत छोड़कर चले गए थे, तब तक डाक-तार और व्यापारिक के मामले में भारत का तिब्बत सीधे जुड़ा हुआ था। ऐसे में भारत अधिकारपूर्वक तिब्बत के सहयोग और सहायता दे सकता था। उसे कम से कम अपने कूटनीतिक प्रयास कर तिब्बत के पक्ष में अभियान चलना चाहिए था। परिणामतः भारत समेत पूरी दुनिया ने तिब्बत जैसे शान्त राष्ट्र को चीन का भक्ष्य बनते देखने का पाप किया। वह भी तब जब चीन महाशक्ति तो क्या, मान्यता प्राप्त देश तक नहीं था। कायदे से 24अक्टूबर, सन् 1950 को जब पीकिंग रेडियो ने यह उद्घोषणा की थी कि चीन लिबरेशन आर्मी(पी.एल.ए.) तिब्बत में बढ़ रही है उसी समय भारत को भी सर्तक हो जाना चाहिए।

जिस तिब्बत को चीन अपना क्षेत्र बताते हुए कब्जा किया हुआ है, उस तिब्बत ने सन् 1947 में दिल्ली में ‘एशियन रिलेशन्स कान्फ्रेंस’ में उसने और चीन दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह भाग लिया था। सन् 1914 में भी शिमला में चीन, तिब्बत और भारत ने आपसी सीमांकन समझौता किया। सन् 1914 वाले दस्तावेज के अनुसार तिब्बत भी स्वतंत्र देश है। इसी तरह चीन सन् 1890 के दस्तावेज का हवाला देकर ‘डोकलाम’ को अपने होने का दावा जताता है। तिब्बत पर कब्जे के पश्चात् सन् 1952-53 में ‘कोरिया संकट’ के समय पीकिंग में भारतीय राजदूत ने कम्युनिस्ट चीन की मंशा की चेतावनी शुरू में दे दी थी,फिर भी प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी का चीन और कम्युनिज्म से मोहभंग नहीं हुआ। उन्हें चीनी नेताओं से कृतज्ञता मिलने की कल्पना की थी, पर उन्हें धोखा मिला। पीकिंग में 29अप्रैल,सन् 1954 को तिब्बत को लेकर भारत और चीन को लेकर समझौता हुआ था। इस समझौते के शीर्षक में चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के

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बीच व्यापार तथा सम्बन्धों के बारे में समझौता हैं। मात्र छह अनुच्छेदों के इस समझौते में तिब्बत का भी नाम आया है। पाँच अनुच्छेदों में इसी का वर्णन है कि भारत और तिब्बत सम्बन्ध लाभपूर्वक चलते रहेंगे। सन् 1959 में तिब्बत के लोगों ने वहाँ एक जनान्दोलन छेड़ दिया ,उस समय भारत जैसे बड़े देश को चाहिए था कि वह विश्व जनमत जागृत करके तिब्बत के पक्ष में राय कायम करता। ऐसे देशों को वह एकजुट करता, जो साम्राज्यवादी नीति से स्वयं के लिए खतरा अनुभव कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ सन् 1959-60 और 1965 में प्रस्ताव पारित करके चीन द्वारा तिब्बती लोगों के दमन की कड़ी आलोचना कर चुका है। भारत में भी कई बार सदन पटल पर यह मुद्दा लाया जा चुका है। अमेरिका की सीनेट ने सन् 1991 में तिब्बत को चीन द्वारा गुलाम बनाए हुए देश के रूप में मान्यता देते हुए तिब्बतियों को मुक्ति साधना का समर्थन किया ,लेकिन इन सबका चीन पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा। केवल आलोचना-निन्दा से अहंकारी चीन पर प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। वह प्रारम्भ से ही विस्तारवादी देश रहा है। सन् 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ(यू.एन.ओ.) में सन् 1971 फरमोसा(ताइवान)का मान्यता थी।सन् 1978 में कूटनीतिक सम्बन्ध तक नहीं बनाए थे। दलाई लामा एक ऐसे देश के निर्वासित शासक है जिसका न तो दुनिया के राजनीतिक नक्शे पर कोई उल्लेख है और न धर्मशाला से चलने वाली उनकी सरकार को किसी देश ने मान्यता दी है। उनके पीछे खड़े तिब्बती शरणार्थियों की संख्या समिति है जो भारत, भूटान, नेपाल के अलावा दुनिया के 30देशों में रह रहे हैं।
वर्तमान में तिब्बत पर बलपूर्वक अवैध कर चीन इसके मूल नागरिकों के नरसंहार के साथ-साथ उनकी धर्म, संस्कृति का विनाश करने पर तुला है। यहाँ तक कि तिब्बत से निकलने वाली नदियों पर बाँध बनाकर उनके प्रवाह में बदलाव करने के साथ-साथ कई दूसरी तरह से यहाँ पर्यावरण से छेड़छाड़ कर विश्व को संकट में डाल रहा है। ऐसे में अब भारत समेत विश्वभर के देशों को विस्तारवादी चीन के चुंगल से तिब्बत और उसके शान्तिप्रिय तथा अहिंसक बौद्धों के छुड़ाने के लिए उनके अमेरिका की तरह ‘फ्रीडम मूवमेण्ट’(मुक्ति साधना)को हर सम्भव सहयोग देने के प्रयास करने चाहिए, ताकि भूमाफिया चीन को दूसरे मुल्कों की जमीन और सामुद्रिक मार्ग हड़पने के साथ-साथ दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध के सम्भावित खतरे से बचाया जा सके।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054

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