यात्रा

हर्षिल: एक स्वर्गिक अनुभूति

छाया: डॉ. अनुज कुमार सिंह

डॉ. अनुज कुमार सिंह सिकरवार

एवं डॉ. मधूलिका सिंह

छाया: डॉ. अनुज कुमार सिंह

काफी वक्त हो गया था और समझ मेंनहीं आ रहा था कि कहां घूमने के लिए जाए। इससे पहले भी कई बार यात्रा का कार्यक्रम बना था लेकिन हमेशा किसी न किसी कारण के जा नहीं सके। लेकिन इस बार तो सोच ही लिया था कि जाना है। लेकिन समझ में नहीं आ आ रहा था कि कहां जाए। इन्टरनेट के माध्यम से कई जगह सर्च किया। लेकिन मैं भीड़-भाड़ से दूर किसी एकान्त जहां ज्यादा पर्यटक न आते हो वहंा जाना चाहता था। काफी सर्च करने के बाद मुझे हरसिल का नाम दिखाई दिया। ये नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना था इस नाम का भी कोई पर्यटन स्थल है। हरसिल के बारे में पढ़ने के बाद पता चला कि ये गंगोत्री से करीब 30 तीस किलोमीटर पहले पड़ता है और कैन्ट एरिया है। चीन बार्डर नजदीक होने के कारण काफी संवेदनशील क्षेत्र है। यहां पर ज्यादा पर्यटक भी नहीं पहुंचते है बहुत कम ही लोगों को इसका पता है। मैंने भी कई लोगों से इसके बारे मंे चर्चा कि लेकिन किसी को इस जगह के बारे में पता नहीं था।

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हमारे जीवन में खुशियों को भरने के लिए फूलों को बहुत महत्व है और यहां हिमालय के तलहटी में फैले दूर-दूर तक फैली फूलों की घाटियां है, जहां पर भिन्न-भिन्न प्रकार के मनमोहक फूलों की चादर बिछी हुई मिल जाएगी। शहरी भाग-दौर से दूर प्रकृति के साये में दिन गुजराने का आनन्द की कुछ और होता है। हर्षिल की घाटियों में जहां पर फूलों से रूबरू हो रहे होंगे, वहीं यहां के नदी-नालों, झरनों, जल प्रपातों, बर्फ से ढके पहाड़ों को निहारने का अवसर भी हमें मिलेगा। इन्हीं सभी खूबियों को जानकर हमनें इस जगह जाने का निश्चय कर लिया। इसके बाद जाने का दिन निर्धारित करना था कि कब जाऐं। जून माह के दूसरे शनिवार को कार्यक्रम बनाने की कोशिक की लेकिन बात बनी नहीं। इसके बाद अगले हफ्ते में देखा तो शनिवार की ईद होने के कारण छुट्टी का दिन है उसके बाद रविवार है। तो फिर क्या था हमने दो दिन की और छुट्टी ले ली। तय कार्यक्रम के अनुसार मैं अपने आफिस से जल्दी निकलकर सीधे आई.एस.बी.टी. पर पहुंचना था जहां से शाम पांच बजे ऋषिकेश के लिए बस पकड़नी थी। अपने ऑफिस से दोपहर 3 बजे निकलकर सीधे आई.एस.बी.टी. 4 बजे पहुंच गया। वहां देखा तो ऋषिकेश जाने के लिए उत्तराखण्ड डिपो की बस खड़ी थी वह पंाच बजे से चलकर अगली सुबह 5 बजे ही उसको पहुंचना था। मैंने अपनी पत्नी को बोल दिया था कि मैं टेढ़ी बगिया जहां से हमारा घर पास पड़ता है वहीं अपनी पत्नी को बुला लिया। उन्हें सारा सामान लेकर अकेले आना था। वो भी इतनी दोपहर में। आई.एस.बी.टी से जब बस चली मैंने तब फोन करके बता दिया कि बस आधे घन्टे में पहुंच जाएगी। लेकिन उन्होंने अपनी हिम्मत से अकेले सारा सामान लेकर बस स्टाप पर निर्धारित समय पर पहुंच गई। सफर काफी लम्बा था और हमें पता भी नहीं था कि हम कब पहुंचेगे। लेकिन सोचा था शायद दोपहर तक हरसिल पहुंच जाएंेगे।

 

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आगरा में उस समय गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी, तापमान 45-46 डिग्री सेल्सियस चल रहा था। यहां से अलीगढ़ पहुंचने बस ने आठ बजा दिये। इसके बाद वहां करीब डेढ घन्टे रूकने के बाद साढ़े नौ बजे अलीगढ़ से ऋषिकेश के लिए चली। वहंा से साढे़ पांच बजे हरसिल के लिए बस थी। लेकिन अलीगढ़ से चलने के बाद हापुड़ और हरिद्वार में काफी जाम मिला। हरिद्वार में बहुत तेज बारिश भी हो रही थी। इसलिए बस छह बजे के करीब ऋषिकेश पहुुंची और तब तक गंगोत्री वाली बस निकल चुकी थी। बस स्टेंड पर पता किया किया तो पता चला कि अगली बस हरिद्वार से आने वाली थी कि उसमें सीट मिलेगी कि नहीं, यह कोई बता नहीं रहा था। अब परेशान होना लाजमी था कि अब क्या करें। तभी एक बस कडक्टर मेरे पास आया कि और बोला मैं यमुनोत्री बस लेकर जा रहा हूं आप मेरे साथ धरासू बैन्ड तक आप चल सकते हैं, वहां से उत्तरकाशी लगभग 30 किलोमीटर है। आपको धरासू बैन्ड से आपको उत्तरकाशी के लिए बस मिल जाएगी और उत्तरकाशी से गंगोत्री वाली बस में आप बैठ जाना, जो आपको हरसिल तक छोड़ देगी। मैंने इन्टरनेट खोलकर देखा तो पता चला कि धरासू बैन्ड से हरसिल की दूरी लगभग 100 किलोमीटर थी। अब इस बस में बैठने के अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं था। फिर हम इसी बस में सवार हो गये। बस लगभग सुबह सवा सात बजे चली। सबसे पहले नरेद्र नगर से होते हुए हिन्डोलाखाल, आगराखाल होते हुए चम्बा पहुंचे। चम्बा से उत्तरकाशी रोड पर हडमकोट, कोटीगाड, डाबरी, काण्डीखाल, कमान्द और धरासु बैंन्ड पर हमारी बस ने पहुंचा दिया। यहां से उत्तरकाशी के लिए दूसरी बस मिल गइर्,ं जिसने हमें उत्तरकाशी एक घन्टे में पहुंचा दिया। उत्तरकाशी से गंगोत्री जाने वाली बस जो कि आखिरी बस थी उत्तरकाशी से हमें मिल गई, नहीं तो रात उत्तरकाशी में ही बितानी पड़ती। उत्तरकाशी से जब

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निकले तब तक मौसम में ज्यादा बदलाव देखने को नहीं मिला। लेकिन उसके बाद तो नजारे काफी बदले हुए थे। बहुत ऊंचे-ऊंचे पहाड़ जिन पर हरियाली छाई हुई थी। चीड़ और देवदार के पेड़ एक कतार में लग रहे थे जैसे किसी ने एक करिने से एक माला में गूंथ दिया हो। गंगा नदी तो ऐसे लग रही थी मानो हमंे रास्ता बता रही हो। पानी बिल्कुल आईने की तरह साफ-स्वच्छ था एवं उसका प्रवाह बहुत तेज था। कहीं -कहीं पहाड़ों से झरने बह रहे थे। हमारी बस नेताल और गुरनानी होते हुए हरसिल शाम को पहुंची। बस वाले ने हमको कन्टोनमेन्ट गेट पर छोड़ दिया। बिल्कुल सुनसान सड़क थी। कुछ सैनिक उधर-टहल रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों यहां कुछ भी नहीं है। समझ में नहीं आ रहा था कि हम कहंा पहुंच गए। एक सिपाही से पूछने पर उसके बताया कि उन्होंने कहा कि आगे लगभग आधा किलोमीटर आगे होटल मिल जाऐंगे। हम भी उसी रोड पर आगे बढ़ गए। कुछ ही देर में हम मार्केट में पहुंच गए। मार्केट के नाम पर वहां मुश्किल से 8 या 10 दुकाने थीं और होटल भी मुश्किल से सात-आठ ही होंगे। वो भी अधिकतर तो अस्त-व्यस्त और गन्दे थे। एक तो रात हो रही थी और अनजान जगह में मुझे और मधुलिका को अब लग रहा था जल्दी से ठीक-ठीक कमरा मिल जाए। बमुश्किल एक साफ-सुथरा कमरा हमें मिल गया। यहां होटलों में टी.वी. नहीं थी। आठ बज चुके थे। हमने उसी होटल वाले को खाने के लिए बोल दिया था। चौबीस घन्टे से अधिक यात्रा में समय हम बीता चुके थे। बहुत थक चुके थे। इसलिए जल्दी गरम पानी से नहा कर खाना खाने चल दिये। जब खाना खाया तो उसमें कोई स्वाद ही नहीं था। लेकिन भूख लग रही थी। इसलिए जल्द खाना खाकर सोने के लिए चले गए। सुबह लगभग 6 बजे हम हमारी आखें खुल गई। यहां पर एक बात खास देखी कई जगह पहाड़ों से जल प्रपात के रूप में बह रह रहा है जो एक अलग ही खूबसूरती व कौतूहल अनायास ही पैदा हो रहा था। देखा तो नीचे गंगा मैया कल-कल कलरव करती हुई बह रही थी। पहाड़ों पर जमी बर्फ साफ चमक रही थी। मानों अभी उनको दूध से नहलाया हो। सुबह उठ कर हरसिल की मुख्य सड़क पर आए तो कुछ चरवाहे उत्तरकाशी जा रहे थे। उनसे बातचीत के दौरान पता चला कि हिमाचल से यहंा पर भेड़-बकरी को लेकर आते है, क्योंकि यहां पर हरे घास के मैदान बहुतायत में है। उनसे पता चला कि उनकी रिश्तेदारी हरसिल गांव में है उन्हीं रिश्तेदारों के यहां 3-4 महीने रूकते हैं। उसके बाद वह किन्नौर चले जाते हैं। इसके बाद हम हरसिल के ऊपर एक पहाड़ी गांव में गये जहां ं सेब का बाग थे। हमें बाग देखने की तीव्र इच्छा हुई। लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय करके हम ऊपर गांव में पहुंचे। वहंा पर टहलते हुए एक सेब के बाग में कुछ महिलाऐं व पुरूष खेत में काम कर रहे थे। उनके पास हम गए और बाग के बारे में जानकारी ली। वे काफी मिलनसार व खुशमिजाज थे। उनका नाम श्री जगवीर सिंह नेगी था। बातचीत के दौरान बताया कि वह छह माह उत्तरकाशी रहते है। बाग में जब सेब लगते हैं तब वह गांव में आ जाते हैं नहीं तो चौकीदार इसकी देखभाल करता है। उनके खेत में सेब के अलावा यहां का मशहूर राजमा, जो हरसिल राजमा के नाम से पूरे देश में प्रसिद्ध है उसके भी काफी पौधे दिखाई दिये। इसके अलावा आलू, प्याज, आडू इत्यादि वृक्ष भी थे। उनके बाग को देखने के बाद वह हमें अपने घर चाय पर आमंत्रित किया। हम उनके इस अपनत्व एवं आत्मियता को देखकर हम अभिभूत हो गये। उनके यहां से आने के बाद हम नीचे अपने होटल में पहुंच कर नहाने के लिए चले गए। इसके बाद देखा तो बाहर बारिश काफी तेज हो रही थी। एक घन्टे के बाद कुछ बारिश थोड़ा कम कम हुई। हमने सोचा पास में ही बगोरी गांव है आज इसी को घूम लेते हैं। बारिश हल्की-हल्की हो रही थी। एक होटल पर चाय पीकर हम बगोरी गांव का भ्रमण करने के लिए निकल पड़े। सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि यह इस गांव तक पहुंचने के लिए आपको सात पुल पार करने पड़ने है जो अपने आप में एक रोमांचक अनुभव था। गांव बहुत सुन्दर एवं स्वप्नलोक जैसा अहसास करा रहा था। यहां लगभग सभी घर लकड़ी के बने हुए थे। इन घरों को देखकर लगता है कि अपने आप एक अलग ही दुनिया में आ गये हैं। सबसे पहले गांव में घुसने पर विल्सन हाउस दिखाई देता ह,ै जो कि अंग्रेज विल्सन को यहां की सुन्दरता इतनी भा गई थी कि वह यही के वासी हो गये। यही पर उन्होंने अपना आशियाना बनाया लिया। यही पर वह इग्लैंड से सेब की एक प्रजाति लेकर आए, जिसे जो आज भी विल्सन सेब के नाम से मशहूर है। आगे चलने पर देखा कि

दूर-दूर से गांव में लोगों की भीड़ जमा हो रही है पता करने पर पता चला कि वहां पर कई दिनों से माता का सत्संग का कार्यक्रम चल रहा है। देखकर आश्चर्य हुआ कि न केवल पूरा गांव बल्कि आस-पास के कई किलोमीटर दूर से तक के गांव वाले वहंा पर इकट्ठा हो रहे थे। देखकर सुखद लगा आज भी लोगों में इतनी श्रद्धा है। जब हम गांव में गये पूरा गांव लगभग खाली हो चुका था वह सभी सत्संग में चले गये थे। आगे चलने पर एक बौद्ध मन्दिर भी देखने को मिला जो कि काफी सुन्दर था। यहां के घर लकड़ी के दोमंजिले बने हुए थे जो अपने आप में अलग ही दुनिया का निर्माण कर रहे थे। गांव काफी साफ-सुथरा था। अन्त में माता जी का मन्दिर दिखाई दिया उसके अन्दर हम गए वहां पर उसी सत्संग के लिए प्रसाद का निर्माण चल रहा था एवं हवन का कार्यक्रम तभी खत्म हुआ था। कई गांव वाले वहां पर अलग-अलग काम को सम्भाल रहे थे। हमारे वहंा पहुंचने पर उन्होंने हमें प्रसाद का भोग दिया तथा बारिश भी हो रही थी तो हम वही मन्दिर में बैठ गए। वहंा ग्रामीणों से हरसिल के बारे में हम उनसे चर्चा करने लगे। उन्होंने बताया कि यहंा जाड़ों में यहां बर्फ पड़ने के कारण गांव में यहां कोई रहता नहीं है सिर्फ एक चौकीदार यहंा रहता है। यहां के लोगों में हर एक घर से कोई न कोई सरकारी नौकरी में भी कार्यरत है। यहां पर हर घर में सेब, आडू और राजमा की खेती हर घर में दिखाई देती हैं। यहां आकर हमें ं लगा ही नहीं किसी हम घर से इतनी दूर बैठे हुए है। ऐसा लगा मानों यही घर में ही टहल रहे हैं।
इसके बाद हम वापस लौटकर होटल आ गये जाकर सो गये। शाम को 6 बजे के करीब फिर निकले टहलने के लिए। आप-पास की पहाड़ियों पर गये। इसके बाद हरसिल का लोकप्रिय पोस्ट आफिस पर भी गये जहां पर राम तेरी गंगा मैली की शूटिंग हुई थी। आस-पास के बाजारों की सैर को गये और फिर आकर होटल पर खाना खाकर सो गये। अगले दिन हमें जल्दी उठकर हमें गंगोत्री भी जाना था और उसी दिन वापस ऋषिकेश आकर रूकना था। सो हम खाना खाकर जल्दी सोने चले गये। सुबह 4 बजे हम उठ गये। नह-धोकर पांच बजे हरसिल से विदा लेकर हम गंगोत्री के लिए 5 बजे बस का इन्तजार करने लगे। तभी हमें पता चला कि बस 11 बजे से पहले नहीं मिलेगी क्योंकि जो बस भी आएगी वो उत्तरकाशी से आएगी। यहंा आने पहली बस का भी 3 -4 घन्टे तो लग ही जाने है। प्राइवेट टूरिस्ट गाड़ी को बहुत चल रही थी लेकिन पूरी तरह से बुक थी सो हमें जगह नहीं मिल पा रही थी। फिर सोचा चलो यहंा बैठने से अच्छा है कि पैदल ही चले। फिर क्या था बैग टांगकर चल पड़े। कुछ एक किलोमीटर चलने पर एक कार हमारे पास आकर रूकी। राजस्थान का गाडी का नम्बर था। वो भी गंगोत्री जा रहे थे दो लोग थे। हमें उन्होंने लिफ्ट दे दी। लगभग एक घन्टे के बाद हम लोग गंगोत्री पहुंच गये। सात बजे के करीब में गंगोत्री में थे। इसके बाद गंगोत्री में नहाने के लिए जल को हाथ लगाया तो पानी इतना ठन्डा था कि हाथ सुन्न हो गये। नहाने की इच्छा तो बिल्कुल खत्म हो गई। ये जल तो बर्फ से भी ज्यादा ठण्डा हो रहा था। लेकिन भाई जब इतनी दूर आए है तो गंगोत्री में नहाना तो बनता ही है। नदी का बहाव बहुत तेज था। इसलिए डुबकी तो लगा नहीं सकते थे। अपना एक गिलास निकाला और अपने ऊपर डालना शुरू कर दिया। मुश्किल से आठ-दस गिलास के बाद हिम्मत ही नहीं हुई पानी डालने की। पूरा शरीर सुन्न हो गया। जल्दी से गीले कपड़े उताकर दूसरे कपड़े पहने। नहाने के बाद गंगोत्री मंन्दिर में गये।
गंगोत्री गंगा मैया का उद्गम स्थान है। गंगाजी का मन्दिर, समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी नदी के परिवेश अत्यन्त आकर्षक एवं मनोहारी है। यह स्थान उत्तरकाशी 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गंगोत्री मन्दिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा 18वीं शताब्दी में किया गया था। वर्तमान मन्दिर का पुनःनिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया। प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनों के बीच गंगोत्री के दर्शन करने के लिए लाखों श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां पर आते हैं। अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर ये खुलता है एवं दीपावली के दिन मन्दिर के कपाट बन्द हो जाते हैं। इसके साथ गंगा मैया की मूर्ति को मुखवा गांव के मन्दिर में दीपावली वाले दिन बड़े हर्षोल्लास से लाकर यहां स्थापित की जाती है। इसी जगह 6 महीनों तो यही पर पूजा होती है जब तक बसन्त ऋतु का आगमन नहीं होता है। गंगोत्री से आगे 19 किलोमीटर की दूरी पर गौमुख स्थित है जो गंगा जी का उद्गम स्थल है। यहां की यात्रा आपको पैदल की करनी पड़ती है तथा इसके लिए पहले उत्तरकाशी से स्वीकृति प्राप्त करनी होती है।

इसके बाद हमको बहुत भूख लग रही थी क्योंकि सुबह से कुछ भी खाकर नहीं चले थ,े वही पर हमने रेस्टोरेन्ट में आलू के पराठे और चाय का हमने स्वाद लिया। इसके उपरान्त हमने उत्तरकाशी के लिए बस को खोजना शुरू किया, लेकिन बस का पता किया तो पता चला कि बस तो दो या ढाई बजे मिलेगी, वो भी उत्तरकाशी की। शाम तक तो केवल उत्तरकाशी ही पहुंच सकते थे। एक-दो घन्टे तक इन्तजार करने के बाद एक टैक्सी वाले से बात की उसकी दो सीट खाली थी। लगभग 11 बजे हम गंगोत्री से उत्तरकाशी से चले। इसी दौरान हमें पता चला कि उत्तरकाशी से ऋषिकेश के अन्तिम बस साढ़े तीन बजे निकल जाती है। यानी अब मुश्किल लग रहा था कि हम इस बस को पकड़ पायेंगे। टैक्सी ने लगभग 4 बजे हमें उत्तरकाशी पहुंचा दिया। टैक्सी से उतरकर सोचा कि अगर कोई टैक्सी बुक भी करते हैं तो भी करीब रात 10 बजे पहले तो हम ़ऋषिकेश नहीं पहुंच पायेंगे और अगर सुबह जल्दी निकले तो भी सुबह 11 बजे बजे तक तो हम आराम से पहुंच जायेंगे। इसलिए तय किया कि आज रात उत्तरकाशी में रूकेंगे। बस स्टैंड के सामने ही बिड़ला धर्मशाला दिखाई दी, उसी में हम लोग चले गये। धर्मशाला कहने को ही थी वो किसी होटल से कम न थी। बहुत साफ-सुथरी थी। हम काफी थके चुके थे। कमरा लेने के बाद एक-डेढ़ घन्टे आराम किया। उसके बाद नहाकर उत्तरकाशी के बारे में घूमने निकल पड़े। यहां पर एक-दो मन्दिर है। शाम को इन्ही मन्दिरों में हमने घूमा तथा बस के बारे में पता कर लिया। बस की जानकारी करने पर पता चला कि कल सुबह पहली बस ऋषिकेश के लिए 6 बजे निकलेगी और उसकी बुकिंग अभी शुरू हुई थी। हमने दो सीट अपनी बुक कर ली। हम लोग इसके बाद हम विश्वनाथ मन्दिर में गये, जो कि बस स्टैंण्ड लगभग 300 मीटर की दूरी पर स्थित है। इस मन्दिर की स्थापना परशुराम जी द्वारा की गई एवं महारानी कान्ति ने 1857 ई. में इस मन्दिर की मरम्मत करवायी। महारानी कान्ति सुदर्शन शाह की पत्नी थी। इस मन्दिर में एक शिवलिंग स्थापित है। यह उत्तरकाशी का प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है।
इसके बाद हम विश्वनाथ मन्दिर के दायी ओर शक्ति मन्दिर है। इस मन्दिर में 6 मीटर ऊँचा तथा 90 सेन्टीमीटर परिधि वाला त्रिशूल है। इस त्रिशूल का ऊपरी भाग लोहे का तथा निचला भाग तांबे का है। यहंा की पौराणिक जानकारी के अनुसार देवी दुर्गा ने इसी त्रिशूल से दानवों को मारा था। इसके बाद तभी से शक्ति मन्दिर की स्थापना की गई। इन दोनों मन्दिरों को देखकर हमने खाना खाने के लिए होटल में गये। खाना काफी अच्छा था। इसके बाद वापस बिड़ला धर्मशाला में आ गए। सुबह 4 बजे हमारी आंख खुल गई। नहाने के बाद लगभग 6 बजे हम बस स्टैंन्ड पर आ गए। वहंा चाय पीकर बस में बैठ गए। बस ने लगभग 11 बजे हमें ऋषिकेश पहुंचा दिया। इसके बाद हमारा मन राफ्टिंग करने का था। बस स्टैंन्ड बाहर निकलकर पता किया तो पता चला कि इसका कोई फिक्स रेट नहीं जितने पर सौदा पट जाए। हमने तीन-चार जगह पता किया तो पता चला कोई 500 रूपये प्रति व्यक्ति, कोई 600 रूपये व्यक्ति। अन्त मंे हमने 400 रूपये प्रति व्यक्ति में मिल गया। हमें बताया गया ढाई से तीन घन्टे का समय लगेगा राफ्टिंग में। राफ्टिंग के लिए हमें ऋषिकेश से 12-13 किलोमीटर ऊपर ले जाया गया। राफ्टिंग शुरू करने से पहले सुरक्षा के लिए जैकेट, हेलमेट पहनाया जाता है। आजकल 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए राफ्टिंग की अनुमति नहीं है। इसलिए बहुत से पर्यटकों को मायूस लौटना पडा। राफ्टिंग के लिए वह अपनी जीप में बैठा कर ऋषिकेश से ब्रहमपुरी की ओर ले गये। वहां से राफ्टिंग मेें सुरक्षा के उपयोग किया जाने वाली जैकेट, हेलमेट को अपनाया गया तथा एक चप्पू भी दिया है। राफ्टिंग के लिए जब गंगा में उतरे तो शुरूआत में तो काफी डर लग रहा है। नदी बहाव काफी तेज मिला, नाव भी लहरों के साथ जब बार-बार ऊपर-नीचे हो रही थी तो डर लगना तो लाजमी था। राफ्टिंग हमारे लिए रोमांचकारी अनुभवन था जो कि ऊँची-नीची लहरों से एक छोटी सी नाव में जूझना भी एक अलग तरह का अनूठा अनुभव है। बड़ी-बड़ी लहरे जब वेग के साथ हमारी ओर आती थी, तो कुछ क्षणों के लिए सब कुछ भूल जा रहे थे। राफ्टिंग पूरी करने पर उस जीत की जो खुशी होती है, उसका वर्णन शब्दों में करना असम्भव ही है। इसके बाद यहंा से प्रसिद्ध रेस्टोरेन्ट चोटीवाला में लंच किया तथा शाम को आगरा के लिए पकड़ कर घर वापस आ गये।
इस यात्रा में हमें बहुत से अनुभव हुए। पहाड़ों में रह रह लोगों की जीवन शैली, उनके लोगों के प्रति आतिथ्य सत्कार की भावना देखकर बहुत सुखद लगा जो कि हम इसको शब्दों में बयां नहीं कर सकते। आजकल जब हम शहरांें की भागदौड़ वाली जीवनशैली हमें पता ही नहीं चलता है कि कब सूर्योदय हो जाता है तथा कब सूर्यास्त। वही पहाड़ों की ठहरी और अलसायी हुई सुबह आपको मंत्र मुग्ध और तरोताजा कर देती है और हर्षिल इस मायनों में भी अलग था कि जैसे किसी चित्रकार ने या बचपन पर हम अपनी ड्राइंग कापी में जैसी सिनरी बनाते थे वही हर्षिल में सजीव हो रहा था। जिसका वर्णन कर पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है।

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Rekha Singh

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