डॉ.बचन सिंह सिकरवार

अन्ततः नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भण्डारी ने नए नक्शे से सम्बन्धित उस संविधान संशोधन विधेयक पर हस्ताक्षर कर ही दिये, जिसमें भारत के उत्तराखण्ड के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल का भूभाग दिखाया गया है। भारत ने नेपाल के इस ‘कृत्रिम रूप से सीमा विस्तार’ को अस्वीकार्य बताया है। फिर भी ऐसा करते हुए आजकल चीन की शह पर चल रहे नेपाल ने भारत के विरोध और उसकी भावनाओं की पूरी तरह अनदेखी की है। भारत नेपाल का केवल पड़ोसी देश ही नहीं है, बल्कि उसके साथ भारत के सदियों पुराने रोटी-बेटी, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक गहन सम्बन्ध भी हैं। दुनिया में नेपाल के ऐस सम्बन्ध किसी अन्य देश से नहीं हैं और न ही भविष्य में हो सकते हैं। इसके बावजूद नेपाल की संसद के दोनों सदनों में उक्त विधेयक पर किसी भी राजनीतिक दल के एक भी सांसद द्वारा विरोध न जताना अत्यन्त निराशाजनक है। वैसे इसका सबसे बड़ा कारण राजनीतिक स्वार्थ और आर्थिक फायदे हैं, जिनकी वजह से सरकार का साथ देना ही उन्हें अपने में हितों के अनुकूल लगा। वैसे इस मामले में नेपाली काँग्रेस की भूमिका खलने वाली है, जिनके नेताओं के साथ भारतीय नेताओं ने लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष किया। उस दौरान उनकी आर्थिक सहायता के साथ उन्हें शरण भी दी थी। वैसे भारत -नेपाल सीमा विवाद के पीछे चीन है,जो भारत के उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ – लिपुलेख मार्ग के निर्माण पूरा होने से चिन्तित है, क्योंकि यह सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे भारतीय सेना की पहुँच उसकी सीमा तक हो गई है। 216किलोमीटर लम्बी इस सड़क का निर्माण कार्य एक दशक से भी अधिक समय से चल रहा था, उस दौरान नेपाल ने कभी कोई आपत्ति नहीं की, किन्तु 7 मई,2020 को इसका उद्घाटन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किये जाने के बाद से ही अचानक नेपाल ने लिपुलेख को अपना क्षेत्र बताना शुरू कर दिया। इस मामले में चीन ने स्वयं आगे न आकर विरोध जताने के बजाय नेपाल को भड़का दिया है। सच्चाई यह है कि काली नदी भारत और नेपाल की विभाजक रेखा है, जिसके पूरब में नेपाल और पश्चिम में भारत अवस्थित है। इस सम्बन्ध में संन्धि सम्बन्धी दस्तावेज भी उपलब्ध हैं।

वैसे जब से नेपाल में कम्युनिस्टों की सरकार बनी है, तब से भारत और नेपाल के रिश्तों में दरार लगातार बढ़ रही है। इसमें चीन का हाथ रहा है। वह धीरे-धीरे भारत और नेपाल के रिश्तों में कटुता उत्पन्न कर उसे भारत से पूरी तरह अलग-थलग करने में लगा है, ताकि नेपाल हर तरह से उस पर निर्भर हो जाए। उसके बाद नेपाल चीन के इशारों पर नाचने को मजबूर हो जाए। इसके लिए चीन ने दशकों पहले से भारत के विरुद्ध षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया था, ताकि इस हिमायली राष्ट्र नेपाल के रिश्ते भारत से बिगाड़ जाएँ,तो वह इसे अपने चुंगल में ले सके। इसके लिए उसने नेपाल के युवकों को साम्यवादी सिद्धान्तों के बहाने राजशाही और भारत के खिलाफ उनके मन में विष भरा तथा भड़काया। उनकी धन और शस्त्रों से सहायता की। आज चीन की बदौलत ही नेपाल में उसके कृपापात्र कम्युनिस्ट सत्ता में हैं।
यही कारण है कि जब-जब नेपाल में चीन का कोई नेता आया है, तब-तब उसके तथा भारत से रिश्तों में मतभेद, मनभेद और कटुता बढती गई। अक्टूबर, 2019 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत के मामपल्लपुरम की यात्रा की। उसके महज दो दिन बाद वह द्विदिवसीय यात्रा पर नेपाल पधारे थे। उस समय चीन और नेपाल के मध्य 20 सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। उसमें मुख्य बिन्दु नेपाल और चीन को रेलमार्ग से जोड़ना था, जिसके अन्तर्गत तिब्बत से राजधानी काठमाण्डू तक 70 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन बिछायी जानी है, जिससे नेपाल की भारत से आयात-निर्यात पर निर्भरता न रहे। वर्तमान में नेपाल आयात-निर्यात के लिए पूरी तरह भारत पर निर्भर है। इससे स्पष्ट है कि नेपाल भारत पर अपनी व्यापारिक-आर्थिक निर्भरता नहीं रखना चाहता और उसकी जगह वह चीन पर बढ़ाना चाहता है। अब से 23 साल पहले दिसम्बर, सन् 1996 में चीनी राष्ट्रपति जियांग जैमिन ने नेपाल यात्रा पर आए थे, उस समय नेपाल में राजशाही थी, जिसे खत्म करने के लिए 10 महीने पहले ही सशस्त्र माओवादी आन्दोलन शुरू हो गया थां इसे चीन की शह और उसकी सहायता प्राप्त थी। तब इस आन्दोलन की अगुवाई पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचण्ड तथा बाबूराम भट्टराई कर रहे थे। बाद में ये दोनों ही प्रधानमंत्री बने। वर्तमान में नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली भी कम्युनिस्ट हैं और चीन के घोर समर्थक भी हैं। इसमें अपने सत्ता बचाने के लिए पूरी तरह चीन की शरण में हैं, ताकि वह उनके विरोधी कम्युनिस्ट नेताओं पर लगाम कस सके। जहाँ तक नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास का प्रश्न है , तो इसका गठन 15 सितम्बर, सन् 1949 में कलकत्ता में पुष्पकमल दहल ने किया था। जब सन् 1962 में भारत पर चीन ने आक्रमण किया, तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरह ही नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी भी सोवियत संघ तथा चीन समर्थक गुटों में विभाजित हो गई। लेकिन सन् 1988-89

में इनका भारत विरोधी रूप खुलकर उभर कर तब सामने आया, जब भारत ने व्यापार सन्धि का नवीनीकरण नहीं किया। इससे भारत से आयात बन्द होने नेपाल में आवश्यक वस्तुओं की कमी होने के कारण बहुत महँगाई बढ़ गई। नेपाली जनता के विरोध को नेपाल के कम्युनिस्टों ने अपने लिए अवसर के रूप में देखा और उसे जमकर भुनाया। फिर सन् 1990 में कम्युनिस्टों के पुष्पकमल दहल और मोहन विक्रम सिंह के गुट एकजुट होकर नेपाली जनता को भारत के खिलाफ भड़काने में पूरी ताकत से जुट गए। तब पुष्पकमल दहल प्रचण्ड नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनाये गए। फिर फरवरी, सन् 1996 में माओवादियों ने जनता को भड़काने के लिए 40 सूत्रीय माँग पत्र प्रकाशित कर सरकार को उन्हें माँगों को पूरा करने को कहा। ऐसा न करने पर सरकार को सशस्त्र सघर्ष छेड़ने की धमकी भी दी है। उक्त माँगों में 1 से 4 क्रमांक भारत से सम्बन्धित थे। इस माँग पत्र के क्रमांक एक पर सन् 1950 भारत-नेपाल समझौता रद्द करने को कहा। इसके दूसरे क्रमांक पर टनकपुर समझौते का अनुचित बताते हुए महाकाली समझौते में सुधार की माँग की गई। इसके क्रमांक तीन पर भारत के प्रतीक तथा नम्बर वाले वाहनों के नेपाल में प्रवेश करने पर रोक लगाने और चौथे क्रमांक में गोरखा भर्ती केन्द्र बन्द करने की माँग थी। इसी माँगपत्र के 8वें क्रमांक पर हिन्दी फिल्मों, समाचार,पत्रिकों पर प्रतिबन्ध लगाने और 18 वें नेपाल को पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) राष्ट्र बनाने की माँग की गई थी। 1 जून, 2001 की रात को महाराजा वीरेन्द्र विक्रम शाह के पुत्र युवराज दीपेन्द्र ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसा कर परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी और स्वयं को गोली मार ली। उसके बाद महाराजा के भाई ज्ञानेन्द्र विक्रम शाह को नया महाराजा बनाया गया। लेकिन अप्रैल,सन् 2006 में विपक्षी दलों के संगठन ने राजशाही के विरुद्ध बड़े स्तर आन्दोलन किया, जिसके परिणामस्वरूप में नेपाल में संसद को बहाल कर दिया। फिर नेपाली काँग्रेस के नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। उस माओवादियों ने तीन महीने का युद्ध विराम घोषित किया गया। मई,2006में संसद मंे नरेश की शक्तियाँ कम करने का विधेयक रखा गया। तत्पश्चात् नवम्बर, 2006में प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला और माओवादियों के बीच समझौता हो गया, जिसमें भारतीय कम्युनिस्टों ने अहम भूमिका निभायी थी।उस प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार थे, जिसे कम्युनिस्टों का समर्थन प्राप्त था। उस समझौते के तहत ही नेपाल का हिन्दू राष्ट्र का दर्जा समाप्त कर दिया गया,पर इसका न नेपाल में विरोध हुआ न भारत में ही। क्या हिन्दू राष्ट्र रहते हुए क्या लोकतंत्र सम्भव नहीं था ? क्या हिन्दू लोकतंत्र विरोधी हैं ? जनवरी, 2007 में माओवादी नेता प्रचण्ड अन्तरिम संविधान के अन्तर्गत संसद में शामिल हुए। अप्रैल,2007 में उन्हें सरकार में सम्मिलित किया गया। इस तरह एक आन्दोलन राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल हो गया। 28 मई, 2008 को नेपाल 240साल से चली आ रही राजशाही का अन्त हो गया। संविधान सभा ने नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया।
खैर ,उसके बाद से नेपाल भारत के रिश्ते कमजोर होते चले गए। उसके साथ भारत से प्राप्त होने वाले आर्थिक सहायता में कम होती चली गई। अप्रैल, सन् 2015में जब नेपाल में भूकम्प आया, तो भारत ने बड़े पैमाने पर राहत सहायता भेजी थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने सबसे अधिक चीन की प्रशंसा और सराहना की। उसके बाद एक वर्ष तक भारत में नेपाल के राजदूत की नियुक्ति नहीं की गई। यह सब इसलिए कि नेपाल भारत के साथ सम्बन्धों को लेकर उदासीनता दिखाने लगा। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पद सम्हालने के बाद सभी पड़ोसी देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने का भरसक प्रयास किया है। वह नेपाल यात्रा भी गए। लेकिन नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार और चीन के षड्यंत्र के चलते उसके भारत के साथ सम्बन्धों में कोई बदलाव और सुधार नहीं आया है। यह सच है कि नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार के रहते भारत को सम्बन्धों में सुधार की आशा नहीं करनी चाहिए, पर उससे सम्बन्ध बेहतर बनाने के प्रयास जारी रखने चाहिए। आखिर उससे हमारे खास रिश्ते जो हैं, जो देर सबेर बेहतर होकर रहेंगे। वैसे भी जब चीन का शिंकजा उसका गला दबाने लगेगा, तब नेपाल को अपनी भूल पर पछताबा होगा। यह दिन कब आएगा,इसका हमें इन्तजार करना होगा।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-94116840
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